स्त्री तुम हो जानकी
धरती के गर्भ से,
श्रम के हल से, निकली,
रूप लेती मानवी.
स्त्री तुम हो जानकी सी मानवी.
तुम जबसे आयी जग में
मर्यादाएं होती निर्धारित तेरे लिए,
बचपन में गुड़ियों संग,
उसके बाद सखियों संग
फिर पति संग,
तत्पश्चात बच्चों संग,
जीवन भर धाराओं में बंटी-बंटी,
बहती रही निर्झर जाह्नवी,
स्त्री तुम हो जानकी सी मानवी
तूने बांटी खुशियां सारी,
घर-आँगन, जन-जन,
समेटे अपने सपने क्षण-क्षण,
तू कंचन की नहीं करती अभिलाषा,
फिर न कहीं हर ले
कोई रावण.
तू आंसुओं की नीर, बहता निर्झर,
और जीवन तेरा एकांत,
पहरों में घिरा अशोक-वन.
तुझे देनी है अग्नि परीक्षा
जीवन में पल-पल, क्षण-क्षण.
पर तू शक्ति - स्वरूपा हो ,
भरती रही उत्साह नयी,
तुम हो जानकी सी मानवी.
--ब्रजेन्द्र नाथ मिश्र.
जमशेदपुर|
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