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Monday, April 21, 2014

लोकसभा चुनावों के बाद क्या अपेक्षाएं हैं निकट भविष्य में?

लोकसभा चुनावों के बाद क्या अपेक्षाएं हैं निकट भविष्य में ?
लोकसभा चुनाव की गहमागहमी और शोर गुल के खत्म हो जाने के बाद का माहौल कुछ ऐसा होता है। मेरी लिखी कविता की कुछ पंक्तियाँ  ....
नेताजी की चली गयी गाड़ी,
जनता छूट गयी पीछे बेचारी .
प्रचार का अंत , ठंढी होती बयार है,
पीछे उड़ रहा गुबार ही ग़ुबार है।
अब दर्शन होंगे पांच वर्ष बाद ,
बाई बाई गुड बाई, धन्यवाद - धन्यवाद।
इसी तरह हमें सहयोग देते रहे,
आप दिन काटे, हम मलाई काटते रहें।
दलतंत्र चढ़ गया प्रजातंत्र की नाव है,
चुनाव ही चुनाव है।

चुनाव में किसी संसदीय क्षेत्र से  किसी किसी उम्मीदवार की जीत होती है।  जीता हुआ उम्मीदवार ,
) किसी राष्ट्रीय दल का उम्मीदवार होता है, किसी क्षेत्रीय दल का उम्मीदवार होता हैया ) निर्दलीय उम्मीदवार होता है। 
संसद में जाने पर उपरोक्त तीनो तरह के सांसदों के अलग अलग परिश्थितियों में अलग - अलग रोल होते हैं जिनमें तत्काल का राजनीतिक एजेंडा , शार्ट टर्म और लॉन्ग टर्म पर्सनल एजेंडा और आगे की संसद और देश की परिश्थितियों पर नज़र रखते हुए तय एजेंडा होता है। 
इन सारे अजेण्डाओं के बीच में अपने क्षेत्र की जनता से किये हुए वादे का एजेंडा कहाँ फिट होता है यह देखने वाली  बात होगी , भविष्य में।
संसद में चुनकर आये प्रतिनिधियों के द्वारा नयी संसद के गठन का कार्यक्रम शुरू हो जाता है।  इसमें किस राष्ट्रीय दल , दलों के गठबंधन और गठबंधन रहित दलों के गणितीय आंकड़े सत्ता के गलियारे तक के राश्ते की ओर ले जाने वाले होते हैं , यह चुने हुए प्रतिनिधियों की संख्या और उनकी दलों और समूहों के प्रति निष्ठां पर निर्भर करता है।  सत्ता तक पहुँचाने के लिए जादुई आंकड़े जताने का खेल शुरू हो जाता है।  अगर गठबंधन वाले दलों को कुछ ही संख्या से पूर्ण बहुमत प्राप्त करने में कसर रह जाता है तो फिर छोटे क्षेत्रीय   दलों  तथा निर्दलीयों  के वारे - न्यारे  होने  की संभावना प्रबल हो जाती  है।  इस जोड़ - तोड़ में उनका मोहरा सबसे बड़ा रोल प्ले करने वाला जाता है।  इसीमे मंत्री - पदों , सत्ता के अन्य पदों जैसे सरकारी कार्पोरेशन आदि में भागीदारी तथा पैसों का लेन - देन तक किया जाता है।  पैसों के स्थांतरण में धन - कुबेरों का भी रोल होता जो ऐसे कार्यों का फंडिंग करते हैं।  बाद में वे अपने अनुरूप बिल पास करवाकर अधिक मुनाफा कमाने के लिए अपनी परोक्ष और छद्म चाल चल रहे होते हैं। 
   राष्ट्रीय दलों और बड़े दलों के मैनिफेस्टो बनाने में किया गए कागज़ी   और मस्तिष्कीय व्यायाम धरे - के धरे रह जाते हैं।  सिर्फ एक ही लक्ष्य सामने होता है-- सिद्धांतों,  वादों, नीयतों और इरादों की कितनी बार बलि दी जाय, कितना तराशा , काटा - छांटा   और छोटा किया जाय ताकि सत्ता प्राप्त करने में कोई कोर – कसर न रहे।  हम पिछली लोकसभाओं में ऐसी कवायतों के चश्मदीद रहे हैं।  इस बार के संसद में चयनित उम्मीदवारों द्वारा कोई बेहतर चारित्रिक रुझान का दर्शन हो सकेगा , इसकी संभावना  कम ही है।  ऐसे समय में सत्ता के शीर्ष पर बैठे नेतृत्व पर निर्भर करेगा की सांसदोंको कैसी दिशा  दें ताकि सदन की मर्यादा बनी रहे।  साथ ही सत्ता प्राप्ति के जोड़ - तोड़ में सिधान्तो और नीतियों की कीमत एक सीमा से अधिक नहीं गिराई जाय। इसमें राष्ट्रीय मुद्दों, मसलन सर्वांगीण विकाश , भ्रष्टाचार मुक्ति , नौकरियों का सृजन , और राष्ट्रीय गौरव और अस्मिता  के उच्च आदर्शों की प्राप्ति जिनपर इसबार का चुनाव केंद्रित था , का निरंतर प्रयास हो।
  इस लोकसभा के गठन में दलों के गणितीय आंकड़ों की तश्वीर साफ़ हो जाने के बाद सत्ता के कैसे समीकरण बनते हैं , इसपर निर्भर करेगा कि जनता की अपेक्षाओं पर यह लोकसभा कितनी खरी उतरती है।  जनता की अपेक्षाओं में कोई विरोधाभास नहीं है।  चुनौतियां साफ़ हैं , परिश्थितियां भी किसी से छिपी नहीं है। 
राष्टीय स्तर पर अपेक्षाएं :
राष्ट्रीय स्तर पर आधारभूत सुविधाओं के लिए आवश्यक संरचना का विकास   प्राथमिकताओं में सबसे ऊपर है।  इसमें वर्तमान रेल , रोड में सुरक्षा का पुख्ता इंतजाम के साथ पूरे देश में रेल और रोड लिंक का जाल बिछाया जाना शामिल है। विमान - सेवा भी हर जगह उपलब्ध हो।  इसके लिए विमान - पट्टियों का निर्माण जरूरी है।  साथ ही विमान सेवा की दरें ऐसी हो जिससे आम आदमी भी अगर हमेशा न सही किन्तु विशेष परिस्थितियों में उसका उपयोग कर सके।  अगर गुड गवर्नेंस को इसमें मिलाया जाय तो इन सबों के विकाश के मद में आवंटित राशि का पूरा उपयोग उसी में होना चाहिय।  इसके लिए अभी तक की प्रचलित पद्धति में ठीकेदार , अफसर, मंत्री के स्तर पर आवंटित राशि के अनावश्यक लीकेज को बंद करना जरूरी होगा।  क्या ऐसा सम्भव है? जो निर्वाचित प्रतिनिधि करोडो खर्च कर चुनाव जीत कर आया है , उससे वित्तीय रिसाव की इस परिपाटी को बदल दिए जाने की अपेक्षा करना बेमानी है।  चाहे कोई भी सरकार आये , किसी भी दल का सत्ता पर अधिकार हो , इस स्थिति में अंशतः भी सुधार लाना नामुमकिन है। वास्तव में क्या सम्भव है? जनता के सामने बहुत ही कम खुले विकल्प हैं।   सभी विकल्पों को अगर देखा जाय तो  आम आदमी इसी में बेईमानी की केटेगरी तय कर सकता है , जैसे यह आदमी या दल कम बेईमान है , इसलिए इससे अपेक्षाओं की पूर्ती किसी हद तक अधिक प्रतिशत में हो सकती  है। ऐसे ही आधारभूत संरचनाओं के विकास के तहत नए - नए शहरों के निर्माण की भी परिकल्पना राष्ट्रीय दल के मैनिफेस्टो में की गयी है।  ये शहर विकाश के न्यूक्लियस होंगे जिनके चारो तरफ विकास का महल खड़ा कर अधिक नौकरियों के सृजन की परिकल्पना को धरातल पर उतारा जाएगा ।  आज तक गावों  की  कीमत पर शहरों का विकास होता रहा है।  शहर आधारित गावों का विकास या गावों  आधारित शहर का विकास , इनमें किस मॉडल को अपनानायेजाने की जरूरत है , यह तय करना होगा।  अभी तक गावों के कम विकास के कारण गावों से लोगों का पलायन शहरों की और होता रहा है।  इसी वजह से शहरों के अनियोजित ,  अनपेक्षित , बेतरतीव विकास  और  आवश्यक सुविधाओं की कमी तथा सुविधाओं की उपलब्धता पर अनावस्यक दबाव देखा जा रहा है।  शहरों में स्लम्स का फैलता दायरा इसीका परिणाम है।  इस असंतुलित विकास के कारकों पर विराम लगन पड़ेगा . धरा जो उल्टी बाह रही है उसे उलटकर सीधा करना होगा। इसे कर पाने की नीयत और प्रतिबद्धता किसी भी दल या ब्यक्ति में अभी दिखाई नहीं दे रही है। 

गावों के विकास की संभावनाएं :
राष्ट्रीय स्तर पर गावों के विकास की कोई ठोस नीति नहीं है।  गावों कैसे स्वावलम्बी हो कि वहां से लोगों का शहरों की और पलायन रुके।  गावों के किसान , मज़दूरों की हालत में कैसे सुधर लाया जय ताकि सबों को हमेशा काम मिले।  इसके लिए खेती की स्थिति में मूलभूत सुधार की आवश्यकता है।  सभी खेतों के लिए पानी की जरूरत की अनिवार्यता को स्वीकारना होगा। इसके लिए अगर राष्ट्रीय स्तर पर नदियों को जोड़ने जरूरत हो तो उसे युद्ध स्तर पर पूरा करना होगा।  साथ ही गावों में उत्पादित वस्तुओं की उचित मूल्य पर बिक्री भी सरकार की राष्ट्रीय नीति का मुख्य मुद्दा होना चाहिए।  गावों का किसान ही एक ऐसा बेचारा होता है जो अपने द्वारा उत्पादित वस्तुओं का मूल्य वह खुद नहीं तय करता।  उसका मूल्य ब्यापारी और बाजार तय करता है।  इसके कारन जब कोई फसल कटती है और वह बाजार में आती है उससमय उसका मूल्य सबसे काम होता है।  यानी ब्यापारी उसे काम दामों पर लेकर उसका भण्डारण कर कुछ दिनों बाद उसे ऊँचे मूल्य पर बेच कर मुनाफा कमाता है।  सरकार के द्वारा उदपादित वस्तुओं के भण्डारण की कोई उचित नीति नही है जिसके कारन सकरी गोदमोंब में पड़ा अन्न भी साद जाता है।  और जरूरत पड़ने पर सरकारें उन वस्तुओं का आयात कर उपलब्धता बढाने की कोशिश करती रही है।  गावों में उत्पादित वस्तुओं के भण्डारण गाओं में ही किसान कोआपरेटिव बनाकर किया जा सकता है।  सरकार इसमें मददगार साबित हो सकती है। 
गावों में हर घर में शौचालय की ब्यवस्था, चिकित्सा सुविधा की उपलब्धता, पीने के पानी की पर्याप्तता, स्कूल, कॉलेज की ब्यवस्था गावों के समेकित विकास के लिए जरूरी है। शिक्षण ब्यवस्था में ऐसे पैरामीटर हों तथा ऐसे प्रेरक तत्व हों जिससे वहां से शिक्षित युवक और युवतियां गावों के विकास के लिए कार्य करने को उत्सुक हों। वे प्रेरणा के  श्रोत बने, अपने लिए और आगे आनेवाली पीढ़ी के लिए भी, ताकि स्वावलम्बी गावों की परिकल्पना को धरती पर उतरा जा सके।
      वास्तविकता क्या है?  आज की परिश्थिति में चुनावी  माहौल ने ही पूरे समाज, जिसमे गावों का समाज भी शामिल है , को जाती , धर्म , संप्रदाय , मज़दूर,  किसान आदि वर्गों में इसतरह बांटा है कि वहां की समरसता की धारा सूखती - सी दिखाई दे रही है।  जहाँ एक - दूसरे से सहयोग हुआ करता था , वहां एक - दूसरे के प्रति ईर्षा और घृणा का भाव पनप रहा है , जहाँ का कारोबार और  सरोकार एक - दूसरे के परस्पर मिले हाथों के सहकार द्वारा संपन्न होता था , वहां एक - दूसरे के विरुद्ध उठे हुए हाथ नज़र आएंगे।  ऐसा यहाँ की प्रचलित राजनीतिक ब्यवस्था के नैतिक क्षरण के कारण हुआ है।  इसकी धारा को उलटने शक्ति आज के चुने हुए किसी प्रतिनिधि या दल में कतई  नहीं है। वे क्या कर सकते है ?  वे सिर्फ इतना कर दे , की गावों तक सड़कें , बिजली , सिंचाई के साधन , स्वास्थ्य और शिक्षा की ब्यवथा कर दे , इतने से गावों खुद अपना विकास कर लेंगे। इसके लिए राष्ट्रीय स्तर पर नीतियां बन जाँय , प्रांतीय स्तर से लेकर ब्लॉक स्टार और गावों तक आवंटित राशि सही - सही पहुँच जाँय , इतना ही बहुत होगा।

रिपोर्ट कार्ड तैयार हो :       
सरकार का राष्ट्रीय स्तर पर, और चुने हुए प्रतिनिधियों का चुनाव - क्षेत्र स्तर पर एक रिपोर्ट कार्ड तैयार हो। इस रिपोर्ट कार्ड में कैलेंडर के अनुसार टाइम बाउंड ( तय समय सीमा के अंदर ) कार्यक्रम के तहत सार्वजनिक कार्यों की सूची हो जिसे चुने गए प्रतिनिधि द्वारा संपन्न किया जाना जरूरी है।  इस रिपोर्ट कार्ड की समीक्षा हर तीन या छह महीने पर जनता की पंचायत या ग्राम - सभाएं करे . अगर निर्वाचित उम्मीदवार उस रिपोर्ट कार्ड में वर्णित कार्यों को समय पर पूरा नहीं कर सका हो उन कार्यों का विलम्बित होना उसके अधिकार क्षेत्र के बाहर हो तभी उसे और समय देकर पूरा करने के लिए कहा  जाय।  जनता के प्रति उत्तरदायी होना उसकी अनिवार्यता बना दी जय।  रिपोर्ट कार्ड में उल्लिखित कार्यों का निरन्तरअधूरा रहना उस प्रतिनिधि की अक्षमता दर्शाता है।  ऐसी स्थिति में जनता की पंचायत या ग्राम सभा उसे वापस बुलाने का प्रस्ताव पास करसकती है।  जनता को यह अधिकार कंस्टीटूशन   द्वारा प्रदान  किया जाना जरूरी है।  इसके लिए सम्भवतः आज़ादी की एक और लड़ाई की जरूरत हो।  लेकिन यह प्रतिनिधियों की जनता के प्रति चुनाव के बाद अगले चुनाव तक ब्याप्त उदासीनता दूर करने के लिएअत्यावश्यक है।  उदहारण के लिए अगर विद्यार्थी लहगतार किसी पेपर में दो या तीन बार फेल हो जाता है तो उसे दूसरे क्लास में प्रमोशन नहीं मिलता और वह उसी क्लास में रह जाता है।  इसीतरह यहाँ जनता के कार्य को नहीं करने वाले उम्मीदवारों को कार्यकाल पूरा होने के पहले बुला लिया जाय और फिर नए उम्मीदवार का चयन हो , उस क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करने के लिए।  एक या दो स्थानों पर अगर ऐसा हुआ तो निश्चित ही दूसरे प्रतिनिधि अपने कर्तब्यों के प्रति अधिक सजग हो जायेंगे।
क्या ऐसा हो सकता है ? ऐसा होने के  लिए  जनता , सरकार और राजनीती से जुड़े लोगों की मनःस्थिति में बदलाव की जरूरत है।  लेकिन यह भी उतना ही सत्य है कि अगर बदलाव अभी नहीं हुआ तो गिरावट उस स्तर तक पहुँच जाएगा जहाँ से उठना और उठकर निकालना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन हो जाएगा।

  चुनाव में जीते हुए उम्मीदवारों से काफी अपेक्षाएं , उम्मीदे लगा बैठती है जनता।  लेकिन जनता से भी कुछ अपेक्षाएं है।  क्या हैं वे ? यह तो कतई नहीं है की मत दान कर आराम से सो जाये।  भाई और भी काम है मेरे . वोट दिया मैंने अब संसद या एम एल ए जाने।  अब जो करेंगे जनता के प्रतिनिधि करेंगे।  मेरा रोल समाप्त हुआ।  ऐसी स्थिति में प्रतिनिधि अपनी निधि बढ़ाने में लग जाता है , यानि की जनता के पैसे से अपनी तिजोरी भरना शुरू कर देता है।  इसलिए यह जान जाये की अगर जनता सोयेगी तो उसके प्रतिनिधि उसके कफ़न का इंतजाम जरूर कर देंगे।  यह परिस्थिति बहुत ही भयावह होगी . जनता अपने अधिकारों को जाने, यानि अपने को शिक्षित करे , कर्तब्यों का पालन करे , संगठित हो , और सजग हो।  सूचना के अधिकार , उचित मांगो के रिड्रेसल का अधिकार का यथासमय उपयोग करे।  अपना संगठन बनाये और प्रतिनिधियों तथा सरकारी कर्मचरियों को उनके उत्तरदायित्वों के सजग रखे।  सेल्फ हेल्प ग्रुप बनायें और उन समूहों को उपलब्ध ऋण की सुविधा के द्वारा घर - घर कुटीर उद्योगों का विकास हो।  तभी विकास की जो लहर दिल्ली में उठी हो वह गावों के धरातल से होते हुए उस अंतिम आदमी तक पहुंच सकती है जो आजतक विकास की लहर से अछूता रह गया है।


--- ब्रजेंद्र नाथ मिश्र


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