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Monday, August 11, 2014

बागीचे की चीखें (कहानी)

#chhanvkasukh : यह कहानी मेरी पुस्तक "छाँव का सुख" में सम्मिलित की गई है.

मेरी लिखी कहानी संग्रह "छांव का सुखप्रकाशित हो चुकी है. सत्य प्रसंगों पर आधारित जिंदगी के करीब दस्तक देती कहानियों का आनंद लें.अपने मन्तब्य अवश्य दे.
यह पुस्तक अमेज़ॉन पर उपलब्ध हैमात्र 80 रुपये में पुस्तक आपके घर तक पहुंच जाएगी.  Link: http://www.amazon.in/Chhanv-Sukh-Brajendra-Nath-Mishra/dp/9384419265 
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My mob no: +919234551852

बागीचे की चीखें

इस  बागीचे  में  रात  के  साढ़े  तीन  बजे  दो  चीखें  हवा  को  चीरती  हुए ,  सन्नाटे  को  बेधती  हुयी हर  अमावश्या  की  रात  के  ठीक  पहले  वाली  रात  सुनायी  देती  है ।  एक  चीख  लम्बे - लम्बे  घास  से  सरसराती  हुयी  बागीचे  के  उत्तर  छोर  वाले  बांस  के  घने  पेड़ों  में  अटकती  हुयी  कुएं की  तरफ  बढ़  जाती  है ।  और  दूसरी  चीख  कुएं  के  पास  ही  गूंजती  रहती  है ।  यह  जंगलनुमा बगीचा  किसी  मठ  की  जमीन  पर  है ।   चूंकि  यहाँ  आम,  जामुन,   महुआ  के  पेड़  हैं  ,  इसलिए  यह बगीचा  है   और  इसकी  सफाई  शायद  कभी - कभी  हो  जाती  है   इसलिए  यह  बड़ेबड़े  बढे  हुए घास  से  भर  जाने  के  कारण  जंगलनुमा  हो  जाता  है ।  यह  बागीचा  नयनडीह  और  स्टेशन  के बीच  में  ऐसा  फैला  हुआ  है   जैसे  नयनडीह  के  लोगो  को  स्टेशन  जाकर  ट्रैन  पकड़ने  से  रोक रहा  हो  ताकि  वे  सब  बाहर  की  दुनिया  को    देख  सके ।  नयनडीह  से  स्टेशन  जाने  के  लिए अगर  इस  बगीचे  को  छोड़कर  दूसरा  रास्ता  पकड़ें  तो  करीब  चार  किलोमीटर  का  चक्कर  लग जा  सकता  है ।  अगर  इससे  होकर  बगीचे  के  अंदर  से  होते  हुए  पगडंडियों  के  बीच  से  निकला जाय  तो  स्टेशन  मात्र  दो  किलोमीटर  ही  पड़ता  है ।  दिन  में  नयनडीह  और  आसपास  के सभी  गावं  के  लोग  बगीचे  के  रास्ते  से  ही  स्टेशन  जाना  पसंद  करते  हैं  क्योंकि  यह सुविधाजनक  भी  है  और  बगीचे  की  छाँह  से  गुजरते  हुए  रास्ता  थकाता   भी  नहीं  है ।   लेकिन रात  में  लोग  इस  बगीचे  से  गुजरने  से  इसलिए   डरते  हैं   कि  कहीं  चीखें    सुनायी  देने  लगे ।
       मैं  इस  नयनडीह  के  बारे  में  क्यों  बताने  लगा  आज ?  मैं  कभी - कभी  अपनी  छुट्टियों  के  समय  अपनी  बुआ  के  यहाँ  नयनडीह  जाया  करता  था ।  वहां  बड़ा  मजा  आता   था ।   एक   तो  पढने  के लिए  कोई  टोकाटाकी  करने  वाला   नहीं  होता  था ।   फूफाजी  मुझे  वहां  के  सारे  खेतो  और  पास  बहती  नदी  को  भी  दिखला  दिए  थे ।  नदी  के  किनारे- किनारे  शाम  के  डूबते  हुए  सूरज के  साथसाथ  चलने  में  उन  सारे  किरणों  को  समेट  लेने  का   मन  करता  था ।  यह  गावं  आज  की  यांत्रिक  और  बनावटी  सभ्यता  से  दूर  शुद्ध  प्रकृति  के  गोद  में  साँस  लेता  था  इसलिए  मेरा  मन  वहां  से  आने  का  नहीं  करता  था ।  आज  बुआ  जी,  मैं  जहाँ  नौकरी  करता  हूँ  वहां आई  हुयी  हैं ,  इसलिए  ये  सारी  यादें  ताजा  हो  गयी  हैं ।
      मैं  वहां  अपनी  वार्षिक  परीक्षाओं  के  समाप्त  हो  जाने  के  बाद  वही  दिसम्बर  के  अंतिम सप्ताह  में  जाया  करता  था ।  उस  समय  गुनगुनी   ठंढ   कुहरे  के  चादर  ओढ़े  भोर  में  उतरती  थी ।   मैं  अक्सर  हल्का  - सा  स्वेटर  पहने  नदी  की  ओर  निकल  जाता  था ।   छलछलाती  हुई , बहती हुई  नदी  की   धारा  को  निहारना  कितना  अच्छा  लगता  था ।  जल  के  ऊपर  कभी - कभी  भाप का आचंल  होता  था  जो  जल  की  धार  को  छिपाने  की  कोशिश  में  अक्सर  नाकामयाब  रहता  था । ठीक  वैसे  ही  जैसे  किसी  गरीब  की  लड़की  के  सौंदर्य  को  कपड़ों  का   आवरण  छिपाने  की  कोशिश में  नाकामयाब  रहता  है ।  नीलू  के  साथ  भी  ऐसा  ही  होता  था ।   वह  अपनी  किशोरावस्था  के प्रस्फुटन  को  आँचल  में  समेटने  की  काफी  कोशिश  करती  लेकिन  अक्सर  नाकामयाब  रहती । नीलू  बुआजी  के  पड़ोस  में  ही  रहती  थी ।  गांव  में  तो  ऐसे  ही  रिश्ते  कायम  हो  जाते  हैं । जैसे कि  मेरे  यहाँ  काम  करने  वाले  कैलु,  मेरे  कैलु  काका  हो  गए  थे । और  सोमा  मेड,   सोमा  दीदी हो  गयी  थी ।  यहाँ  तो  सजातीय  और  वह  भी  पड़ोस  की  नीलू ।   मेरी  बुआ  जी  से  ज्यादा  नजदीकी कायम  हो  जाने  के  कारण  भाभी  कहती  थी ।
मैंने  नीलू  को  अक्सर  अपनी  एक-दो  बहन  को साथ  में  और  एकाध  को  गोद  में  लिए  हुए  ही बुआ  जी  के  घर  आते  हुए  या  जाते  हुए  ही  देखा  था । किन्तु  इस  बार  मैं  तो  चौंक  ही  गया  था ।   नीलू  की  उम्र  यही  बारह - तेरह  की  हो   गयी   होगी ।  उसका  सौंदर्य  इस  तरह  निखर  गया  था जैसे  किसी  अप्सरा  ने  आकर  उसका  श्रृंगार  किया  हो । बिलकुल अप्रतिम,   रूप - लावण्य  की  परिभाषा  को  मूर्त  रूप  देती  हुई ,  और  उसपर  उसका  सहज, पगनुपुर  की  मधुर  ध्वनि  एक श्रृंगार  का  राग  उत्पन्न  कर  रहे  थे ।   उसके  गोल  चेहरे  पर  गहरी  नीली  आँखे  कमल  जैसे पलकों  के  अंदर  ऐसे  लगती  थी  जैसे  कमलपुष्पों  ने  भंवरे  को  कैद  कर  लिया  होएक  ऐसी कैद  जिससे  भंवरा  कभी  निकालना  नहीं  चाहता  हो ।  पलकों  के  ऊपर  मोटी - सी   काली  भौंहों की  रेखा  पूरे  चेहरे  के  सौन्दर्य   को  बुरी  नज़रों  से  बचाने  के  कार्य    में  लगी  रहती  थी ।  लेकिन  कितना  मुश्किल  होता  है  किसी  गरीब  के  घर  की  रूप  राशि  को  बुरी ,   घूरती,  तकती नज़रों  से  बचाना ।  यह  तो  वही  जानता  है  जिसके  यहाँ  नीलू  जैसी  रूप, लावण्यमयी  कन्या का  जन्म  हो  और   वह  परिवार  एक  गरीब  कुलीन  ब्राह्मण  का  हो ।  यह  रूप  उसके  लिए अभिशाप  हो  जाता  है ।  अपने  घर  से  अपनी  पुत्री  को  बाहर  कम - से- कम   निकलने  की  बंदिशें, निकलने  के  पहले  हजार  हिदायतें ,  उधर  मत  जाना ,  उधर  के  लड़के  अच्छे  नहीं  हैं ,  उधर  किसी  के  साथ  जाना  वगैरह , वगैरह ।  नीलू  अपने  माँ -पिताजी  की  सारी  हिदायतें  अक्षरसः  पालन  करती  थी ।  बस  नीलू  को  एक  ही  जगह  जाने  की  पूरी  छूट  थी  -- मेरी  बुआ  जी  का घर ।   वहां  जब  चाहे  जा  सकती  है ,  जितनी  देर  चाहे  रह  सकती  है ।  

नीलू  अपनी  तीन  बहनों  में  सबसे  बड़ी  थी ।  पंडित   प्रियमंगल  जी   एक  लड़के  की  चाहत  में तीन  लड़कियों  के  बाप  बन  गए  थे ।  पंडित  जी  की  पत्नी  काम  में  ब्यस्त  रहती  और             तीन  बहनों  को  रखने,  खिलाने ,  पिलाने ,  संभालने  की  सारी  जिम्मेवारी  नीलू   की  थी ,  क्योंकि नीलू  सबसे  बड़ी  थी ,  और  सबसे  समझदार  भी ।  पंडित  जी  को  अपनी  बेटी  पर  गर्व  था ।  लेकिन  नीलू  के  बचपन   को    कैसे  उन्होंने  अपनी  अन्य  संतानो  के  पालने -   पोसने    के   काम   में लगाकर  शापित  कर  दिया  था ,  इसका  उन्हें  कोई  अहसास  नहीं  था । या वे  जानबूझ    कर  आँखे  मूंदे  रहते थे क्योंकि दूसरा कोई विकल्प नहीं था।  मेरी बुआ जी कहा करती थी , 
"देखो, नीलू की माँ   ने   उसे कैसे कठोर जीवन की चक्की में  कोल्हू के बैल  की तरह जोत दिया है।  बेचारी के आँखों में तैरते सपनों को मैं देखती हूँ तो आंसू आ जाते हैं। और वह चुपचाप अपना बचपन परिवार की जिम्मेवारियां उठाते - उठाते तिरोहित करती जा रही है। उसके बचपन के सपने टूटते -बिखरते जा रहे हैं और वह इन सब से अनजान इसी उम्र में ममता का बोझ उठाये जीये  जा रही है।"
हमलोग ये बातें कर ही रहे थे कि नीलू सचमुच में अपनी दोनों बहनों को साथ लिए आ गयी थी ।  चेहरे पर वही गंभीर भाव।  उसकी ड्रेस आज सलवार - शूट थी जिसमें वह कुछ और लम्बी दीख रही थी। कपड़ों पर एक दो जगह पैबंद लगे थे।   बुआ जी से नहीं रहा गया।  बुआ जी ने पूछा था ," नीलूजी, मैं आपको अपने घर की ही बेटी समझती हूँ। मेरी बेटी तो पढ़ लिखकर बड़े शहर में जाकर बस गयी।  लेकिन उसकी बचपन की यादों को बसाये हुए अभी भी उसके सलवार - शूट और अन्य कपडे मैं रखे हुए हूँ।  अगर आपको या आपकी माँ को कोई आपत्ति न हो तो उसका एक - दो सलवार - शूट निकालकर दूँ।  आप पहनकर देखिएगा जो फिट बैठे उसे पहिनिये। "
बुआ ने कुछ सलवार -शूट अलमारी से निकाले थे । नीलू ने ऊपर से नापकर देखा था । दो का साइज ठीक लगा था। नीलू ने बाल-सुलभ उत्सुकता से पूछा था ," भाभी , माँ को दिखा के आउूं ?"
बुआजी ने 'हाँ ' में सर हिलाया था । जल्दी से वह कपड़े लेकर भागी - भागी अपने माँ के पास गयी थी ।  थोड़ी देर में नीलू लौटी थी , तो पहले वाली नीलू बदल चुकी थी ।  सलवार -शूट पहने हुए नीलू किसी परी - देश से आयी हुयी अप्सरा लग रही थी। क्या कपड़े भी सौंदर्य को बढ़ाने में योगदान देते हैं? इसके पहले मुझे विश्वास नहीं था। बिलकुल सटीक उसके बदन में कपड़े फिट हो गए थे, जैसे उसी के लिए अभी - अभी सिलकर आये हों । उस लिबास के ऊपर नीलू के चेहरे पर उल्लासमिश्रित हास्य की रेखा ने अचानक ही उसे कैशोर्य और  वयस्कता   की सीमारेखा पर खड़ा कर दिया हो। 
"भाभी अब मैं जा रही हूँ, फिर आउंगी" कहकर वह अपनी और दोनों बहनों को लेकर जाने लगी।  मैं उसके काले बालों की केशराशि को सर से लेकर नीचे पीठ से होते कमर तक उतरते देखता रहा और फिर सबकुछ आँखों से ओझल हो गया था ।  उस अप्रतिम रूप-राशि को आँखों में बसाकर ऑंखें खोलने का मन   नहीं कर रहा था।  ऐसा न हो कि इसी लोक की यह  अलौकिक और कई मायनों में पारलौकिक अनुभूति मन की परतों से फिसल जाये ।
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उसके बाद से मैं अपनी आगे की पढाई , नौकरी , करियर , शादी - विवाह , परिवार , बच्चे उनके पालन - पोषण आदि में इसतरह ब्यस्त हो गया कि  बुआ जी से भी बात कम होती थी।  अगर होती थी तो सिर्फ दीदी की पढाई के बारे में, उनके करियर और फिर जीजा जी के बारे में ।  किस शहर में नौकरी कर रहे हैं , कैसे हैं , वगैरह, वगैरह.... . बुआ जी एक मायने में बिलकुल दकियानूसी या रूढ़ीवादी नहीं थी ।  उन्हें एक बेटी हुई और उसके बाद उन्हों ने फूफा जी से कह दिया ।  मेरी एक ही संतान बेटी और बेटा दोनों है ।  इससे अधिक मुझे नहीं चाहिए ।  इसी को मैं इतना पढ़ाउंगी की मेरी कोई इक्षा अधूरी न रह जाय।  फूफा जी को बुआ जी की बात माननी पडी थी।
 आज जब बुआ जी मेरे डेरे पर आयी हैं तो सारी यादें ताज़ा हो गयीं। इसलिए मैंने अचानक पूछ दिया, " बुआजी आपकी प्यारी ननद नीलू कहाँ हैं ?"  इसे पूछते ही बुआजी उदास हो गयी।
" देख न बाबू,  नीलू मैट्रिक की  परीक्षा  दी थी। उसके बाद पता चला की नीलू की शादी कर दी गयी है।  लेकिन गावं में किसी तरह का कोई आयोजन नहीं हुआ था।  तो मैंने भी उनकी माँ से इस बारे में पूछना मुनासिब नहीं समझा। " इसके बाद बुआ जी चुप हो गयी थी।  उनकी चुप्पी में मुझे  कुछ   रहस्य में लिपटा हुआ गहरा अवसाद - सा लग रहा था,  जिसकी परतें खुलवाने का मेरा भी मन नहीं हुआ।
बुआ  जी  के रहते हुए दो दिन बीत गए लेकिन पता ही नहीं चला।  मेरी पत्नी भी काफी सम्मान करती थी  उनका। मेरी बेटी और बेटा सब स्कूल  से आते ही उनसे दादी , दादी कहकर ऐसे लिपट जाते जैसे दादी से बहुत पुराना परिचय हो।  बुआ जी अब जाने को कह रही थी।  लेकिन आज तो मैंने जोर देकर उन्हें रोक लिया था।  इतने में आज दीदी (बुआ जी की बेटी ) का फोन आया था," माँ मुझे मेरी दोस्त से मालूम हुआ की नीलू जी   अभी उसी शहर में है।  उनके पति पाण्डेय जी फारेस्ट विभाग में हैं न।"
बुआ जी। "हाँ, लेकिन इस शहर में कैसे मालूम होगा की उनका डेरा कहाँ है ?"
मैंने बुआ जी से कहा, "आप  फोन रखो।  यहाँ  यह मालूम करना मुश्किल नहीं होगा कि पांडेजी वन -  विभाग में कहाँ पर रहते हैं।  वन  विभाग के सारे क्वार्टर एक ही जगह पर है।" 
मैंने  पोस्टल विभाग की टेलीफोन डायरेक्टरी देखकर फारेस्ट डिपार्टमेंट के फोन नंबर का पता किया।  उससे पाण्डे जी रेंजर के रेजिडेंस का नंबर मालूम किया।  दोपहर के बाद तीन बजे करीब पाण्डे जी के घर पर फोन लगाया।  संयोगवश उधर से एक महिला की आवाज आयी।  मैंने पूछा ," यह पाण्डे जी का ही घर है न। " उधर से आवाज आई ,"हाँ " मैंने पूछा था,"क्या  आप  नीलू  जी  बोल रही हैं?"
"आप कौन बोल रहे हैं? " जवाब में एक  और  प्रश्न ही था।  बिलकुल सही अप्रोच।  किसी अजनबी को फोन पर अपना नाम नहीं बताना चाहिए।
मैंने कहा था, "लीजिये अपने एक परिचित से बात कीजिये , शायद आप पहचान जाएँ। "  यह कहकर मैंने फोन बुआ  के हाथ में थमा  दिया था।  
बुआ ने फोन उठाकर पूछा था ," हेलो,  नीलू बोल रही हैं। " उधर से आवाज आई ," आप कौन ?"
बुआ ने कहा था ,"मैं नीलू की भाभी बोल रही हूँ " उधर से आवाज आई थी ,"भाभी, मैं नीलू ही बोल रही हूँ। भाभी, आप भी अपनी नीलू को भूल गयी, मायके से कोई खोज खबर लेने वाला नहीं। " आवाज  में भभराहट  साफ़ सुनायी दे रही  थी। मायके से तो एक अदना - सा मिट्टी का टुकड़ा भी मिल जाता है तो बेटियां सेन्टीमेन्टल् हो  जाती हैं।  आज तो नीलू को उसकी प्यारी , सबसे प्यारी  भाभी मिल गयी थी।  उन्होंने तुरत कहा था ," भाभी आप  कल दोपहर बाद आइये।  आप से बहुत - सी बातें करनी है।  देखिये आप ना  नहीं कहियेगा।  कोई बहाना नहीं चलेगा।  आपको आना ही होगा।  "  मैंने बुआ जी को सर हिलाकर  हाँ कहने का इशारा  कर दिया। बुआ जी ने भी कह दिया है , "ठीक है , कल तीन बजे आउंगी।" 
 मैं ठीक तीन बजे अपनी गाड़ी में बुआ जी को बैठाये हुए वन विभाग के क्वार्टरों के तरफ अपनी गाड़ी मोड़ दी थी।  वहां एक गार्ड से मैंने पूछा कि पाण्डे  जी रेंजर साहेब का क्वार्टर कौन सा है? उसने इशारे से ही बता दिया था।  हमने गाड़ी क्वार्टर के बाहर ही पार्क की थी।  गेट खोलकर  जैसे ही अंदर घुसा नीलू  इन्तजार करते मिल गयी।  चेहरे पर वही रूप - लावण्य। थोड़ी स्मित मुस्कान और अंदर असीम पीड़ा का शैलाब दबायी हुई,  आँखों को छुपाते हुए बाहर आकर उसने बुआ जी का हाथ  पकड़ा था।  उन्हें अंदर ले जाकर इतनी जोर से लिपट गयी थी जैसे खुद उनकी अपनी माँ मिलने आ गयी हो। आंसुओं का बाँध आज टूट गया था।"  भाभी आज मन भर रो लेने दीजिये।  मना मत कीजिये।  कितने दिनों से इन्हें पी - पीकर सम्हाले रखा है। आज  इनकी मुराद तो पूरी हो जाने दीजिये। " नीलू जी ने रोते हुए ही ये सारी बातें कहीं थी। जब नीलू का मन थोड़ा हल्का हुआ , बुआ जी ने हिम्मत कर पूछा था , " नीलू सब ठीक है न।  कोई तकलीफ तो नहीं है न। "
नीलू ने वेदनामिश्रित हास्य के साथ जवाब में कहा था ," भाभी , यही तो तकलीफ है कि कोई तकलीफ नहीं है। "
नीलू के इस रहस्यपूर्ण जवाब की अपेक्षा बुआ जी को कतई नहीं थी।  इतने में नौकर ने मिठाइयों के साथ नमकीन और चाय भी लाकर रख दी थी।  बुआ जी के प्रश्नवाचक चिन्ह उभर आये चेहरे की तरफ देखते हुए नीलू ने ही कहा था ," जल्दी से मिठाई और चाय ख़त्म कीजिये।  आज मैं कुछ नहीं छुपाऊँगी ।  आपको सारी बातें बताउँगी।  मेरे मन   में  भी एक टीस पल रही है।  उसे इसी पल के लिए दबा के रखा है , भाभी। "
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हमलोगों ने खाने की सारी चीजे ख़त्म की। इतने में दो लड़के - एक करीब नीलू से तीन - चार साल छोटे और दूसरे दो साल और छोटे आये थे। ये दोनों पाण्डे जी (नीलू के पति) की पहली स्वर्गवासी पत्नी की संताने हैं।
"आपका खाना लगा हुआ है। आपलोग खाना खाकर tution चले जाइयेगा."   नीलू ने उन्हें कहा था और फिर हमलोगों के पास आ गयी थी।
नीलू ने भाभी का हाथ फिर पकड़ा था और उन्हें अंदर के कमरे में ले गयी थी। थोड़ी देर बाद बुआ जी ने मुझे भी बुला भेजा था। "देखिये भाभी मैं इन्हें पहचान नहीं पा रही थी। मैं छोटी थी तो नयनडीह में इन्हें देख चुकी हूँ। इनसे क्या छिपना और क्या छिपाना।  " उन्होंने हलके स्मित हास्य के साथ कहा था।
जिस दिन से मैं नयनडीह से गायब समझी जा रही हूँ, उसके एक रात पहले उमा मौसी मेरे यहाँ आई थी। वह माँ से अकेले में कुछ खुसुर - पुसुर कर रही थी। माँ सिर्फ सुन रही थी। कभी - कभी 'हाँ 'में सर हिला देती थी। वही अमावस्या के ठीक पहले वाली रात को माँ ने मुझे ठीक बारह बजे उठाया था।
"नीलू  उठ , उठ , तू कह रही थी न ,कि माँ  शहर नहीं ले जाती है।  आज तेरे बाबूजी को छुट्टी मिली है।  चल शहर चलते हैं।  साढ़े चार बजे की गाड़ी पकड़नी है न।  अभी चलना होगा।  " 
"माँ , आज नहीं , अभी तो एग्जाम  ख़त्म  हुए हैं , आज सोने दे , बहुत नींद आ रही है। " मैंने अलसाये हुए  आधी नींद  में कहा था। " नहीं , नहीं, आज ही चलना होगा , फिर फुर्सत नहीं मिलेगी , फिर मत कहना कि माँ ले नहीं गयी।"  माँ ने झिड़कते हुए कहा था। 
मैं बेमन से उठी थी। लो यह सलवार - शूट पहन ले जो तेरी प्यारी भाभी ने दी है। मैंने वही आपकी दी हुयी सलवार - शूट पहनी थी। अब मैं भी कुछ - कुछ खुश लगने लगी थी। शहर जो बहुत दिनों के बाद, मुझे भी याद नहीं था, पिछली बार कब गयी थी, जाना हो रहा था।
 " लेकिन माँ इतनी रात को जाने की क्या जरूरत है?  दिन में भी तो जा सकते हैं। " मैंने माँ से पूछा था।
"दिन में जायेंगे तो शाम तक  कैसे लौटेंगे ? " माँ का उत्तर भी सवाल में ही था। लेकिन मेरे मन में अभी भी कुछ खटक रहा था।  क्योंकि उमा मौसी जब भी आती है तो कोई न कोई खुराफ़ाती योजना के साथ आती है।  मैं , माँ और पिताजी तीनों करीब दो बजे के लगभग रात में स्टेशन के लिए चल दिए थे। पिताजी ने चलने के समय एक बड़ा सा बैग उठाया था जैसे शहर में कई दिनों तक रहने की तैयारी के साथ जा रहे हों।  मेरे मन में कुछ अजीब - अजीब से विचार आ रहे थे । 
हम घर से निकलकर खेतों के बीच बनी पगडंडी को पार करते हुए ,  तालाब पर बने आल पर चढ़ गयी , तब बगीचा दिखाई पड़ने लगा था।  बीच में एक छाउर पार करना था और बगीचा शुरू हो जाता था।  रात के तीन बजने को  हो  रहे होंगे।  बगीचे के उत्तर छोर पर एक कुआँ है जिसका जल बहुत ही मीठा है।  पहले लोग उस कुएं के मीठे जल को पीने के काम में इस्तेमाल करते थे ।  साथ ही इस मीठे जल से दाल भी जल्दी गल जाती थी।  इसलिए दिन में कुएं पर काफी भीड़  रहती थी। पनिहारिनें पानी भरती थी।  और मुसाफिर स्नान कर अपनी थकान मिटाते थे।  लेकिन जबसे बगीचे के कुएं और   बांसों  के झुरमुट   की ओर से चीखें सुनाई देने लगी थी तबसे लोग उस कुएं का पानी इस्तेमाल करना बंद कर दिए थे।
 मैं ये सब बात सोच रही थी कि धीरे - धीरे बगीचा नजदीक आता जा रहा था। उसमें मैं माँ -  पिताजी के साथ प्रवेश करने वाली ही थी कि मेरे मन में कई सवाल कौंधने  लगे थे। रात में स्टेशन जाना , पिताजी के हाथ में बड़ा सा बैग , उमा मौसी का पिछली रात को योजना बनाना। …अचानक    मेरी कानों में अजीब तरह की चीखें सुनाई देने लगी थी।  कहीं यही तो बगीचे की चीख नहीं है!!
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मैंने सुना था कि ये चीखें तबसे सुनायी दे रहीं हैं जबसे नैना बेलदारिन स्टेशन जाते हुए अमावस्या के ठीक पहले वाली रात को गायब हो गयी थी या कर दी गयी थी, यह कोई नहीं जानता था।
बलेशर बेलदार जबसे नैना को ब्याह कर घर लाया था पूरे गांव में उसके रूप की चर्चा होने लगी थी। लोग कहने लगे थे," बलेशरा में क्या दिखा इसको जो इसपर लट्टू हो गयी। " कोई कहता कि देखते नहीं बलेशरा को । बेलदार का काम करते - करते उसके बाँहों की मांसपेशियां कितनी मजबूत दिखाई देने लगी है। और साले का कंधा देखो जैसे गामा पहलवान भी सामने आये तो उन्नीस ही ठहरे। 
बेलदारों  का काम कुआँ खोदने का होता था।  उन दिनों ट्यूबवेल का चलन नहीं शुरू हुआ  था। बेलदार ही जमीन के अंदर के वाटर टेबल का महाज्ञानी इजीनियर हुआ करते थे।  आस - पास के गांव में  सिंचाई  से लेकर पीने के लिए कुआँ खोदने  का  काम बेलदारों को ही करना होता था।  इसलिए उनका  समाज में काफी सम्मान भी था।  कुआँ खोदना  और कुआँ बांधना दोनों ही काम में हुनर की जरूरत थी और खतरा भी काफी था।
नैना के नयन ही नहीं , नाक - नक्श भी उसके गेहुएं रंग पर इतने करीने से फिट किये हुए थे कि जो भी उसे देखता,  देखता ही रह जाता।  उसके शरीर का गठीलापन और साथ - साथ घुला -  मिला लचीलापन,    उसकी चाल में एक तरह बेफ़िक्रापन,  और उसकी मधुर गूंजती आवाज में अपनापन किसी को अपनी तरफ़  खींचने को विवश कर देता था। उसके यही  सब गुण उसकी गरीबी  और  तंगहाली के कारण उसकी जान के जानी दुश्मन बन जा रहे थे।  गांव में जो भी कोई सुन्दर वस्तु होती थी उसे गावं के दबंग अपनी विरासत समझने लगते थे।  गावं के दो नंबर के गिरे लुच्चे , लफ़ंगे , शरीफजादे शोहदे  उसकी आवाज और बातों  में छलकते अपनापन को उसकी  ओर  मौन  निमंत्रण  का भ्रम पालने लग गए थे। 
बलेशर भी नैना को खुश देखने के लिए जी तोड़ मेहनत करने लगा।  अगल - बगल के  गावों के सारे कुओं को खोदने और ढालने  का ठेका खुद ही लेने लगा।  कमाई बढ़ रही थी।  घर में उल्लास का वातावरण छाने लगा।  इतने में एक दिन खुशखबरी भी आ गयी कि बलेशर बाप बनने  वाला है।  इससे नैना की भी खुशियों  के पंख लग गए थे।  बलेशर दिन में आस - पास के गावं में काम करके शाम होते - होते घर जरूर लौट आता था। रात में वह गावं में नैना को अकेला नहीं छोड़ना चाहता था। 
बरसात का मौसम था।  मिट्टी गीली होने के कारण इस समय कुआँ खोदने का काम आसानी से और जल्दी - जल्दी होता था।  ऐसे ही  एकबार बरसात का समय था। पड़ोस के गावं में कुआँ खोदने का काम चल रहा था।  उसने जल्दी - जल्दी काम ख़त्म किया। और वह लौटने की तैयारी कर ही रहा था कि बहुत जोरों की बरसात शुरू हो गयी।  अपने गावं नयनडीह लौटते हुए जब वह नदी के पास पहुंचा तो नदी काफी उफान पर थी।  बारिश रुकने का नाम नहीं ले रही थी।  दोनों किनारे भरे हुए तूफानी गति से नदी बही जा रही थे।  थोड़ा पानी होता तो बलेशर तैर कर भी पार कर जाता।  किन्तु इस पानी में तो उतरते ही धारा खींच कर बहा ले  जाती।  अब क्या किया जाय ? आज नैना के घर आने के बाद, पहली रात एक ऐसी रात होगी, जब बलेशर नैना के पास नहीं होगा। पता नहीं नैना पर क्या गुजर रही होगी? बलेशर के पाँव आगे नहीं बढ़ रहे थे? वह वही पर वारिश में भींगते हुए बैठा रह गया। 

उधर गावं के शोहदों को जब पता चला की बलेशरा आज काम के बाद नहीं लौटा तो उनकी तो बांछे खिल गयी।  आज इस बारिश की रात का जश्न मनाने के लिए उन्होंने वह सबकुछ करने की ठान ली जो शातिर दिमाग वाले लुच्चे किया करते हैं।  रात के बारह बजे के बाद बलेशर के घर  की चार दिवारी लांघकर घुस गए।  नैना को अकेली औरत जानकर वे लम्पटपनई  के इरादे से घुस गए।  नैना को ऐसे ही बलेशर के बिना  नींद नहीं आ रही थी। किसी अनिष्ट की आशंका  उसके  मन में पहले से ही थी।  इसलिए उसने दरांती (एक प्रकार का तेज हथियार ) और कुल्हाड़ी दोनों बगल में  रख ली थी।  उसनें मन ही मन माँ  काली को याद किया ," हे माँ, आज अपनी इस बेटी के मान की रक्षा करना। मुझे शक्ति दो माँ की मैं इन दरिंदों को सबक सीखा सकूँ। "
उसने जोर से दरांती अपने हाथ में पकड़ी।  जैसे ही शातिरों में से एक ने दरवाजे की कुण्डी छिटका कर  अंदर दाखिल होने की कोशिश की , उसने दरांती से वार करना शुरू कर दिया " सालों , अपनी मन , बहन नहीं है क्या ? उनके पास जाकर अपनी हवस क्यों  नहीं मिटाते,  वह   गलियां  दिए जा रही थी और दरांती से वॉर पर वार किये जा रही थी  , यहाँ चले आये मुंह उठाये हुए....    "आह! उह! " हथियार के वार से सारे उलटे पांव भागे थे --गिरते - परते।  

दूसरे दिन गांव वालों ने एक दो लोगों के हाथो पर पट्टियाँ बंधी देखी, तो पूछ बैठे,"क्या हुआ भैया , कल बारिश में कही फिसलर गिर पड़े क्या? ," उन्होंने हाँ में सर हिलाया था जैसे इसी बहाने की तलाश में वे थे।  "बड़े गिरे हुए हो भाई , कहाँ - कहाँ फिसल जाते हो।"  बात आई गयी हो गयी थी।  लेकिन वे सारे शोहदे अब बदले के लिए मौके  की तलाश में रहने लगे।  हारा हुआ दुश्मन बहुत  ही  खतरनाक हो जाता है और पलट वार करके के लिए पहले से ज्यादा आक्रामक हो जाता है।
नैना को पूर्ण गर्भ होने पर एक सुन्दर , सुपुष्ट लड़का पैदा हुआ था।  बलेशर के पांव जमीन पर नहीं पद रहे थे।  बरही (जन्म के बारहवें दिन )  में    नाते , रिश्तेदारों , पड़ोसियों और अन्य गांव वालों के साथ खूब जश्न हुआ था।  रात  में मुर्गा , दारू, ताड़ी भी चला।  बलेशर उसके पहले कभी नहीं पीता था।  उसने  उस   दिन   जो दारू को पहली बार मुंह से लगाया तो  वह   मुंह ही लग गयी। अब तो वह कुआँ खोदने का काम करने  जाता  तो वहां भी काम ख़त्म ख़त्म होने के बाद थोड़ी चढ़ा लेता।  पीकर घर पहुँचने के बाद नैना ने कितनी बार उसको  झिड़का ,  डांटा, सुधर जाने के लिए कसमें दी।  उसने भी दारू से तौबा कर लेने की कसमें खाई।  कुछ दिन सप्ताह भर वह दारू पीना छोड़ देता , लेकिन उसके बाद फिर सब कुछ भूल जाता।  अब तो दारू की लत लग गयी थी।  कमाई अधिक होने से कोई लत अगर लग जाती है तो लग ही जाती है , छूटते नहीं , साली।
बेटा नौ महीने का हो गया था।  दौड़ने की कोशिश भी करने लगा था।  उस दिन शाम से ही बेटे को हल्का - हल्का बुखार था।  रात होते - होते बुखार अधिक चढ़ गया था।  झोला  छाप डाक्टर को बुलाया था नैना ने।  उसने कहा था ,"यह बुखार बहुत गंभीर है।  इसे जल्दी शहर लेकर जाओ। "  बलेशर जहाँ कुआँ खोदने गया था वहीं दारू पीकर रह गया था।  रात में कोई उसके साथ चलने  को तैयार नहीं हुआ। उसने हिम्मत  करके माँ काली  का नाम लिया।  बचे - खुचे पैसे जो घर में थे आँचल में बाँधे।  बेटे को लेकर शहर के लिए चल पडी।  जैसे  ही    वह  रस्ते में पड़ने वाले बगीचे में घुसने जा रही थी , उसने बगीचे की रखवाली करने वाले चौकीदार की झोपड़ी में झाँका  था।  झोपड़ी खाली थी।  झोपड़ी के पीछे से कुछ लोगों के हँसने की आवाजें आ रही थे।  उसका मन अनिष्ट की आशंका से काँप  उठा।  फिर भी वह काली माई का नाम लेते हुए आगे बढ़ती रही।  जैसे  ही वह  बगीचे के बीच में पहुँची , कुछ गमछी से मुहँ ढके हुए चेहरों ने राश्ता रोक दिया और सामने आकर खड़े हो गए। 
"हटो,  कौन है, मुझे जाने दो , मेरा बच्चा बीमार है। " नैना ने चिल्लाकर कहा था।  सामने वाला नकाबपोश राश्ता छोड़कर हट गया।  पीछे   के  नकाबपोश   ने उसकी ब्लाउज में अपना हाथ  दाल दिया  और अपने तरफ  खींचना चाहा।  अगल - बगल के अन्य नकाबपोशों उसके अंगों से खेलने का पराक्रम दिखने के   लिए  जैसे आगे बढे ,  नैना भागी घासों के बीच से सरपट।  फिर एक नकाबपोश ने पीछा करते हुए उसे आगे से घेर लिया।  अब नैना भागते - भागते बेबस होती जा रही थी।  उसकी आँखों के आगे अँधेरा छाता  जा रहा था।  भागती हुए उसके हाथ से टोर्च भी गिर गया था।  फिर भी वह भागी , चिल्लाई थी वह।,"हे काली माई , बचाओ इस अबला को..... "   उसकी चीख सन्नाटे को चीरती हुई ,  बढे , उगे हुए घासों के पत्तों के बीच सरसराती हुई , बांसों के झुरमुट के पास ठहरती है...... फिर       वहीं चीखों का दम घुटने लगता है , चींखे दबने लगती हैं  और अचानक बांसों के झुरमुट के बगल वाले कुएं में समां जाती हैं।  एक चीख का अंत हो जाता है।  यही चींखें  हर महीने अमावश्या के ठीक पहले वाली काली रात को साढ़े तीन बजे बगीचे में सुनाई देती है........  लोग   रात  को  उस   दिन से बगीचे से गुजरना कम कर दिए हैं। 
उस  दिन  यही चीखें  मेरे भी कानों में गूंजने लगी , भाभी।  अचानक मैंने माँ के हाथ को पकड़ कर कहा, "  माँ, मेरे सर पर हाथ रखकर सच - सच बताओ -क्या तू मेरी सगाई या सगाई या शादी करने ले जा रही है ?"  माँ तो जैसे हक्का - बक्का रह गयी यह सवाल सुनकर। उसने जैसे ही "हाँ" में सर हिलाया, भाभी मैं पूरी ताकत के साथ बढे हुए ऊँचे घासों के बीच से चीखते हुए भागी थी। 
"नीलू, नीलू , कहाँ जा रही है , बेटी।  " माँ-पिताजी भी पीछे - पीछे भागे थे। मैं भागती -भागती , हाँफती
हुई बांसों के झुरमुट से निकलकर उत्तर के तरफ कुएं की ओर चीखते हुए बढ़ी  जा रही थी। कुएं के जगत के पास पहुंचकर मेरी चीखें भी कुएँ में   समाने ही जा रही थी कि पिताजी ने बढ़कर मेरा हाथ पकड़ लिया था।  माँ भी पीछे - पीछे  दौड़ी  - दौड़ी आई थी , " नीलू , मैं तेरी हालत समझ रही हूँ , बेटी।"
 गरीब      की   बेटी  के  पास   जिंदगी  को  मनमाफिक  जीने  के  बहुत  कम  विकल्प होते है भाभी , ये मुझे पहली बार समझ में आया था। बाबूजी ने कहा  था ," बेटी ,  तुम अकेले क्यों इस कुएं में समाओगी ? मैं भी तेरे ही साथ इसमें समाऊंगा।  मेरा जीवन भी तेरे बिना एक जीवित लाश रह जायेगा , मैं भी इसे जीना नहीं चाहता। "
मैं एक पल रुकी थी। पिताजी के जाने के बाद मेरी अन्य बहनों का    क्या होगा ? यह सब सोचकर मैं चुपचाप  कुएं से हटकर बगीचे से बाहर  जाने के रास्ते पर  चल दी थी जैसे कोई बलि का पशु कसाईखाने के तरफ चुपचाप चल देता है।  माँ - पिताजी भी पीछे - पीछे चल दिए थे।  उस दिन के बाद से मैंने उनसे एक शब्द भी बात नहीं की है , आजतक। 
भाभी , आजभी हर महीने अमावश्या के ठीक पहले की रात , ठीक साढ़े तीन बजे मेरे कानों में चीखे गूंजने लगती हैं , बगीचे का दृश्य उभरता है। ।एक चीख बढे हुए घासों के बीच सरसराती हुयी, बांसों के झुरमुट के पास ठहरती है और  कुएं में उतर जाती है। ……और दूसरी  चीख सन्नाटे को चीरती हुई , बढे हुए घांसों के बीच सरसराती हुई , बांसों के झुरमुट के पास ठहरती है और कुएं के जगत के पास सहमकर , वहीं पर रुक सी जाती है.......।"
नीलू की आँखों से आंसू की अविरल धार गालों  की गीली कर दे रहीं थीं।   मन कर रहा था कि उन आंसुओं के मोती को उँगलियों  के पोरों में समेत लूँ और चल दूँ ताकि बगीचे से फिर किसी बेबस , लाचार औरत की चीखें ना सुनायी दें। 

--तिथि : १०-०८-२०१४, श्रावण पूर्णिमा,
  वैशाली, दिल्ली इन सी आर .
----ब्रजेन्द्र नाथ मिश्र, 3A, सुन्दर गार्डन, संजय पथ, डिमना रोग, मानगो, जमशेदपुर ।
575463_402545343209558_1544328495_nमेतल्लुर्गी*(धातुकी) में इंजीनियरिंग, पोस्ट ग्रेजुएट डिप्लोमा इन मार्केटिंग मैनेजमेंट। टाटा स्टील में 39  साल तक कार्यरत। पत्र पत्रिकाओं में टेक्निकल और साहित्यिक रचनाओं का प्रकाशन। सम्प्रति जनवरी से 'रूबरू दुनिया ' भोपाल से प्रकाशित पत्रिका से जुड़े है। जनवरी 2014 से सेवानिवृति के  बाद  साहित्यिक  लेखन कार्य  में  निरंतर  संलग्न ।
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माता हमको वर दे (कविता)

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