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Sunday, March 1, 2015

सिद्धी मामा (कहानी)

#chhanvkasukh :यह कहानी मेरी पुस्तक "छाँव का सुख" में सम्मिलित की गई है.

मेरी लिखी कहानी संग्रह "छांव का सुख" प्रकाशित हो चुकी है. सत्य प्रसंगों पर आधारित जिंदगी के करीब दस्तक देती कहानियों का आनंद लें.अपने मन्तब्य अवश्य दे.
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सिद्धी मामा

     सिद्धी मामा ऐसे इंसान थे, ऐसे इंसान थे, पता नहीं कैसे इंसान थे। लोगों ने उनका इस्तमाल किया और लोग उनका इस्तेमाल कर रहे हैं यह जानते हुए भी वे इस्तेमाल किये जाते रहे। मेरे अपने मामा (मां के सगे भाई नहीं थे) नहीं होते हुए भी  अपने मामा से बढ़कर थे। मामा से मैं पहली बार कब  मिला था, मुझे भी याद नहीं।  लेकिन मुझे इतना याद है कि मामा मैट्रिक तक की पढाई मेरे भैया, जो उम्र में मुझसे पचीस  साल और मामा से दस साल बड़े होंगे, के पास ही रहकर कर रहे थे। भैया उन दिनों गावं के बगल के ही स्कूल में शिक्षक के रूप में अपनी सेवा दे रहे थे।  पढाई में मामा की दिलचस्पी कम तो नहीं लेकिन उतनी अधिक भी नहीं  थी। हमारे नानाजी जी ने  एक तरह से जबरदस्ती ही उन्हें  मेरे यहाँ पढने के लिए भेज दिया था।  वे माँ के बहुत ही लाडले भाई थे।  माँ के एक इशारे पर कोई भी काम करने से पीछे रहने का कोई सवाल ही नहीं उठता था।  उनका लाख काम हर्ज हो जाय लेकिन माँ के एक इशारा मात्र से कुछ भी कर सकते थे, चाहे वह काम खतरनाक हो या उनको खुद भी परीक्षा छोड़ने की जरुरत आ पड़े तो वह भी वे छोड़ सकते थे। हालाँकि इसकी नौबत कभी नहीं आई।  
  वे अगर डरते थे तो दो ही आदमियों से - एक नानाजी से और दूसरे भैया से जो उनके गुरु जी भी थे और नानाजी ने उनके ही कंधे पर सिद्धी मामा की शिक्षा - दीक्षा का भार डाल दिया था। पहली बार मैंने उन्हें सायकिल पर आते हुए देखा था।  उन दिनों सायकिल पर सवारी करना भी उस देहात में एक तरह का स्टेटस सिंबल माना जाता था।  जैसे ही वे  सायकिल से उतरे मैंने उन्हें पैर छूकर प्रणाम किया और उनकी सायकिल को छूकर देखने  लगा। उन्हें लगा कि मैं उनसे अधिक उनके सायकिल में रूचि दिखला रहा हूँ। मामा ने थोड़ा नास्ता - पानी लिया। " बाबू," माँ मुझे बाबू कहती थी, इसलिए  वे मुझे बाबू ही कहने लगे, "आप सायकिल चलाना जानते हो?" 
"मैं अगर नहीं जानता हूँ तो क्या आप मुझे सिखाएंगे?" मैंने संदेहमिश्रित प्रश्न, उनके प्रश्न के जवाब में कहकर सायकिल सीखाने की चुनौती भी उनके सामने रख दी थी।  
"पहले मुझे देखना होगा कि सायकिल सीखने के लिए आपके हाथ - पावँ की हड्डियों में ताकत है या नहीं?"  जवाब में मैंने अपना हाथ उनकी ओर बढ़ा दिया था। "हूँ, हड्डियां तो मजबूत हैं, लेकिन गठीली नहीं हैं। अच्छा, चलिए, सायकिल से मैदान के दस चक्कर लगाएंगे तो उनमें गठीलापन आ ही जाएगा।"
"ये सिद्धिया, देख बाबू को चोट न लगे, जरा ठीक से सिखैहैं। काहे कि तोर कोई भरोसा न हौ।" माँ ने हिदायत देते हुए ये बातें कही थी।
"दीदी, का कहीत हे, हम भला बाबू के चोट लगे देबई।"
हम और मामू चल दिए गावं के पूरब में मिडिल स्कूल के मैदान में सायकिल चलाना सीखने। 
मामू के साथ सायकिल सीखने जाते हुए बहुत अच्छा लग रहा था। फील्ड में पहुंचते ही मामू ने सायकिल थमा दी। "देखो मैदान खाली है, चलाओ सायकिल।"
"मामू, कैसे चलाऊंगा, मुझे चलाने नहीं आती।" मैंने अपनी विवशता जाहिर की।
मामू ने कहा, "मुझे तो किसी ने चलानी नहीं सिखाई थी।"
"मामू?" मेरी आँखों में आग्रह भरा अनुनय - विनय था।
"अच्छा, ठीक है, चलो सीट पर बैठो, सामने देखना और पैडल तक तो तुम्हारा पैर पहुंचता  ही है।  पैडल पर  पैर मारना, सायकिल आगे बढ़ती चली जाएगी।"  उन्होंने मुझे सीट पर बैठाया और पीछे से धक्का दे दिया।  कुछ दूर तो सायकिल आगे लुढ़कती चली गयी। जैसे ही उसकी गति कम हुई मैंने आगे देखते हुए ही पैर मारे।  पहले तो पैर पैडल पर लगे ही नहीं।  मैं सायकिल की स्पीड बिलकुल कम जाने से गिरने ही वाला था कि अचानक पैडल पर पैर जम गया।  मैं आगे देखते हुए पैडल पर  पैर मारे  जा रहा था।  सायकिल आगे बढ़ती जा रही थी।  मैंने  पूरी फील्ड के चार चक्कर लगाये। अब अच्छा लगने  लगा था। नजरें तिरछी करके मैंने चारो ओर नजरें डाली।  सिद्धी मामू कहीं नजर नहीं आ रहे थे।  मुझे  डर लगने लगा था।  मैं सायकिल चलाते हुए ही सोच रहा था, "कैसे इंसान हैं ये महाराज, मुझ नौसिखिये  को  सायकिल पर बैठाकर अपने फुट लिए।  आज मैं माँ से इनकी शिकायत करके इन्हें खूब खरी - खोटी सुनवाऊंगा।" ऐसा सोचते हुए ही मैंने पैडल मारी, तो सायकिल की स्पीड अचानक तेज हो गई।  आगे देखा तो सायकिल तो मैदान से बाहर निकलकर ढलान पर लुढ़कती जा रही थी।  अब मैं क्या करूँ।  मामू ने तो मुझे ब्रेक कहाँ है, कैसे लगाना चाहिए, कुछ बताया ही नहीं।  इतने में सामने एक पत्थर आ  गया।  मैं उससे बचाता- बचता कि  सायकिल पत्थर पर चढ़ गयी।  मैं   ऐसा गिरा  कि सायकिल एक ओर और मैं दूसरी ओर।  लेकिन यह क्या मैं तो उस पथरीली जमीन पर गिरा ही नहेीं। मुझे जब होश आया तो मैंने देखा कि मैं तो सिद्धी मामू की गोद में हूँ। और बगल में  खून के छींटे दीख रहे थे।  मैं अपने शरीर को टटोलते हुए, झाड़ते हुए उठा  तो उसमें कहीं खून लगा हुआ नहीं देखा। 
जब मैं सायकिल के तरफ रुख किया तो देखा कि मामू सायकिल के तरफ बढ़ रहे हैं और जमीन पर खून के छींटे हैं। ओह! यह खून तो मामू की घुट्ठी (एंकल) में बड़ा - सा खरोंच लगने के कारण बह रहा है। "मामू आपके पैर से खून बह रहा है।"
"चुप भांजे, यह खून नहीं है, थोड़ा छिला गया है।"
"चलिए आप बैजू से बैंडेज करवा लीजिये।" बैजू मेरे गावं के झोला - छाप डॉक्टर थे।
"अरे बैंडेज देखेगी तो दीदी और डांटेगी।"
"और घाव हो गया तो क्या डांट नहीं मिलेगी?"
मामू जितनी देर तक मैं सायकिल चलाता रहा, मेरे साथ ही लगातार दौड़ते रहे - ठीक मेरे पीछे - पीछे ताकि अगर मैं गिर जाऊं तो मुझे वे तुरत थाम लें। 
मामू के पैर में पांच टांके लगे। बैंडेज करवाकर घर पहुंचे तो शाम हो रही थी। लेकिन उस धुंधले में भी माँ ने मामू के पैर में बैंडेज देख लिया। अब उसका शुरू हो जाना तो लाजिमी था, "सिद्धी, तू सायकिल सिखावे गेलं हलय, कि अपना पैर घायल करे?"
अब मामू क्या कहते? मुझे ही कहना पड़ा, "मामू हमको बचाने में अपना पैर घायल कर लिए। इन्हें मत डाँटो। मैं हूँ दोषी इसके लिए।"
माँ तो चुप हो गई। लेकिन मामू ने मुझे अवश्य कहा था, "मैंने आपको कुछ भी कहने के लिए मना किया था न। लेकिन आप टुबहुक दिए।"
मामू दुखी हो गए थे। इसलिए नहीं कि उनका पैर घायल हो गया था, बल्कि इसलिए कि मैंने उनकी बात नहीं मानी।

X X X X X

  एक बार मुझे ममहर (मामा के गावं) जाने का मौका मिला। मैं नानी से मिला। पूछा, “सिद्धी मामू कहाँ पर हैं?"
"होगा कहीं गप्प लड़ाते हुए, दोस्तों के साथ। और क्या पढाई कर रहा होगा।"
सिद्धी मामू बड़े हो गए थे। मैट्रिक तो पास हो गए थे, लेकिन आगे की पढाई में उनका मन बिलकुल नहीं लगता था। हालाँकि नाना के दबाव में कॉलेज में एडमिशन करा दिया गया था। परिवार में अन्य बच्चे भी पढाई कर रहे थे, इसलिए नाना उन्हें भी पढने का मौका जरूर देना चाहते थे। मेरी मां के गावं से ‘गया’ शहर ज्यादा दूर नहीं था। सायकिल से आधा घंटा से चालीस मिनट में पंहुचा जा सकता था।
"मैं यहाँ पढाई कर रहा हूँ।"
घर के अंदर से मामा की आवाज आई थी।
मामा के घर के अंदर झाँका देखा। वे सचमुच पढाई कर रहे थे। मैं बड़ी उत्सुकता से घर के अंदर घुसा। मामा और दिन के बारह बजे तक पढाई कर रहे है, ये तो दसवां आश्चर्य हुआ। मैं घर के अंदर चला गया।
 "आओ, आओ, भांजे। दीदी कैसी है?"
"सब ठीक है, आप क्योँ नहीं आये? क्या आप कभी भी नही वहां आएंगे। दीदी ने मुझे इसीलिये यहाँ भेजा है। यही पूछने के लिए कि सिद्धिया आना क्यों बंद कर दिया? क्या हो गया?"
मैंने वहां चारो तरफ नजरें दौड़ाई।  उस्समय के हिन्दी जगत के प्रसिद्ध लेखकों की सारी फिक्सन की किताबें मैंने देखी। एकतरफ प्रेमचंद की “गोदान, गबन, निर्मला" और मोटी वॉल्यूम वाली "रंगभूमि, कर्मभूमि" आदि  किताबें तथा कहानियों की पूरी श्रंखला थी।  दूसरी तरफ अन्य लेखकों जैसे मोहन राकेश, चन्द्रधर शर्मा गुलेरी, जैनेन्द्र, यशपाल, महादेवी वर्मा, जयशंकर प्रसाद, कमलेश्वर आदि की कहानियां और उपन्यास पड़े थे। एकाध - दो किताबें सआदत हसन मंटो और गुलशन नंदा के भी थे। कहीं भी मैंने उस समय के सस्ते लेखकों  जैसे  इब्ने शफी, वेदप्रकाश काम्बोज या कुशवाहा कांत की कृतियाँ नहीं देखी।  मैंने उत्सुकतावश ही प्रेमचंद की कर्मभूमि जो हाथ में उठाई तो आधी किताब हाथ में आ गयी और आधी टेबुल पर ही रह गई। 
"अरे, अरे, उसको मत उठाओ, उसे सटाना है। पढने के बाद साट देंगें।"
मैंने कुछ समझा नहीं। और इसपर आगे चर्चा करना भी उचित नहीं समझा।  
"आज मैं तुझे बताऊंगा कि मैं क्यों नहीं जा पा रहा हूँ।"
"भांजे, उस दिन जो कुछ हुआ उससे मुझे इतनी ग्लानी हो रही है कि वहां दीदी से मिलने की इच्छा रहने पर भी मिलने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा हूँ।"
"क्या हुआ था उस दिन?"
उस दिन २५ जनवरी की शाम थी। हमलोग सभी शाम में स्कूल के ग्राउंड में ही फुट बाल की प्रैक्टिस कर रहे थे।  २७ जनवरी को गया शहर के एक  स्कूल हरिदास सेमिनरी की  सबसे बेहतरीन टीम के साथ फ्रेंडली मैच था।  उस मैच को देखने इस क्षेत्र के एम पी मुख्य अतिथि  के रूप में, और एम एल ए साहब भी शिरकत करने वाले थे। मैच की  प्रक्ट्स जोरों से चल रही थी।  हमलोग प्रैक्टिस के बाद मैदान के पांच चक्कर दौड़ लगाकर थोड़ा सुस्ता रहे थे।  सारे खिलाड़ी चले गए थे।  बस मैं, कृपाल, तृपित, सरोज और अनिरुद्ध रह गए।  दोस्तों के बीच मजाक चल रहा था।  इतने में तृपित ने एक सिगरेट निकाली और उसे सुलगा लिया।  उन दिनों सिगरेट पीना और पिलाना खासकर स्कूल जाने वाले विद्यार्थियों के लिए बहुत  बड़ा अक्षम्य अपराध था।  अनिरुद्ध तो सिगरेट पीता ही नहीं था, सो उसने लेने से साफ़ मना कर दिया। मैं कभी - कभार एक दो फूँक मार लिया करता था। वही एक सिगरेट में कभी कृपाल, कभी सरोज और कभी मैं एक दो फूंक मारकर गप्पें मार रहे थे।"
सिद्धी मामू ने थोड़ी सांस लेकर अंदर आई वेदना को पीते हुए कहना जारी रखा, " हमलोग धीरे - धीरे स्कूल  बिल्डिंग से दूर हॉस्टल के तरफ निकल आये थे।  अचानक किसी ने देखा कि हेडमास्टर साहब  यानि मेरे भैया हॉस्टल के पिछवाड़े से प्रकट हो गए।  तृपित ने कृपाल को, कृपाल ने सरोज को और सरोज ने मेरे हाथों में सिगरेट थमा दी।  मास्टर साहब अब बिलकुल सामने आ गए थे। मैंने हाथ से ही सिगरेट को मसलकर पॉकेट में रख लिया।  मास्टर साहब कह रहे थे, "अच्छा हुआ आपलोग मिल गए।  कल २६ जनवरी को प्रखंड विकास पदाधिकारी और गया से जिला शिक्षा पदाधिकारी आ रहे हैं।  वे झंडोत्तोलन भी  करेंगे।  स्कूल का निरीक्षण भी करेंगे।  एक सांस्कृतिक कार्यक्रम भी रखा गया है। आप लोगों में कृपाल और तृपित स्कूल के बाहर बनने वाले गेट पर रहेंगे।  सिद्धी और सरोज आपलोग मंच की सजावट का भार सम्भालेंगें।"  इतना बात वे कर ही रहे थे की सबों को कुछ कपडे के जलने की गन्ध नाक में घुस रही थी। "कही कुछ जलने की गंध आ रही है.?" मास्साब ने पूछा।  तब तक  तो उनकी नजर मेरे पैंट की पाकेट की तरफ गई जहाँ से धुआं उठ रहा था। "सिद्धी  तुम्हारे पैंट से धुआं कैसे उठ रहा है?" उन्हें समझते देर नहीं लगी। "तो तुम जलती हुयी सिगरेट पैंट के पाकेट में रख लिए थे। कब से सिगरेट पी रहे हो? तुम तो इसतरह घर में भी आग लगा दे सकते हो। घर में अभी जाड़े के दिनों में पुआल पर ही बिछावन डालकर सोते हो। पुआल में तो आसानी से आग लग जाएगी। झुलस कर मरोगे अपने भी और पुरे परिवार को सोती रात में झुलसाकर मार डालोगे। हम नाना को क्या जवाब देंगें? कल अपना बोरिया बिस्तर समेटो और घर चले जाओ।  हम नाना से कुछ नहीं कहेंगे।  अपनी दीदी से भी कुछ मत कहना। " मैं चुपचाप गर्दन झुकाये सब सुनता रहा।  एक ऐसा अपराध जिसके सभी भागीदार थे लेकिन सजा सिर्फ मैं भुगत रहा था।  मैंने किसी का नाम नहीं लिया।  सारा अपराध अपने सर लेकर मैं वहां से घर चला आया।  चूँकि मैं सेंट उप हो चुका था इसलिए मैट्रिक की परीक्षा मैंने यहीं से 'गया' जाकर दी, जहाँ सेंटर पड़ा था। अब तुम्हीं बताओ मैं कौन सा मुंह लेकर फिर दीदी से मिलने जाऊं।"
मामू को मैंने कभी उदास भी नहीं देखा था। लेकिन उस दिन वे रो रहे थे। मैंने उन्हें ढाढस बँधाते हुए कहा था, "मामू माँ को सब मालूम है। सबों ने आपको बुलाया है। आपके दोस्तों ने खासकर। माँ को आपसे कोई शिकायत नहीं है। लेकिन आप नहीं जायेंगे तो बहुत बड़ी शिकायत हो जायगी।"
मैने यह सब झूठ - झूठ ही सही मामू के चेहरे पर मुस्कान लाने के लिए कही थी।
मामू खुश थे कि उनकी दीदी यानि मेरी माँ ने उन्हें माफ़ कर दिया है। अचानक उनको याद आया," अरे, अरे बाबूजी ने गावं के पूरबी किनारे पर के पम्प सेट पर बुलाया था। वहां बोरिंग से गेहूं की पटवन चल रही है। "चल वहां, बाकी बात वहीं जाकर करेंगे।"
उन्होंने प्रेमचंद के कर्मभूमि की आधे फटी वॉल्यूम अपने कोर्स के किताब के साथ और पढाई की रजिस्टर में रखे। हमलोग पम्प - सेट की तरफ चल दिए। तब मुझे पता चला कि मोटी किताब को खण्डों में विभक्त करने का क्या रहस्य है।
वहां केबिन के अंदर एक टेबुल था, जो वहां रहकर भी पढाई करने के लिए नाना ने मामू को लेकर दे दी थी।  उसपर उनकी कोर्स की किताबें रहती थी।  कोर्स की लम्बी रजिस्टरनुमा  कॉपी के बीच कहानी  की किताबें या उपन्यास रखे जाते  थे  ताकि अचानक अगर नाना यानि मामू के पिताजी  आ जायँ तो कोर्स की रजिस्टर देखकर  आश्वस्त हो जायँ कि सिद्धी कोर्स की किताब ही पढ़ रहा है।  लेकिन उन्हें हमेशा ही इस बात का खटका रहता था कि सिद्धिया  दिखा कुछ और रहा है और पढ़ कुछ और रहा है। 
   लेकिन इस बात अंदाजा होना और विस्वास होना मुश्किल होता था की मामू की रूचि इतनी परिस्कृत थी कि वे स्तरीय एवं साहित्यिक किताबें ही पढ़ते थे। उस टेबुल के पीछे एक पुराने दरवाजे का पल्ला रखा था। मामू मुझे वहां कुर्सी पर बैठाकर थोड़ा बाहर निकले थे। वे एकबार घूमकर देख लेना चाहते थे कि पम्प सेट से निकलता हुआ पानी उन्हीं के खेतों में जा रहा है या उससे बगल के दूसरे खेत का पटाना हो गया और उनका खेत खाली ही रह गया। 
एक बार ऐसे ही हुआ था।  मामू प्रेमचंद की 'निर्मला' पढ़ रहे थे।  पम्प चल रहा था।  किसी की  बदमाशी  से या अपने से  ही ऐसा हुआ कि पानी बगल वाले खेत में जाने लगा।  उनका मन उपन्यास में डूबा हुआ था।  इतने में नाना पहुँच गए थे।  उन्होंने देखा कि पानी तो दूसरे के खेत में जा रहा है। आके  केबिन में देखा तो सिद्धी  किताब पढने में डूबा हुआ था।  वह प्रेमचंद की "निर्मला" रजिस्टर के बीच में रखकर पढ़ रहे थे, इसलिए बच गए।  … और नाना हल्की सी ही  डांट देकर रह गए थे। "सिद्धी तुमको देखा नहीं जाता है की पानी दूसरे के खेत में जा रहा है।  हमने ठीक कर दिया है। ठीक है तुम पढाई करो। "
लेकिन उनकी अंतरात्मा ने तो उन्हें जरूर झकझोरा था, "सिद्धी "निर्मला" के चक्कर में तुम्हारे पम्प सेट के पानी से दूसरे का खेत पट रहा है।"
इसलिए  आज जब वे मेरे साथ केबिन में आये थे तो वे  मुझे वहां ठहरा कर पहले देखने चले गए कि पम्प का पानी सही दिशा में उन्हीं के खेत में जा रहा है न।  उनके बाहर निकलते ही मैं पूरे केबिन का मुआयना करने लगा। बैठने की कुर्सी के पीछे एक टूटे हुए दरवाजे का पटरा रखा था। मैंने उत्सुकतावश  उसे दूसरी तरफ पलट दिया।  मेरी तो आँखे खुली - की - खुली रह गई।  मैं वहां देखता हूँ कि सिनेमा का पेपर "स्क्रीन" का पिछले कई सालों का सेट सजाकर रखा हुआ है।  वहीं पर दूसरे तरफ उससमय  पॉकेटबुक टाइप में  अंगरेजी में  एक मैगज़ीन निकलती  थी "पिक्चरपोस्ट", उसकी पिछली कई सालों की प्रतियां सजाकर रखी हुई थी।  मैं तो वाह! कह उठा। क्या टेस्ट था मामू का: एक तरफ हिन्दी की साहित्यिक किताबे जिसमें हिन्दी के तमाम अग्रिम पक्ति के साहित्यकार शामिल थे और दूसरी तरफ फ़िल्मी किताबो और अखबारों की दुनिया थी।
"मालिक, आपको कोई धुंध रहे हैं?" किसी को लेकर खेतों में काम करने वाला मजदूर पम्प  के केबिन के दरवाजे पर खड़ा था। सिद्धी मां ने झट से उसको अंदर खींचकर केबिन बंद कर लिया।  मैं तो पहचान गया। मेरे ही गावं का एक लड़का था वह। "किसी ने देखा तो नहीं।  बाबूजी देख लेंगें तो तुम्हें भी सुनाएंगे, गिणगिणकर और मुझे तो सुनाएंगे ही। " सिद्धी मामू ने पूछा था। 
"नहीं, नहीं, मुझे पहले ही सरोजकुमार जी बता दिए थे , उनके घरपर जाकर मत मिलना। पता लगाकर वे कहाँ हैं वहीं जाकर मिलना। "
"अच्छा बोल?" 
"सिद्धी जी आझे मैच है "बुधगेरे" के रेलवे लाइन के बगल वाला फिल्ड में। तोरा जरूर - से - जरूर आवे ल कहलथुन हे।"
"अच्छा ठीक हउ तू जो, हम कोशिश करबौ। । जल्दी से यहाँ से फुट। अब बाबूजी आ गेलथुन तब सब काम गड़बड़ा जइतो ..."  
       सिद्धी मामा को जितना फूटबाल खेलने से जूनून की हद तक  लगाव था नानाजी को उससे उतनी ही नफतरत थी।  उनकी दृष्टी में खेल - कूद बस समय बर्बाद करना है।  जो लडके यह समय बर्बाद करेंगे उनको जिंदगी भर पछताना पड़ेगा। लेकिन सिद्धी मामू को अगर कहीं से खेलने का निमंत्रण आया तो कोई - न - कोई  घर में बहाना बनाकर  खेलने के लिए मैदान में पहुँच ही जाते थे। वे  फुलबैक के पोजीशन से खेलते थे।  वे अक्सर हमारे गावं की तरफ से ही खेलते थे।  अगर वे डट गए तो मजाल है कि गेंद गोलकीपर  के तरफ  आ भी जाय।  इसतरह उनके खेलने से हमारे गावं का पलड़ा हमेशा भारी रहता था।
सिद्धी मामू मन - ही - मन सोच रहे थे कि आज बाबूजी (मेरे नानाजी) से क्या बहाना बनाया जाये। अभी तक इतने बहाने बना  चुके थे कि बहानों का स्टॉक भी खत्म हो गया था।  नए बहाने के लिए कुछ नए तरह से सोचना होगा। बाबूजी के चश्में का एक ग्लास दरक गया था।  उसी को बदल करके लाने का प्लान मामू ने सोच लिया।  घर पर पहुंचते ही नानाजी ने उनसे पूछा, "सिद्धी कोई तुमको खोज रहा था।  फिर कोई फूटबाल खेलने का निमंत्रण लेकर नहीं आया था न?"
"नहीं, बाबूजी फ़ुटबाल खेलना तो हम छोड़ ही दिए हैं (आपके कहने पर, ऐसा उन्होंने कहा नहीं , सिर्फ सोचा)" थोड़े विराम के साथ वे बोले ," बाबूजी, सोच रहे थे कि आपके चश्मे का  गिलास जो टूट गया, उसे बनवा देते। और वो जो मुझे खोजने आया था, उसे मुझे एक दोस्त ने भेजा  था।  हमलोगो का आई ऐ का  फॉर्म   भराना शुरू हो गया है। कल ही लास्ट डेट है। तो उसके लिए भी आज ही 'गया' जाना होगा। "
वे प्रश्नवाचक मुद्रा में नानाजी के सामने खड़े हो गए थे,
 "जाओ जल्दी देख क्या रहे हो? पैसा माँ से मांग लेना।"
सिद्धी मामू को तो मन की मुराद मिल गई। जल्दी - जल्दी किसीतरह खाना ख़त्म किया। कपड़ा - उपडा समेटा, बाबूजी का चश्मा लिया, साईकिल उठाई, चल दिए फूटबाल मैच के मैदान की ओर....
  वहां मैदान में दोनों टीमें फूटबाल ग्राउंड पर आ चुकी  थी।  मेरे गावं की टीम में, जिस ओर से सिद्धी मामू खेलने वाले थे मायूसी का वातावरण छाया हुआ था क्योंकि उससमय तक सिद्धी जी का कहीं पता नहीं था।  यह सेमीफइनल मैच था।  इसे जीतना जरूरी था।  सब लोग बार - बार उस रास्ते की तरफ देख रहे थे जिस तरफ से सिद्धी जी आने वाले थे।  इतने में सिद्धी जी साईकिल से आते हुए दिखाई दिए। किसी ने कहा सिद्धी जी आ गए। टीमके कप्तान को खबर कर दी गई।  उसने आयोजक से बात की।  रेफरी से कहकर मैच को शुरू करने में थोड़ा विलम्ब करने की इजाजत ली गई।  विपक्षी टीम ने इसपर आपत्ति जताई।  लेकिन यह आपत्ति अस्वीकार कर दी गई।  सिद्धी जी के  पहुँचने पर वैसा ही लगा जैसे हनुमान जी संजीवनी बूटी लेकर लंका पहुँच गए हो, मूर्छित लक्ष्मण को जीवन दान देने
"…आइ गए हनुमान, जिमि करुणा मँह वीररस।"
मैच हुआ … जमकर  सिद्धी मामू खेले … और मेरे गावं की टीम ने दो गोलों से मैच जीत लिया। यह सब सिद्धी मामू की बदौलत ही हुआ। मैच के ख़त्म होने पर सिद्धी मामू को लोग धन्यवाद देने के लिए खोज ही रहे थे कि सिद्धी मामू कहीं नजर नहीं आये।  किसी ने कहा वे तो सायकिल से गया के रास्ते पर जाते हुए मिले। उन्हें निकलना जरूरी था नहीं तो गया में डॉ तिवारी का क्लीनिक बंद हो जाता और बाबूजी का चश्मा नहीं बनवाने पर सारी पोल खुल जाती। इसीलिये बिना किसी से मिले और कृतज्ञता ग्रहण किये सिद्धी मामू निकल लिए।  लेकिन लोग तो कह रहे थे आदमी सिद्धी जी जैसा निःस्वार्थ नहीं हो सकता जिन्होंने धन्यवाद ग्रहण करने का भी समय नहीं लिया और न धन्यवाद देने वालों को ही समय दिया।
X X X X X     
एक बार त्रिबेनी मामा को डिहरी - ओन - सोन, जो गया से ढाई या तीन घंटे रेल की यात्रा के पड़ाव पर पड़ता था, जाना था। उन्होंने सिद्धी मामा से पूछा, "सिद्धी तोरा फुर्सत हो, चलमें हमारा साथे। एक दिन में लौट आवे ल हे।"
"हाँ, भैया चल न, तोर काम से बड़ा कौन काम होतई।" सिद्धी मामू ने तुरत सकारात्मक उत्तर दिया। 
"अरे, चाचा यानि तोर बाबूजी बिगड़तेथुन, नै न।"
"भैया के बात, हम सम्हाल लेबै न। और ज्यादा बिगड़तां तब तू सम्हाल लिह।"
दोनों चल दिए गया से डिहरी -ओन- सोन के लिए।  जाने के समय तो त्रिबेनी मामा ने दोनों के लिए टिकट कटा लिया।  "सिद्धी ले अपना टिकट।"
“भैया, अपने काहे ल कष्ट किये। हम कटा देतीय हल न।"
"अच्छा, ठीक है, लौटती बार तुही कटाना।"
डिहरी में जो काम था उसे पूरा करते - करते दिन भर लग गया। शाम की लोकल से दोनों को लौटना था। त्रिबेनी मामा ने सिद्धी मामा को टिकट कटाने के पैसे दिए।  सिद्धी मामा टिकट कटा कर एक टिकट त्रिबेनी मामा को थमा दिए। "तुहु अपना लगी टिकट ले लेला हा न, सिद्धी.?"
"अपने काहे ल चिंता करीत ही। चलिए ट्रैन लग गेलै हे। तोरा बढ़िया सीट देख के बैठा दे हिअ।" 
त्रिबेनी मामा को एक बढ़िया सा खिड़की वाला सीट पर बैठा दिए।
"तू, यहीं पर बइठ, हम आवित हिओ।"
"देख, सिद्धी जल्दी आ जैहै।"
तबतक ट्रेन खुल चुकी थी। यह एक लोकल पैसेंजर ट्रेन थी। ट्रेन एक - दो स्टेशन पार कर चुकी तबतक भी सिद्धी का पता नहीं था। टिकट चेकर बाबू आये सबका टिकट चेक कर आगे बढ़ गए। अब त्रिबेनी मामा परेशान। सिद्धिया के कहीं पता नहीं है। जब तीसरा स्टेशन पार कर गया, तब सिद्धी मामा दिखाई दिए। 
"सिद्धी कहाँ चले गए थे? तुम हमको बदनाम करके रहोगे।"
गया का आदमी जब गुस्सा में होता है तब मगही से खड़ी बोली यानि शुद्ध हिन्दी बोलने लगता है।
"भैया, तू काहे ल परेशान होइत ह, हम हिएँ पर न हिए।"
"नहीं, नहीं तुम हिएँ बैठो।"
सिद्धी मामू को तो जैसे जेल हो गई।
"भैया टिटिया, चल गेलै न।"
"तू टिटिया से काहे ल परेशान होइत हैं, टिकट हो न, हम तो टिकट के पैसा तोरा देलिओ हल।"
“हाँ, भैया, तू परेशान मत होअ."
"लेकिन तू यहीं पर बैठो।"
"अच्छा ठीक हव।"
सिद्धी मामू वहीं पर बैठ तो गए। लेकिन बार - बार उठकर वे बोगी के दरवाजे के तरफ झांकते और फिर आकर बैठ जाते। ट्रेन गया स्टेशन पहुँचाने वाला ही था।  गया जंक्शन पर ट्रेन पहुँचने के पहले थोड़ी - सी धीमी होती है, आउटर सिग्नल के पास। कभी - कभी तो प्लेटफार्म खाली नहीं होने पर रुक भी जाती है।  आज ट्रैन वहां पर धीमी हुई - सी लगी। 
"भैया, हम तुरत आवित हिओ।"
कहकर सिद्धी मामू वहाँ से उठकर दरवाजे के तरफ बढे। त्रिबेनी मामा बस इतना ही देखे। फिर ट्रेन धीरे - धीरे गया जंक्शन प्लेटफार्म पर लग गई। त्रिबेनी मामा स्टेशन पर उत्तर गए। सोचे सिद्धी टॉयलेट गया होगा। अब उतरेगा। जब बहुत देर तक नहीं उतरे, तब मामा खुद टॉयलेट में देखने गए। वहां तो सिद्धी है ही नहीं। अब क्या होगा? पता नहीं आउटर गुमटी आने के समय दरवाजे की ओर गया था। गिर गया क्या? गिर जायेगा तो कहीं ट्रेन के नीचे तो नहेीं आ गया। अनेक तरह की आशंकाएं उन्हें घेरने लगीं। अब क्या होगा? हम चाचा को क्या जवाब देंगे?  एक ही परिवार की बात है। कहीं चाचा यह न समझ लें कि यह मेरा ही षड्यंत्र था। मैंने ही उसे ट्रेन से धकेल दिया? यह तो अनर्थ हो जाएगा। वे अपने को कोसने लगे। पता नहीं किस मुहूर्त में मैंने सिद्धी को अपने साथ चलने के लिए कहा था। सारे दुष्परिणामों की जड़ मै ही हूँ। मैं परिवार का बड़ा सदस्य हूँ। क्या बड़े हने की यही जिम्मेवारी निभाई मैंने? एक छोटे भाई को अपने साथ ले गया और जिस कारण से भी हो, वह दुर्घटनाग्रस्त हो गया तो जिम्मेवार कौन होगा? साथ ले जानेवाला ही न। त्रिबेनी मामा अपने को कोसते हुए काफी देर तक स्टेशन पर बैठे रहे। फिर एक हारे हुए जुआरी या एक ऐसे वैष्णव, जिसे धोखे से मांस खिलाकर मदिरापान करा दिया हो, की तरह लुटे - पिटे चेहरे लेकर अपने डेरा की ओर चले।
उन दिनों मेरे ममहर के कॉलेज में पढने वाले सारे लडके गया के 'दुःखहरणी माई के फाटक' से थोड़ी दूर पर रैन - बसेरा  नामक डेरे में रहते थे। वहीं मेरे बड़े मामा के बड़े लड़के महेश भैया भी रहते थे।  वे उम्र में सिद्धी मामा से थोड़े बड़े ही होंगे। त्रिबेनी मामा डेरा पर रिक्शा से उतरते ही महेश भैया  से रोते हुए कहने लगे, "देख ना महेश, सिद्धिया कहीं डेल्हा पर वाला गुमटी के पास गिर गया, क्या हुआ पता नहीं, स्टेशन पर उतरा ही नहीं।  अब हम चाचा को क्या मुंह दिखाएंगे ?"
महेश भैया थोड़े सोचे फिर बोले, "चाचा, तू काहे ल चिंता करीत ह, देख थोड़े देर में उ आउत होतो। तू फ्रेश होक खाना खा। रात बहुत हो गेलो हे।"
"महेश, का तू बोलै हे, हमारा खाना ढुकतौ?" कहकर त्रिवेणी मामू रोने लगे।
तबतक सिद्धी मामू एक फ़िल्मी धुन गुनगुनाते हुए डेरा में घुसे। 
महेश भैया बोले, "देख सिद्धिया आ गेलो न, तू बेकारे परेशान हो रहल हल." 
त्रिवेणी मामा तैश में थे। वे तैश में होते थे तो खड़ी हिन्दी बोलने लगते थे, "सिद्धी तुम कहाँ रह गए थे? हमको बदनाम करके छोड़ दोगे। चाचा क्या कहेंगे? सिद्धी के बिगाड़े में हम भी लगे हुए हैं। ऐसे ही तुम्हारा नाम बदनाम है।"
सिद्धी मामा बिलकुल शांत स्थितप्रज्ञ की तरह बोले. "भैया तू बेकार परेशान हो रहला हल। हम तो आवते हलि न।"
महेश भैया बोले, "देख चाचा हम तो तोरा शांत रहे कहलियो हल। एकरा का होतो। इ तो केतना के चरा देतो।"
"ऐ महेश, देखो ज्यादा लट- पट मत बोलो।"
सिद्धी मामू महेश भैया को अकेले कोने में ले गए, "अरे हम गुमटी के पास ट्रेन धीमा हुआ तब उत्तर गए थे।"
महेश, "टिकट नहीं कटाये थे न।"
सिद्धी मामू हँसने लगे। महेश भैया बोले, "टिकट का पैसा बचाकर सिगरेट पिए होगे।"
"भैया से मत कहना। महेश तुमको हम्मर किरिया।"
"अच्छा, ठीक है। लेकिन एक शर्त है। आज से तुम सिगरेट नहीं पीओगे।"
सिद्धी मामू बड़े सोच में पड़ गए। महेश भैया फिर पूछे, "जल्दी बोलो।"
"जाओ ठीक है आज से कसम खाते हैं कभी सिगरेट नहीं पीयेंगे। जाओ तुम्हारे नाम पर आज से सिगरेट पीना छोड़ रहे हैं।"
और उसके बाद सिद्धी मामू ने सिगरेट कभी मुंह से नहीं लगाई। उन्हें अपनी अनन्यप्रिया, दुःख और दर्द में साथ देनेवाली प्रेयसी सिगरेट से बिछुड़ने का कितना गम था उसे तो उन्होंने ही महसूस किया होगा। उन्होंने अपने पैंट की पॉकेट से सिगरेट की ताजी खरीदी गई डिबिया को टॉयलेट के क्लोसेट में खुद डालकर फ्लश चला दिया। 


..और पर्स मिल गया (कहानी)

#BnmRachnaWorld

#chhanvkasukh : यह कहानी मेरी पुस्तक "छाँव का सुख" में सम्मिलित की गई है.

मेरी लिखी कहानी संग्रह "छांव का सुखप्रकाशित हो चुकी है. सत्य प्रसंगों पर आधारित जिंदगी के करीब दस्तक देती कहानियों का आनंद लें.अपने मन्तब्य अवश्य दे.
यह पुस्तक अमेज़ॉन किंडल  पर उपलब्ध हैमात्र 49 रुपये में पुस्तक को डाउन लोड  करें और पढ़ें 
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यह कहानी मेरे यूट्यूब चैनल marmagya net के #newkahanitime में मेरी आवाज में पांच भागों में प्रकाशित हुई है, जिसका लिंक इस कहानी के अंत में दिया गया  है। कहानी मेरी आवाज में सुनें, मेरे चैनल को सब्सक्राइब करें और कमेंट बॉक्स में अपने बहुमूल्य विचारों से अवगत कराएं।
सादर!









..और पर्स मिल गया

            कौन चाहता  है अपना गावं और अपना शहर छोड़ना।  उसे इसका अफ़सोस तो था।  लेकिन कुछ प्राप्त करने के लिए कुछ खोना भी पड़ता है।  अगर उसकी शिक्षा के उपयोग का स्कोप वहां है तो वहां जाना पड़ेगा।  उसके लिए तो यह और भी जरूरी था।  क्योंकि उसे अपने परिवार को गरीबी  की रेखा के नीचे से खींचकर ऊपर जो निकालना था।  आज वह खुश तो बहुत था।  लेकिन थोड़ा दुखी भी था।  वह आई (माँ) को कम - से - कम अपने साथ ले जाना चाहता था। परन्तु  ले नहीं जा पा  रहा था।  अभी तो  नौकरी  का जॉइनिंग था, फिर देखेगा कि  क्या  ब्यवस्था   हो पाती है। उसके पास सिर्फ एक ट्राली  सूटकेस  और एक और  पीठ पर लटकाने वाला बैग था।  इसीमें उसका लैपटॉप भी था।  उसे सेकंड ए सी में लोअर बर्थ मिला था।  लोअर बर्थ पर उसके जैसे नौजवान और स्वस्थ लड़के को यात्रा करने में थोड़ा  अटपटा लग रहा था।  पिछली कई यात्राओं में जब भी उसे लोअर बर्थ मिला था, किसी बुजुर्ग या  छोटे बच्चे की फीडिंग मदर के  आग्रह पर  वह बर्थ   उन्हें दे दिया करता था। इसमें उसे बहुत ही आनंद आता था।  इस बार ऐसी कोई रिक्वेस्ट नहीं आ रही थी।
       गाड़ी  तेज गति से दक्षिण  के तरफ  भागी जा रही थी।  उसी के साथ उसका  विचार - क्रम भी तीव्र  गति  पकड़ रहा था।  उसे  अपने वे सारे दिन जो उसने स्कूल, कॉलेज, गावं, गणपति पूजा  में बिताये थे रह – रह कर याद आ रहे   थे।  अभी वह पूरी  तरह प्रोफेशनल  नहीं बना था इसीलिए उसके अंदर संवेदनाएं और विचारणाएँ हिलोरें मार रही थी।  'अगर मेरा शहर ही  इतना विकसित होता तो मैं भी  वहीं रहकर नौकरी  करता।  तब कितना अच्छा होता।  गावं से जुड़ाव रहता और शहर में नौकरी रहती।  अपने शहर के लिए कुछ विशेष करना चाहे तो कर सकता था।  लेकिन ऐसा भी कभी होता है।  या ऐसा कभी - कभी ही होता है।  अभी तो बड़े - बड़े शहर विकसित हो  रहे  हैं और फ़ैल रहे हैं।  छोटे शहरों का विकास तो हो नहीं पा रहा है।  जो शहर विकास के न्यूक्लियस बनकर आसपास के गावों के विकास में सहायक बन सकते थे, वे अभी आसपास के गावों के शोषण -  बिंदु  बनते जा रहे हैं।'
वह अपने विचार - यात्रा के क्रम को इस रेल यात्रा में भी ढोये जा रहा था । उसकी सोच कभी - कभी विचित्र दिशा पकड़ लेती थी। और वह उनमें फंसकर रह जाता था। 
  फिलहाल वह उनसे निकलना चाह रहा था । वह स्कूल, कॉलेज, गावं, गणपति  के समय बिताये गए अनमोल पलों में खो जाना चाहता था। कॉलेज के चौथे  साल में ही उसका प्लेसमेंट देश की मुख्य तेल कंपनी भारत पेट्रोलियम में हो गया था।  लेकिन उस्समय कहाँ PLACEMENT दिया जाएगा इसके बारे में कुछ नहीं बताया गया था ।  कहा गया कि  ऑफर लेटर मिलने के बाद इसके बारे में पता चल जाएगा ।  मन  में   एक  प्रकार की अनिश्चितता की स्थिति का आभास हो रहा था ।  लेकिन उसने मन बना लिया था कि जहाँ भी उसे  पदस्थपित किया जाएगा उसके लिए वह तैयार था ।  अंततः ऑफर लेटर भी मिल गया था ।  उसका पदस्थापन कोयंबटूर में हुआ था।  उसकी खुशी का ठिकाना नहीं था ।  बहुत ही शांत और अच्छी जगह है, ऐसा लोगों ने कहा था ।  हालाँकि वह तो कहीं के लिए भी तैयार था ।  
नितिन  ने  एन आई टी,  नागपुर     से   मैकेनिकल  इंजीनियरिंग  किया  था ।  किसी  को  विश्वास   नहीं  हुआ  था   जब  उसने  आल  इंडिया  इंजीनियरिंग  की  प्रतियोगिता  परीक्षा  में  अच्छे  रैंक  हासिल  किये  थे ।  तभी तो  उसे  एन आई टी, नागपुर  में  इंजीनियरिंग  का  कोर  ब्रांच  मिला  था ।   यही   तो  उसकी   पसंद  थी । कौन  जानता था कि  महाराष्ट्र के विदर्भ क्षेत्र के यवतमाळ जिले के छोटे से गावं  में  छोटी  जोत  वाले  किसान  के  घर  का  एक  लड़का  अपनी  गरीबी  को  अपनी  लाचारी  नहीं  बताकर  उसे  अपनी ताकत बनाएगा और एक  दिन  इंजीनियर  बनेगा ।
जब वह नवोदय विद्यालय  में पढता था तो जिंदगी कितनी सहज और  सरल थी । नवोदय विद्यालय  आवासीय हुआ करते थे।  उसमें आने वाले  लगभग  सारे छात्र / छात्राएं   देहातीय पृष्ठभूमि से ही आये थे।  ज्यादा आडम्बर और दिखावापन नहीं था छात्रों के बीच में।  घाटनजी, यवतमाळ का यह नवोदय विद्यालय अपनी सादगी  के लिए सारे राज्य में जाना जाता था। वहां जिंदगी कितनी आसान थी।  पूरे विद्यालीय शिक्षा के दिन कैसे गुजर गए  पता ही नहीं चला।  जैसे - जैसे बड़ा हुआ माँ - पिताजी की आशाओं, आकांक्षाओ  का दबाव कन्धों पर महसूस करने लगा था।  घर में एक बड़े भाई और एक बहन थी।  परिवार को गरीबी के नीचे की रेखा से खींचकर ऊपर ले आना था।  उसे लगता था कि वह इसके लिए सक्षम है। 
इसीलिये वह चुपचाप पाठ्य - क्रम  की किताबों के पढने के साथ - साथ अखिल  भारतीय अभियांत्रिकी  प्रतियोगिता   की परीक्षा की तैयारी भी  कर रहा था, ताकि फिर तैयारी के लिए उसे एक और वर्ष बर्बाद नहीं करना पड़े।  प्लस टू  की परीक्षा के बाद उसने अखिल  भारतीय अभियांत्रिकी  प्रतियोगिता दी और उसे अच्छा रैंक मिला।  इस रैंक की काउंसलिंग में उसे नागपुर में मैकेनिकल अभियंत्रण मिला था।  यही उसका सपना भी  था।
यवतमाळ की अपेक्षा नागपुर बड़ा शहर है । सबसे पहला अनुभव तो उसे यही हुआ था। हालाँकि इसके पहले भी वह नागपुर आया था, लेकिन इस नजरिये से उसने इस शहर को नहीं देखा था। यवतमाळ शहर का चरित्र एक कस्बाई आवरण ओढ़े हुए था, नागपुर मानो   महानगर की ओर कदम बढ़ाता एक जीवंत शहर था। नागपुर में महानगर की सारी विशेषतायें थी, लेकिन अभी महानगर की सारी विवशताएँ यहाँ नहीं दिखती थी । इसलिए यह महानगर था, लेकिन इसका कस्बाई चरित्र अभी भी कायम था ।
इन्हीं सारी अप्रकट टिप्पणियों को मन में रखे  हुए वह VIT (विस्वस्वरैया  इंस्टिट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी ), जो  अब  एन  आई  टी  के नाम से जाना जाता  है, में  प्रवेश लेने के लिए पंहुचा था।  प्रवेश की सारी औपचरिकताएं पूरी करने के बाद उसे हॉस्टल एकोमोडेशन  भी मिल गया था। यहाँ से उसकी अभियांत्रिकी विद्यालय के जीवन के शुरुआत हुयी थी।  एक - दो महीने हल्का या कोमल रैगिंग के बाद फ्रेशर्स पार्टी हुयी थी और फिर सबकुछ सामान्य होता जा रहा था।
'योगः कर्मसु कौसलम' के जिस सिद्धांत को लेकर इस अभियंत्रण विद्यालय के संस्थापकों ने स्थापना की थी, उसकी परंपरा अभी तक कायम थी। नितिन तो शुरू में इसके कॉलेज भवन की भब्यता को देखकर आश्चर्यचकित रह गया था। ऐसा शायद ग्रामीण पृष्ठभूमि से आये सारे अभ्यर्थियों को   महसूस हुआ होगा। धीरे - धीरे सब सामान्य - सा लगने लगा था।
कुछ बदलाव साफ़ देखे जा सकते थे।  जो बन्दे या बन्दियां पहले सामान्य पहनावे में कॉलेज आया करते थे कुछ ही महीने बाद उनमें प्रचलित फैशन के अनुसार परिवर्तन साफ़ - साफ़ दिखने लगा  था।  यानि बन्दे टाइट पैंट्स या ट्रोसेर्स में होते  थे । सलवार,  सूट और दुपट्टा  साधारणतः कॉलेज जाने वाली लड़कियों का पहनावा हुआ करता था।  लेकिन इस ज़माने में इस शालीन पहनावे को बहनजी टाइप पे ब्रांडिंग कर दी गयी है।  कुछ दिनों बाद तो भारतीय या कहें तो परंपरागत परिधान जैसे धोती, कुरता , चादर या दक्षिण भारतीय लुंगी पुरुषों के लिए और साड़ी, सलवार, सूट और दुपट्टा जैसी पोशाक स्त्रियों के लिए शादी या पूजा - पाठ के आयोजनों या फिर संसद और विधान सभाओं में ही दिखाई देंगे। बन्दियां भी टाइट पैंट्स में अपने बहन जी टाइप इमेज से बाहर निकलने  को बेताब  दीखती   थी।  क्लासेज के साथ - साथ कैंटीन में समय बिताना भी रोज की दिनचर्या  में शामिल होता जा रहा था।  विद्यार्थी  जो एडमिशन के पहले तनाव में थे अब खुश लग रहे थे। कॉलेज का जीवन धीरे - धीरे रास आने लगा था।  अब तीन साल मस्ती में गुजारना था। सिर्फ परीक्षाओं के समय थोड़ी ब्यस्तता बढ़ जाती थी।  कोई भी सेमेस्टर बैक नहीं हो इसका ध्यान रखना जरूरी होता था।
नितिन ने अपने को इस कॉलेज के वातावरण में ब्यवस्थित करने में कुछ समय ज्यादा लगाया था। वह जब भी कैंटीन में किसी बंदी को टाइट जींस में देखता था तो उसके तरफ  स्वाभाविक आकर्षण  पैदा होता था । वह लड़कियों से बात करने में अपने को सहज नहीं पाता था।  हालाँकि टाइट जींस और स्लिम फिट टॉप्स में लड़कियां उसे आकर्षित भी करती थी।  यह तो अच्छा था कि मैकेनिकल में उसके सेक्शन में कोई भी लड़की नहीं थी।  जबकि अन्य लड़के अफ़सोस करते थे कि क्या यार हमारे सेक्शन में तो बिलकुल सुखाड़ है।  और देखो कंप्यूटर और आई टी  ब्राँच में यहाँ तक की इलेक्ट्रिकल एंड टेलीकॉम और इलेक्ट्रिकल में भी हरियरी ही हरियरी और बहार - ही - बहार है। इसलिए अधिकांश लड़कों का काफी समय खासकर फर्स्ट इयर में कैंटीन में ज्यादा और लाइब्रेरी  में कम बीतता था।  नितिन   को    जब भी कोई ऐसा  ख्याल आता था कि थोड़ा वक्त कैंटीन में बिताएं, लड़कियों से थोड़ी पढ़ाई के बारें में बातें शुरू कर तुरत पढ़ाई के अलावा अन्य विषयों पर बातचीत को आगे बढ़ाएं, उसके  सामने  उसके पेरेंट्स, बहन और भाई खड़े हो जाते थे।  उसे अपने परिवार को आगे बढ़ाना है, गरीबी   से निकालकर  विकास के पथ पर ले जाना है। 
बहुत से विद्यार्थी   अपना  प्रथम वर्ष तो कॉलेज, क्लास, कोर्स, कैंटीन  को समझने की कवायद में ही बिताकर  अपने -  अपने  कर्तब्य  को निभाते प्रतीत होते थे ।  परन्तु  नितिन ने अपने प्रथम वर्ष के भी एक - एक पल का सदुपयोग  किया।  इसलिए प्रथम वर्ष में भी वह अपने सेक्शन    में  अब्बल आया।  यह उसके कालेज जीवन  का  फर्स्ट माइलस्टोन था।
कॉलेज के सेकंड तथा थर्ड ईयर भी अच्छे अंकों के साथ वह उत्तीर्ण होता चला गया था।  उसके अंकों को   देखने  से  सेमेस्टर एवरेज भी बहुत अच्छा आ रहा था।  उसने मेहनत  करके अंकों को इसतरह हासिल  करने की कोशिश की थी ताकि  कैम्पस  सिलेक्शन के लिए आने वाली   कोई भी कंपनी उसे अंकों के आधार  पर  अस्वीकार नहीं कर सके।
अब फ़ोर्थ इयर, यानि चौथा वर्ष  आ गया था जो अभियंत्रण  की पढ़ाई की  दृस्टि से कई मायनों में बहुत महत्वपूर्ण था।  इसी वर्ष में नया प्रोजेक्ट सबमिट करना था।  इसी वर्ष में कंपनियां भी प्लेसमेंट के लिए आने वाली रहती थी।  इन सबों की पूरी तैयारी उसने कर ली थी।  प्लेसमेंट टेस्ट और इंटरव्यू  की  एक - एक डिटेल्स को उसने वर्क आउट किया था।  कोई भी प्रयास  में वह पीछे नहीं रहना चाहता था जिससे उसे बाद  में अफ़सोस न रहे  कि इस प्रयास में थोड़ी  कमी  रह  गयी।  उसे  अपने पेरेंट्स  के सपने को जो पूरा करना था। 
और आज वह बहुत खुश था। भारत पेट्रोलियम जो एक भारत सरकार का अभिक्रम है, ने मेन्टेनेन्स इंजीनियर के रूप में उसे सेलेक्ट कर लिया था। इस खुशी को पहले उसने माँ - पिताजी को बताना चाहा था। उसने मोबाइल अपने पिताजी को भी खरीद कर दे दिया था।
 मोबाइल पर ही उनसे बातें हुयी थी, "बाबा, मेरा चुनाव भारत पेट्रोलियम में नौकरी के लिए हो गया है।" उसने मोबाइल पर अपने पिताजी से बात करनी चाही थी। 
 पिताजी की आवाज साफ़ नहीं आ रही थी। "हल्लो, कौन बोल रहा है?" 
"बाबा, मैं नितिन बोल रहा हूँ।"
"हाँ, बोलो, सब ठीक है न।" और उन्होंने आई (माँ) को मोबाइल थमा दी थी। 
"बेटा, तुम जल्दी आ जाओ, यहाँ मैंने गणपति की पूजा रखी है। तुम्हारे बिना सब अधूरा लग रहा है। बहुत दिनों से घर नहीं आये हो। तुम्हें देखने का मन कर रहा है।"
आई ने बेटे के जवाब की प्रतीक्षा नहीं की। उसके मन में जो था, बस कह दिया था।
आई को इससे मतलब नहीं था कि बेटा को नौकरी हुयी या नहीं, हुई तो कितना पगार मिलेगा……कहाँ नौकरी करेगा  ....वगैरह … वगैरह…, उसे   तो बस इतना से मतलब था कि वह अपने बेटे को बहुत दिनों से देख नहीं पाई है। उसे देखना चाहती है।
आई की अंदर की भावना को नितिन ने अपने मन की परतों से अंदर तक उतरते हुए मह्सूस किया था।     नितिन ने फोन पर बातें करनी बंद कर दी थी। उसकी आँखों की कोर में अश्रु - जल छलक आये थे। उसने मन बना लिया था कि कल की सवेरे वाली बस से वह अपने गावं जा रहा है।  

X X X X X

     सवेरे   वाली   बस  तो सवेरे  ही छूटती  थी।  इसे पकड़ने के लिए भी सवेरे  ही उठना  था।  इधर इन्जीनीरिंग कॉलेज में एडमिशन लेने के बाद उसके सवेरे उठने की आदत  छूट  गयी  थी।  इसलिए सवेरे उठने के लिए वह अक्सर मोबाइल में अलार्म सेट कर लेता था।  इसे सबसे ऊँचे स्वर के लिए सेट करता था और तीन - चार  बार  रिपीट  के  लिए  भी  सेट कर देता था।  हालाँकि  आज भी उसने  अलार्म सेट कर दिया था।  लेकिन उसके बजने से पहले ही वह उठ चूका था।  नहीं, नहीं वह सोया  कहाँ था। ...वह  तो उठा हुआ ही था।  …उसे रात भर नींद कहाँ आयी  थी।  वह घर पहुंचकर बाबा, आई से मिलकर अपने नौकरी मिलने की खबर  सुनाएगा तो वे कितने खुश होंगे।  बहन भैया -  भैया कहकर  अपनी  शिकायतें बोलेगी, तुम फोन क्यों नहीं करते थे, यहाँ गणपति उत्सव कैसे मनाया जा रहा है। … गावं में तुम्हारी चर्चा   होती  रहती है।  बाबू रावो तलवारे  का बेटा देखो इंजीनियर  बन गया।   यह  पूरे परिवार और गावं के लिए भी गर्व  का विषय है....    
     इन्हीं   ख्यालों   में खोया रहा वह,  रात भर।  आँखों से नींद गायब  हो गयी थी।  आज की रात उसकी जिंदगी  की  सबसे  खुशनसीब  रात थी।  जल्दी - जल्दी  उसने सुबह वाली बस पकड़ी थी।  आज मौसम खुला हुआ था।  पिछले  दो दिनों से लगातार वारिश  के कारण  शहर  और  उसका  यातायात  अस्त - ब्यस्त हो गया था।  बस पर बैठते  ही  लगा  था  कि  किसी तकनीक द्वारा  बस  अगर उड़ने लगती तो वह कितना  जल्दी घर पहुँच जाता।  लेकिन ऐसा तो सिर्फ परीकथाओं में होता  है । उसे घर जल्दी पहुंचने की उतावली में लग रहा था कि बस आज कुछ ज्यादा समय ले रही है।  लो भई, यवतमाळ आ गया।  अब यहाँ से बस थोड़ी दूर और।  यहाँ से कुछ यात्री और चढ़े थे।  उसका ध्यान उनपर नहीं गया था।  उसे तो बस घर पहुँचने की जल्दी थी। वहां से बस चली   थी।  तब उसकी आँखे थोड़ी झँपने लगी थी।  रात भर जो वह सोया नहीं था।  उसके गावं का स्टॉप आ गया था।  कंडक्टर की ऊंची आवाज से वह जागा था।  उसके हाँथ में कुछ नहीं था।  पाकेट में वॉलेट और मोबाइल बस और कुछ नहीं।  क्योंकि उसे जल्द ही कॉलेज लौटना था।  कुछ  सबमिशन   बाकी  थे । और वे सारे निहायत जरूरी थे।  इसीलिये उसे तुरत लौट जाना था। 
सारे   यात्रियों    के   बस  से  उतर  जाने  के बाद  ही वह बस  से उतरा था ।  थोड़ी  हड़बड़ाहट  भी हुयी थी।  बस कंडक्टर  भी बुदबुदा  रहा  था, " कैसे  लोग  हैं?  इन्हें  इनके    गावं  की स्टॉप  आने के  बाद  भी    इन्हें    नींद  से  जगाना  पड़ता  है। "
उस समय तेज हवाएँ  चलनी  शुरू  हो गयी  थीं।  वह जल्दी - जल्दी कदम बढ़ा रहा था।  सड़क  से गावं  तक जाने  के लिए  सरोवर  या  बड़े  तड़ाग ( एक झीलनुमा बड़ा तालाब )  के आल  या बांध  (तालाब के पानी को रोकने के लिए बनाया  गया अवरोध )  पर से होकर  जाना  पड़ता  था।   यह  तड़ाग  के पानी को रोकता  भी था  और इसे करीब २० - २५ फुट चौड़ा  बनाया  गया  था इसलिए  यह सड़क  के  रूप  में भी इस्तेमाल  किया  जाने  लगा  था।  या कहें तो सड़क भी इसी के  ऊपर  से    होकर  गुजरती  थी।  तड़ाग  का पानी इसके  ऊपर न आ जाये  इसलिए  तड़ाग   वहां  पर  गहरा  था  और  उसके किनारे  बड़े - बड़े पत्थर  रखे गए थे  ताकि    पानी  इसमें घुसकर  इसकी मिट्टी  को बहा  न ले जाय।  तड़ाग  में   हमेशा पानी रहता था।  इसे एक बड़ी नदी से नहर  द्वारा   जोड़ा  हुआ   था  जिससे  अगर नदी में पानी अधिक आ जाता तो वह नहर से होता हुआ इस तड़ाग  में  आ जाता था।  यह ब्यवस्था  आज़ादी के पहले  की बनाई  हुयी थी।  आज़ादी के बाद अन्य  सारी ब्यवस्थाओं  के  तरह  इस ब्यवस्था  को भी मरम्मत द्वारा कायम रखने  के  कोशिश  की  जा  रही थी  ताकि  इसका  अस्तित्व  कायम  रह सके।
       वह जैसे ही तडाग   के  किनारेवाली   सड़क पर चढ़ा  था, जोर - जोर से वारिश होनी शुरू हो गयी  थी।  तेज हवाओं के साथ - साथ    बौछारें भी  इतनी तेज पड़ रही थी  कि   बदन पर चोट  जैसी   लग रही थी।  हवाओं  के    कारण    तडाग  के शांत   जल   में    बड़ी - बड़ी   लहरें   उठनी   शुरू   हो   गयी   थी । सड़क  पर ट्रैक्टर  और  बैलगाड़ी  के चलने  से गढों  की  लीक बनी हुयी थी।  सड़क की काली    मिट्टी  पर  अगर  खाली पैर चला जाय  तो  मिट्टी  का  ही जूता  जैसा  बन जाएगा।  इन्ही  लीक  के  गढों  से  बचकर   चलने   के  लिए  पगडण्डी  खोजना  इस  घनघोर  वारिश  में  कितना  मुश्किल   हो  रहा  था । दिन  में  ही  अन्धकार  जैसा  छाने  लगा था । लग रहा था कि यह सारी प्राकृतिक हलचलें  उसे घर तक  पहुँचने  से रोक रहे हों ।  अचानक हवाओं की  गति  बहुत  तेज  हो गयी थी … आगे  कुछ सूझ नहीं रहा था … जैसे  उसके  कदम  बढे  किसी  की  जोर - जोर   की सिसकियाँ  उसे सुनाई  दी   थी … इस तेज बारिश में सिसकियाँ … उसका  तो मन  घबराने लगा था।  कहीं इस झीलनुमा  तड़ाग  की  चुड़ैल  बाहर  निकलकर रो तो   नहीं   रही है … उसे ऐसे भूतों और चुड़ैलों की कहानी पर कम ही विश्वास था। लेकिन आज  मन  में उथल - पुथल तो जरूर  मच गया था।  उसने हिम्मत किया और गणपति  का नाम लेकर आगे बढ़ा।  उसने देखा, सामने  कोई सड़क के किनारे बैठा तड़ाग  के तरफ  मुंह किये जोर - जोर से रो रहा है।  उसने  आँखों पर पड़ती हुई  बूंदों को साफ़ किया  और पूछा, "क्या हुआ ?" एक रुआंसी - सी आवाज आई, जिससे लगा कि  किसी लड़की की आवाज है, "मेरा बैग इस तेज आंधी में उड़ गया और झील में चला गया, उस बैग में मेरे सारे ओरिजिनल सर्टिफिकेट्स हैं।" वह जोर - जोर से रोये जा रही थी।  उसने झील के तरफ देखा, लगा कि कोई  चीज झील  के लहरों पर तैर रही है और अभी तो किनारे से ज्यादा दूर नहीं है, लेकिन देर होने  पर वह किनारे से और दूर  जा सकती है, ऐसा उसने अनुमान लगाया था। उसने  तुरत निर्णय ले लिया। … अपने पैंट से अपना रुमाल निकाला, अपना वॉलेट और मोबाइल उसमें लपेटकर  उस लड़की के हांथों में  थमाया।  झील के किनारे वहीं पर इमली के पेड़ पर चढ़ा।  इस पेड़ की कुछ डालियाँ  झील की  तरफ बढ़ते  हुए झुक गयी थी।  इसपर चढ़कर बचपन  में वह कई बार झील में छलांग लगा चूका था।  इसलिए आज ऐसा करने में उसे कोई दिक्कत नहीं हुई थी।  उसने छलांग लगाई, तैरते हुए वह बैग तक पहुंचा, एक हाथ से बैग को दबोचा और दूसरे हाथ से पानी को काटते हुए तैरकर किनारे पहुँच गया। 
       वह बैग लेकर उसे   थमाना चाहा। तब वह रोती हुई, सिसकती हुई खड़ी हुई थी। उसने पानी की बूंदों से भर आई अपनी आँखों को पोंछा था। उसके सामने जो स्त्री आकृति खड़ी थी, उसे देखकर उसे विस्वास ही नहीं हो रहा था कि स्त्री का सौंदर्य ऐसा होता है!! वह  बिलकुल किसी संगमरमर  से तराश कर निकाली गयी सजीव प्रतिमा जैसी लग रही थी।  बारिश में बरसते पानी के कारण  उसके वस्त्र  उसके  बदन  से चिपक गए थे।  उसके बालों से होकर उसके गालों पर ढरकती, ठहरती, फिर ढरकती पानी की बूँदें किसी सद्यःस्नाता  अप्सरा   का आभास दे रही थी … और फिर उसकी नजरें  जैसे - जैसे नीचे झुकती जाती, सौंदर्य के नए आयाम  खुलते जाते … शायद कालीदास के यक्ष ने अपनी ऐसी ही सुंदरी को मेघों द्वारा सन्देश भेजने की कोशिश की होगी … अथवा  यह दुष्यंत की शकुंतला  जैसी  लग रही थी … उसके वक्ष - प्रदेश से सटे  हुए उसके वस्त्र उसके उभार के ग्लोबों के सर्वोन्नत  विन्दु को भी नहीं छुपा पा  रहे थे।  उन्हीं शिखर - स्थलों पर जाकर उसकी नजरें  टिक गयी थी।  उसके हाथ में लड़की का बैग था जिसे वह उसकी ओर बढ़ा चुका था। लड़की ने  उसके हाथ से बैग लिया था, कंधे से लटकता हुआ अपना पर्स सभाला था और खाली पैर ही सड़क पर तेजी से  फिसलन भरी  राह  में  अपने  को सम्हालते हुए तेज कदमों  से दूर चली गयी थी। 
       उसने जब नजरें नीचे की तो देखा, उस लड़की की चप्पलें वहीं पर कीचड़ सनी मिट्टी में दबी थीं। उसने चप्पलों को निकालते हुए पुकारा था, "आपकी चप्पले …" तब तक तो लड़की आँखों से ओझल हो चुकी थी ... तब उसे याद आया कि लड़की तो मेरे वॉलेट और मोबाइल दोनों ले गयी। वॉलेट में उसके सारे एटीएम कार्ड्स और क्रेडिट कार्ड्स हैं, मोबाइल में बहुत सारे एड्ड्रेसेस, मेसेजेस और न जाने क्या - क्या है। अब क्या होगा? उसे अब अपने पर बहुत गुस्सा आ रहा था। एक अनजान लड़की को मदद करने का यही नतीजा होता है। चले थे उपकार करने, अब भुगतो। वह उदास मन से घर की ऒर चला। उसकी दशा ऐसी थी जैसे किसी ब्यापारी ने ब्यापार में सूद के साथ मूल भी गवाँ दिया हो। जब वह घर के आसपास पहुँच रहा था तो उसे अहसास हुआ कि अरे, वह अपने हांथों में उस लड़की की चप्पले ढोए हुए यहाँ तक आ गया है। उसने गुस्से से चप्पलों को गावं के बाहर की झाड़ी में फेंक दिया था।
       घर पहुंचते - पहुंचते बारिश शांत हो गयी थी। उसके आने से घर के सारे लोग खुश हुए थे। माँ ने कहा था, "इतनी बारिश में आने की क्या जरूरत थी, मैं भी कितनी बेवकूफ हूँ।  तुझे आने के लिए कह   दिया।  बाद में मुझे लगा कि  न जाने तुम्हें कितना काम होगा, क्या - क्या काम होगा।  सब को रोककर यहाँ आना पड़ गया।" 
"नहीं माँ, सारे काम एकतरफ तुम्हारा आदेश एक तरफ। आना जरूरी था।" उसने मुस्करा कर, माँ की हाथों को हाथ में लेकर कहा था। 
"माँ - बेटे का भरत - मिलाप अगर हो गया हो तो हमलोग भी जरा बात करें।" पिताजी ने मजाकिया लहजे में कहा था। 
ढेर सारी बातें हुयी थी। उससमय उसने कहा था कि उसका सिलेक्शन भारत पेट्रोलएम में मेंटेनेंस इंजीनियर के रूप में हो गया है। यही खबर वह मोबाइल पर देना चाहता था, लेकिन माँ ने आने का आदेश सुना दिया," … और तुम श्रवण कुमार की तरह दौड़े - दौड़े चले आये।" उसकी बहन ने चुटकी ली थी।
"दौड़ाउंगा तुम्हें, बहुत बात करना जान गयी हो।" उसने क्रोधमिश्रित प्यार के भाव में बहकर कहा था।  
लेकिन जैसे ही मोबाईल की चर्चा की,  उसके मन में वे सारी बातें घूम गयी जो ठीक पहले घटित हुइ  थी ।  उसके मन में तूफान मचा हुआ था।  उसका तो दुनिया से संपर्क ही कट गया था। अपनी यह बेवकूफी किसे से शेयर भी तो नहीं कर सकता।  लोग उसका मजाक ही उड़ाएंगे, हँसेंगे उस पर।  लोगों का तो काम ही होता  है, किसी मुश्किल में पड़े बन्दे की हंसी उड़ाना। बस एक मौका चाहिए  …और उसके बाद  ...ऊपर से अनावश्यक, उलुल - जलूल परामर्शों, विचित्र किस्म की रायों की भरमार। उससे अच्छा तो चुपचाप अपने आप को लज्जित करना, पछताना और इन सबों को पी जाना बेहतर था। उसका मोबाईल एक स्मार्टफोन था।  महंगा तो था ही।  उसे   प्रोजेक्ट करने के एवज में जिस कंपनी ने पैसे दिए थे, उसी से उसने यह मोबाइल खरीदा था, बहुत सारे इन्फ़ोर्मेसन्स  उसमें स्टोर थे।  बहुत  सारे  मेसेजेस  थे।  अगर नहीं मिलता है तो इसके सिम को ब्लॉक करवाना होगा।  हे भगवान, उस लड़की का पता मुझे बता दो, तो उसकी खबर लेता हूँ।  जिंदगी में पहली बार किसी लड़की के तरफ आकर्षित हुआ, उसका परिणाम यह हुआ कि सारी अब तक की कमाई गोल …. गोल ही हो गई न।  वॉलेट में ही तो सारे एटीएम कार्ड और क्रेडिट कार्ड थे, अब उन्हें भी ब्लॉक करवाना होगा। सारी परेशानियां सिर्फ एक गलती के कारण, कि मैंने एक मुसीबत में फँसी लड़की की मदद की।  और वह मुझे ही मुसीबत में डाल गयी … उस लड़की  से  तो  संपर्क भी नहीं हो सकता था।   उसका कोई कांटेक्ट डिटेल्स भी उसके पास नहीं था।  अब जो कुछ भी करना था उस लड़की को ही करना था।  क्योंकि उसके पास करने को कुछ था ही नहीं।  चलो गणपति बाप्पा से प्रार्थना  करें कि लड़की को जल्दी सुबुद्धि दें जिससे वह जिस किसी   भी तरह हो मेरा वॉलेट और मोबाइल लौटा दे। इतने में भाई ने आवाज लगाई  थी, " नितिन, गणपति की सायंकाल आरती हो रही है।  आ जाओ।  कल सुबह गावं के सार्वजनिक पूजा पंडाल में गणपति के दर्शन करने जाना।"       
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     रात में भी उसे नींद नहीं आ रही थी। दिन की सारी घटनाओं ने उसके मन - मष्तिष्क में कोहराम मचाया हुआ था। किस झँझट में वह फंस गया। क्या किसी मुसीबत में पड़े इंसान की मदद करना गुनाह है?   आज से वह तौबा कर रहा है, इस तरह से किसी की मदद करने के लिए। उसकी आँखें झँपने लगी थी। पिछली रात में भी वह सोया नहीं था... उसे लगा कि वह तड़ाग के तरफ दौड़ा जा रहा है … अचानक सामने इमली का पेड़ आ जाता है ...वह पेड़ पर चढ़ गया है… जोर से हवाएँ चलने लगी हैं... इमली   का पेड़ जड़ से उखड गया है ... हवा में उड़ता जा रहा है .… तेजी से वह आसमान के तरफ उड़ा जा  रहा है  ... उसने डाल को जोर से पकड़ा हुआ है  …  वह बादलों के पार जा पहुंचा है  … अचानक उसकी नजर उसी लड़की पर पड़ती है ...  लड़की के बदन पर भींगे हुए कपडे हैं  … लगता है जैसे वह उसी झील से नहाकर निकली है जहाँ उससे उसकी पहली मुलाकात दिन में हुयी थी  …  उसके बालों से चूकर ढरकता  हुआ, उसके गालों पर रुकता हुआ, फिर ढरकता हुआ पानी  उसके वक्ष - प्रदेश पर पहुंचता है ... उसकी नजरें वहां टिकने लगती है ... उसके भींगे वस्त्र उसके उभारों के ग्लोबों के शीर्ष - बिन्दुओं को भी छुपाने में असमर्थ हो रहे हैं .... उन्ही शिखर - बिन्दुओं पर उसकी नजरें टिकने को होती हैं कि वह अपनी आखो को मलता है और हांथों को उठाकर उस लड़की को पकड़ना चाहता है, " सुनो, सुनो…..भागो मत….सुनो … “…कि अचानक माँ के पुकारने से उसकी नींद खुल जाती है।
 "…उठो, उठो, सुबह हो गयी, न जाने नींद में क्या - क्या बड़बड़ा रहा है ...?"
आँखे मलते हुए वह उठा था। सपने में भी वह लड़की हाथ नहीं आयी। हकीकत में क्या हाथ आएगी। 
चलो रे बुद्धूदास तलवारे, लड़की के हांथो गए आज मारे।
सुबह उठकर वह फ्रेश हुआ था। नहा - धोकर  गावं के सार्वजनिक पूजा स्थल में बने गणपति  बप्पा  के दर्शन करने वह पहुंचा  था।  उसके सारे कपडे तो भींगे  हुए थे।  इसलिए उसने अपने भाई का कुरता - पजामा  पहन रखा था। यह थोड़ा ढीला था  और ध्यान से देखने से कोई भी समझ सकता था  कि ये कपडे उसके नहीं थे ।  वह बप्पा  के तरफ देखता हुआ ध्यान लगा ही रहा था कि गावं के दो बच्चे  उसके  कुर्ते की छोर पकड़े खींच रहे थे।  उसने  धीरे से उन्हें मना किया था  और अपना कुरता छुड़ाने की कोशिश    की थी।  बच्चे फिर भी नहीं माने   थे।  वह उन्हें लिए हुए पंडाल से बाहर आया था।  "क्या हुआ ? तंग क्यों कर रहा है?"
वे फिर भी नहीं माने थे। उसके कुर्ते को पकड़े - पकड़े उसे गावं से दूर खेतों में पकड़कर ले जाने लगे थे।   "अबे, बोल तुम्हें क्या चाहिए? आज सवेरे - सवेरे मैं ही मिला तुझे परेशान करने के लिए।"
फिर भी वे खींचते  - खींचते  उसे   वहां ले आये  थे जहां वह लड़की खड़ी थी।  बच्चे लड़की से चार डेरी मिल्क के चाकलेट और लिए  थे  और  वहाँ  से भागते  हुए  दूर  चले गए थे।
अचानक उसकी नजर सामने वाली लड़की पर पडी थी। अरे यह तो वही लड़की थी। …कल की तूफानी बरसात में झील के किनारे। ….  लड़की का बैग  हवा में उड़कर झील  में  …। उसका  झील  में कूदकर बैग निकालना। ....लड़की के हाथ  में बैग थमाना। ....लड़की  का  उसका वॉलेट  और मोबाइल ले भागना। ....
"मेरा वॉलेट और मोबाइल लेकर कहाँ भाग गयी थी?  चलो - चलो जल्दी से मुझे मेरी चीजे लौटा दो।"
वह कहे जा रहा था और लड़की मुस्कराये जा रही थी। "कैसा लड़का है? सामने एक सुन्दर - सी लड़की खड़ी है। उसीसे मिलने आयी है। न कोई हैल्लो, हाय, बस शुरू हो गए मेरी चीजें लौटाओ। अगर न लौटाऊँ तो। अरे भाई, इतनी दूर से उसे उसकी चीजें  ही तो लौटाने आयी हूँ। कम - से - कम  औपचारिकतावश  ही उसे पूछना चाहिए, कैसी हैं?  इतनी बारिश में घर पहुँचने में कोई दिक्कत तो नहीं हुई?  कहाँ घर पड़ता है? ... आदि … इत्यादि  ...."  लड़की ने भी कुछ नहीं कहा था।
रुमाल में लपेटा हुआ उसका वॉलेट और उसका मोबाइल और उसके साथ एक और नया वॉलेट उसकी ओर बढ़ा दिया था। उसने सारी चीजें लगभग झपटते हुए उससे ले ली थी मानो कहीं फिर वह झटक कर ले ना भागे। वह मुड़कर जाना ही चाह रही थी कि नितिन ने उससे कहा था, " बाई डी वे, मैं नितिन तलवारे। " लड़की बोली थी, "मैंने वॉलेट में रखे एड्रेस से नाम और घर का पता जान लिया था।" फिर वह जाने लगी।
उसने रोकते हुए कहा था, "जरा उस झाड़ी के पीछे चलिए …"
लड़की ने प्रश्नवाचक दृष्टि उसकी तरफ डाली थी। शायद सोच रही हो आखिर इसका इरादा तो सही है न?
और नितिन आगे - आगे चल पड़ा था। बिना यह देखे कि वह लड़की उसके पीछे आ रही है या नहीं। लड़की आश्वस्त हो गयी थी कि उसकी नीयत में कोई खोट नहीं है। 
वह झाडी में घुस गया था। उसने दोनों चप्पलें झाड़ी से निकाली थी जिसे कल उसने फेंक दिया था ।" आपकी चप्पलें, "कहकर उसने चप्पले हाथ में लिए हुए उसकी ओर बढ़ा दिया था। लड़की ने देखा कि उसके एक हाथ में झाड़ी के काँटों से खरोंच आ गयी थी और उससे खून बह रहा था। लड़की ने अपने पर्स से अपना रुमाल निकाला था और खून रिसते हुए हाथ के ऊपर लपेट दिया था।
वह मुड़कर जाने लगी थी। "आपका नाम? कुछ तो अपने बारे में बता कर जाइये।"
लड़की तेजी से भागते हुए ही बोली थी, "मेरा नाम, देविका पाटणकर। …मैने आपको एक नया वॉलेट भी दिया है। …उसमे मेरी सारी डिटेल्स हैं। …"
…और वह लड़की भागती हुई आँखों से दूर होती गयी थी। 
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    यह लड़की क्या  थी, बिलकुल कोयंबटूर एक्सप्रेस थी।  जब भी मिली,  भागती हुयी ही मिली।  वह वॉलेट और नयी वॉलेट तथा अपना स्मार्टफोन पुनः पाकर खुश था।  घर पहुंचकर  अबतक सूख चुका पैंट, शर्ट उसने  पहना  था,  आई, बाबा को प्रणाम किया था।  हमेशा की तरह 'गणपति तुम्हें सफल बनावें'  का आशीर्वाद उन्होंने दिया था।   वह वहां से निकलते हुए आगे की योजना मन -ही - मन बना रहा था।  बस समय पर ही मिल गयी थी।  कालेज पहुंचकर सारे सबमिशन कम्पलीट किये थे।  अगले सोमवार ही कोयंबटूर में भारत पेट्रोलियम में ज्वाइनिंग थी।
एक दिन एक लड़की का फोन आया था, "दो दिन हो गए। आपका फोन नहीं आया। मन नहीं माना, इसलिए फोन कर रही हूँ।"
"आप कौन?"
"भूल गए इतनी जल्दी, वही लड़की जो आपका वॉलेट और मोबाइल फोन लेकर भाग गयी थी।"
"अच्छा, देविका जी, सॉरी, मैं आपको फोन नहीं कर सका, यहाँ आकर इतना काम पेंडिंग था। उसी में उलझ गया था।"
"आप मुझे देविका ही कहें, अच्छा लगता है।"
"जैसी आपकी इच्छा, देविका जी।"
"देविका जी, नहीं देविका।"
"ओके, ओके। मुझे अगले सोमवार को कोयंबटूर में भारत पेट्रोलियम में ज्वाइन करना है उसी की तैयारी चल रही थी। आप अपने बारे में कुछ बताइये।"
"उस बरसात के दिन मैं उस बस में यवतमाळ से चढ़ी थी। मैं एक इण्टर कॉलेज में लेक्चरर के लिए इंटरव्यू देकर आ रही थी। इसीलिये सारे ओरिजनल सर्टिफिकेट्स भी मेरे पास ही थे। उस आँधी - तूफान में कीचड से सने रस्ते में मैं सम्हलने में थोड़ी लड़खड़ा गयी थी। इतने में आंधी का तेज झोंका आया और मेरा बैग उड़कर झील में जा गिरा था।"
"....और उसके बाद आपकी कहानी में मेरी एंट्री हो जाती है।"
"आपका बहुत - बहुत शुक्रिया। आप   तुरत   एक्शन नहेीं लेते तो मेरे सारे ओरिजिनल सर्टिफिकेट्स तो गए थे।"
"लेकिन मेरा स्मार्ट फोन और वॉलेट आप दूसरे के द्वारा भी मिजवा सकती थी। आपने खुद आने का कष्ट क्यों किया?"
"उसके दो या तीन कारण हो सकते हैं, नहीं, नहीं हैं। एक तो मन के किसी कोने में आप से मिलने की भी इच्छा थी। दूसरे किसी और के हाथों भेजने से अगर आपको नहीं मिलता तो मैं अपने को कभी माफ़ नहीं कर पाती"
"और तीसरा कारण?"
देविका की हल्की हंसी की आवाज में घुली उसकी खुशी से छनकर जवाब आया था, "आपको अपनी तरफ से एक नई वॉलेट जो देनी थी, जो हमेशा आपके साथ रहे। ।और जब भी आप वॉलेट निकालें तो एक बार मेरी भी याद आपके जेहन में ताजी हो जाय।"
"लेकिन मैंने तो आपको कोई निशानी नहीं दी।"
"आपने तो मेरी सबसे कीमती चीज मेरे ओरिजिनल सर्टिफिकेट्स जिसमें मेरे एम ऐ (अर्थशास्त्र) के सर्टिफिकेट्स भी थे, अपनी जान जोखिम में डालकर डालकर दिए थे। मेरी जिंदगी में इससे बड़ा तोहफा और क्या हो सकता है?"
"ठीक है, हमलोग मोबाइल पर संपर्क में रहेंगे। … देखे इसके बाद कब मिलना होता है?"
"ओके, बाई एंड टेक केयर।"
   उस तूफानी बरसात की मुलाकात के बाद   मोबाइल पर इतनी ही बातें हुई थी। देविका के दिए गए
वॉलेट में ही उसने अधिकांश पैसे औए डेबिट तथा क्रेडिट कार्ड्स रख लिए थे।
पैंट्री के वेटर की 'चाय - चाय' की आवाज से उसकी  नींद  खुली थी।   स्टेशन आनेवाला था , लोग अपने सामानों को ठीक - ठाक ,  ब्यवस्थित  करने में लग गए  थे।  वह भी उठ गया था।  जाकर बेसिन में  अपना चेहरा धोया था।  ट्राली अटैची को बर्थ के नीचे से निकाला था।  रेलवे के द्वारा दिए गए बम्बल , चादर को लपेटकर खिड़की के तरफ खिसका दिया था।  सोने के पहले उसने वॉलेट को  लैप   टॉप वाले बैग में रख दिया था।  उसी बैग से वॉलेट को निकाला था  और पैंट  के बैक पॉकेट में रखकर वह उतरने को तैयार हो  गया  था।  कोयंबटूर स्टेशन पर ट्रेन  रुकी थी।  अटैची और बैग लेकर वह ट्रेन से नीचे उतर गया था।  प्लेटफार्म पर जब वह थोड़ी दूर चल चुका  था तो उसने  अपने हाथ  पैंट  के पिछले  पॉकेट  में रखे  वॉलेट को छूकर, महसूस कर देविका की यादों  को भी  एकतरह  से छेड़ना चाहा  था।  ये लो, वॉलेट तो  वहां था ही नहीं।  क्या हुआ ? उसने तो पैंट के उसी पॉकेट में रखा था। वहां तो था ही नहीं। ट्रेन में ही छूट गया क्या? ट्रेन अभी तक रुकी हुई थी। वह जल्दी से भागकर जिस डिब्बे में वह सफर कर रहा था उसमें घुसा था। अपनी बर्थ पर उसने कम्बल, चादर सारा हटा कर अच्छी तरह खोजा था। ट्रेन लगभग खाली हो गयी थी। उसने बाकी बर्थ पर भी ढूढ़ा था। वह पागलों की तरह सारे कम्बल चादरों को उठाकर, फेंक कर अपने पर्स को ढूढ़ रहा था। लेकिन पर्स नहीं मिली थी। 
        उसके साथ ही हमेशा ऐसा क्यों होता रहता है?  हालाँकि बहुत लोगों के साथ ऐसा होता होगा।  उनके बारे में , उनके ऐसे दुखद प्रसंगों के बारे में वह थोड़े ही जानता है। लेकिन उसे लग रहा था कि उसके साथ ही ऐसा होता है।  उसने तो बड़ी होशियारी से वॉलेट निकालकर अपने पैंट की पिछले पॉकेट में रखा था।  वह बार - बार अपने पैंट के सारे जेब टटोल रहा था।  कही दूसरे जेब में तो नहीं रख दिया और ढूढ़ रहा है दूसरी  जेब में।  वॉलेट तो इतनी छोटी चीज है नहीं कि उसे महसूस नहीं किया जा सके।  पैंट के सारे पॉकेट में हाथ डालकर फिर चेक किया।  वहां   भी वॉलेट  कहीं  नहीं  था। हताश , निराश मन से वह ट्रेन से फिर उतरा  था।  कोई  उपाय भी नहीं था।  ट्रेन  अपने आगे के गंतब्य  की ओर  प्रस्थान करने के लिए खुल चुकी थी।  वह प्लेटफार्म के बेंच पर   ही  बैठ  गया  था। फिर अपने भाग्य , देव , किस्मत सबको एक साथ कोसने की कोशिश में जुटने ही वाला था  कि उसके अंदर से किसी ने ढाढस दिलाया था।
"क्या हुआ? इतनी सी घटना से विचलित हो गए? एक वॉलेट के जाने से इतने उदास क्यों हो गये?   क्या तुम्हारे लिए दुनिया ख़त्म हो गयी?  कुछ पैसे गए थे। कुछ पैसे उसने चोर पॉकेट में सुरक्षित रखे हुए थे। उससे काम चलाओ। सारे कार्ड्स ब्लॉक करवा दो। उसके बाद दूसरा कार्ड आ जायेगा। चिंता क्यों? चित्त में उल्लास भरो। चलो खुशी -खुशी मन से जॉब ज्वाइन करो।"
वह मन को दृढ कर प्लेटफार्म की बेंच से उठा था। बाहर में कंपनी की गाड़ी आयी थी। उसे ढूढने में कोई दिक्कत नहीं हुई थी। उसी गाड़ी से कंपनी के गेस्ट हाउस पहुँच गया था। गेस्ट हाउस में १५ दिनों तक रहा जा सकता था। इसी बीच एकोमोडेशन ढूढ़ लेना होता है ताकि गेस्ट हाउस खाली कर दिया जाय ।
वह गेस्ट हाउस पहुंचकर फ्रेश हुआ। वहां से ऑफिस पहुंचा और अपने ज्वाइनिंग की सारी औपचारिकताएं पूरी की। उसका इंडक्शन प्रोग्राम दे दिया गया और ट्रेनिंग - कम - इंडक्शन शेडूल दे दी गयी। दिन भर तो ऑफिस में मन कहीं - न - कहीं लगा रहा। शाम में अगर देविका का फोन आया तो   उसे   क्या कहेगा? उसके द्वारा दिया गया वॉलेट उसकी अपनी लापरवाही के कारण  कहीं खो गया।  माना कि  वह कुछ नहीं कहेगी।  परिस्थिति की गंभीरता को समझते हुए वह मुझे ही समझाने की कोशिश करेगी, "वॉलेट का क्या है फिर दूसरा लेकर दे दूंगी।  आप बिलकुल चिंतित न हों।  बस यही सबसे बड़ी बात है। " लेकिन उसके मन में तो एक कसक - सी  कहीं - न - कहीं रह रहकर उठती ही रहेगी।  इससे पार तो पाना ही होगा, सामान्य दीखने  के लिए भी और सामान्य जीवन जीने के लिए भी।  आई और बाबा से भी उसने बातें की।  सब  ठीक  है, ऐसा ही कहा था उसने।  फिर कल विस्तार से बात करने का वादा कर वह सो गया था। 
दूसरे दिन फ्रेश होकर जब ऑफिस पहुँचा तो देखा कि लोग उसी का इंतजार कर रहे थे । ऐसा क्या हो गया कि लोगों की रूचि उसके आते ही उसमें बढ़ गयी थी।
"मिस्टर तलवारे एक ब्यक्ति आपका इन्तजार कर रहे हैं। वे बोल रहे हैं कि कल से ही उसे ढूढने में और फिर मिलने के लिए परेशान हैं।" ऑफिस के हेड क्लर्क ने उससे कहा था।
  नितिन खुद कल से परेशान था। वह तो यहाँ किसी को जानता भी नहेीं था। फिर उसे कोई क्यों ढूढ़ रहा है। वह अंदर गया। वे ब्यक्ति ऑफिस के लाउन्ज में उसका इंतज़ार कर रहे थे। 
वह अंदर घुसते ही बोला था, "मैं ही नितिन तलवारे हूँ। लेकिन क्या मैं आपको जानता हूँ?"
"आपने सही कहा - आप मुझे नहीं जानते हैं। मैं रामचंद्रन, मेरी कोयंबरुर में ज्वैलरी की दूकान है।"
"लेकिन मैं तो ज्वैलरी खरीदने में अभी बिलकुल ही इंटरेस्टेड नहीं हूँ।"
"नहीं, नहीं मैं ज्वैलरी की डील के लिए आपके पास नहीं आया हूँ। मैं आपकी एक खोयी हुयी चीज आपको देने आया हूँ।"
"मैं समझा नहीं।"
फिर उस ब्यक्ति ने अपने हैंड बैग से मेरा वॉलेट निकाला था। "क्या यह आपही का है?"
उसके आश्चर्य का ठिकाना नहीं था, "कहाँ मिली यह आपको?”
"उसके बारे में मैं बता रहा हूँ। पहले आप इसे सम्हालिए।" रामचंद्रन जी ने वॉलेट मेरे हाथ में थमा दिया था।
 उसके बाद उसने कहना शुरू किया था, " कल आप जिस ट्रैन से उतरे मैं भी उसी ट्रैन से उतरा था। आप उतरे उसके ठीक पीछे - पीछे मैं भी उतर रहा था। मैंने देखा कि एक बर्थ पर यह वॉलेट पड़ा हुआ था। अगर मैं छोड़ देता तो किसी और हाथों में यह पड़ जाता। इसलिए मैंने इसे उठा लिया। कल से मैं इस वॉलेट के ओनर को लोकेट करने में परेशान था।"
उसने एक साँस ली और फिर कहना शुरू किया ," मैंने दूकान पहुंचकर वॉलेट खोला था।  उसमें आपका नाम मिला था।  लेकिन नाम मिलने से ही तो काम बनने वाला नहीं था। वॉलेट  को देखने से लगा था यह  किसी पढ़े - लिखे ब्यक्ति  का  ही हो सकता है। फिर मैंने दूकान का कंप्यूटर ओन किया था।  इंटरनेट कनेक्ट किया।  फसेबूक पर मेरा भी अकाउंट हैं।  मैंने खोला और आपके नाम से सर्च करना शुरू किया। आपका नाम एन आई टी , नागपुर में एक स्टूडेंट के रूप में दिखा था। "
वे कुछ क्षण के लिए रुके थे। मैंने कहा था, "हाँ, मैंने जॉब मिलने के बाद उसे अपडेट नहीं किया है। कल ही तो मैंने यह जॉब ज्वाइन की है।"
उन्होंने फिर कहना शुरू किया, "फिर मैंने एन आई टी, नागपुर के साइट पर जाकर ऑफिस का फोन नंबर जाना, फिर ऑफिस    में फोन किया था। काफी देर के बाद कई बार इन्क्वारी करने पर उन्होंने बताया था कि नितिन का कोयंबटूर में भारत पट्रोलियम से  जॉइनिंग आया था।  कहाँ ज्वाइन किया है कह नहीं सकते। इतना इनफार्मेशन लेते - लेते कल शाम हो गयी थी।  इसीलिये मैंने सुबह आने का तय किया और आज मैं यहाँ हूँ, आपके वॉलेट के साथ।"
उसने हँसते हुए कहा था। मेरी तो आँखों में आंसू आ गए थे। एक आदमी दूसरे के लिए इतनी परेशानी उठा सकता है, मुझे तो विश्वास नहीं हो रहा था। हमलोग अभी जिस सम्वेदनाविहीन दौर से गुजर रहे हैं उसमे मिस्टर रामचंद्रन जैसे लोग एक फरिस्ते की तरह ही हैं। मैंने उनके हाथों को थाम लिया था। मैं उस फरिस्ते को छूकर उसकी गर्माहट को महसूस करना चाहता था। काफी देर तक मैंने उनका हाथ थामे रहा था। 
"मिस्टर तलवारे अब हम चलें।" उनकी आवाज से ही मेरा विचार - क्रम विराम पाया था। मैंने उनके पैर छू लिए थे। वे मरे लिए पिता - तुल्य ही थे। उन्होंने कहा था,"मेरे हाथ और पैरों के स्पर्श करने से कहीं अच्छा होगा अगर आप अपने में दूसरे के लिए थोड़ा स्पेस दें यानि थोड़ा कष्ट उठाने के इस स्पिरिट (जज्बे) को बनाये रखे. "
इतना कहकर वे लाउन्ज से बाहर निकल गए थे। एक फ़रिश्ते के साथ की यह मुलाकात मुझे जिंदगी भर याद रहेगी। 
…।और इस तरह मेरा पर्स फिर मेरे स्पर्श - क्षेत्र में आ गया था। मेरा पर्स (वॉलेट) मुझे मिल गया था जैसे मुझे मेरी देविका फिर मुझे मिल गयी हो …।

   तारीख: 16-09-2014.

   वैशाली, गाजिआबाद, (यू पी)
 भाग1 लिंक: https://youtu.be/lCBuX8qiuUM
भाग2 लिंक: https://youtu.be/V3xzuEtpsv4
भाग3 लिंक: https://youtu.be/xB39HwKyD9I
भाग4 लिंक: https://youtu.be/xB39HwKyD9I
भाग 5 लिंकः https://youtu.be/JyUK8_GfKWo

माता हमको वर दे (कविता)

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