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#BnmRachnaWorld
#chhanvkasukh : यह कहानी मेरी पुस्तक "छाँव का सुख" में सम्मिलित की गई है.
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मेरी लिखी कहानी संग्रह "छांव का सुख" प्रकाशित हो चुकी है. सत्य प्रसंगों पर आधारित जिंदगी के करीब दस्तक देती कहानियों का आनंद लें.अपने मन्तब्य अवश्य दे.
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हमेशा की तरह उसने अपनी चलित
(मोबाइल) पापड़ी (गोलगप्पे में बिना मसालेदार पानी भरे बनाया जाने वाला खाद्य पदार्थ
) दूकान अपनी सायकिल
पर वहीं पर लगाई
थी, जहाँ वह रोज लगाया करता था। वहां
से एक तरफ पीतल, कांसे, स्टेनलेस स्टील आदि की
बरतनों से सजी दुकानें
थीं। वहीं से दूसरी तरफ मसाला - पट्टी
की लाइन थी। उसमें पूजन सामग्री से लेकर भोजन
सामग्री के सारे मसाले बिकते थे। तीसरी लाइन कपडे के दुकानों की थी जहाँ रेडीमेड से लेकर थान में भी कपडे उपलब्ध थे। चौथी लाइन लेडीज लाइन थी जिसमें श्रृंगार के लिए कृत्रिम और अकृत्रिम दोनों तरह की ज्वैलरी
और लेडीज के लिए हर तरह के क्रीम, तेल – फुलेल और हर साइज
के अंतर्वस्त्र (undergarments) सभी
बिकने के लिए सजाये गए थे।
आज दुकानें विशेष रूप से सजी थी क्योंकि आज धनतेरस (दीवाली के दो दिन पहले) था।
ऐसी मान्यता थी कि इस दिन जो भी धन किसी खरीददारी में खर्च किया जाएगा वह दुगना
- तिगुना होकर वापस आ जायेगा। वापस आने में
कितना समय लगेगा, मान्यता में इसका कोई जिक्र नहीं था। क्योंकि यहाँ पर स्थिति थोड़ी अनिश्चित थी, इसीलिये संभवतः इसका कोई जिक्र नहीं था। लेकिन इतना तो निश्चित था कि इस दिन दुकानदारों
को पूरे साल की कमाई का ५०-६० प्रतिशत जरूर प्राप्त जाता होगा।
इसीलिये उनका धन तेरस धन वर्षा लेकर जरूर आता था।
इसी लाइन में एक तरफ लक्ष्मी – गणेश की मूर्तियों की बिक्री के लिए
अस्थाई तौर पर लगाई गयी दुकानें थीं। वहां भी लक्ष्मी – गणेश को बेचने वाले बेच रहे
थे। इन मूर्तियों के खरीददार भी बहुत थे। भगवान को बेचने और खरीदने का धंधा इन अस्थाई
दुकानों में अस्थाई रूप में चल रहा था, जो आज धनतेरस के दिन जोरों पर था।
लक्ष्मी - गणेश की मूर्तियां भी कई साइज और रंगों में थी।
कोई मूर्ति चमकदार रंगों में भावपूर्ण
थी, तो कोई थोड़ी फीकी, नीरस और भावशून्य
दीख रही थी। हालाँकि भावों की पूर्णता
या उनकी
शून्यता, देखने और समझने वाले की उत्प्रेरकता और ग्रहणशीलता
पर अधिक निर्भर करता है वजाय मूर्तियों
के शिल्पी की गढ्हनशीलता पर। यही नहीं , मूर्तिकार
ने किन ग्राहकों को लक्ष्य(टारगेट) करके कौन सी मूर्ति बनाई होगी यह तो दूकानदार को भी नहीं मालूम था। लोगों को मूर्तियों को पसंद करने
में कौन सी प्रेरणा या कसौटी काम कर रही थी, यह विश्लेषण का विषय
हो सकता था। दाम या कीमत
एक कसौटी जरूर होगी लेकिन सिर्फ यही कसौटी नहीं हो सकती थी। कई ग्राहक कीमत देने को तैयार होंगे लेकिन उनकी पसंद की मूर्तियां
उपलब्ध नहीं होगी। फिर जो उपलब्ध थीं उन्हीं
में से चुनने की मजबूरी उस स्थिति से मेल खाती है जब चुनावों
में जनता को उन्हीं उम्मीदवारों में से चुनने की मजबूरी होती है जो उस निर्वाचन क्षेत्र से उस
चुनाव में खड़े हैं। लगता था कि कुछ मूर्तियां हंस रही हैं, उन्हें खरीदनेवालों
पर, जबकि कुछ मूर्तियां उदासीन गंभीरता ओढ़े थी लेकिन फिर भी ग्राहक उन्हें पसंद कर रहे थे। शायद वे मूर्तियां कम कीमत की रहीं होगी , फिर भी ग्राहकों की पसंद
पा जाने पर खुश थी।
लेकिन जदू , हाँ उस पापड़ी वाले का यही नाम था , कभी - कभी मसाला पट्टी
की तरफ भी ताक लेता था, क्योंकि जिस स्थान पर अपनी पापड़ी की चलित दूकान सायकिल पर लगाया
करता था, वहां से मसाला - पट्टी की वह दूकान
और उसके ग्राहक साफ़ - साफ़ नजर आते थे। इस्समय अक्सर उसकी नजर
सामने के मसाला दूकान के तरफ उठ जाती
थी, जहाँ वह महिला काफी देर से बैठी थी और सामान की खरीददारी कर रही थी। कभी - कभी कोई आकर्षक ब्यक्तित्व वाला के साथ न
होकर कोई अकेली आकर्षक ब्यक्तित्व वाली खरीददार हो तो दुकानदार उसे इस या उस बहाने से खरीददारी में
ज्यादा समय लगाने में अपनी विक्रय - कला की
निपुणता में निष्णातता के लिए पीठ - ठुकाई
खुद करने में गर्व महसूस करता है।
ऐसे में खरीद - बिक्री से ज्यादा ग्राहक के साथ
घनिष्टता (rapport) को स्थापित करना
उसके लिए
ज्यादा महत्वपूर्ण होता है ताकि उस ग्राहक के साथ लॉन्ग टर्म रिलेशन स्थापित
कर आगे भी उसे अपनी दूकान के तरफ आकर्षित करता रहे और उसकी समीपता का सुख प्राप्त होता रहे।
उस महिला में कुछ तो ख़ास बात जरूर थी, जिससे
वह दुकानदार भी आज ग्राहकों की भीड़ होते हुए
भी उस महिला को सामान देने में अपना वक्त लगा रहा था।
आज धूप भी इतनी अधिक नहीं थी कि धूप
का चश्मा पहना जाय।
सारी महिलाएं बिना चश्मे के या पावरवाली
महिलाएं पॉवर वाले चश्मे में थे। लेकिन वह
महिला बड़ा - सा रंगीन धूप - चश्मा लगाये थी। इसके कारण आते - जाते लोगों की नजर अक्सर उसकी तरफ
उठ जा रही थी।
कुछ ख़ास जरूर था उस महिला में। उसकी आँखों के ऊपर बड़ा - सा धूप चश्मा और उसके
होठों पर की सूर्ख लाली इतना मेल खा रही थी कि उसका ब्यक्तित्व और भी निखरकर सामने
वाले को आकर्षित कर लेता था। उसके गोरे चेहरे
पर तो इस आकर्षण से बंधे लोगों की नजर बाद में जाती थी। उसके उभरे - से चिकने गालों की नर्मी की तो कल्पना
मात्र से ही रोम - रोम में सिहरन - सी दौड़
जाती थी।
सबसे मुश्किल में ओन्लूकर तब हो जाता
था जब उसकी दृष्टि उसके ग्रीवा - क्षेत्र से आगे
के तरफ से नीचे की ओर उतरती थी। उसके
समीज के ऊपर वाले भाग के लो - कट गले का कटाव उसके वक्ष - स्थल के ग्लोबों के संधि
- स्थल को बरबस छुपाने की कोशिश में अक्षम प्रतीत हो रहा था। वहां पर नेत्र नियंत्रणहीन हो वहीं पर ठहर जाते
थे। उसके आगे के स्तन - भार और उसे अंदर से संतुलित करनेवाले अंतःवस्त्र जिन्हें 'स्पर्श, पैरिश ब्यूटी , इरोटिका' आदि कई
ब्रांड अपनी गुणवत्ता का एक - से - एक बढ़कर बखान करते अघाते न थे , बमुश्किल ही समर्थ हो पा रहे होंगे, ऐसा मन की कल्पना के उड़ान के द्वारा ही महसूस किया जा सकता
था।
उसके ग्लोबों की परिधि के अंदर पूर्ण विकसित यौवन - भार को थामे उसके अंतःवस्त्र अवश्य ही अधिक खींचाव महसूस करते होंगे। लेकिन उन्हें उस खींचाव में भी चाव ही आता होगा। इसीलिये तो अंदर के आनंद को अन्दर- अंदर ही समेटे
आनंदातिरेक की अनुभूति में डूबते - उतराते अपने जीवन की सार्थकता के करीब तक पहुँचा
हुआ समझ पा रहे होंगे। भारतीय सलवार - सूट
का परिधान भी ब्यक्तित्व को इतना प्रभावशाली
और चित्ताकर्षक बना सकता है , ऐसा पहली बार ही देखा हुआ लग रहा था। पैरों में
चुस्त पजामा जिसे आज की भाषा में लेग्गिंग कहा जाता था, उसके कटि - प्रदेश और नितम्बों की उपत्यकाओं
को छुपाने की भरसक कोशिश में लगे हुए थे। फिर
भी कभी - कभी झांकती जाँघों के मिलन - स्थल को अपने
ऊपरी वस्त्र से बार - बार ढंकने की कोशिश में वे महिला असफल प्रतीत हो रही थी।
उसकी इन्हीं चेष्टाओं की तरफ
जदू कभी - कभी कनखियों से झांक लेता था। इससे उसके रोम - रोम में स्फुरण होने लगता था। ग्राहकों
को वह सूखी पापड़ी के ऊपर दही, सूखा सेव और मीठी चटनी का गाढ़ा द्रव चुआते हुए हाथ बढ़ाता
जाता था, और पैसे लेते - लेते कनखियों से उधर मसाला - पट्टी के दुकान की महिला खरीददार को भी झाँकता
जाता था। उसकी नजर कभी उसके उरु - प्रदेश
पर रुकती तो कभी कटि - प्रदेश पर। इन्हीं दृश्यों
को आँखों में रखे वह रात को सपने में जीना चाहता था ताकि जिंदगी में थोड़ी तो हवाएँ
गुनगुनाएं , लहरें गीत गायें , मन को थोड़ा भर्मायें और गाने को दिल करे 'ई चोली कहँवां
से पवळॅ'।
जदू से जब नहीं रहा गया तो वह दूकान में जमा हुए ग्राहकों को निपटाकर मसाला - पट्टी
वाली दूकान के पास वाले नल में हाथ धोने के बहाने
नजदीक से उस महिला पर नजर डालने
पहुंचा था। उससमय उसका दुपट्टा
थोड़ा सरक गया था। वह जैसे ही उस दूकान से खरीदी गयी सारी चीजों
को अपने
झोले में रखने के लिए झुकी थी कि उसका वक्ष
–प्रदेश पुनः जाग उठा था। जदू की आँखें
वहां से
फिसलती हुयी नीचे सरक आये दुपट्टे से होती हुई और नीचे पहुँच रही थी कि उसकी
नजर पूजन - सामग्री के एक पैकेट पर पडी थी। पैकेट के अंदर पूजन सामग्री
रक्खी थी , उसके ऊपर
लक्ष्मीं मैया की आरती लिखी थी और उसके नीचे लिखा था
" सिर्फ ५५ रुपये में इस पैकेट के अंदर रखे
पूजन - सामग्री से इस बार दीवाली
में लक्ष्मी मैया की पूजा करें और करोड़पति बनें। "
जदू के दिमाग में भी करोड़ का कीड़ा ऊधम मचाने के लिए मचलने लगा था। वह साव जी की दुकान के तरफ बढ़कर सीढ़ी के दो स्टेप भी चढ़ चूका था।
"साव जी, क्या इस पूजन सामग्री से लक्ष्मी जी की पूजा करने पर सचमुच आदमी करोड़पति बन जायेगा?" उसने बाल
–सुलभ सरलता से सवाल किया
था।
"मुझे क्या पता, इसी वर्ष दीवाली में यह पैकेट आया है। मैं भी पूजा करके देखूंगा।
" साव जी ने मुस्कराते हुए कहा था।
"इसकी कीमत क्या इसके ऊपर लिखे हुए ५५ रुपये से कम नहीं हो सकती?" जदु ने थोड़ा मोल
– भाव करने के लिए प्रश्न
किया था। थोड़ा मोल
- भाव तो
हर चीज में होता है। यहाँ भी क्यों नहीं इसे आजमाया
जाय? जदू ने अपने मन में आये इस विचार से प्रभावित
होकर ही पूछा था।
"अरे नहीं भाई, इसमें आजमाई हुई जड़ी - बूटीयाँ
और औषधियां हैं। उसकी कीमत तो लगेगी ही।
"
साव जी ने एक सिरे से ही मोल – भाव
की संभावना को ख़ारिज करते हुए कहा था।
जदू मन -ही – मन कुछ सोचता हुआ अपने सायकिल
की चलित पापड़ी दूकान पर वापस ग्राहकों
को पापड़ी बेचने में लग गया था।
ग्राहक जो बाजार करने आ रहे थे , थोड़ी
देर रूककर उसकी पापड़ी का स्वाद जरूर लेते थे ।
आज धनतेरस के कारण बाजार में चहल – पहल
बढ़ी हुई थी। उधर चारो तरफ खरीददारों
में होड़ लगी थी।
और इधर जदू अपने ग्राहकों
को पापडी पर दही
, थोड़ा
सूखा महीन सेव, और ऊपर से मीठी इमली
की चटनी चुआकर परोसे जा रहा था। उसकी बिक्री
भी आज काफी बढ़ी हुई थी। आज वह मन से लगा हुआ था। वह कल तक जरूर ५५
रुपये बचा लेगा। कल तक लक्ष्मी जी की पूजा के लिए ५५
रुपये में पूजन सामग्री खरीदेगा,
लक्ष्मी जी की पूजा करेगा और करोड़पति
बन जायेगा।
करोड़पति बनकर वह अपना और माई दोनों का भाग्य बदल देगा। जदू के दिमाग में भी विचारों
का ववन्डर उठ रहा था। उसी तूफ़ान में माई का चेहरा बनता था, धूमिल होता था, फिर स्पष्ट
होकर उभरता था, अब स्थिर – सा
हो रहा था…. …
X x x x x
उस दिन की काली, घनी भयावनी रात उसे अभी तक याद है। उसने अपनी चलित पापड़ी दूकान थोड़ी
पहले ही
समेट ली थी क्योंकि
काले गहराते मेघाच्छन्न
आकाश में घनघोर वारिश की निश्चित संभावना
दीख रही थी। वारिश
शुरू हो इसके पहले ही वह अपनी खोली में पहुँच जाना चाहता था। साईकिल से चलने
पर भी करीब आध घंटे तो लग ही जाते थे।
भींगकर पहुँचने पर माई से डांट खानी पड़ती सो अलग.......।
"तुम बहुत ही लालची होते जा रहे हो। थोड़ी कम बिक्री होती तो क्या
हो जाता? बारिश में भींगना तो नहीं पड़ता। अब इंद्र भगवान को तो कह नहीं सकते कि बारिश
की बूंदें रोककर थोड़ी देर बाद बरसें क्योंकि मेरा प्यारा लाडला लल्लू जदू अभी अपनी
दूकान समेट रहा है।"
माई की इन्हीं प्यार भरी झिड़कियों ने तो जदू में फिर से जीने की चाहत
पैदा कर दी थी, वरना वह क्या था? रास्ते में पड़ा हुआ एक छोटा- सा पत्थर का टुकड़ा।
लोग कहते हैं कि उसके होने का प्रमाण यही था कि वह इस दुनिया में बस
आ गया था। क्यों आया था या क्यों लाया गया
था, इसके बारे में उसे कुछ नहीं पता था। उसके
सांसारिक माँ का न ही कोई नाम उसे मालूम था और न ही बाप का उपनाम पता था। बस सिर्फ उपरवाले का ही नाम - उपनाम लिए वह पैदा हुआ था। 'निर्मल ह्रदय' अनाथालय में उसके बारे में सिर्फ
इतना ही लिखा था: वह अगस्त में शायद दस तारीख़
रही होगी, आज से 15 वर्ष पहले काली, अँधियारी, गरजती , बरसती तूफानी रात में १२ बजे के आसपास अनाथालय के उंघते हुए गार्ड को एक बच्चे की चीख सुनाई दी थी। गार्ड अचानक नींद से जागकर चीख की तरफ भागा था। घनघोर बारिश में छाता भी उसके काम नहीं आ रहा था। चीख तो अनाथालय की गेट के तरफ से आ रही थी। गेट के पास
पहुंचकर उसने जो दृश्य देखा तो उसको अचानक विस्वास ही नहीं हो रहा था। क्या इसतरह
भी जिंदगी इस धरती पर उतरती है?
गेट के पास एक नवजात शिशु
नग्नावस्था में , प्रसवोपरांत के खून से सना हुआ पड़ा था। गार्ड
ने दौड़कर सिस्टर को जगाया था। सिस्टर
ने उसे उठाकर आश्रम में लाया था। उसके खून
से लथपथ शरीर को गर्म पानी से नहलाया गया था। वह जोर से
रोया था , लोग खुशी से झूम के खूब हँसे थे।
स्पष्ट था कि उसके फेफड़े और अन्य अवयव ठीक से काम कर रहे थे।
आश्रम में नवजात शिशु के आने से खुशी की लहर
दौड़ गयी
थी। एक और खिलौना वहां लोगों के दिलों में थोड़ी - सी उमंग
भरने को आ गया था। मैं सबों का लाडला हो गया था। मैं रात के अँधेरे में आया था इसलिए मेरा नाम जदुनाथ
रखा गया। लोगों ने हमें बताया कि जदुनाथ भी भगवान श्रीकृष्ण के
कई नामों में से एक है। उनका भी जन्म काली , अंधियारी रात में हुआ था। इसलिए उनके जन्म लेने
के समय और प्राकृतिक वातावरण में थोड़ा साम्य था , इसीलिये मेरा नाम भी मिलता
- जुलता रखा गया था। हालाँकि इसके अलावा और
कोई समानता नहीं थी। वे संसार की परिस्थितियों
को बदलकर बेहतर करने के लिए आये थे। और मैं संसार पर एक और बोझ बनकर आया था। उन्हें उनके माँ
- पिता का नाम मिला था , बल्कि उन्हें दो - दो माँएं और पिता का नाम मिला , जबकि मैं शायद एक मजबूर माँ, शायद अनब्याही माँ की नाजायज संतान था , जिसे संसार की ठोकरे
खाने को धरती पर पटक दिया गया था।
जब जिंदगी मेरे अंदर सांसें लेने लगीं मैं धीरे - धीरे बड़ा होने लगा।
मुझे आवश्यक फीड और केयर दिया जाने लगा जो किसी भी बच्चे को इस आश्रम में दिया जाता
है। लेकिन बड़े होते मेरे अस्तित्व के पास कोई मकसद, कोई लक्ष्य नहीं था। मैं क्यों लाया गया इस धरती पर? क्या करना है मुझे?
मेरे बचपन को अक्षर ज्ञान देने की कोशिश होने लगी। मुझे साक्षर (literate) बनाने पर
ध्यान दिया जाने लगा। मेरा इन सब वाहियात चीजों में कम ही मन लगता था। लेकिन सिस्टर
कहतीं,
" जदू, तुम पढ़ लोगे तभी तो दूसरे की बातों
को समझ सकोगे और साथ ही दूसरे का लिखा पढ़ सकोगे।
पढने से समझना आता है। दूसरे अच्छे विचारकों की बाते पढने से सीखना
आता है। पूरी जिंदगी सीखने की ही यात्रा है। सीखने की इसी कला में जो निपुणता हासिल कर लेता
है , उसे जीने का मकसद भी मिल जाता है।"
उसकी ये सारी बातें मैं नहीं समझ पाता था और न ही समझने की कोशिश करना
चाहता था। थोड़ा पढने से ही मुझे समझ आने लगा था कि पढ़कर क्या होगा? काफी पढ़ - लिखकर
भी लोग मारे - मारे फिर रहे हैं , दुनिया वैसी - की - वैसी ही है,
जैसी थी। नहीं बदली है , नहीं बदलेगी। अगर बदलना
होता तो उसे इस सवाल का
उत्तर जरूर मिलता। क्यों कोई अनब्याही माँ बच्चे को फेंक आती है ? क्या उस बच्चे की यही गलती है कि उसने
एक अनब्याही गर्भ को अपनी माँ का गर्भ समझा? इस गुत्थी को मेरी कोई भी पढाई सुलझा नहीं
पा रही थी, इसीलिये मैं पढाई - लिखाई सबको निरर्थक समझकर उदासीन रहने लगा था।
किशोरावस्था में पहुँचने
पर जब मैं 14 -15 का रहा होऊंगा तो आश्रम
के बाहर भी निकलने लगा था। आश्रम के लिए बाजा,
नगाड़े बजाकर, घर - घर जाकर पैसे मांगने से मैं तंग आ चुका था। मैं अपनी उड़ान की दिशा खुद तय करना चाहता था। इसी बाहर निकलने में कुछ अनचाहे अनुभवों से भी गुजर
गया। कमल उसका पूरा नाम था पर दोस्त लोग उसे प्यार से कल्लू ही कहते थे। उससे कब और कैसे मेरी दोस्ती हो गयी मुझे खुद पता नहीं।
अनजाने में जब कुछ अनचाहा होने की संभावना रहती है तो कदम अपने - आप उस तरफ चल पड़ते
हैं जिधर जाने के बारे में आप कभी सोचे भी नहीं थे। ऐसा ही
कुछ मेरे साथ भी हुआ था।
कमल यानि कल्लू के साथ रहने वाले लडके कितने बिंदास और उन्मुक्त जीवन जी रहे थे
! रात भर
वे न जाने कहाँ
– कहाँ क्या - क्या करते, दिन में सोते और शाम को देसी शराब की दूकान से
शराब लेकर नुक्कड़
से दूर छिपकर पुराने किले के वीरान से कमरे में पीने -
पिलाने का दौर चलता।
एक दिन
कल्लू उसे भी अपनी उसी महफ़िल में ले गया था। उनलोगों
के खुलेपन का वह मुरीद हो गया था। बड़ी मस्ती में थे वे लोग। एक दूसरे से कितनी खुशियां
बाँट रहे थे। उसे गुनगुनाने का मन कर रहा था:
आओ दोस्तों, थोड़ी अपनी भी परवाह करें,
आओ खेलें, मेल बढ़ाएं, जीने की चाह करें।
कोई हाथ बढ़ाने वाला,
क्या आएगा कभी यहाँ?
कोई हमें थामने वाला,
क्या आएगा कभी यहाँ?
चाह नहीं इसकी अब भी,
पहले भी कभी नहीं रही,
मस्ती में जीवन कटता है,
कभी कमी भी नहीं रही।
ऐसे जीवन में मलंग
भी गीत जीत का गाता है,
कल का किसने देखा है,
आज सूरज से नाता है।
रातें कटती, करते बातें,
कभी चाँद, तो कभी सितारे,
आँखे झँपती, जगी हैं आंतें,
रिश्ते सारे स्वर्ग सिधारे।
ऐसे में क्या सोंचे, क्या कोई गुनाह करें?
मेल बढ़ाएं, खेल बढ़ाएं, चलो जीने की चाह करें।
मेरे मन में जगती आसें,
लहरों पर दौड़ें, पंख फुलाएं,
जंग जीतनी है, जीवन की,
क्षितिज पार से कोई बुलाये।
वहां प्रेम का दरिया बहता,
ठिठुरन भरी नहीं हैं रातें,
पेट भरे की नहीं है चिंता,
रोज नई दावतें उड़ाते।
कल्लू, जददू, आओ, बैठो थोड़ी तो सलाह करें,
आओ खेलें, मेल बढ़ाएं, जीने की चाह करें।
उसी दौर में जदू ने भी दो - तीन
घूँट हलक से उतार लिए थे। जब वह देर रात में आश्रम पहुँचा
तो वार्डन उसे उसी गेट पर मिल गयी जहाँ आज से 14 साल पहले एक अनब्याही
माँ की अनचाही संतान
के जैसा उसे छोड़ दिया गया था। उसकी
झूमती हुई, लडखडाती चाल सबकुछ बयां
कर गयी थी। उसका सामान उसे देकर उसी रात में
बाहर निकाल दिया गया था। शायद वह जैसे एक रात
को आश्रम में छोटे मेहमान की तरह स्वागत पूर्वक लाया गया था, आज एक अनचाहे मेहमान की तरह उसे बाहर निकाल
दिया गया था। उसके पास कोई ठिकाना नहीं था। वह फिर कल्लू के पास जा पहुंचा था। कल्लू ने
उसे अपनी खोली की चाभी थमाते हुए कहा था, "जा तू मेरी खोली में जाकर
आराम कर। अपन लोग रात में एक जगह अपॉइंटमेंट
है। काम निपटाकर जल्दी मिलते हैं।"
जदू की समझ में नहीं आ रहा था कि रात में उसका क्या अपॉइंटमेंट, किसके
साथ हो सकता है। उसने चाभी लेकर उसकी खोली खोली थी। कुछ थके - मांदे होने से और कुछ
नशे के हलके प्रभाव से उसे तुरत नींद आ गई थी।
कल्लू की एक टूटी हुई साईकिल खोली के एक किनारे पड़ी थी। उसको उसने
ठीक किया था। उसका आश्रम के किचन में काम करने के दौरान प्राप्त किया गया अनुभव और
कुछ उसकी जिजीविषा ने उसे चलित पापड़ी दूकान की शुरुआत करने को प्रेरित किया था। तभी
से वह अपनी चलित पापड़ी दूकान बाजार के चौराहे पर लगाने लगा था।
X x x x x x x
एक दिन, उस एक दिन ने उसका जीवन, भाग्य,
रहन - सहन, दिशा और दशा सबकुछ बदल कर रख दिया था। उसके अंदर बदलाव का शक्तिपात माई से मुलाकात
के बाद ही हुआ
था। उस
एक घटना ने उसके
खंडहर में बदलते
जीवन - दुर्ग को ढहाकर नव - निर्माण
की राह पर डाल दिया था।
इधर कई दिनों से यहाँ
रोज बारिश हो जा रही थी। बारिश भी ऐसी
कि शाम गहराते ही शुरू हो जाया करती
थी। शाम का पूरा धंधा ही चौपट कर दे रही थी
ये बारिश। इस मौसम में वही ग्राहक बाजार आते थे जिनके लिए बाजार आना अत्यावश्यक हो जाता था।
वैसे भी काफी कम ग्राहक बाजार में थे।
फिर उनमें से बहुत कम ही ग्राहक पापड़ी की दूकान की तरफ बढ़ते थे। सभी को जरूरी सामान खरीदकर घर वापस लौटने की जल्दी होती
थी। बिक्री भी बहुत
कम थी। इसीलिये बारिश के अन्य दिनों की तरह उस दिन भी वह अपनी पापड़ी
दूकान को जल्दी - जल्दी समेट रहा था। आसमान में गहरे, काले बादल दिखाई दे रहे थे। बारिश शुरू होने के पहले ही वह अपनी खोली में पहुँच
जाना चाहता था। खोली की छत भी कई जगहों
से लीक कर रही थी। उसके दिन भर पापड़ी
दूकान में रहने के कारण उसकी मरम्मत के लिए
समय ही नहीं मिल रहा था। साधन के
रूप में टाली वगैरह तो उसने जुटा लिया था। वह खुद ही इतना हुनरमंद था कि मरम्मत कर ही लेता।
बिना बरसात हुए तो जान भी नहीं सकता
न कि कहाँ से छत चू रही है। बरसात रात में
होती थी इसलिए छत को ठीक कर नहीं पा रहा था।
हालाँकि पिछले कई दिनों की वारिश से चूते हुए
छत में दाग पड़ गया था। लेकिन कुछ पुराने दाग
भी थे जिनकी मरम्मत वह पिछले बरसात के मौसम में कर चूका था। हर साल बरसात में नयी चूने की जगह बन जाया करती
थी। उसकी बेमानी जिंदगी की तरह छत भी जगह
- जगह से छीज चुकी थी।
वह घर लौटते हुए मंदिर के पास सीढ़ियों से अपना सायकिल टिकाता था। वहां से
मंदिर की सीढीयां चढ़ते हुए भगवान के सामने पहुँचकर हाथ नहीं जोड़ता था, सिर्फ सर झुकाये
थोड़ी देर यूँ ही खड़ा रहता था। अक्सर लोग मन
-ही - मन भगवान के सामने अपने मांगों की पूरी लिस्ट दुहराया करते थे। उसे यह सब करना नहीं आता था। वह तो सिर्फ आज के दिन लिए धन्यवाद करता था, मुड़ता,
सीढ़ियां उतरता, सायकिल उठाता और खोली की ओर चल पड़ता। आज
भी वह सायकिल पर चलता हुआ मंदिर के
तरफ बढ़ रहा था। रात में घुप्प अँधेरा छाया
था। काले बादलों के आसमान में छा जाने के कारण अँधेरा और गहरा गया था। ऐसे मौसम में अक्सर बिजली विभाग वाले लोगों की असुविधा में जीने
के अभ्यास की थोड़ी और कठिन परीक्षा लेने के
लिए बिजली काट दिया करते थे। इसमें बिजली विभाग की अब्यवस्था और बारिश के मौसम से निपटने की तत्परता की कमी पर भी पर्दा पड़ा रहता
था।
आज भी बिजली कट गयी थी, या काट दी गयी थी। अँधेरे में रोशनी सिर्फ बिजली के कौंधने से ही हो जाया
करते थी। या कभी - कभी कोई बाइक या कार या
हैवी वाहन ट्रक आदि के गुजरने से हो जाती थी।
बारिश शुरू हो गयी थी। धीरे - धीरे
जैसे - जैसे वह मंदिर की ओर बढ़ रहा था , बारिश की
रफ़्तार तेज होती जाती थी। जैसे ही कोई
तेज रोशनी वाहन वहाँ से गुजरता सड़क के घुप्प
अँधेरे में रोशनी की रेखा सड़क को तीर की तरह बेध जाती। उसके बाद फिर अँधेरा पसर जाता।
अब तो बारिश इतनी तेज हो गयी थी कि सड़क के इस किनारे से ठीक सामने सड़क की दूसरी तरफ
का किनारा नहीं दीख रहा था। इतने में उसने
देखा की सामने से तेज गति से एक ट्रक
आ रहा था। सड़क की बीचोबीच के गड्ढे
में भरे पानी में ट्रक का एक चकका पड़ने से इतना जोर से पानी का छपाक हुआ कि बगल में सड़क के किनारे चलते हुयी एक आकृति हवा में लहराई और
गिर पडी। ट्रक तेजी से भगाता हुआ दूर चला गया था। उसने भी ट्रक वाले को दो - चार अपनी विशिष्ट खोली - छाप शब्दावली में
खासी अश्लील - सी गाली दी थी, अपने मन को तसल्ली देने के लिए, क्योंकि सुनने वाला ट्रक का ड्राइवर तो दूर जा चूका
था।
उसने जल्दी से अपनी सायकिल मंदिर के किनारे की दीवाल में टिकाई थी। वह उस गिरी हुयी आकृति के पास दौड़कर पहुंचा
था। उसने देखा कि वह आकृति एक साड़ी में थी और औंधे मुंह गिरी हुई थी। उसने उसे पलटी किया तो देखा कि एक वृद्ध महिला कराह
रही थी। उसकी छोटी - सी ट्रॉली वाली अटैची भी वहीं पर पडी थी।
"माई, आप को चोट तो नहीं लगी आप ठीक तो हैं?" उसने महिला
की बांह पकड़कर उठाते हुए पूछा था।
"मुझे अभी सहारे की जरूरत नहीं है। मैं चल सकती हूँ।" महिला ने आत्मविस्वास से कहा था।
"इतनी तेज बारिश में आप कहाँ जाएंगी। आप को थोड़ी चोट भी लगी है।" उसने महिला को भटककर चलने पर
अपनी प्रतिक्रिया देते हुए कहा था।
"बस तकदीर जहाँ ले जाये वहां चलती चली जाउंगी।" महिला के हताशा भरे ह्रदय से ही ऐसे शब्द निकले थे। जदू
भी समझ गया था कि माई ने कोई गहरी चोट खाई है।
उसने माई की मदद करने की ठान ली।
माई को वह मंदिर के पिछवाड़े मंदिर के
पुजारी जी के निवास स्थान पर ले जाकर उनके घर
की कुण्डी खटखटाई थी। पंडित जी
निकले थे। तबतक बारिश थम गयी थी। बिजली भी आ गयी थी।
"बोलो जदू।" पंडित जी जदू को देखते ही पहचान गए थे।
"पंडित जी, ये मेरी माई है। गांव से इस बरसात में आ गयी है। इसके
कपडे गीले हो गए हैं। पंडिताईन चाची जी जरा मदद कर देंगी तो कपडे - वपड़े बदल लेगी।
माई को सवेरे आकर ले जाऊँगा। कोई दिक्कत तो
नहीं होगी।"
सारी बातें पंडिताइन चाची भी सुन रही थी। "नहीं नहीं दिक्कत काहे
की होगी। तुम निश्चिंत रहो। जाओ तुम भी भींग गए हो।"
इसतरह से वह माई के रात्री
विश्राम का इंतजाम कर अपनी खोली में लौट आया था।
X x x x x x
दूसरे दिन पिछली रात की बारिश में धुलने के बाद आसमान बिलकुल साफ़ था। इसीलिये सुबह की धूप निखरी हुई
थी। जदू जल्दी से उठ गया था। उसने अपने
नाश्ते - कम - खाने के लिए रोटियाँ सेंकीं, कुछ अधिक रोटियां सेंकी ताकि माई के लिए
भी कुछ बची रहें। पापड़ी का सामान भी तैयार कर लिया था। जल्दी - जल्दी तैयार होकर वह मंदिर के पीछे पंडिताइन
चाची के घर पहुंचा तो देखा कि माई उसी का इंतज़ार
करती हुयी तैयार बैठी थी। माई ने पंडिताईन चाची के द्वारा
दी हुयी सिर्फ चाय पी थी, यह बाद में पंडिताइन चाची से ही उसे मालूम हुआ था।
जदू ने माई के पांव छुए थे। पंडिताइन चाची को पायँ लगी चाची बोला। पंडिताइन चाची
ने जदू को अपने पास बुलाकर थोड़ा अकेले
में ले जाकर कहा था ,"जदू, इस बुढ़िया
को ले तो जा रहे हो, लेकिन है बड़ी खडूस बुढ़िया। तुम्हारी माई जैसी है, फिर भी मैं कह
रही हूँ। जैसे ही मैंने इसे चाय दी, तो इसने
कहा ,'मैं साफ़ - साफ़ कहे देती हूँ, जैसे आम औरतें चाय आदि देकर , बैठकर एक - दूसरे के बारे में जानने की बातें
लेकर, बातें बढ़ाने की कोशिश करने लगती है,
तो ऐसा आप मेरे साथ मत करना। मैं अपने बारे में कुछ नहीं बताउंगी। आप अपने बारे में कहोगे तो सुन जरूर लूंगी।' चुपचाप चाय पीकर बैठी है। जाओ ले जाओ , सम्हलकर रहना और
रखना।"
पंडिताइन चाची की परोक्ष हिदायतों से माई के स्वभाव के कड़े, सरल, ईमानदार
और बेवाक साफगोई के बारे में इशारा समझ चुका जदू थोड़ा सजग हो गया था। लेकिन उसने भी
मन - ही - मन दृढ निर्णय ले लिया था कि वह माई के स्वभाव के तीखापन को अपने सौम्य और
कोमल ब्यवहार से बदल कर रहेगा। जब माई को माई बनाया है तो उसे भी तो बेटा और सचमुच
का बेटा बनना पड़ेगा।
माई का ट्राली
बैग उसने सर पर उठा लिया था। माई को पीछे
- पीछे आने का इशारा कर वह आगे - आगे
चल दिया। रास्ते
में वह सोचता जाता था, " वह
तो सुबह में सार्वजनिक शौचालय
में चला जाता है,
माई को क्या कहेगा? वह तो एक ही खोलीनुमा
घर में सोता है, पकाता है, पापड़ी का सामान बनाता
है, यानि उसी एक कमरे में सोना, बैठना, फुर्सत
में दोस्तों के साथ छोटी – छोटी
खुशियों की छोटी दावतें
भी आयोजित करना, सब होता है। माई को कैसे रखेगा? लेकिन
माई को जब माई कहा है
तो बेटे
के रूप में उसे सबकुछ करना पड़ेगा जो एक बेटे का फर्ज होता है। एक तो वह लावारिश, बिना माँ
का अनाथालय में किसी तरह पला
- बढ़ा। आज माँ मिली है तो उसके दिमाग में उल्टी
- पुल्टी बातें आ रही हैं।" उसने अपने दिमाग को
एक झटका
दिया तब तक उसकी खोली आ
चुकी थी।
'माई मैं यहीं रहता हूँ।' ट्रॉली बैग को रखते हुए जदू ने कहा था। बैठने
के लिए एक टूटी कुर्सी, जिसकी एक टाँग ईंटों पर रक्खी थी, उसकी तरफ इशारा किया था।
इतने में बगल वाली खोली से सुखिया भाभी आ गयी थी। "माई मैं अब पापड़ी दूकान लगाने
जा रहा हूँ। दिन भर मैं वहीं रहूंगा। खाने के लिए रोटी - सब्जी बना दी है। बाकी काम
के लिए सुखिया भाभी बता देगी।"
कहकर वह सायकिल पर पापड़ी का सारा सामान लेकर बाहर निकल गया था। अब
जैसे वह खुली हवा में साँस लेने जैसा हलकापन महसूस कर रहा था। उसने पीछे मुड़कर सुखिया
भाभी को इशारे से बुलाया था। उससे बातें करके आवश्यक इंतजाम तथा औरतों की शौच आदि आवश्यकताएँ
की जरुरत पर आवश्यक मदद के बारें में निर्देश देकर चला गया था।
शाम को जदू अपनी पापड़ी दूकान को जल्दी समेटकर अपनी चॉल की खोली की
ओर चल दिया था। खोली में घुसने के पहले वह सुखिया भाभी से मिला था।
सुखिया भाभी ने कहा था, " सब ठीक है। मैंने महिलाओं के लिए सार्वजनिक शौचालय दिखा दिया
था। कोई दिक्कत नहीं हुयी। " वह चुपचाप अपनी सायकिल को खोली के बाहर साइड में लगाकर खिड़की के रॉड के साथ चेन से
बांध दिया था। अंदर घुसते ही वह साथ में लाई सब्जी और रोटी बनाने में लग गया था।
छोटे गैस के चूल्हे पर ही फटाफट सब काम निपटाकर,
वह माई के सामने प्लेट में सब्जी और रोटी
रखकर उनके खाने का इंतज़ार में सामने बैठ गया था। माई पहली बार उससे कुछ बोली थी
,"तुम भी रोटी, सब्जी लेकर खाने बैठो, थके हुए आये हो, जल्दी से खा - पीकर रात
में जल्दी सो जाओ। आराम जरूरी है।"
माई के मुख से इतना सुनकर जदू निहाल हो गया। पहली बार, जीवन में पहली
बार उससे इतनी आत्मीयता से किसी ने बातें की थी। नहीं तो सभी उसे दुत्कारते या दुत्कार
की नजर से पुकारते, जदुआ, जदुनाथवा, कहकर।
सुबह माई जल्दी उठकर महिलाओं के लिए सार्वजनिक शौचालय में ही गयी। सुबह वहीं के स्नान गृह में उसने स्नान भी कर लिया। जदू के उठने से पहले ही वह तैयार होकर कुछ - कुछ
बोलकर भगवान की प्रार्थना जैसे शब्द पता नहीं किस भाषा में कह रही थी कि जदू की नींद
खुली। वह अपने उठने के पहले माई को बिलकुल तैयार पाकर बड़ा शर्मिंदा हुआ था।
वह भी कैसा है , इतनी जोर की नींद आई कि अभी तक सोया
रह गया। उसे खुद पर गुस्सा भी आ रहा
था।
"जदू नाम है न तुम्हारा। मैं भी तुम्हें जदू कहकर ही पुकरूंगी।"
माई के सम्बोधन - भाव में वात्सल्य छलक रहा था, जिसके अमृत से वह अभी तक अछूता था।
"अच्छा, अब बताओ, सवेरे - सवेरे क्या बनाते हो? क्या बनाना है?
सामान सब कहाँ है? "
माई तो ऐसे सवाल एक साथ कर रही थी जैसे इस घर में वह जदू की मदद करने
के लिए ही आई हो।
"माई, मैं आपको माई कहूँ तो बुरा तो नहीं मानेंगी न?"
"अरे अब मैं तुम्हारी माई जैसी नहीं, माई ही हूँ तो बुरा क्यों
मानूंगी?"
माई के इन शब्दों ने जदू के दिल - दिमाग में ममता का दरिया बहा दिया
था जिसकी प्यास लिए अभी तक एक निरुद्देश्य
जीवन जिए जा रहा था। उसे तो सहसा विस्वास नहीं हो रहा था। वह तो ममत्व की उसी धार में
बस बहता रहना चाहता था।
"अरे कहाँ गुम हो गए? बनाने का सामान कहाँ है? बताओगे भी?
"
माई के इन शब्दों से वह भाव लोक से वर्तमान लोक में लौटा था।
"माई, मैं बनाता हूँ न। आप क्यों परेशान होती हो? रोज ही तो बनाता
हूँ।" जदू थोड़ी धृष्टता - मिश्रित अधिकार के साथ बोला था।
"तुमने मुझे माई कहा है न। अब तो माई की बात माननी पड़ेगी। अबतक
तू अकेला था। इसलिए अपनी मर्जी से चलता था। अब तो तेरी माई तेरे साथ है। तो अब माई
की मर्जी से चलना पड़ेगा। " माई के सख्त मगर सहज शब्दों से जदू का अंदर - बाहर
सब ओतप्रोत हो गया था। क्या ऐसा सुखद बदलाव भी इतनी त्वरित गति से किसी अनाथ के जीवन
में आता है? वह तो अपने जीवन के इस मोड़ पर, ऐसे घुमाव पर विस्मित था, "हे भगवान,
कैसे आपने उसके जीवन को यु - टर्न पर घुमा दिया है? आपकी लीला अपरम्पार है, प्रभो।"
शायद जीवन में पहली बार वह भगवान के प्रति कृतज्ञता के भाव से भर उठा था।
माई ने ही खाना बनाया था। पापड़ी के सामान और मसाले बनाने में जदू ने
माई की मदद की थी। माई ने जदू का खाना लगाकर कहा था, "खाना खाओ और जाओ अपनी दूकान
लेकर दूकान लगाने। भगवान तुम्हारी मदद करें। मेरी चिंता मत करना। मेरी चिंता मत करना,
मैं बिलकुल ठीक रहूंगी। अगल - बगल के लोग सभी अच्छे हैं। सुखिया भाभी भी मेरा ध्यान
रखती है। तूने तो उसे लगा ही दिया है मेरी
आवभगत में।"
जदू जल्दी ही खाना खाकर, अपनी पापड़ी दूकान के लिए सामान आदि सायकिल
पर लादकर चल दिया था दूकान लगाने उसी जगह पर जहाँ वह अक्सर दुकान लगाया करता था। इधर
हर रोज उसकी दूकान की बिक्री इतनी हो जाया करती थी, जिसमें वह अपनी तथा माई के खाने
- पीने का रोज का इंतजाम किसी तरह कर ले रहा था। ऐसे में कुछ भी बचने की संभावना नहीं
थी। पापड़ी के बनाने के लिए भी सामान लाने में भी तो खर्च आता था।
जदू दिन भर माई के साथ तो रहता नहीं था। शाम या कहें कि रात में आता
तो माई के साथ मिलकर खाना बनता। कुछ दिनभर
की, कुछ इधर की, कुछ उधर की खट्टी - मीठी बातों से घर के माहौल को हल्का और आनंददायक
बनाने की कोशिश करता। माई उसके साथ हँसने की कोशिश करती, लेकिन फिर भी माई के अंदर
छुपे अवसाद की धुंध छंटने जैसा उसे प्रतीत नहीं होता था। डर के मारे माई से उनके दर्द को बयां करके, थोड़ा
बांटकर, हल्का महसूस करने की हिम्मत भी नहीं होती उसकी। पंडिताइन चाची के साथ माई की
पहली मुलाकात के समय की सख्त हिदायत उसे याद आ जाती और वह सहम जाता। लेकिन उसने माई को सारी
सुख - सुविधा देने का मन बना लिया था।
और इसमें वह सतत प्रयत्नशील रहता।
माई जमीन पर ही लगे बिछावन पर सोती थी। एक दिन जदू स्टील पाइप के ऊपर
लगे प्लाई से बना कॉट खरीदकर ले आया। उसने कॉट पर बिछावन डालकर माई को जब सोने के लिए
कहा तो वह बहुत खुश हुआ था।
लेकिन माई गुस्सा हो गई, "दुनिया में कौन ऐसी माँ होगी जो अपने लाल को जमीन पर सुलाकर खुद खाट
पर सोती होगी। मैं नहीं सोउंगी इसपर।"
माई को जदू ने काफी मनाया था, "देखो माई, आपकी उम्र हो गयी है। इस उम्र में अगर कुछ आपको हो जाता है तो मैं
तो दो तरह से मारा जाऊंगा न। एक तो मुझे अपनी इसी छोटी - सी उम्र में माई की सेवा का जो अवसर मिला है, इसी में वह सबकुछ करना चाहता है। तो इसका सुख देना भी तो माई आपका ही काम है।
" और "दूसरा?" माई ने हँसते हुए पूछा था।
जदू ने गंभीर होकर कांपती आवाज में कहा था,"मैं फिर अनाथ नहीं
होना चाहता हूँ।"
माई ने उसे कलेजे - से लगा लिया था। जदू का जीवन सफल हो गया। इसी ममता
की छावं का तो वह प्यासा था। वह अपने पूरे वजूद में फिर जी उठा था।
मिन्नतों और कसमों के दौर से नहीं गुजरना पड़ा था, जदू को। मिन्नतों
और कसमों को किसी और मौके में इस्तेमाल करने के लिए उसने बचा लिया था। लेकिन माई ने
स्टील वाली कॉट पर सोते हुए उससे कहा था,"तू कहीं मुझे इतनी सुख - सुविधा देकर
मेरे अतीत के बारे में जानने की बात तो नहीं छेड़ना चाहता है? मैं इससे बहुत डरती हूँ।
ये सारी सुविधाएं मेरे मन में बहुत सारी दुविधाएं लेकर आ रही हैं, इसीलिये सावधान हो
जाना चाहती हूँ।"
जदू कटघरे में खड़े मुजरिम की तरह सफाई देने लगा था," नहीं माई,
क्या मैंने कभी ऐसे सवाल किये आपसे? क्या मैंने इसतरह की बातों की कभी चर्चा भी की?
आप जैसी भी हो, मेरी माई हो, मेरी माई ही रहो, बस इससे अधिक मुझे कुछ नहीं चाहिए।"
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धनतेरस की रात उसने काफी कमा लिया था। इतने पैसे बच गए थे कि खाने
- पीने की ब्यवस्था में पैसे खर्च करने के बाद, पापड़ी बनाने के सामान खरीदने के बाद
भी उसके पास 150 रु बचे थे।
इनसे तो वह दो पैकेट पूजन - सामग्री खरीद सकता था, जिससे
वह दीवाली के दिन लक्ष्मी जी की पूजा कर डबल
करोड़पति बन जाएगा। फिर तो उसकी और माई दोनों की जिंदगी संवर जायगी। बहुत ही
उत्तम विचार उसके मन में उमड़ - घुमड़ रहे थे। इन्हीं
विचारों में डूबता - उतराता वह अपनी खोली के तरफ आ ही रहा था कि रस्ते में उसे सुखिया भाभी मिली थी, "जदू, तुम्हारी
ही राह देख रही हूँ। कितनी देर कर दी ? माई
की तबियत बहुत ख़राब हो गयी है। सांस जोर से चल रही है और बुखार भी है।"
जदू जल्दी से अपनी सायकिल खोली की दीवार के साथ टिकाकर अंदर गया, तो
माई की हालत देखकर उसका दिल बैठने लगा। माई की सांस जोर से चल रही थी। लगता था कि सांस
लेने में तकलीफ हो रही है। सारी बस्ती में यह खबर आग की तरह फ़ैल गयी कि जदू के माई
की तबियत बहुत जोरों से खराब हो गयी है। भोलू
अपनी ऑटो लेकर पहुँच गया। जल्दी से उसे पास
के ही बड़े अस्पताल "ओपल केयर " पहुचाया
गया। एडमिशन में ही 150 रुपये जमा करने पड़े। रिसेप्शन में बैठी लड़की को उसने किसी से फोन पर बात
करते हुए सुना, "डॉक्टर अरविंद को फोन कर दो, यह उनके अकाउंट का केस है।"
उस लड़की ने जदू को कहा था "आपको अब और कोई पैसे जमा करने की जरुरत
नहीं है। हम लोग इनका इलाज करेंगे।"
जदू को यह बात समझ में नहीं आयी।
खैर उसे तो बस अपनी माई के इलाज से मतलब था। माई को ऑक्सीजन मास्क लगा दिया गया। उसी स्थिति
में माई को वार्ड में शिफ्ट कर दिया गया। रात में जदू वहीं माई के
सिरहाने बैठा रहा। रात के करीब चार बजे नर्स ने मॉनिटर स्क्रीन पर
ग्राफ देखा। उसके बाद मास्क हटा दिया गया। नर्स ने कहा ," अब स्टेबल है। सांस ठीक चल रही है , इसलिए मास्क हटाया जा रहा है। "
थोड़ी देर बाद माई ने आँखें खोली थी। उसने इशारे से जदू को पास में
बुलाया था। "जदू आज मैं तुम्हेँ अपने अतीत के बारे में सबकुछ बताउंगी। पता नहीं
कल रहूँ, न रहूँ।"
माई के मुखपर जदू ने उंगली
रखकर कहा था ,"ऐसी बातें मत करो माई। मुझे अनाथ करने का तुम्हें कोई हक़ नहीं है , मैं
फिर से अनाथ नहीं होना चाहता हूँ। ।" वह रो पड़ा था , उसके आँखों की कोर से आँखों
में भर आये खारे जल का रिसाव जारी हो गया था।
माई ने पानी लाने का इशारा
किया। जदू ने माई को पानी पिलाया था। फिर माई ने धीरे - धीरे अपने अतीत की परतें खोलते
हुए एक - एक शब्द को दर्द के समंदर से बीने हुए मोती की तरह निकालने शुरू किये थे,
"जदू, तुझे नहीं मालूम
तुझमें मैंने अपना खोया हुआ जीवन पा लिया है रे।
मेरा जीवन खो ही गया था कहीं। मैं जीना
भूल गयी थी। मैं आगे जीना भी नहीं चाहती थी
क्योंकि जीने का कोई मकसद ही नहीं बचा था। मैं एक माँ थी। हाँ मैं थी, अब मेरे लिए कुछ नहीं है। मेरा भी एक
परिवार था। मैंने भी कितनी जद्दोजहद, मसक्कत
के साथ, कितने अरमानों से, कितनी आशाओं - आकाँक्षाओं से अपने संतान की परवरिश की थी। हर माता - पिता करते हैं। उसे सारी खुशियां देना चाहते हैं। उसके सारे गम खुद उठा लेते हैं, अपना बना लेते हैं
ताकि उसकी संतान अपनी बनी रहे। जिन उँगलियों
की पोर को पकड़कर वे अपनी औलाद को चलना सिखाते हैं, वही उनकी पोर - पोर में टीस क्यों भरने लगता है,
जब उनकी नजरें और नसें दोनों कमजोर पड़ने लगती हैं? जिस गोद में बिठाकर, जिन कन्धों
पर बिठाकर माँ - बाप उंच - नीच, भला - बुरा से बचते हुए, किनारा करते
हुए बच्चों के जीवन को सुसंस्कारित करने की कोशिश करते है, वही बच्चे बड़े होने पर अपनी
पत्नियों के प्रभाव में उनसे किनारा क्यों करने लगते हैं? क्या यह दौर ही ऐसा है, जिसमें
हवाओं में अहसानफ़रामोशी, मक्कारी और वेवफाई की ठंढी बर्फ तैरने लगी है? कई अनुत्तरित
प्रश्न हैं इस पड़ाव तक के मेरे जीवन - वृतांत में जिसे मैं बताउँगी।"
थोड़ा रूककर, थोड़ी सांस लेकर माई ने फिर कहना शुरू किया था जैसे वह
सबकुछ सुनाकर दिल पर पड़े एक बड़े बोझ को हल्का कर देना चाहती हो। "मेरे पति सरकारी
नौकरी में थे। मेरा भी एक घर था , यहाँ से
दूर दूसरे शहर में। मुझे एक बेटी और एक बेटा
हुआ। दोनों में चार साल का अंतर था। बेटी बड़ी
थी। घर में खुशियां ही खुशियां थी। कहीं कोई अभाव नहीं। बच्चों से भरा घर हो और पति
की निकटता हो, यही तो गृहस्थ जीवन का
सुख है। जैसे - जैसे बच्चे बड़े होने लगे मैं भी उनके परवरिश का ख़ास
ख्याल रखने लगी। बच्चे भी पढ़ने में
अच्छे निकले। बेटी भी तेज थी। इण्टर की पढाई ख़त्म होने के बाद उसने अखिल भारतीय
अभियंत्रण के लिए आयोजित प्रतियोगिता में अच्छे रैंक लाये। इसलिए उसका प्रवेश एन आई टी इंजीनियरिंग कॉलेज में
हो गया। जब तक वह इंजीनियरिंग
के चौथे वर्ष में पहुँचती मेरे पति
भी सेवानिवृति के कगार पर पहुँच चुके थे।
सब कुछ ठीक चल रहा था। इतने
में एक शाम खबर आई कि मेरी बेटी अपने साथियों
के साथ पिकनिक पर किसी पहाड़ी नदी के किनारे
के स्पॉट पर गयी हुई थी। अपने साथी को बचाने
में स्वयं डूब गयी। मेरे घर पर विपत्ती का पहाड़ टूट पड़ा। अभी तक सारे सपने सच होते हुए देखे थे हमने। उन सपनों का टूटना और टूटकर बिखरना मेरे पति को
अंदर तक हिला गया। सेवा निवृति के ठीक पहले वे इस आघात को सह नहीं सके और
उनका देहांत हो गया। यह सब इतना अचानक हुआ
कि मैं तो सन्न रह गयी। मेरे साथ में अब सिर्फ अरविंद
मेरा लड़का था और था उसका भविष्य।
उस समय वह 18 साल का था। वह
प्लस टू के दूसरे साल में था। उसके ऊपर इसी साल प्रतियोगिता
परीक्षाओं में प्रवेश के लिए तैयारी और आवेदन करने का दौर भी शुरू होने वाला था। पैसों की ब्यवस्था के साथ - साथ अरविंद में भी मानसिक रूप से यह विस्वास पैदा करने का समय था कि वह परीक्षा में सफल हो सकता है। अर्थात मुझे सम्भलना था और उसे भी सम्भालना था। पैसों की कमी थी भी
नहीं। पैसों की कमी के कारण अरविंद
की पढाई में किसी तरह का कोई ब्यवधान कभी नहीं आने दूंगी , यह निश्चय मैंने खुद
से एक बार फिर दुहराया था। मगर
अरविंद को मैंने कहा था ,"देखो बेटा , तुम्हारे पिताजी का पार्थिव शरीर नहीं रहा। लेकिन उनकी आत्मा तुम्हारा मार्ग प्रशस्त कर रही
है। तुम्हें उनके सपने को पूरा करना है। यही
तुम्हारी सबसे बड़ी श्रद्धांजलि होगी उनके प्रति। तुम यह जानकर चलो कि सपने वे नहीं देखे जाते जो
सोने पर आते हैं , सपने वे देखो जो तुम्हें सोने ही नहीं देते। सफलता तुम्हारे कदम
चूमेगी।"
अरविन्द भी सारे दुःख भूलकर प्री मेडिकल की तैयारी में जुट गया। उनके पिता की भी यही इच्छा थी कि मेरा या बेटी कोई
एक डॉक्टर अवश्य बने। अरविन्द के प्री मेडिकल
का रिज़ल्ट आज निकला था। उसने सफलता पायी थी। घर में मेरे पति और बेटी के गुजर जाने के बाद पहली बार इक छोटी
- सी आशा ने दस्तक दी थी। लगा था कि गाड़ी फिर
पटरी पर आ रही है। जिंदगी फिर कुछ अच्छा करवाना
चाह रही है। अरविन्द का एडमिशन मेरे घर से
दूर के एक शहर में हो गया।
मैं घर में अकेले रह गयी। अरविंद पढाई में ब्यस्त हो गया। लेकिन अकेले
में भी मैंने हिम्मत से सारी जिम्मेवारियों
को उठाने के लिए दृढ निश्चय कर लिया। मैंने
अरविंद की पढाई में किसी तरह भी पैसे की कमी महसूस नहीं होने दी। मैं बैंक के कामकाज के बारे में बिलकुल ही अनभिज्ञ थी। मेरे पति के पी ऍफ़ आदि के सारे पैसे फिक्स्ड में बैंक में जमा कर दिए
गए थे। उसके ब्याज से इतने पैसे आ जाते थे
कि अरविंद की पढाई और घर का खर्च आराम से चल
जाता था। इसतरह मैंने बैंक का कामकाज भी सीख
लिया। घर के ही एक हिस्से को किराये पर लगा दिया था। उससे घर के रखरखाव और और बिजली - पानी, म्युनिसिपालिटी
के बिल आदि का भुगतान हो जाता था।
इसतरह सबकुछ ठीक हो चला था। पीछे जो कुछ हो गया था उसे तो मिटाया नहीं जा सकता
था, भूलना भी मुश्किल था , किन्तु वक्त बीतने के साथ - साथ उसका समय - प्रवाह
के ही नियम के तहत उसका धूमिल होना स्वाभाविक था। इन सभी परिस्थितियों से टकराते हुए , चोट खाते
हुए मैं एक सबल और सख्त महिला के रूप में
निखर कर उभरी थी। पति के जिन्दा रहने के
समय सारी जिम्मेदारियों का बोझ उनपर था।
मैं एक सक्षम गृहणी के रूप में गौण
भूमिका में थी। लेकिन अभी तो मैं मुख्य भूमिका में थी। अभी मेरे साथ मेरा बोझ उठाने वाला कोई नहीं था,
न कोई अपना, और न ही कोई दूर का जान - पहचान वाला गैर। मैंने सबकुछ झेला अकेला ही..., रोई ,चिल्लाई ...,लेकिन अवसादग्रस्त नहीं
हुयी , क्योंकि अरविंद का जीवन सामने आकर खड़ा
हो जाता था। ये सारा वक्त हमने कैसे काटा,
कहाँ से शक्ति आ गयी, कौन खड़ा था मेरे पीछे, मेरी प्रेरणा बनकर, कभी वक्त नहीं मिला इन सब बातों
का आकलन करने के लिए।
अरविंद एम बी बी एस की चार साल की पढाई पूरी करके हाउस सर्जन की ट्रेनिंग में लग गया था। मेरे लिए
यह बहुत संतोष की बात थी। मेरी एकमात्र
संतान डाक्टर बनने जा रही थी। मेरे मरहूम पति
की आत्मा को कितनी शांति और शुकून मिल रहा होगा। अरविंद के घर से दूर रहने के कारण
अब अकेलापन खलने लगा था। घर में एकांत में रहना अब अच्छा नहीं लगता था। लेकिन संकोचवश और कुछ - कुछ यह जानकर और समझकर कि
उसकी पढाई अभी बीच में ही है, मैं अपनी यह
इच्छा बतला नहीं पाती थी। अरविंद जब कभी घर
आता तो उसके लिए नए - नए पकवान, ब्यंजन और अन्य डिशेस बनाने में ही समय निकल जाता। पता ही नहीं चलता। कुछ सोचती कि बातें करूँ उससे इस सम्बन्ध में, लेकिन
फिर उसके जाने का समय आ जाता और बातें अधूरी ही रह जातीं। उसके करियर में आगे बढ़ने में मेरी इच्छाएं ब्यवधान न बन जाएँ, इसलिए मैं
अपनी इच्छाओं को दबाये हुए ही अकेलेपन का दंश स्वयं झेलने पर मजबूर थी या स्वयं को मजबूर
बना लिया था। शायद विधाता ने मेरे लिए
तपस्या का यही मार्ग निर्धारित किया हो।
डॉ अरविंद के हाउस सर्जन पूरा होते ही ऍम डी करने के लिए होने वाली
परीक्षा में उसका चयन हो गया। इसके लिए उसे
मुंबई में रहना था , दो साल और। अरविंद ने माँ से कहा, " माँ, अब तुम अकेले मत रहो,
चलो मेरे साथ मुंबई, हम वहीं एक साथ रहेंगे।
एक दो रूम, टू बी एच के का फ्लैट ले
लेंगे और उसी में दोनों एक साथ रहेंगे। मुझे
भी तुम्हें अकेले छोड़ना अच्छा नहीं
लगता।"
उसका आग्रह और मेरा एकांत में अकेले रहते - रहते उकता जाने की स्थिति
के कारण मैं भी उसके इस निर्णय से सहमत हो
गई। घर को ताला लगाकर, घर के रखरखाव की थोड़ी
देखभाल की जिम्मेवारी, एक यूनिट में रह रहे किरायेदार को सौंपकर मैं भी अरविंद के साथ
मुंबई के लिए चल पड़ी। यहाँ हमलोगों के आने
के पहले ही अरविंद के दोस्तों ने फ्लैट
की ब्यवस्था कर दी थी। साउथ मुंबई के
परेल क्षेत्र में था यह फ्लैट। यहाँ से अरविंद का हॉस्पिटल
भी ज्यादा दूर नहीं था। उसे आने - जाने
में कोई असुविधा नहीं थी। उसके सारे दोस्तों ने मिलकर
कैब कर लिया था जो रोज उन्हें हॉस्पिटल पहुंचता और फिर ड्यूटी समाप्त होने के बाद घर छोड़ देता था। समय धीरे - धीरे अपनी गति से बीतता जा रहा था।
अरविंद दोस्तों के साथ वीक एंड में कभी - कभी चाय पर बैठा करता तो
मैं भी उनके बीच बैठ जाती। उन्हें मेरा बैठना
बुरा नहीं लगता। मैं भी उनके साथ अपने अनुभव
और जीवन के खट्टे - मीठे पलों को हास्य की
चाशनी में लपेटकर उन्हें सुनाती तो उन्हें भी बड़ा मजा आता और मैं भी अच्छा महसूस करती। वे भी दबे - दबे स्वर में ही सही लड़कियों और बॉस के साथ हुई बातों को रिप्ले कर मजे लेते तो घर में
हंसी और ठहाकों का माहौल जीवंत हो उठता। उन्हें
भी मालूम हो गया था की डॉ अरविंद की माँ का
मन भी इससे थोड़ा बहल जाता है। इन्हीं
बातों में डॉ अरविंद के भी किसी लड़की
के साथ बढ़ती समीपता की चर्चा कानों में सुनाई दी थी। मैंने अकेले में इस बारे में अरविंद को टोकना
अच्छा नहीं समझा। मैंने भी सोचा कि चलो अरविंद ने किसी लड़की को पसंद तो किया। लेकिन मन में एक खटका अवश्य होता था कि कहीं किसी ऐसी - वैसी लड़की को तो पसंद नहीं
कर लिया। फिर सोचती कि अरविंद तो ऐसा नहीं है कि कोई उसको अपने चक्कर में फँसाकर अपना उल्लू सीधा कर ले। मुझे भरोसा था इसलिए ज्यादा टोका टाकी नहीं
करती थी।
एक दिन शाम को अरविंद घर आया तो साथ में एक लड़की भी थी। वह सरवाजे पर ही ठिठक गई तो अरविंद ने उसे घर के
अंदर बुलाया। मैं ड्राइंग रूम में आई तो अरविंद ने उसका परिचय कराया, "माँ, मिलो
कामिनी से। यह मेरी दोस्त बनी है पिछले कुछ
महीनों से। बहुत जिद्द कर रही थी, अपनी माँ से मिलाओ।
मिलो यही हैं मेरी माँ। " उसने हाथ जोड़कर प्रणाम किया था। वह लंबी, छरहरी तीखे नाक - नक्श के साथ खूबसूरत
और आकर्षक ब्यक्तित्व वाली ऐसी लड़की थी जो भीड़ में कुछ अलग दिखाई पड़ जाती है। फिर उसने ही कहना शुरू किया था, " माँ जी मैं
आपसे इसलिए मिलना चाह रही थी क्योंकि आप एक ऐसे महान डॉक्टर और उससे अधिक एक ऐसे खूबसूरत इंसान
की माँ हैं जिसने मेरी माँ को नई जिंदगी दी है।" उसके इस तरह बात
करने से मेरा ध्यान भी उसकी ओर केंद्रित हो चला था। "बेटी , तुम्हारा पूरा नाम क्या है?"
मैंने पूछा था।
मेरे पूछने का अभिप्राय वह समझ गई थी। उसने जवाब दिया था," अच्छा,
अच्छा जी मेरा पूरा नाम है कामिनी मेहरा। मेरे पिताजी नहीं हैं। सिर्फ माँ हैं। यहाँ
से थोड़ी दूर गोरेगाँव में मेरा छोटा सा घर है। अरविंद ने बीच में ही टोका था,
" माँ, छोटा सा घर नहीं, बहुत बड़ा बंगला है।"
"बस, बस डॉक्टर साहब को हर किसी की बड़ाई और भलाई करने में काफी
मजा आता है। यह अपने जैसा ही इंसान हर किसी में देखने की आदत से ग्रस्त हैं। आज के ज़माने में ऐसा ही कहा जायेगा। माँ जी, मैं उस महान महिला से मिलना चाहती थी, जिसने
डॉक्टर अरविंद जैसे सपूत को सुसंस्कारित करने का
कार्य किया है।" उसने थोड़ा रूककर
आगे कहना जारी रखा, " माँ जी, उसदिन अगर डॉ
अरविंद नहीं होते तो मेरी माँ नहीं
बच पाती। मुझे मेरे पिताजी के मरने के बाद दुबारा अनाथ होने से डॉ अरविंद ने ही बचाया। उसदिन मेरी माँ को मैसिव अटैक हुआ था। मैं उसे जैसे - तैसे गाड़ी में बिठाकर हॉस्पिटल
पहुँची तो कोई अटेंशन नहीं ले रहा था। ऐसे
में ही डॉ साहब की नजर मेरी माँ पर पडी। उसकी हालत देखकर उन्होंने उसे तुरत ICU में ले चलने
का आदेश दिया। साथ ही कॉरिडोर क्रॉस करते हुए
मुहं से फूंक कर और छाती को जोर - जोर से दबाकर आर्टिफीसियल रेस्पिरेशन और CPR
(Cardiopulmonary Resuscitation) टेक्निक द्वारा,
जिसे मैं बाद में समझ पाई, इन्होने माँ की
साँस को पुनः संचालित करने की इतनी कोशिश की कि ये खुद पसीने - पसीने हो गए। इनके
हाँथ - पाँव भी थकने लगे थे। आई
सी यु में पहुँचने पर फिर सारी ट्रीटमेंट शुरू हुई। माँ को इन्होने ही बचाया,
माँ जी। मैं इनका अहसान कैसे चुका पाउंगी, नहीं चुका सकती। बस अपनी एक - एक सांस इनके नाम का ताउम्र
लिया करूंगी।" उसकी अश्रुपूरित नेत्रों से कुछ मोती ढलकने लगे थे। मैं उसके पास जाकर उसके माथे पर हाथ फेरकर
उसे सहज करने की कोशिश करने लगी।
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उस दिन शाम को कॉल बेल बजी थी। मैंने दरवाजा खोला तो सामने कामिनी
खड़ी थी। मुझे थोड़ा आश्चर्य हुआ और सोच ही रही थी कि कैसे, क्या कहूँ? उसी ने आवाज दी,
"माँ जी क्या अंदर आने को नहीं कहेंगी?"
"अरे, नहीं, नहीं, तुम्हें देखकर, अचानक, इस समय, अकेले, थोड़ा
अचंभित - सी हो रही थी। आओ, आओ।" मैंने औपचारिकता - मिश्रित उत्सुकता के साथ उसे
अंदर आने को कहा था।
वह अंदर आ गई थी। वह अकेली
नहीं थी। मेरे अनुमान के विपरीत उसके साथ एक और लड़की थी , रंगीन चश्मा लगाये। घर में आने पर
भी वह रंगीन चश्मा लगाये थी। मैं कनखियों से उसके
तरफ उत्सुकता - मिश्रित भाव से देख
रही थी। ये जासूस कर्मचन्द की तरह शाम में भी घर में क्यों रंगीन चश्मा लगाये हुए है।
मेरी जिज्ञासा - भरी उत्सुकता को कामिनी भांप गई। उसी ने कहा,
"माँ जी, मैं आपको बार - बार मांजी कह रही हूँ, कोई आपत्ति तो नहीं हो रही है
आपको?"
"नहीं, नहीं, ठीक है।" मैंने आत्मीयता दिखाने के स्तर या
लेवल को थोड़ा कम करते हुए ही ऐसा कहा था।
“माँ जी, ये शकुंतला है। मेरी बहन जैसी है और मेरे एकांत की साथी भी।
मैं बचपन में अकेली थी तो अक्सर माँ से जिद्द करती थी कि मुझे भी एक सहेली चाहिए। मैं
अकेले कैसे खेलूँ? मैं तुम्हारे साथ तो खेल नहीं सकती। तुम तो इतनी बड़ी हो? माँ हंसकर
कहती, ठीक है मैं तुम्हारे लिए भी एक सहेली ला दूंगी। दूसरे दिन
ही वह अनाथ -आश्रम से शकुंतला को ले आई। शकुंतला को कोई गोद नहीं लेना चाहता था। वह आश्रम की सबसे ख़ूबसूरत लड़की थी। मेरी ही उम्र की थी। लेकिन बचपन में एक बार काफी जोर से बीमार होने के कारण, दवा
के रिएक्शन से उसकी एक आँख की रोशनी कम होते - होते चली गई। हम लोगों के यहाँ एक मान्यता है कि एक आँख वाले
को देखकर यात्रा पर जाने से कुछ - न - कुछ अपशकुन हो जाता है। माँ इस
मान्यता को तोड़ने को लिए भी इस फूल सी सबसे खूबसूरत गुड़िया
को ले आई। मुझे सहेली मिल गई और घर में एक और सदस्य के आने से
घर भी भरा - भरा - सा लगने लगा।“
“अच्छा तो यह शकुंतला है और इसीलिये इसकी आँखों पर रात में भी रंगीन
चश्मा रहता है। मैं समझ गई।“
"माँ जी मैं आपके लिए चाय बनाउंगी। किचेन तो उधर है, है न?"
मैंने सोचा भी नहीं था कि इतनी जल्दी कामिनी दरवाजे से प्रवेश कर ड्राइंग
रूम से होते हुए किचेन तक का फैसला तय कर लेगी। शकुंतला भी उठकर उसके साथ जाना चाहती
थी, किन्तु कामिनी ने उसे इशारे से ड्राइंग रूम में ही बैठने को कहा था। मैं शकुंतला
से उसके उसके रहन - सहन और कामिनी के घर - बार, उसकी माँ के बारे में बातें कर ही रही
थी कि कामिनी चाय और बिस्कुट लेकर आ गयी।
"अरे, तुम्हें सारी चीजें कैसे मिल गयी?"
"माँ जी, जब घर को अपना घर समझा जाय, तो जो कुछ भी, जहाँ भी खोजो,
वहीं सब मिल जाता है, चीनी से चाय तक, प्यार से मिठास तक।"
कामिनी की ये सब बातें कुछ - कुछ विश्वसनीय जैसी लगने लगी थी। हालाँकि विश्वसनीयता की सही परख वक्त के गुजरने के साथ ही होती है। लेकिन पहली नजर में विश्वास तो होता ही जा रहा था। यह भी सही था कि डॉ अरविंद एक उभरते हुए प्रतिभावान
डॉक्टर हैं। इसलिए उनकी तरफ कोई भी लड़की आकर्षित
हो जा सकती है। साथ ही यह भी सच था कि कामिनी जैसी सुन्दर और वैभवशालिनी लड़की के
तरफ कोई भी लड़का आकर्षित हो सकता था। लेकिन
वह आकर्षण अगर उसके वैभव के चलते होता है तो उसके सुपरिणाम आने की संभावना कम ही दीख
पड़ेगी। इसलिए ऐसे रिश्तों के जुड़ने
और प्रगाढ़ बनने में वक्त के बैरोमीटर
को थोड़ा डुबाकर नापने की जरूरत होती है, जो
मैं भी चाहती थी।
इतने में अरविंद आ गए थे।
कामिनी और शकुंतला को वहां देखकर सहसा उन्हें विश्वास नहीं हो रहा था।
"अरे, कामिनी तुम यहाँ, माँ कैसे। …??" बहुत - से प्रश्नवाचक लग गए थे ,अरविंद
के चेहरे पर। शायद वे सोच रहे होंगे, अगर कामिनी
स्वयं आई होगी और उन्हें पूरी तरह यकीन था कि
वह स्वयं ही आई होगी, तो पता नहीं अरविंद
के चेहरे के भाव से लगा कि माँ ने उसके इस ब्यवहार को पॉजिटिव तो नहीं ही लिया होगा। …और माँ के कहीं रूखे ब्यवहार से कामिनी के मन पर
विपरीत असर न पड़ा हो। ।वगैरह , वगैरह। …ऐसे में गलत विचार ज्यादा आते हैं , अच्छे विचारों
की डोर की छोर बहुत कमजोर होती है।
“मैंने ही कामिनी को बुला भेजा था। मैं अकेली
थी, सोची कुछ - कुछ बातें भी हो जाएंगी और मेरा वक्त भी कट जायेगा। देखो कामिनी ने कितनी अच्छी चाय बनाई है , हमारे
लिए।“ मेरे हंसकर ये सारी बातें करने से अरविंद के मन में उठ रहे सारे के सारे प्रश्नवाचक भाव गायब हो गए थे। उनके चेहरे पर आश्वस्त हो जाने का भाव स्थापित हो गया था। मेरे हल्के झूठ से जो सत्य
सामने उभर कर आया था, वो यह निश्चित करने के
लिए काफी था कि कामिनी मुझे पसंद आ रही थी। वैसे वह मेरी सजातीय नहीं थी, पंजाबी कल्चर से सम्बन्ध
रखती थी और मुंबई में पली - बड़ी थी। मेरी नजर
में गैर सिख पंजाबी में दिखावापन
ज्यादा होता है। वे खर्चने में मुक्त - हस्त होते हैं और पैसे कमाने में किसी
भी हद तक जा सकते हैं। इसीलिये मेरे मन में रिश्तों को लेकर थोड़ी हिचक
- सी थी। मेरे सारे अरमानों की पूर्ति भी तो डॉ अरविंद से ही जुड़ी थी। और अरविंद की पसंद को भी
नजरअंदाज नहीं किया जा सकता था।
यहीं पर आकर माँ - बाप अपने को बेबस और लाचार दोनों ही फिफ्टी
- फिफ्टी महसूस करने लगता है। वो आपको पसंद
नहीं है क्योंकि आपकी जाति से नहीं है। उसका
टाईटिल या उपनाम कुछ और है , वह आपके रीति
- रिवाजों से अलग केटेगरी से आता है। उसकी जीवन बिताने की दृष्टी भी अलग हो सकती है,
थोड़ी समानता भाषा की है लेकिन बोली भिन्न है, फिर भी आपको अपनी संतान की पसंद पर अपनी
पसंद की भी मुहर लगानी पड़ती है। मेरी भी स्थिति
कुछ ऐसी ही थी। कामिनी थोड़ी देर और रुकी थी, और उसके बाद चली गयी थी, यह
कहकर कि 'माँ जी अकेले महसूस करेंगी तो फिर याद करना, मैं तुरत आ
जाउंगी।' उसने भी मेरी छोटी झूठ को सच का जामा
पहना दिया था।
रात में मैने ही अरविंद से बात छेड़ी थी।
"अरविंद कामिनी कैसी लड़की है?"
"मुझे क्या मालूम?" अरविंद कुछ अनजान जैसे भाव प्रदर्शित
करते हुए बोले थे "बस जैसे सभी लड़कियां होती हैं, कुछ ख़ास नहीं।"
"क्या वह तुझे पसंद है?" मैंने पूछा था।
"हाँ, नहीं, क्यों पसंद किस मायने में?"
"क्या तुम उसे अपना लाइफ पार्टनर बनाना पसंद करोगे?" मैंने
बात को सीधा करते हुए कहा था।
"मैंने इस बारे में सोचा नहीं है। मेरी राय में ठीक ही है। लेकिन
हमारी जात और कल्चर की भी तो नहीं है। माँ क्या तुम्हें यह पसंद आएगा?"
मैं चुप ही रही, तभी अरविंद ने ही आगे बात बढ़ाई," मेरी समझ में
ठीक ही रहेगा। लेकिन तुम कुछ दिन और भी देख परख लो। क्या दूध में शक्कर की तरह घुलकर
हमारे रिश्तों में और भी मिठास पैदा करने की क्षमता रखती है?"
"ठीक है।" कहकर मैं सोने का उपक्रम करने लगी।
कामिनी का घर आना - जाना इसीतरह होता रहा। वह भी हमसे जानकारी लेने के लिए भी आती रही।
उसने अरविंद के पिताजी, मेरी बेटी जिसकी मृत्यु पिकनिक मनाने के दौरान हो गयी
थी, घर परिवार आदि सारी सूचनाओं को चर्चा के क्रम में मालूम करती रही। इसी तरह करीब एक महीना बीत गया। शकुंतला भी काफी
घुलमिल गई। वह गृह कार्य में दक्ष, बात करने
में भी बड़ी ही कुशल और विभिन्न ब्यंजन बनाने की शौक़ीन है , यह मैंने जान लिया। कुछ नई - नई डिशेस भी बनाकर जाती जो अरविंद को काफी
पसंद आते।
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एक दिन कामिनी, शकुंतला, कमिनी की माँ और पीछे से अरविंद सभी घर आये। कामिनी की
माँ के चेहरे पर पिछली बीमारी के लक्षण लगभग समाप्त हो गये थे। वह पूरी तरह स्वस्थ हो चुकी थी। वह बड़ी ही सिद्दत और आत्मीयता से मिली। उन्होंने अपनी वृद्धावस्था का हवाला दिया और कामिनी
का हाथ अरविंद के हाथों में सौपने का प्रस्ताव रखा। उन्होंने इस बात को दुहराया कि ' कामिनी आपके परिवार में दूध में शक्कर की तरह
घुलकर रिश्तों में और भी मिठास पैदा देगी। वैसे मैं तो अकेली हो जाउंगी, लेकिन बेटी को कौन अपने घर रख सका है?
यही हर बेटी की माँ का दर्द है जो औरत होने
के कारण सबों को सहना पड़ता है, यही हमारी नियति है।'
वातावरण को हल्का बनाने के
लिए मैंने ही कहा, " किसने यह परंपरा
बनाई, क्या यह सही है, इसपर अधिक बहस और अगर
उल्टा है तो सीधा करने का वक्त भी नहीं है।
और हमलोगों की ऐसी जरूरत भी नहीं
है क्योंकि हमलोगों में पूरा सामंजस्य है, ऐसा मैं मानती हूँ , क्यों बहन
जी? अब शादी की तैयारियां हो और शहनाइयां बजे, इसी खुशी में सब दर्द घुल जाएगा।"
कहकर मैंने अपनी सहमति पर मुहर लगा दी। उसी दिन से शादी की तैयारियां शुरू हो गयीं।
अरविंद की भी एम डी की पढाई का समय पूरा हो रहा था। अरविंद के सारे दोस्त जो वहां थे और जो वहां नहीं थे, सभी को शादी में शरीक होने के लिए निमंत्रण,
मेल, स म स, सब भेज दिया गया ताकि लोग समय
से रिजर्वेशन करा लें। मेरे भी अपने शहर के
घर की रंगाई - पुताई की गई। सारे रिश्तेदारों
को निमंत्रण के लिए फोन किया गया और कहा गया कि निमंत्रण पत्र डाक द्वारा भी भेजा जा रहा है। अगर भारतीय
डाक - तार विभाग की कृपा से निमंत्रण - पत्र नहीं मिले तो इसी फोन को निमंत्रण - पत्र समझकर जरूर आइयेगा। मेरी तीनों ननदें कितनी खुश थी कहा
नहीं जा सकता था। मैंने ही एक तरह से तीनों
ननदो का पालन - पोषण किया था। मेरी सास
यानि अरविंद की दादी की मृत्यु मेरी शादी के कुछ दिनों बाद हो गई थी। उससमय मेरी तीनों ननदें छोटी उम्र की थी। सबसे बड़ी पंद्रह , उनके बाद वाली तरह और सबसे छोटी
दस साल की थी। अरविंद के पिताजी सबसे बड़े थे। मैंने माँ की तरह तीनों ननदों को सम्हाला,
अच्छी शिक्षा प्राप्त कराके उनकी शादी की। उन्होंने भी माँ से अधिक समझकर प्यार और सम्मान
दिया। मैं अपने रिश्तों
और प्यार को विस्तार इसलिए नहीं देती रही कि लोग क्या कहेंगे, बल्कि इसलिए दी कि इसमें
मुझे असीम संतोष महसूस हुआ था । मेरी समझ से
ईश्वर ने
जिंदगी इसलिए नहीं दी है कि कुत्ते - बिल्लियों की तरह जिया जाय। खुद् को खोलकर, दूसरों
के लिए जीकर जो पूर्णता महसूस होती
है , उस आनंद की अनुभूति वही कर सकता है जो
उस पल को, उस क्षण को जीया हो। मैंने उसे जीया
और मुझे इसपर नाज है।
अरविंद की शादी हुई थी खूब धूम - धाम से। मैंने नैहर और ससुराल तरफ के सारे रिश्तेदारों
न्योता दिया। सारे आये। तीनों नंदन और उनके पति भी शरीक हुए। मेरे लिए ऐसे जश्न के माहौल को फिर से उतरते देखना,
एक पूरी सिद्दत से की गई तपस्या का फल जैसा लग रहा था। सारे मेहमान बरात में शामिल
होकर मुंबई गए। ससुर की भूमिका अरविंद के चाचा जी ने पूरी की थी। सबकुछ सोल्लास संपन्न हुआ। दुल्हन
जब घर आई तो सारे परिवार, सारा मोहल्ला, उसकी खूबसूरती और उसके पतली छरहरी काया पर गुलाबी सितारों जड़े लिबास को देखकर मुग्ध
हो गए थे। ऐसा लगा जैसे स्वर्ग से कोई अप्सरा
धरा पर मानवी रूप में उतरी हो। किसी ने यह पूछने की हिम्मत
नहीं की कि यह अपने जात वाली ही है ? ऐसा शायद इसलिए कि मुंबई में बारात में
शामिल होने वाले लोगों का ऐसा स्वागत हुआ था जो बरात में शामिल होने वाले लोगों की पीछे की तीन पुश्तें न देखी - सूनी
होगी और न आने वाली तीन पुश्तें देखेगी - सुनेगी।
लजीज भोजन ब्यवस्था और खान - पान के अलावा सभी बरातियों की बिदाई चांदी की थाल
और तश्तरी के साथ की गयी थी। जाहिर था कि कामिनी की अरविंद के साथ शादी को शानदार बनाने में कामिनी के घर
- परिवार वालों ने भी कोई कोर - कसर नहीं छोड़ी थी।
रिसेप्शन भी मैंने शानदार तरीके से इस शहर के सबसे महंगे होटल के Bouquet हाल में आयोजित करवाया था। किसी भी
पल को यादगार बनाने में किसी भी कमी की गुंजाईश नहीं रहने दी गयी थी। धीरे - धीरे सारे मेहमान जाने लगे थे। तब उत्सव,
आयोजन, गहमगाहमीं की गर्मियों की आंच थोड़ी धीमी पड़ने लगी थी। एकाध सप्ताह में ही सबकुछ यादगार पलों के आर्काइव
फाइल में स्टोर हो गए थे। बस अब अरविंद, कामिनी,
मैं और कुछ दिनों तक शकुंतला भी रहने वाली
थी। शकुंतला को भी लौटना जरूरी था क्योंकि कामिनी की माँ वहां मुंबई में अकेली
थी। उनकी देखभाल भी शकुंतला के अलावा
दूसरा कोई अच्छी तरह कर नहीं सकता था। खुशी के
दिन भी पखेरू की तरह
होते हैं, उनके आते कुछ दिन बीतते भी
नहीं कि उनके जाने के दिन आ जाते हैं जैसे पखेरू फुर्र हो जाते हैं। और पीछे छोड़ जाते हैं एक रिक्तता, एक खालीपन, एक
मीठा - मीठा एहसास जो सहलाता रहता है तन - मन को।
शकुंतला लौट गई थी। अरविंद की छुट्टियां भी समाप्त होने को आ गई थी।
उनके चले जाने के बाद मैं और कामिनी इतने बड़े घर में अकेले रह गए थे। अरविंद ने कामिनी
को यहाँ ही छोड़ दिया था तकिवः मेरे पास थोड़े दिनों तक इस घर में रह कर यहाँ के तौर
- तरीकों, रीति रिवाजों से रूबरू हो सके, वाकिफ हो सके। घर में खाना तो मेड ही बना
दिया करती थी। वह मेड बाहर के आउट हाउस में रहती थी।
कामिनी चाय जरूर बनाती और कभी - कभी रोटियां भी खुद सेंक लिया करती थी। अपनी माँ से हर रोज घंटों बातें करती। उसके समय के सदुपयोग में यह दिनचर्या शामिल हो गई
थी। शायद उसके मन लगाने के भी यही तरीके थे। उसकी बातचीत मुझसे ज्यादा अपनी माँ से, अपनी सहेलियों
से, शकुंतला से, और बचे वक्त में अरविंद से
अधिक होती थी। अपनी माँ से,
अरविंद से मुंबई के प्रॉपर्टी और उसके रखरखाव
पर, ब्यवस्था करने पर भी बातें होती थी। मैं
उसमें कहीं शामिल नहीं थी या मुझे शामिल नहीं किया जाता था। मुंबई में चारो तरफ फैले
उसकी प्रॉपर्टी और ब्यवसाय की भी एकमात्र वारिश वही होनेवाली थी। इनसबों में उसका मन ज्यादा उलझा रहा करता था, बनिस्वत
यहाँ के रीतिरिवाजों और यहाँ की रवायतों को सीखने - समझने में।
दूसरे महीने ही कामिनी को मिचली और उल्टी जैसी लगने लगी थी। स्त्री रोग विशेषज्ञ डाक्टर के पास जाँच करने पर
पता चला कि गर्भवती है। इस समाचार से मेरे
मन में सौ गुब्बारे एक साथ फूटे थे। अरविंद ने भी काफी खुशी जाहिर की थी। लेकिन कामिनी पर कोई विशेष प्रतिक्रिया नहीं हुई
थी। कामिनी के मन के किसी कोने में अपने रूप और देह - यष्टि की बनावट और उसपर गोर रंग के
चमड़े की बुनावट पर काफी गुमान था। वह अपने को स्वर्ग से उतरी हुई अप्सरा जैसी मानती थी
जो धरती पर अपने स्वर्गिक रूप, रस , गंध को अंतर्लोक पर्यटन के तहत
धरतीवासियों के दृग - सिंचन के लिए
अवतरित हुई थी न कि भोग के लिए।
उसका ब्याह किसी अप्सरा का किसी
अहसान तले विवाह - बंधन में बंध जाने
जैसा एक संयोग मात्र था। इसके परिणाम स्वरुप ऐसी यातना भी झेलनी पड़ेगी, उसने सोचा भी नहीं
था। उसकी सोच बिलकुल एक अप्सरा की सोच से मिलती - जुलती थी। जैसे एक स्वर्ग से उतरी हुई अप्सरा सोचती है कि धरती पर उसका प्रेमांकुश में बंधे हुए अवतरण
होता है तो क्या - क्या विरूप संभावनाएं झेलनी पड़ सकती हैं। ...
और मातृ - पद को पवित्र धरती यद्यपि कहती है,
पर, माता बनकर नारी क्या क्लेश नहीं सहती है।
तन हो जाता शिथिल, दान में यौवन गल जाता है,
ममता के रास में प्राणों का वेग पिघल जाता है।
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जो अयोनिजा स्वयं वही योनिज
संतान जनेगी,
यह सुरम्य सौरभ की कोमल प्रतिमा जननी बनेगी।
इसी देव की बाहों में झुलसेंगी अब पारियां भी,
यौवन को कर भस्म बनेगी माता अप्सरियाँ भी।
और पुत्रवती होने पर क्या हो जाएगी उनकी देह - यष्टि की दशा …
पुत्रवती होंगीं, शिशु को गोदी में हलरायेंगी,
मदिर - तान को छोड़ साँझ से ही लोरी गाएंगी।
पहनेगी कंचुकी क्षीर में क्षण - क्षण गीली - गीली,
नेह लगाएंगी मनुष्य से, देह करेंगी ढीली। -----------(उर्वशी, दिनकर)
कामिनी भी संतानवती होते - होते और प्रशवोपरांत अपनी काया के संभावित
परिवर्तन, जिसे वह दुश्परिवर्तन मानती थी, से दुखी, खिन्न और घुलती हुई - सी प्रतीत
हो रही थी। संतान को नौ महीने गर्भ में पोषित करने में और जन्म के बाद दुग्धपान कराते
- कराते, यद्यपि स्त्री पयस्विनी होकर वात्सल्य की प्रतिमूर्ति - सी लगने लगती है,
लेकिन क्या इस क्रम में वह अपना यौवन नहीं खो बैठती है, उसके वक्षस्थल का कसाव क्या
पेड़ से लटके पपीते जैसा नहीं हो जाता है? कामिनी इसे सोचकर ही सिहर उठती थी। फिर भी
इस भाव - कुभाव को अंदर में छुपाये हुए ही वह संतान के गर्भवहन करने में ही अपनी गति
और नियति दोनों समझकर जीने को विवश थी। बाहर घर में उल्लास का वातावरण था और उसके अंदर
गुमशुम उच्छ्वास पल रहा था। अपने पूर्वविचारित लाइफ स्टाइल से अलग जीवन जीना पद रहा
था, उसे।
एक महीने बाद ही एक खुशखबर सुनाई अरविंद ने सबसे पहले मुझे ही। उसका चुनाव रॉयल कॉलेज ऑफ़ फिजिशियंस, लंदन
के फ़ेलोशिप प्रोग्राम के लिए हो गया था। यह तो अरविंद जैसे यंग और टैलेंटेड डॉक्टर
के लिए बहुत बड़ी उपलब्धि थी। उसकी काबिलियत को अब सारी दुनिया में एक पहचान मिलने वाली
थी। इसके लिए उसे कम- से - कम चार सालों के लिए लंदन में रहना पड़ेगा। इस दरम्यान कामिनी का प्रसव भी होगा और प्रसवोपरांत
बच्चे के पालन - पोषण का भार भी पड़ेगा। मैंने
उसे चिंतामुक्त होकर अपने प्रोफेशनल कैरियर के
लिए नई ऊंचाइयों को छूने के लिये आगे
बढ़ने का हौसला देते हुए कहा, "यहाँ के लिए
निश्चिंत रहो। सब इंतज़ाम हो जायेगा , कोई दिक्कत
नहीं आएगी।"
अरविंद का यहाँ के गयनाकोलोजिस्ट से भी निजी संपर्क था। उसने कामिनी के चेक अप के बाद आस्वस्त भी किया। इन सब बातों का निश्चय
और निर्णय लेने में कामिनी से ज्यादा
विमर्श करना ठीक नहीं समझा। ऐसा उसने कामिनी
को जानबूझकर अनदेखा या इग्नोर करने के लिए नहीं किया , वरन कामिनी को इस स्थिति में
इन सब उलझनों से दूर रखना चाहता था ताकि उसपर मानसिक रूप से कोई बोझ नहीं महसूस हो जिसका कि गर्भस्थ शिशु पर भावनात्मक रूप से कोई
विपरीत असर पड़े। कामिनी मन - ही - मन में उससे
सम्बधित निर्णय के समय में उससे परामर्श नहीं लेने से अपने को तिरष्कृत और उपेक्षित महसूस कर रही थी। यह उसके समझ का फेर था, गांठे पैदा कर रही थी खुद
में, खुद के लिए।
अरविंद लंदन के लिए प्रस्थान कर चुके थे। वहां
सकुशल पहुंचकर वहां की ब्यस्त दिनचर्या के बारे में बताया था।
कामिनी से भी बात की थी, कामिनी की माँ के स्वास्थ्य के बारे में जानकारी हासिल
की थी। उन्होंने सारी बातों को दूर से ही ब्यवस्थित करने की कोशिश शुरू की थी। निश्चित
तौर पर इसमें उन्हें काबिलियत हासिल
थी। वहां से भी हर तरफ के जीवन को सुचारू रूप
से संचालित करने को उन्होंने कौशलपूर्वक सुनिश्चित किया था। कामिनी की माँ की तबियत इधर ख़राब रहा करती थी। मैंने भी उनके स्वास्थ्य के बारे मैं पूछताछ की
थी। शकुंतला को उनकी देखभाल के लिए आवश्यक
सुझाव भी दिए थे। कामिनी इधर कुछ ज्यादा ही
झुंझलाहट भरी ब्यवहार प्रदर्शित करने लगी थी।
मैंने उसे बार - बार कहा था, "बहु, तुम्हारा स्वस्थ तन और स्वस्थ मन शिशु के स्वस्थ
जीवन के लिए गर्भस्थ रहते हुए और प्रसवोपरांत भी जरूरी है, इसपर हमेशा ध्यान दो।
"
कामिनी सिर्फ सुन लेती। उसके
महत्व को समझते हुए जो असर होना चाहिए था,
वह नहीं हो रहा था, मुझे पता
नहीं हमेशा ऐसा क्यों लगता था। उसने ठीक समय पर सीजेरियन ऑपरेशन द्वारा एक स्वस्थ,
सुन्दर बालक(मेल बेबी) को जन्म दिया था। उसकी
पूरे वीडियो रिकॉर्ड की गयी और अरविंद को भेज
दी गई थी। अरविंद प्रसव के इंतजाम से संतुष्ट थे। और खुश थे अपने सुपुत्र के आगमन पर। उन्होंने कामिनी को बधाई
दी थी। वह मुझसे बार - बार बातें करते, अपनी खुशी जाहिर करते, आनंदित मन उनका बार - बार यहाँ आता और खो जाता।
मैंने अरविंद से कहा था, "तुम
वहां अपनी पढाई पर ध्यान रखो, यहाँ सब संभल गया है।"
कामिनी भी खुश थी। उसकी माँ ने भी काफी खुशी ज़हिर की थी। मुझसे बात
कर उसने बधाई दी थी। बालक के जन्म के बाद हल्दी, गुड घी में मिलकर जो दिया जाता है,
मैंने कामिनी को दिया था, लेकिन कामिनी ने उसे ग्रहण करने में काफी नाक भौं सिकोड़ी
थी। बच्चे को पहला दूध पिलाना, जिसमें कोलोस्ट्रम होता है और बच्चे के अपरिपक्व पाचन
संस्थान के लिए अत्यावश्यक है, भी कामिनी को नागवार लगा था।
'क्या सिस्टम है, बच्चा धरती पर आया नहीं कि अपनी छाती दे दो खेलने
के लिए।' कुछ ऐसा ही विचार कामिनी के मन - मस्तिष्क में चल रहा होगा। मैंने कामिनी
को कहा था," बहु, बच्चे का मुंह अपनी छाती के नीपल से लगाओ। तभी तो वह दूध सक
करना सीखेगा।"
कामिनी ने मेरी तरफ घूरकर देखा था, जैसे वह इसे आदेश समझ रही हो और
उसकी आदत तो आदेश निर्गत करने की रही है, आदेश पालन करना उसकी फितरत में शामिल नहीं
रही है।
अरविंद ने गूगल हैंग आउट पर बच्चे को देखा तो बहुत खुश हुए थे। उस
समय कामिनी भी खुद को काफी खुश दिखा कर अरविंद पर सकारात्मक प्रभाव बनाने में लगी थी।
बड़ी नाटकीय मुद्राएं थी उसकी, इस क्षण कुछ, उस क्षण कुछ और।
धीरे - धीरे बच्चा छाती से सक करके दूध पीना सीख गया था। कामिनी की
छातियों में भी काफी दूध उत्तर आया था। छातियाँ
भी बड़ी - बड़ी दीख रही थी, नीपल भी फुले हुए
खूब बच्चे के चूसने लायक बन गए थे। कामिनी
की खूबसूरती में और भी निखार आ गया था। कामिनी को हमेशा घंटे - घंटे
दूध पिलाना, बच्चे की पोट्टी साफ़ करना, डायपर बदलना यह सब बहुत ही थकाऊ
और उबाऊ जैसा लगने लगा था। कितना भी मेड ठीक कर लिया जाय तेल मालिश के लिए, लेकिन माता को ही बच्चे का ख्याल
रखना पड़ता है। उसकी जगह कोई दूसरा नहीं ले सकता।
इस सुख का आनंद लेना ही स्त्री जीवन
की पूर्णता है। कामिनी इसे पूर्णता नहीं मजबूरी समझ रही थी। कामिनी की नज़रों में स्त्री की बायोलॉजिकल फिगर
और उसकी एनाटोमी उसकी मजबूरी है, न कि उसकी
महानता, पवित्रता, विशालता, वात्सल्य, मातृत्व आदि भारी - भरकम शब्द। कामिनी किसी तरह बच्चे
को दूध पिला रही थी, क्योंकि डॉक्टर
के अनुसार छः महीने तक बच्चे को न किसी तरह का बाहरी दूध और न ही पानी
या कोई अन्य द्रव दिया जाना चाहिए। ईश्वर माँ
के थन में इतना सब कुछ दे
देता है जो बच्चे के लिए
जीवन दायिनी तो है ही, साथ - ही - साथ शारीरिक
विकास, स्वास्थ्य और सुरक्षा के लिए जरूरी
है।
कामिनी को यह सब अच्छा नहीं लग रहा था। उसकी क्षण - क्षण गीली होती अपनी चोली से आती गंध, जिसे वह
दुर्गन्ध समझती थी, से लगने लगा था कि उसका यौवन पिघलता जा रहा है,
उसकी काया का उद्दाम वेग शिथिल होता जा रहा है,
उसका बच्चा उसके यौवन को बेतरतीव कर तहस - नहस करने आया है.... इन सबों का दोषी कौन है? ....वह खुद.... खुद ही उसने अपनी
जवानी में बर्फ लेस दिया है… यौवन ज्वर को बच्चे जनकर ठंढा कर लिया है। … अब क्या हो
सकता है, कुछ नहीं हो सकता क्या? इन विचारों के कोहराम मचाते ही लगता था कि उसने कठिन निर्णय लिया होगा। बाजार गई एक दिन।
पोलिकार्ब की बोतल, नीपल तथा छोटे बच्चे को पीने के लिए डब्बावाला दूध ले आई। उसे बोतल धोकर अच्छी तरह बनाया और बच्चे के मुंह से लगा दिया। बच्चा पहले उसे नहीं पीया,
उसे उल्टी हो गयी। थोड़ी देर बाद जब बच्चा भूखा
हो गया
तो फिर उसे डिब्बे वाला दूध बनाकर
दिया गया, बच्चा धीरे - धीरे
बोतल का दूध पीने लगा। मुझसे यह सब देखा नहीं गया तो
मैं बोल पडी थी, " बहु यह तुमने क्या कर दिया? बच्चे के जन्म के तीन महीने बीतते ही तूने बाहर
का डिब्बेवाला दूध पिलाना शुरू कर दिया। क्यों इसकी दुश्मन बनी हुई हो?"
उसने झल्लाकर जवाब दिया था," मैंने बच्चे को जाना है और मैं ही उसकी दुश्मन बनी हूँ। मैंने
अपने डॉक्टर दोस्त से एडवाईस लेकर ही किया है।
और आप मुझे ज्यादा टोका - टोकी न ही
करें, यह आपके लिए भी अच्छा होगा और मेरे लिए भी।
"
मैंने ऐसे जवाब की अपेक्षा नहीं की थी। उसका रौद्र रूप देखकर मैं दबे
पावँ कमरे से बाहर निकल गई। गुस्से में सुन्दर चेहरा भी कितना विकृत हो जाता है, यह
मैंने कामिनी को इस रूप में देखने से जाना था।
कामिनी ने क्या - क्या मिर्च - मशाला लगाकर अरविंद से देर तक बातें की थी। उस दिन अरविंद का फोन आया था उससे
लगा था कि अरविंद थोड़े नाराज जैसे हैं, कि
हमलोग क्यों नहीं यहाँ ठीक से रह पा रहे हैं,
कि मैं कामिनी को थोड़ा स्पेस दे दिया करूँ, कि उसे भी अपने बच्चे के लिए स्वतंत्रता पूर्वक
कुछ करने का हक़ है, कि वह माँ तो है ही न.…आदि,
आदि.…मै समझ रही थी कि मेरी ज्यादा टोका -
ताकि दखलंदाजी के रूप में ली जा रही थी। मुझे
थोड़ा रोकना होगा अपने को। मैं ही बेवकूफ थी, बच्चे से लगाव बढ़ाने में लगी हुई थी। मैं बच्चे को रोज दो - तीन बार मालिश कर देती थी। वैसे मालिश के लिए कामिनी ने ही दाई लगा रखी थी, मुझसे बिना पूछे। वही बच्चे की और कामिनी की भी आकर
मालिश करने लगी थी।
गुजरते वक्त के साथ मेरी जिंदगी धीरे - धीरे रेत का टीला बनती जा रही
थी जिसके शीर्ष पर पहुंचकर मैं नीचे की और अंतहीन ढलान पर लुढ़कती जा रही थी, बेवजह,
बेपरवाह.... मैं अपने को महत्वहीन महसूस करने लगी थी। अरविंद की संतान को गले से लगाकर
मिलनेवाले सुख की जो कल्पना मुझे पुलकित कर देती थी, उसे अलगाव के चूहे कुतरने में
लग गए थे। जिंदगी की धूप से पड़े हुए जिन छालों को अब छाओँ की सहलन से राहत जैसा लग
रहा था वही छाले फिर से हरे होने लगे थे। मैं
फिर अपने को सहज और संयत करने में लग गई थी।
और जब संयत होने लगी थी तो सहज हूँ, ऐसा दीखने और दिखाने की कोशिश भी करने लगी
थी, खुद को और दूसरों को भी।
बच्चा बड़ा हो रहा था, कभी - कभी बाहरी दूध और पानी दिए जाने के कारण
उसे ज्यादा पॉट्टी हो जाती थी। पानी की कमी
हो जाने पर कमजोर जैसा भी लगने लगा था। कामिनी
उसे खुद कार ड्राइव कर डॉक्टर के पास ले जाती। एलोपैथिक
दवाइयों शुरू कर दी गई थी। बच्चा धीरे
- धीरे नार्मल होने लगता। कुछ महीने बाद फिर
कभी- कभी पॉट्टी अधिक हो जाती।
इसतरह बच्चे का समुचित विकस मेरी समझ में नहीं हो पा रहा था। मैं यह सब अरविंद को कैसे बताऊँ समझ नहीं पा रही
थी। बताने का क्या असर होगा?
कहीं अरविंद ने कमिनी को डांट दिया तो फिर कामिनी का मेरे प्रति क्या रवैया
होगा? यह सब सोचकर मैं असहज हो जाती थी। जब कोई अपने जैसा समझे तब तो उसपर विचार -
विमर्श करके समस्या का उचित हल ढूढ़ा जाय। इस कसमकस में एक नन्हीं जान को अपार कष्ट हो रहा था, यह मुझसे देखा नहीं जा
रहा था।
मैंने ही एक दिन अरविंद को मिस्ड कॉल दिया था। थोड़ी देर बाद अरविंद का कॉल आया था। मैंने सारी बातें अरविंद को बताई। बच्चा करीब आठ
महीने का हो रहा था। खुद पलट भी नहीं
पता था। इस उम्र में जो माइलस्टोन उसे अचीव
करना चाहिए था वह नहीं कर पा रहा था। वजन भी नार्मल बच्चे से कम था। अरविंद को यदि
समय रहते सारी बातें नहीं बताती तो दोष मुझ पर मढ़ा जाता या मैं खुद को दोषी मान लेती। अरविंद ने सारी बातें ध्यान से सुनी। उसने कामिनी
को स्काइप पर वीडियो टॉक के लिए बुलाया। बच्चे
को भी देखा, बच्चे की उम्र पूछी, उसका वजन पूछा।
वजन उम्र के अनुसार कम था , जबकि जन्म के समय वजन बिलकुल ठीक था। उसने कामिनी
को काफी कुछ सुनाया था। कामिनी रोनी सूरत बनाये हुए मुझे बुलाने
गई थी। मैं जब स्क्रीन पर आई तो अरविंद मुझसे
बोले, " माँ मैंने कामिनी को सारी हिदायतें दे दी हैं। तुम्हें भी ज्यादा दखल देने की जरुरत नहीं है। उसे ही सम्हालने दो। " मैंने सब कुछ चुपचाप
सुना था। इसे मैं अपने प्रसंसा समझूँ या स्वयं को असम्बद्ध रहने की सलाह। कुछ समझ नहीं पा
रही थी।
इतना कहकर माई ने थोड़ा विराम लिया था। माई ने पानी की और इशारा किया था। पानी पीने के बाद फिर कहना शुरू किया था,
" जदू मेरी ट्राली वाली बैग के ऊपर एक मैगज़ीन रखी होगी,उसे ले आओ।
" जदू जल्दी से ऑटो बुलाकर खोली पहुंचा
था, पत्रिका ठीक वैसे ही रखी थी जैसा माई ने कहा था।
"हाँ, यही पत्रिका”, माई ने आगे कहना जारी रखा था, "आगे
की कहानी बहुत ही दर्दभरी है रे, जदू, ठीक से सुनना। तुम्हें सुनाने से मेरे
दिल पर पड़ा पत्थर तो थोड़ा टूटकर गिरेगा न।
अब मेरी कहानी आगे सुनो जदू, …
X X X X X X
उस दिन सुबह हल्की धुंध छाई थी। सूरज सुबह से ही थका - थका लग रहा
था। उसकी निस्तेज गोलाई किसी तरह चमकना चाह रही थी। सूरज से रोशनी नहीं उजाले के थक्के
बरसने की कोशिश कर रहे थे। दूब भींगे हुए थे, पत्तियों पर कुहरा घनीभूत होकर टप - टप
टपक रहा था। सारा आलम अनमना - सा लग रहा था। मैंने घड़ी देखी तो दिन के आठ बज चुके थे।
मैं अक्सर साढ़े पांच या छः बजे तक उठ जाया करती थी। आज इतनी देर कैसे हो गई? सूरज अभी
भी आसमान पर चढ़ने की कोशिश कर रहा था। कुहरे का बादल उसे बार - बार रोक रहा था। मैं
हड़बड़ाकर उठी तो देखा कि अरविंद का बेटा घुसक कर बरामदे में आ गया है। वह पोट्टी किये
हुए है। कामिनी पता नहीं कहाँ है? उसका डाइपर से पोट्टी का कुछ अंश निकल गया है। पॉट्टी
को वह हाथ से मसल कर खेल रहा है। उसका कुछ कण मुँह में भी लपेस रहा है। मेरा गुस्सा
होना स्वाभाविक था, लेकिन मैंने अपने को संयमित करते हुए ऊंची आवाज से ही पुकारा था,
" कामिनी, कामिनी, कहाँ हो? देखो बच्चा पोट्टी किये हुए है। क्या इसे सुबह - सुबह
देख नहीं सकती? कितनी लापरवाह रहती हो? "
कामिनी स्मार्ट फोन कान से लगाये ही अपने कमरे से बाहर निकली। पता
नहीं कहाँ बातें करने में मशगूल थी। फोन पर ही उसने कहा था, 'अच्छा तुमसे बाद में बातें
करती हूँ।'
उसने मेरी आवाज से भी ऊंची आवाज में चिल्लाकर कहा था, "आप मूक
दर्शक क्यों बनी हुई हैं? आप इसे उठा नहीं सकतीं थी। नौकरों की तरह क्या आपकी हाथों
में भी मेंहदी लगी हुई है? पता नहीं सारे नौकर कहाँ मर गए? यहाँ नौकर - चाकर समेत सबों
ने परेशान कर रखा है।"
टुसु पर्व(मकर संक्रांति
के अवसर पर झारखण्ड राज्य के कई क्षेत्रों में मनाया जाने वाला पर्व) पर लगभग
सारे नौकर चाकर अपने गांव चले गए थे। वे हर वर्ष लगभग इसी समय छुट्टी पर जाते थे।
इस वर्ष भी वे छुट्टी पर थे। सिर्फ लक्षमण
को मैंने रोक लिया था ताकि कोई भी तो इतने बड़े घर की साफ़ - सफाई के लिए तो
हो। कामिनी लगभग घसीटते हुए ही बच्चे को बाथरूम
में ले गई और ठंढे पानी के टब में
खड़ा कर सारी गन्दगी
धोने लगी। बच्चा बिफर
कर रो रहा था। …और मेरा अंतर्मन चीत्कार
कर रहा था। मैं मूक दर्शक की तरह विवस हो यह
सब देखती रही थी। मेरी अंतरात्मा मुझे झकझोर रही थी, "लक्ष्मी (मेरा नाम लक्ष्मी है, जदू)
तू यही सब देखती रहेगी और एक बच्चा सारा इंतजाम होते हुए भी कुपोषण का शिकार हो जाएगा,
यही तुम्हें मंजूर है? तू एक नन्हीं - सी जान को तड़पते उए देखती रहेगी? उसकी तो कोई भाषा, कोई जुबान नहीं है, वह तो असहाय है,
तू तो
असहाय नहीं हो? तू भगवान का अपमान कर रही हो क्योंकि बच्चे
में भगवान निवास करता है। किस भगवान के आदेश की प्रतीक्षा कर रही है, लक्ष्मी? तेरे
अंदर का भगवान पत्थर तो नहीं
हो गया है, तेरा दिल पसीजता भी नहीं।
" मैंने खुद को जवाब दिया, "मैं
पत्थर दिल नहीं हूँ , मैं आज कोई - न - कोई
निर्णय जरूर लूंगी।" मैने शाम
होते - होते अरविंद को फिर
मिस्ड कॉल दिया। अरविंद को सारी घटना ज्यों-
का- त्यों सुना दी थी। अरविंद काफी गुस्से में थे।
रात करीब आठ बजे अरविंद ने हैंग आउट पर वीडियो कॉन्फ़्रेंसिंग पर कामिनी को बुलाया, बच्चे
के साथ। उससे सीधे पूछा, " आज क्या हुआ?"
कामिनी ने अपने आँखों में बाद - बड़े आंसू भरकर,
त्रिया चरित्र के सारे फंदे को टेस्टिंग के लिए डालते हुए, सारे कोड को डिकोड करते
हुए, कौन - कौन से पोलिश मुलम्मा चढ़ा कर बात
को किस दिशा में कैसे मोड़ दिया, पता नहीं। अरविंद ने मुझे भी गूगल हैंग आउट
पर बुलाया था, " माँ तुम क्यों बार - बार दखल देती रहती हो ? कामिनी को
जैसे बच्चे का पालन - पोषण करना है, करने दो।"
"बाबू, मैंने तो सिर्फ अपना फर्ज समझकर समय से तुम्हें बताना
चाहा था।" थोड़ी देर चुप्पी छाई रही। मैंने ही चुप्पी तोड़ते हुए कहा, "मैं
भी तो इसी भाव में थी कि कामिनी दूध में शक्कर की तरह घुलकर इस परिवार के रिश्तों में
और भी मिठास घोल देगी। इधर कुछ दिनों से ऐसा नहीँ देख रही हूँ। इसीलिये तुम्हें फोन
पर सबकुछ बताना चाहा था।" कहकर मैं चुप हो गई।
अरविंद ने उसके बाद कहा था, "माँ, मैं भी देख रहा हूँ कि दूध
में मिठास तो नहीं लेकिन खटास के कारण दूध फट - सा गया है। तुम समझ सकती हो।"
इतना कहकर वह चुप हो गया।
मेरे लिए यह पहाड़ी की ऊंचाई से धक्का दे देने जैसा लग रहा था।
जैसे ही विडिओ पर बातें समाप्त हुई, कामिनी शुरू हो गई, "सुन
लिए न, मैं वैसे ही परेशान हूँ अपनी माँ की तबियत को लेकर और आप मेरी मदद नहीं करके
या तो निर्देश देती हैं या तो फोन कर - करके धुएं को धधकाने की कोशिश करती रहती हैं।
आपसे साफ़ - साफ़ कहे देती हूँ, आप सास हैं सास की तरह रहिये, मेरी माँ बनने की कोशिश
मत कीजिये, बस।" …और वह पैर पटकते हुए बच्चे को लेकर
अपने कमरे में चली गई।
वह रात मेरे लिए बहुत भारी थी, जदू। मुझे नींद नहीं आ रही थी … मेरा वजूद धीरे - धीरे
पिघल रहा था … मांस के लोथड़े शरीर से अलग हो रहे थे … मैं जिन्दा जल रही थी … जलती लाशों की गंध चारों
ओर पसरती जा रही थी … मैं क्या करूँ मुझे समझ नहीं आ रहा था … एक मन कर रहा
था … कहीं नदी, नाले, कुएं में डूब जाऊं … या फिर खुद का अग्नि संस्कार कर लूँ
… लेकिन फिर मन कहता कि क्या मैं इतना विवश
हूँ कि स्वयं का अंत कर लूँ बिना अंत - समय आये ही … नहीं
मैं ऐसा नहीं करूंगी … मेरे अंदर का मानव मुझे इस जन्म को ऐसे
गवां देने की सलाह नहीं दे रहा था … विचारों
के इसी बवंडर ने एक दिशा पकड़नी शुरू कर दी थी … एक ऐसी दिशा जो स्व का विस्तार ढूंढ रही थी … जो कुछ कर गुजरने की चाह के साथ बून्द को समुद्र में समा कर अनंत बनाने की ओर बढ़ रही थी … जो
मिट्टी में कुछ ऐसे पौधे उगाने की चाहत पैदा कर रही थी जिसमें मिट्टी के खाद और गोबर की दुर्गन्ध न हो … जिसमे सुन्दर फूल खिलें
और उन फूलों की सुगंध चारो ओर फैले और दुनिया उनसे महक उठे।
मुझे जागे - जागे ही रात्री
के लगभग साढ़े तीन बज गए होंगे। मैंने रिश्तोंके
संकीर्ण दायरों से बाहर निकलने का दृढ निश्चय
कर लिया। मैंने अपने सारे कपडे ट्राली
बागनुमा अटैची में समेटे, पेंशन का पासबुक
लिया, चेक - बुक एटीएम कार्ड, आदि लेकर सारे सामान पैक किया। स्नान करके भगवान की पूजा
की। ठीक चार बजे अनंत यात्रा पर निकल पडी। इस यात्रा की कोई दिशा निर्धारित नहीं थी। जो भी बस
मिली उसे पकड़कर चल दी थी। कंडक्टर ने कहाँ
का टिकट काटा। मैंने सिर्फ पैसा दिया , दिन
और रात ट्रेवल करके फिर दूसरी बस पकड़ी, फिर
रात भर ट्रेवल करके मैं उस शाम बस से उतरकर यूँ ही जा रही
थी कि तुमने तेज वारिश में मुझे गिरते हुए देखा था। … माई की आँखों में आंसुओं का शैलाब
आ गया
था। … वह जदू के हाथ पकड़े हुए सुबक
रही थी और जदू उनके सिरहाने सर रखे सराबोर
हो रहा था ममता की उस बारिश में। ......
माई ने अवरुद्ध कंठ से कहा, "जदू, वह पत्रिका निकालो, उसके पेग
ग्यारह पर कवि ब्रजेंद्र नाथ मिश्र की कविता छपी है। उसे सुनाओ। … जदू ने पेज खोलकर
कविता पढनी शुरू की थी … बीच में माई हाँ, हूँ, कहती जाती थी …
माँ याद बहुत आती हो
मैं छोटा था,
सुबह सवेरे नींद में लेटा रहता था,
तू तभी उठ जाती थी,
मुझे भी जगाती थी,
गहरी नींद से उठाती थी,
माँ, तब मुझको नहीं सुहाती थी.
मुझे स्कूल भेजकर,
खुद काम में लग जाती थी,
घर की साफ - सफाई कर,
खाना तैयार कर,
मेरे इंतज़ार में लग जाती थी।
मैं स्कूल से आता था,
लाख हिदायतें देती तुम,
पर मैं कुछ नहीं सुन पाता था,
जूते कहीं, मौजे कहीं,
पैंट - शर्ट कहीं और बैग कहीं
फेंकता जाता था।
पर तभी मुझे खिलाने को
नयी - ताजी सब्जियां, दही और दाल भात
स्वाद से भरे नए - नए
ब्यंजन पकाती थी,
मुझे खिलाती थी
बिजली पंखा ऊपर चलता रहता था,
फिर भी आँचल से हवा किये तुम जाती थी
तू, मुझे बहुत ही भाती थी।
मैं जब बड़ा हुआ,
दूसरे शहर के कॉलेज में
हुआ एडमिशन मेरा,
पहली बार गया दूसरे बड़े शहर में।
तू स्टेशन तक मुझे छोड़ने आयी थी,
आँख तेरी भर आयी थी,
तू आंसुओं को छुपाये,
देती रही मुझे हिदायतें,
नए शहर में, रहने के बारे में,
गाड़ी में बैठ गया मैं,
फिर भी तेरी हिदायतों की फेहरिश्त
लम्बी होती जाती थी।
तब तू बिलकुल नहीं भायी थी।
गाड़ी छूटी, हाथ तेरे हवा में लहराये थे
काफी देर तक गाड़ी के जाने के बाद भी
हाथ तेरे हवा में लहराते ही जाते थे।
तू खाली हो चली, अनमनी सी,
घर को सूना पायी थी
तुझसे ये सब सुनकर,
आँख मेरी भर आई थी,
माँ, तू याद बहुत आयी थी,
माँ, तू कितना मुझे भायी थी।
एक दिन भी मेरा फ़ोन नहीं आने से,
तू कितनी अशान्त हो जाती थी,
तू कितने अरमान लिए,
अपने सपनो को कुर्बान किये,
मुझमें अपने ख्वाबों को संवरा देखना,
अपने रीते जीवन का भरा - भरा सा देखना,
मैं तब समझ नहीं पाया
था,
मैं उन भावों में बह नहीं पाया था।
मैं तो पढता रहा,
संवेगो को तर्कों पर गढ़ता रहा,
तुझे मैं तबतक समझ नहीं पाया।
कैरियर बनाने की आपा - धापी में,
ऊंची शिक्षा के उड़ान में,
जीवन के उस तेज दौड़ में,
सपने जगाये मन - प्राण में.
तुझे मैं समझ नहीं पाया,
पेशेवर शिक्षा के तेज प्रकाश में
भाव सभी खाली पाया।
जीवन के उसी दौर में,
जीने के अंतर्द्वंदों में,
कब मिली मुझे वो, कुछ याद नहीं,
लगा अपना जीवन पा गया,
उद्वेलित, उत्कंठित प्रवाह में
थाह पा गया ।
सब कुछ इतना तेज घटा,
माँ को कुछ बतला न सका,
उन्हें कुछ भी जतला न सका
।
एक अंतराल - सा खींच गया
।
माँ के फ़ोन का भी कभी - कभी जवाब नहीं दे पाता था।
या फिर छोटे हाँ - ना में,
फ़ोन पर बातें होने लगी थी।
कुछ था ऐसा जो निःशब्द हो चला,
मेरे और माँ के बीच,
रिश्तों का मौन रहा अब खिंचा – खिंचा।
यह मौन नहीं सह पायी वह,
जीवन नहीं जी पायी वह ।
एक दिन अचानक मौन मुखर हो गया,
माँ का शरीर प्रकाश एक प्रखर हो गया
।
पड़ोस की आंटी से जब पता चला
'बेटे, तेरे माँ के आँचल का कोर
हमेशा नम रहता था,
तेरे बचपन में जिसमे दूध भरा रहता था,
उसमें अब खारापन अधिक,
मिठास तो कम रहता था।
तूने उसके जीवन को ब्यथित कर दिया,
जीवन जिसने जिया तेरे लिए,
उसे उल्लास से रहित कर दिया।'
माँ तूने अपनी
विवशताओं को विराम दे दिया,
पर मेरा जीवन अवसाद के बादल सा,
उठता - गिरता रहता मानो पागल – सा ।
तू अभी शक्ल ले एक फरीस्ते का,
हाथ उठाये दुआ देती ही रहती है,
तेरी उन्ही दुआओं का स्पर्श लिए
जिए जा रहा हूँ,
सीने से लगाये अपने नौनिहाल को,
आंसू का खारापन पिए जा रहा हूँ।
तू बहती है मेरी सांसों में,
तू बसती है मेरी आसों में,
तू यहीं कहीं है दुआ लिए,
मेरी नाव क़ी पतवार थाम,
झंझावातों से निकाल कर
हांथो में मेरे कमान तुम थमा दिए।
मेरे दिल में, मन में,
तन में, जीवन में
तू प्रेम- सुधा बरसाती
हो,
वात्सल्य तेरा करता है,
जीवन मेरा ओत - प्रोत,
तू शिराओं में स्नेह - अमृत बहाती हो,
माँ, याद बहुत आती हो,
माँ, अब और मुझे भाती हो,
माँ, और मुझे भाती हो।
जैसे - जैसे कविता अंत की ओर बढ़ती जाती जा रही थी, माई की हाँ, हूँ,
भी आनी बंद हो गई थी। जदू का मन किसी अनिश्चित आशंका से आक्रांत होने लगा था। कविता
समाप्त हो गई थी। जदू का ध्यान माई के तरफ गया, उसने देखा माई की आँखें मुंदी हुई थी,
शांत, निश्चेष्ट शरीर!!
जदू चिल्लाया, "सिस्टर,
देखो तो माई को क्या हो गया है?"
सिस्टर जो दूसरी ओर पेसेंट का टेम्प्रेचर ले रही थी, तुरत वार्डन सिस्टर
को बुलाई, ऑक्सीजन मास्क लगाया जाने लगा। इतने में एक सेक्युरिटी सारे अटेंडेंट को
किनारे करने में लग गया, "आपलोग किनारे हो जाइये, डॉक्टर अरविंद आ रहे हैं।"
जदू सोचने लगा, "कौन
डा. अरविंद? क्या वही डा अरविंद जिनकी चर्चा माई कर रही थी।" उसने किनारे जाकर
कोने में खड़े अटेंडेंट वार्ड क्लीनिंग बॉय से पूछा, "ये डा अरविंद कौन हैं? इनका
नाम
तो अस्पताल के डॉक्टरों की लिस्ट में नहीं है?"
"अरे, डा. अरविंद को नहीं जानते? उनका एक बहुत बड़ा ट्रस्ट है
जो इस अस्पताल का पार्टनर है। एक तरह से वही इस अस्पताल के भी मालिक हैं। उन्होंने
एलान कर रखा है कि ६० वर्ष या उससे अधिक उम्र की सारी महिलाओं के इलाज का सारा खर्च
उनका ट्रस्ट वहां करेगा। चुपचाप देखिये, वे ही इधर आ रहे हैं।"
जदू का मन एक और आह्लाद से भर रहा
था तो दूसरी और अनजान आशंका से भी ग्रस्त हो रहा था। डा अरविंद सीधे माई के बेड की तरफ बढे थे। उन्होंने पेशेंट का नाम पढ़ा "मिसेज लक्ष्मी
देवी। पति स्व. ................ लिखा था।
" अरविंद का चेहरा प्रसन्नता से खिल उठा।
लेकिन उसी समय माई के मुंह पर ऑक्सीजन मास्क लगाया जा रहा था। उन्होंने पूछा,"क्या हुआ इन्हें ?"
"थोड़ी सांस लेने में तकलीफ हो रही है।" अटेंडेंट डा ने कहा
था। उन्होंने तुरत हेड डा को फोन लगाया। साथ ही साथ कामिनी को भी मोबाइल पर कुछ आदेश
दिया। थोड़ी देर में हेड डॉक्टर पहुँच गए। पूरी टीम माई के उपचार में लग गई।
इतने में जदू ने देखा कि दो स्त्रियां, एक छोटे बच्चे के साथ उसी के
बेड के तरफ आ रही थी। उनमें एक
स्त्री गोरी, लम्बी, छरहरी, चुस्त कद - काठी और शुभ्र लिबास में एक चार - पांच साल के बच्चे की उंगली पकड़े थी। दूसरी स्त्री भी लम्बी थी, सुन्दर, सुडौल बाहें, उन्नत वक्षस्थल और आँखों पर
रंगीन चश्मा लगाये थी। जदू तो उसे वहां देखकर चौंक ही गया। वह मन - ही - मन सोचने लगा कि इस स्त्री को कहीं
देखा है। "अरे यह तो वही औरत है जो कल शाम साव जी की मसाला - पट्टी वाली दूकान से सामान ले रही थी। उसी समय उसका दुपट्टा सरक रहा था कि जदू
ने उसके जागते हुए वक्षप्रदेश को देख लिया था। उसके दुपट्टे से सरकती हुई उसकी निगाहें करोड़पति बनाने वाले पैकेट पर ठहर
गई थी। "५५ रु के इस पूजन सामग्री से लक्ष्मी जी की पूजा करें और करोड़पति बनें।"
डा अरविंद ने हेड डॉक्टर से
बात की। "चिंता की कोई बात नहीं है। सांस
स्थिर है , थोड़ी लेप्स हुई थी। थोड़ी देर में होश आ जायेगा और वह सामान्य हो जाएगी।
" हेड डॉक्टर ने आश्वस्त किया किया और
हेड नर्स को हिदायत
देते हुए कहा, " यह इंजेक्शन लगा दो।
मॉनिटर पर हार्ट बीट चेक करते रहो। कोई
प्रॉब्लम फोन से सीधा मेरे मोबाइल नंबर पर कॉल करो।"
इतना कहते हुए वे अन्य पेशेंट की तरफ बढ़ गए। डा अरविंद वहीं पर इन्तजार
कर रहे थे। उनके चेहरे पर कई भाव आते और जाते हुए मैंने देखा था। माई के चेहरे पर ही दूर खड़े जदू की आँखें टिकी थी। माई ने धीरे
- धीरे आँखें खोली थी। चारो तरफ लोगों से घिरे कई चेहरों में वह कोई परिचित चेहरा ढूंढ रही थी कि दूर कोने में खड़े जदू पर उसकी नजरें पडी
थीं। उसने जदू को इशारे से बुलाया।
जदू दौड़ता हुआ - सा ही लोगों के बीच रास्ता
बनाते हुए गया। उसे देखकर नर्स, डाक्टर
भी पास आने लगे। अरविंद भी थोड़ा पास आये।
"जदू, इतनी भींड़ क्यों है?" अस्फुट स्वर में माई ने पूछा।
"माई डा अरविंद आये हैं, देखो यहीं पर खड़े हैं।" जदू ने
जैसे ही यह कहा माई ने अपना सर दूसरी ओर घुमा लिया। अरविंद नजदीक आते - आते रुक गए।
उनके अंदर माँ से मिलने का जागता हुआ उत्साह गलने लगा था। उन्होंने मन को समझा दिया
था, माँ के अंदर का विक्षोभ अभी भी घनीभूत रूप में विद्यमान था।
अरविंद ने बच्चे को कामिनी के हाथों से छुड़ाकर माई के पास लाते हुए
कहा था, "देखो, यही तुम्हारी दादी हैं। तुम्हीं कहते थे न कि तुम्हारे दोस्त अर्पित
की दादी रात में सोने के समय उसे अच्छी - अच्छी कहानियां सुनाती हैं। तुम्हारी दादी
भी मिल गई हैं, वे तुम्हें भी कहानियां सुनाएंगी।"
बच्चा सहमते हुए माई की बांह पर हाथ रखकर पूछने लगा, "क्या आप
मेरी दादी हो? क्या आप मुझे कहानियां सुनाओगी?" थोड़ी देर चुप रहने पर वह फिर कहने
लगा, "मुझे कोई कहानी नहीं सुनाता। सभी दोस्त कहते हैं कि उनकी दादी सोने के समय
कहानियां सुनाती हैं। मैं बिना कहानी सुने ही सो जाता हूँ।"
माई ने करवट बदलकर आँखें उस बालक पर टिकाईं। सहसा उन्हें छोटे अरविंद का चेहरा याद
आ गया। धीरे से पूछा, "क्या नाम है आपका?"
"मेरा नाम शाश्वत है और मेरे पिता का नाम डा अरविंद है। " मासूम - सा उत्तर बहुत कुछ बयां कर गया। माई
ने उसे नजदीक बुलाया, "आप अपना सर मेरे पास लाइए,
और पास, और पास।" और फिर उसे चूम लिया, "मैं आपको कहानियां
सुनाऊँगी, ढेर सारी कहानियां, परियों की कहानियां।"
"आप मेरे घर चलोगी न?" बालक का मासूम - सा सवाल माई को पिघलाने
के लिए काफी था।
"आप ले चलोगे तो जरूर चलूंगी।"
शाश्वत अपने डैड और मॉम के पास गया, "दादी मिल गयीं हैं डैडी,
वह अपने घर भी चलेंगी। चलो उसे घर ले चलें।"
अरविंद ने आगे बढ़कर कहा, "माँ, अब घर चलो, माँ। कामिनी नजदीक
आओ।"
कामिनी ने आगे बढ़कर माँ के पैर छुए। वह अपने
अपराधबोध के कारण शर्म से गड़ी जा रही थी। उससे रहा नहीं गया। वह बोलने
लगी, अरविंद ने उसे इशारे से चुप रहने को भी कहा फिर भी उससे बिना बोले रहा नहीं गया, "माँ जी, मैंने नादानी में बहुत
बड़ा अपराध कर दिया था। उन दिनों मेरी माँ की भी तबियत काफी खराब चल रही थी। मैं तनाव
में थी, इसलिए उस दिन पता नहीं क्या
- क्या कह गयी।" उसकी आँखों से पश्चाताप के आंसू झर - झर बह रहे थे, " अब मैंने जाना,
जब रिश्तेदार बिछुड़ जाते हैं तब रिश्ते की
अहमियत समझ में आती है। मुझे माफ़ कर दीजिये,
माँ जी और अपने घर चलिए।"
"लेकिन मैं अकेली कैसे जा सकती हूँ?"
अरविंद ने प्रश्न किया, "क्यों माँ? अब तो अपना गुस्सा छोड़ दो, शाश्वत के लिए घर चलो।"
"मेरी कुछ शर्तें हैं
उसे सुनो। इतने दिनों तुमसे दूर रहने पर भी
मेरा एक
और बेटा मेरी सेवा में रत रहा है। वह भी मेरे साथ चलेगा। इधर आओ, जदू।" जदू की
इशारा करके माई ने कहा, "यह है मेरा दूसरा बेटा। अगर चलूंगी तो यह भी मेरे साथ चलेगा,
मेरे साथ ही रहेगा भी।"
अरविंद ने उत्साह - भरे अंदाज से कहा, "अरे, क्यों नहीं माँ,
मुझे मेरा भाई भी मिल गया और माँ भी मिल गई।" अरविंद ने जदू के कंधे पर हाथ रखते
हुए कहा था।
जदू सोच रहा था, "आज तो वह लक्ष्मी मैया के लिए करोड़पति वाले
पैकेट की पूजन सामग्री से पूजा किये बिना ही डबल करोड़पति हो गया। मेरी माई बच गई है
-- एक करोड़ मिला। मुझ बेसहारा, लावारिस को भाई, भाभी, भतीजा से भरा - पूरा परिवार मिल
गया -- एक करोड़ और मिला। हुआ न मैं डबल करोड़पति।"
"और मेरी दूसरी शर्त
भी सुनो। " माई ने गंभीर
आवाज में कहा, "वह शर्त है कि मैं इन चार वर्षों तक जिन लोगों की चाल में,
जिनके साथ रही हूँ उनका मुफ्त इलाज इसी हॉस्पीटल में होना चाहिए। उनके सारे इलाज का खर्च तुम्हारा ट्रस्ट, क्या बताया उसका नाम ?"
"लक्ष्मी प्रिया स्वास्थ्य संवर्धन ट्रस्ट" अरविंद तुरत
बोले, "यह ट्रस्ट तुम्हारे और कामिनी की माँ के नाम पर हमने बनाया है।"
"ठीक है, बहुत अच्छा काम किया है आप दोनों ने। कामिनी तुम्हें
मेरा पूरा आशीर्वाद है। मेरी सारी गांठे खुल गई, मेरा सारा विषाद मिट गया है।"
कामिनी ने माई के दोनों पाँव पकड़ लिए। माई ने कहना जारी रखा,
"तो सारे लोगों के इलाज का खर्च यह ट्रस्ट उठाएगा।"
"माँ तूने जैसा सोचा है और जैसा कहा है वैसा ही होगा।" अरविंद
ने माँ को पूरी तरह आश्वस्त किया था।
जदू आज बहुत खुश था। वह मन - ही - मन माई की सबसे पसंदीदा कविता गुनगुनाने
लगा था। तब अरविंदजी ने ही कहा था, "जदू जरा जोर से ऊंची आवाज में सुनना तो वह
कविता जो तुम गुनगुना रहे हो।"
जदू जोर से पूरी आवाज में वही कविता गुनगुनाने लगा जो माई अक्सर गया
करते थी:
छाँव के सुख भोग पथिक,
गर धूप के छाले सहे
हैं.
सूर्य तो जलता रहा है
विश्व को देकर उजाला,
अग्नि की चिंगारियां भी
दे सकेगी तभी ज्वाला,
जब हवा के रुख को तुम
मोड़ रे अब मोर पथिक.
नींद के सुख भोग पथिक
गर जागरण झोंके सहे
हैं.
छाँव के सुख भोग पथिक
गर धूप के छाले सहे हैं.
दुखों के इस तिमिर घन
में,
तड़ित प्रभा से राह
खोजो,
खे सकोगे इस पार से
उस पार नाविक नाव को,
गर त्वरित इस धार को,
तुम मोर रे अब मोर
पथिक,
जिंदगी का गान सुन
गर गर्जना के स्वर सुने
हैं.
छाँव के सुख भोग पथिक
गर धूप के छाले सहे
हैं।
भूल जा वो क्षण
जो थे तुम्हें
विच्छिन्न करते,
लासरहित, निरानंदित,
श्रमित, थकित, व्यथित
करते।
नागदंश की विष वारुणी
को
पी सको तो पी पथिक,
अमृत का सुख भो पथिक,
गर जहर प्याले पिये
हैं।
छाँव के सुख भोग पथिक,
गर धूप के छाले सहे
हैं।
भाग्य की विडम्बनाएँ
तुझे छलती ही रही है
तू उन्हें भी पार करके,
विजय-रथ स्थिर किये हो।
अशुभ संकेतो से निडर
गर जी सको तो जी पथिक,
उड़ान के सुख भोग पथिक
गर आरोहण प्रण किये
हैं।
छाँव के सुख भोग पथिक,
गर धूप के छाले सहे
हैं।
... और बाद में पता चला
की जदू और शकुंतला की शादी हो गई है। उसी परिवार में जदू एक पारिवारिक मनुष्य के रूप
में खुशी - खुशी जीवन - यापन करने लगा।
Date: 04-02-2015,
Jamshedpur.
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