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Sunday, March 1, 2015

..और पर्स मिल गया (कहानी)

#BnmRachnaWorld

#chhanvkasukh : यह कहानी मेरी पुस्तक "छाँव का सुख" में सम्मिलित की गई है.

मेरी लिखी कहानी संग्रह "छांव का सुखप्रकाशित हो चुकी है. सत्य प्रसंगों पर आधारित जिंदगी के करीब दस्तक देती कहानियों का आनंद लें.अपने मन्तब्य अवश्य दे.
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यह कहानी मेरे यूट्यूब चैनल marmagya net के #newkahanitime में मेरी आवाज में पांच भागों में प्रकाशित हुई है, जिसका लिंक इस कहानी के अंत में दिया गया  है। कहानी मेरी आवाज में सुनें, मेरे चैनल को सब्सक्राइब करें और कमेंट बॉक्स में अपने बहुमूल्य विचारों से अवगत कराएं।
सादर!









..और पर्स मिल गया

            कौन चाहता  है अपना गावं और अपना शहर छोड़ना।  उसे इसका अफ़सोस तो था।  लेकिन कुछ प्राप्त करने के लिए कुछ खोना भी पड़ता है।  अगर उसकी शिक्षा के उपयोग का स्कोप वहां है तो वहां जाना पड़ेगा।  उसके लिए तो यह और भी जरूरी था।  क्योंकि उसे अपने परिवार को गरीबी  की रेखा के नीचे से खींचकर ऊपर जो निकालना था।  आज वह खुश तो बहुत था।  लेकिन थोड़ा दुखी भी था।  वह आई (माँ) को कम - से - कम अपने साथ ले जाना चाहता था। परन्तु  ले नहीं जा पा  रहा था।  अभी तो  नौकरी  का जॉइनिंग था, फिर देखेगा कि  क्या  ब्यवस्था   हो पाती है। उसके पास सिर्फ एक ट्राली  सूटकेस  और एक और  पीठ पर लटकाने वाला बैग था।  इसीमें उसका लैपटॉप भी था।  उसे सेकंड ए सी में लोअर बर्थ मिला था।  लोअर बर्थ पर उसके जैसे नौजवान और स्वस्थ लड़के को यात्रा करने में थोड़ा  अटपटा लग रहा था।  पिछली कई यात्राओं में जब भी उसे लोअर बर्थ मिला था, किसी बुजुर्ग या  छोटे बच्चे की फीडिंग मदर के  आग्रह पर  वह बर्थ   उन्हें दे दिया करता था। इसमें उसे बहुत ही आनंद आता था।  इस बार ऐसी कोई रिक्वेस्ट नहीं आ रही थी।
       गाड़ी  तेज गति से दक्षिण  के तरफ  भागी जा रही थी।  उसी के साथ उसका  विचार - क्रम भी तीव्र  गति  पकड़ रहा था।  उसे  अपने वे सारे दिन जो उसने स्कूल, कॉलेज, गावं, गणपति पूजा  में बिताये थे रह – रह कर याद आ रहे   थे।  अभी वह पूरी  तरह प्रोफेशनल  नहीं बना था इसीलिए उसके अंदर संवेदनाएं और विचारणाएँ हिलोरें मार रही थी।  'अगर मेरा शहर ही  इतना विकसित होता तो मैं भी  वहीं रहकर नौकरी  करता।  तब कितना अच्छा होता।  गावं से जुड़ाव रहता और शहर में नौकरी रहती।  अपने शहर के लिए कुछ विशेष करना चाहे तो कर सकता था।  लेकिन ऐसा भी कभी होता है।  या ऐसा कभी - कभी ही होता है।  अभी तो बड़े - बड़े शहर विकसित हो  रहे  हैं और फ़ैल रहे हैं।  छोटे शहरों का विकास तो हो नहीं पा रहा है।  जो शहर विकास के न्यूक्लियस बनकर आसपास के गावों के विकास में सहायक बन सकते थे, वे अभी आसपास के गावों के शोषण -  बिंदु  बनते जा रहे हैं।'
वह अपने विचार - यात्रा के क्रम को इस रेल यात्रा में भी ढोये जा रहा था । उसकी सोच कभी - कभी विचित्र दिशा पकड़ लेती थी। और वह उनमें फंसकर रह जाता था। 
  फिलहाल वह उनसे निकलना चाह रहा था । वह स्कूल, कॉलेज, गावं, गणपति  के समय बिताये गए अनमोल पलों में खो जाना चाहता था। कॉलेज के चौथे  साल में ही उसका प्लेसमेंट देश की मुख्य तेल कंपनी भारत पेट्रोलियम में हो गया था।  लेकिन उस्समय कहाँ PLACEMENT दिया जाएगा इसके बारे में कुछ नहीं बताया गया था ।  कहा गया कि  ऑफर लेटर मिलने के बाद इसके बारे में पता चल जाएगा ।  मन  में   एक  प्रकार की अनिश्चितता की स्थिति का आभास हो रहा था ।  लेकिन उसने मन बना लिया था कि जहाँ भी उसे  पदस्थपित किया जाएगा उसके लिए वह तैयार था ।  अंततः ऑफर लेटर भी मिल गया था ।  उसका पदस्थापन कोयंबटूर में हुआ था।  उसकी खुशी का ठिकाना नहीं था ।  बहुत ही शांत और अच्छी जगह है, ऐसा लोगों ने कहा था ।  हालाँकि वह तो कहीं के लिए भी तैयार था ।  
नितिन  ने  एन आई टी,  नागपुर     से   मैकेनिकल  इंजीनियरिंग  किया  था ।  किसी  को  विश्वास   नहीं  हुआ  था   जब  उसने  आल  इंडिया  इंजीनियरिंग  की  प्रतियोगिता  परीक्षा  में  अच्छे  रैंक  हासिल  किये  थे ।  तभी तो  उसे  एन आई टी, नागपुर  में  इंजीनियरिंग  का  कोर  ब्रांच  मिला  था ।   यही   तो  उसकी   पसंद  थी । कौन  जानता था कि  महाराष्ट्र के विदर्भ क्षेत्र के यवतमाळ जिले के छोटे से गावं  में  छोटी  जोत  वाले  किसान  के  घर  का  एक  लड़का  अपनी  गरीबी  को  अपनी  लाचारी  नहीं  बताकर  उसे  अपनी ताकत बनाएगा और एक  दिन  इंजीनियर  बनेगा ।
जब वह नवोदय विद्यालय  में पढता था तो जिंदगी कितनी सहज और  सरल थी । नवोदय विद्यालय  आवासीय हुआ करते थे।  उसमें आने वाले  लगभग  सारे छात्र / छात्राएं   देहातीय पृष्ठभूमि से ही आये थे।  ज्यादा आडम्बर और दिखावापन नहीं था छात्रों के बीच में।  घाटनजी, यवतमाळ का यह नवोदय विद्यालय अपनी सादगी  के लिए सारे राज्य में जाना जाता था। वहां जिंदगी कितनी आसान थी।  पूरे विद्यालीय शिक्षा के दिन कैसे गुजर गए  पता ही नहीं चला।  जैसे - जैसे बड़ा हुआ माँ - पिताजी की आशाओं, आकांक्षाओ  का दबाव कन्धों पर महसूस करने लगा था।  घर में एक बड़े भाई और एक बहन थी।  परिवार को गरीबी के नीचे की रेखा से खींचकर ऊपर ले आना था।  उसे लगता था कि वह इसके लिए सक्षम है। 
इसीलिये वह चुपचाप पाठ्य - क्रम  की किताबों के पढने के साथ - साथ अखिल  भारतीय अभियांत्रिकी  प्रतियोगिता   की परीक्षा की तैयारी भी  कर रहा था, ताकि फिर तैयारी के लिए उसे एक और वर्ष बर्बाद नहीं करना पड़े।  प्लस टू  की परीक्षा के बाद उसने अखिल  भारतीय अभियांत्रिकी  प्रतियोगिता दी और उसे अच्छा रैंक मिला।  इस रैंक की काउंसलिंग में उसे नागपुर में मैकेनिकल अभियंत्रण मिला था।  यही उसका सपना भी  था।
यवतमाळ की अपेक्षा नागपुर बड़ा शहर है । सबसे पहला अनुभव तो उसे यही हुआ था। हालाँकि इसके पहले भी वह नागपुर आया था, लेकिन इस नजरिये से उसने इस शहर को नहीं देखा था। यवतमाळ शहर का चरित्र एक कस्बाई आवरण ओढ़े हुए था, नागपुर मानो   महानगर की ओर कदम बढ़ाता एक जीवंत शहर था। नागपुर में महानगर की सारी विशेषतायें थी, लेकिन अभी महानगर की सारी विवशताएँ यहाँ नहीं दिखती थी । इसलिए यह महानगर था, लेकिन इसका कस्बाई चरित्र अभी भी कायम था ।
इन्हीं सारी अप्रकट टिप्पणियों को मन में रखे  हुए वह VIT (विस्वस्वरैया  इंस्टिट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी ), जो  अब  एन  आई  टी  के नाम से जाना जाता  है, में  प्रवेश लेने के लिए पंहुचा था।  प्रवेश की सारी औपचरिकताएं पूरी करने के बाद उसे हॉस्टल एकोमोडेशन  भी मिल गया था। यहाँ से उसकी अभियांत्रिकी विद्यालय के जीवन के शुरुआत हुयी थी।  एक - दो महीने हल्का या कोमल रैगिंग के बाद फ्रेशर्स पार्टी हुयी थी और फिर सबकुछ सामान्य होता जा रहा था।
'योगः कर्मसु कौसलम' के जिस सिद्धांत को लेकर इस अभियंत्रण विद्यालय के संस्थापकों ने स्थापना की थी, उसकी परंपरा अभी तक कायम थी। नितिन तो शुरू में इसके कॉलेज भवन की भब्यता को देखकर आश्चर्यचकित रह गया था। ऐसा शायद ग्रामीण पृष्ठभूमि से आये सारे अभ्यर्थियों को   महसूस हुआ होगा। धीरे - धीरे सब सामान्य - सा लगने लगा था।
कुछ बदलाव साफ़ देखे जा सकते थे।  जो बन्दे या बन्दियां पहले सामान्य पहनावे में कॉलेज आया करते थे कुछ ही महीने बाद उनमें प्रचलित फैशन के अनुसार परिवर्तन साफ़ - साफ़ दिखने लगा  था।  यानि बन्दे टाइट पैंट्स या ट्रोसेर्स में होते  थे । सलवार,  सूट और दुपट्टा  साधारणतः कॉलेज जाने वाली लड़कियों का पहनावा हुआ करता था।  लेकिन इस ज़माने में इस शालीन पहनावे को बहनजी टाइप पे ब्रांडिंग कर दी गयी है।  कुछ दिनों बाद तो भारतीय या कहें तो परंपरागत परिधान जैसे धोती, कुरता , चादर या दक्षिण भारतीय लुंगी पुरुषों के लिए और साड़ी, सलवार, सूट और दुपट्टा जैसी पोशाक स्त्रियों के लिए शादी या पूजा - पाठ के आयोजनों या फिर संसद और विधान सभाओं में ही दिखाई देंगे। बन्दियां भी टाइट पैंट्स में अपने बहन जी टाइप इमेज से बाहर निकलने  को बेताब  दीखती   थी।  क्लासेज के साथ - साथ कैंटीन में समय बिताना भी रोज की दिनचर्या  में शामिल होता जा रहा था।  विद्यार्थी  जो एडमिशन के पहले तनाव में थे अब खुश लग रहे थे। कॉलेज का जीवन धीरे - धीरे रास आने लगा था।  अब तीन साल मस्ती में गुजारना था। सिर्फ परीक्षाओं के समय थोड़ी ब्यस्तता बढ़ जाती थी।  कोई भी सेमेस्टर बैक नहीं हो इसका ध्यान रखना जरूरी होता था।
नितिन ने अपने को इस कॉलेज के वातावरण में ब्यवस्थित करने में कुछ समय ज्यादा लगाया था। वह जब भी कैंटीन में किसी बंदी को टाइट जींस में देखता था तो उसके तरफ  स्वाभाविक आकर्षण  पैदा होता था । वह लड़कियों से बात करने में अपने को सहज नहीं पाता था।  हालाँकि टाइट जींस और स्लिम फिट टॉप्स में लड़कियां उसे आकर्षित भी करती थी।  यह तो अच्छा था कि मैकेनिकल में उसके सेक्शन में कोई भी लड़की नहीं थी।  जबकि अन्य लड़के अफ़सोस करते थे कि क्या यार हमारे सेक्शन में तो बिलकुल सुखाड़ है।  और देखो कंप्यूटर और आई टी  ब्राँच में यहाँ तक की इलेक्ट्रिकल एंड टेलीकॉम और इलेक्ट्रिकल में भी हरियरी ही हरियरी और बहार - ही - बहार है। इसलिए अधिकांश लड़कों का काफी समय खासकर फर्स्ट इयर में कैंटीन में ज्यादा और लाइब्रेरी  में कम बीतता था।  नितिन   को    जब भी कोई ऐसा  ख्याल आता था कि थोड़ा वक्त कैंटीन में बिताएं, लड़कियों से थोड़ी पढ़ाई के बारें में बातें शुरू कर तुरत पढ़ाई के अलावा अन्य विषयों पर बातचीत को आगे बढ़ाएं, उसके  सामने  उसके पेरेंट्स, बहन और भाई खड़े हो जाते थे।  उसे अपने परिवार को आगे बढ़ाना है, गरीबी   से निकालकर  विकास के पथ पर ले जाना है। 
बहुत से विद्यार्थी   अपना  प्रथम वर्ष तो कॉलेज, क्लास, कोर्स, कैंटीन  को समझने की कवायद में ही बिताकर  अपने -  अपने  कर्तब्य  को निभाते प्रतीत होते थे ।  परन्तु  नितिन ने अपने प्रथम वर्ष के भी एक - एक पल का सदुपयोग  किया।  इसलिए प्रथम वर्ष में भी वह अपने सेक्शन    में  अब्बल आया।  यह उसके कालेज जीवन  का  फर्स्ट माइलस्टोन था।
कॉलेज के सेकंड तथा थर्ड ईयर भी अच्छे अंकों के साथ वह उत्तीर्ण होता चला गया था।  उसके अंकों को   देखने  से  सेमेस्टर एवरेज भी बहुत अच्छा आ रहा था।  उसने मेहनत  करके अंकों को इसतरह हासिल  करने की कोशिश की थी ताकि  कैम्पस  सिलेक्शन के लिए आने वाली   कोई भी कंपनी उसे अंकों के आधार  पर  अस्वीकार नहीं कर सके।
अब फ़ोर्थ इयर, यानि चौथा वर्ष  आ गया था जो अभियंत्रण  की पढ़ाई की  दृस्टि से कई मायनों में बहुत महत्वपूर्ण था।  इसी वर्ष में नया प्रोजेक्ट सबमिट करना था।  इसी वर्ष में कंपनियां भी प्लेसमेंट के लिए आने वाली रहती थी।  इन सबों की पूरी तैयारी उसने कर ली थी।  प्लेसमेंट टेस्ट और इंटरव्यू  की  एक - एक डिटेल्स को उसने वर्क आउट किया था।  कोई भी प्रयास  में वह पीछे नहीं रहना चाहता था जिससे उसे बाद  में अफ़सोस न रहे  कि इस प्रयास में थोड़ी  कमी  रह  गयी।  उसे  अपने पेरेंट्स  के सपने को जो पूरा करना था। 
और आज वह बहुत खुश था। भारत पेट्रोलियम जो एक भारत सरकार का अभिक्रम है, ने मेन्टेनेन्स इंजीनियर के रूप में उसे सेलेक्ट कर लिया था। इस खुशी को पहले उसने माँ - पिताजी को बताना चाहा था। उसने मोबाइल अपने पिताजी को भी खरीद कर दे दिया था।
 मोबाइल पर ही उनसे बातें हुयी थी, "बाबा, मेरा चुनाव भारत पेट्रोलियम में नौकरी के लिए हो गया है।" उसने मोबाइल पर अपने पिताजी से बात करनी चाही थी। 
 पिताजी की आवाज साफ़ नहीं आ रही थी। "हल्लो, कौन बोल रहा है?" 
"बाबा, मैं नितिन बोल रहा हूँ।"
"हाँ, बोलो, सब ठीक है न।" और उन्होंने आई (माँ) को मोबाइल थमा दी थी। 
"बेटा, तुम जल्दी आ जाओ, यहाँ मैंने गणपति की पूजा रखी है। तुम्हारे बिना सब अधूरा लग रहा है। बहुत दिनों से घर नहीं आये हो। तुम्हें देखने का मन कर रहा है।"
आई ने बेटे के जवाब की प्रतीक्षा नहीं की। उसके मन में जो था, बस कह दिया था।
आई को इससे मतलब नहीं था कि बेटा को नौकरी हुयी या नहीं, हुई तो कितना पगार मिलेगा……कहाँ नौकरी करेगा  ....वगैरह … वगैरह…, उसे   तो बस इतना से मतलब था कि वह अपने बेटे को बहुत दिनों से देख नहीं पाई है। उसे देखना चाहती है।
आई की अंदर की भावना को नितिन ने अपने मन की परतों से अंदर तक उतरते हुए मह्सूस किया था।     नितिन ने फोन पर बातें करनी बंद कर दी थी। उसकी आँखों की कोर में अश्रु - जल छलक आये थे। उसने मन बना लिया था कि कल की सवेरे वाली बस से वह अपने गावं जा रहा है।  

X X X X X

     सवेरे   वाली   बस  तो सवेरे  ही छूटती  थी।  इसे पकड़ने के लिए भी सवेरे  ही उठना  था।  इधर इन्जीनीरिंग कॉलेज में एडमिशन लेने के बाद उसके सवेरे उठने की आदत  छूट  गयी  थी।  इसलिए सवेरे उठने के लिए वह अक्सर मोबाइल में अलार्म सेट कर लेता था।  इसे सबसे ऊँचे स्वर के लिए सेट करता था और तीन - चार  बार  रिपीट  के  लिए  भी  सेट कर देता था।  हालाँकि  आज भी उसने  अलार्म सेट कर दिया था।  लेकिन उसके बजने से पहले ही वह उठ चूका था।  नहीं, नहीं वह सोया  कहाँ था। ...वह  तो उठा हुआ ही था।  …उसे रात भर नींद कहाँ आयी  थी।  वह घर पहुंचकर बाबा, आई से मिलकर अपने नौकरी मिलने की खबर  सुनाएगा तो वे कितने खुश होंगे।  बहन भैया -  भैया कहकर  अपनी  शिकायतें बोलेगी, तुम फोन क्यों नहीं करते थे, यहाँ गणपति उत्सव कैसे मनाया जा रहा है। … गावं में तुम्हारी चर्चा   होती  रहती है।  बाबू रावो तलवारे  का बेटा देखो इंजीनियर  बन गया।   यह  पूरे परिवार और गावं के लिए भी गर्व  का विषय है....    
     इन्हीं   ख्यालों   में खोया रहा वह,  रात भर।  आँखों से नींद गायब  हो गयी थी।  आज की रात उसकी जिंदगी  की  सबसे  खुशनसीब  रात थी।  जल्दी - जल्दी  उसने सुबह वाली बस पकड़ी थी।  आज मौसम खुला हुआ था।  पिछले  दो दिनों से लगातार वारिश  के कारण  शहर  और  उसका  यातायात  अस्त - ब्यस्त हो गया था।  बस पर बैठते  ही  लगा  था  कि  किसी तकनीक द्वारा  बस  अगर उड़ने लगती तो वह कितना  जल्दी घर पहुँच जाता।  लेकिन ऐसा तो सिर्फ परीकथाओं में होता  है । उसे घर जल्दी पहुंचने की उतावली में लग रहा था कि बस आज कुछ ज्यादा समय ले रही है।  लो भई, यवतमाळ आ गया।  अब यहाँ से बस थोड़ी दूर और।  यहाँ से कुछ यात्री और चढ़े थे।  उसका ध्यान उनपर नहीं गया था।  उसे तो बस घर पहुँचने की जल्दी थी। वहां से बस चली   थी।  तब उसकी आँखे थोड़ी झँपने लगी थी।  रात भर जो वह सोया नहीं था।  उसके गावं का स्टॉप आ गया था।  कंडक्टर की ऊंची आवाज से वह जागा था।  उसके हाँथ में कुछ नहीं था।  पाकेट में वॉलेट और मोबाइल बस और कुछ नहीं।  क्योंकि उसे जल्द ही कॉलेज लौटना था।  कुछ  सबमिशन   बाकी  थे । और वे सारे निहायत जरूरी थे।  इसीलिये उसे तुरत लौट जाना था। 
सारे   यात्रियों    के   बस  से  उतर  जाने  के बाद  ही वह बस  से उतरा था ।  थोड़ी  हड़बड़ाहट  भी हुयी थी।  बस कंडक्टर  भी बुदबुदा  रहा  था, " कैसे  लोग  हैं?  इन्हें  इनके    गावं  की स्टॉप  आने के  बाद  भी    इन्हें    नींद  से  जगाना  पड़ता  है। "
उस समय तेज हवाएँ  चलनी  शुरू  हो गयी  थीं।  वह जल्दी - जल्दी कदम बढ़ा रहा था।  सड़क  से गावं  तक जाने  के लिए  सरोवर  या  बड़े  तड़ाग ( एक झीलनुमा बड़ा तालाब )  के आल  या बांध  (तालाब के पानी को रोकने के लिए बनाया  गया अवरोध )  पर से होकर  जाना  पड़ता  था।   यह  तड़ाग  के पानी को रोकता  भी था  और इसे करीब २० - २५ फुट चौड़ा  बनाया  गया  था इसलिए  यह सड़क  के  रूप  में भी इस्तेमाल  किया  जाने  लगा  था।  या कहें तो सड़क भी इसी के  ऊपर  से    होकर  गुजरती  थी।  तड़ाग  का पानी इसके  ऊपर न आ जाये  इसलिए  तड़ाग   वहां  पर  गहरा  था  और  उसके किनारे  बड़े - बड़े पत्थर  रखे गए थे  ताकि    पानी  इसमें घुसकर  इसकी मिट्टी  को बहा  न ले जाय।  तड़ाग  में   हमेशा पानी रहता था।  इसे एक बड़ी नदी से नहर  द्वारा   जोड़ा  हुआ   था  जिससे  अगर नदी में पानी अधिक आ जाता तो वह नहर से होता हुआ इस तड़ाग  में  आ जाता था।  यह ब्यवस्था  आज़ादी के पहले  की बनाई  हुयी थी।  आज़ादी के बाद अन्य  सारी ब्यवस्थाओं  के  तरह  इस ब्यवस्था  को भी मरम्मत द्वारा कायम रखने  के  कोशिश  की  जा  रही थी  ताकि  इसका  अस्तित्व  कायम  रह सके।
       वह जैसे ही तडाग   के  किनारेवाली   सड़क पर चढ़ा  था, जोर - जोर से वारिश होनी शुरू हो गयी  थी।  तेज हवाओं के साथ - साथ    बौछारें भी  इतनी तेज पड़ रही थी  कि   बदन पर चोट  जैसी   लग रही थी।  हवाओं  के    कारण    तडाग  के शांत   जल   में    बड़ी - बड़ी   लहरें   उठनी   शुरू   हो   गयी   थी । सड़क  पर ट्रैक्टर  और  बैलगाड़ी  के चलने  से गढों  की  लीक बनी हुयी थी।  सड़क की काली    मिट्टी  पर  अगर  खाली पैर चला जाय  तो  मिट्टी  का  ही जूता  जैसा  बन जाएगा।  इन्ही  लीक  के  गढों  से  बचकर   चलने   के  लिए  पगडण्डी  खोजना  इस  घनघोर  वारिश  में  कितना  मुश्किल   हो  रहा  था । दिन  में  ही  अन्धकार  जैसा  छाने  लगा था । लग रहा था कि यह सारी प्राकृतिक हलचलें  उसे घर तक  पहुँचने  से रोक रहे हों ।  अचानक हवाओं की  गति  बहुत  तेज  हो गयी थी … आगे  कुछ सूझ नहीं रहा था … जैसे  उसके  कदम  बढे  किसी  की  जोर - जोर   की सिसकियाँ  उसे सुनाई  दी   थी … इस तेज बारिश में सिसकियाँ … उसका  तो मन  घबराने लगा था।  कहीं इस झीलनुमा  तड़ाग  की  चुड़ैल  बाहर  निकलकर रो तो   नहीं   रही है … उसे ऐसे भूतों और चुड़ैलों की कहानी पर कम ही विश्वास था। लेकिन आज  मन  में उथल - पुथल तो जरूर  मच गया था।  उसने हिम्मत किया और गणपति  का नाम लेकर आगे बढ़ा।  उसने देखा, सामने  कोई सड़क के किनारे बैठा तड़ाग  के तरफ  मुंह किये जोर - जोर से रो रहा है।  उसने  आँखों पर पड़ती हुई  बूंदों को साफ़ किया  और पूछा, "क्या हुआ ?" एक रुआंसी - सी आवाज आई, जिससे लगा कि  किसी लड़की की आवाज है, "मेरा बैग इस तेज आंधी में उड़ गया और झील में चला गया, उस बैग में मेरे सारे ओरिजिनल सर्टिफिकेट्स हैं।" वह जोर - जोर से रोये जा रही थी।  उसने झील के तरफ देखा, लगा कि कोई  चीज झील  के लहरों पर तैर रही है और अभी तो किनारे से ज्यादा दूर नहीं है, लेकिन देर होने  पर वह किनारे से और दूर  जा सकती है, ऐसा उसने अनुमान लगाया था। उसने  तुरत निर्णय ले लिया। … अपने पैंट से अपना रुमाल निकाला, अपना वॉलेट और मोबाइल उसमें लपेटकर  उस लड़की के हांथों में  थमाया।  झील के किनारे वहीं पर इमली के पेड़ पर चढ़ा।  इस पेड़ की कुछ डालियाँ  झील की  तरफ बढ़ते  हुए झुक गयी थी।  इसपर चढ़कर बचपन  में वह कई बार झील में छलांग लगा चूका था।  इसलिए आज ऐसा करने में उसे कोई दिक्कत नहीं हुई थी।  उसने छलांग लगाई, तैरते हुए वह बैग तक पहुंचा, एक हाथ से बैग को दबोचा और दूसरे हाथ से पानी को काटते हुए तैरकर किनारे पहुँच गया। 
       वह बैग लेकर उसे   थमाना चाहा। तब वह रोती हुई, सिसकती हुई खड़ी हुई थी। उसने पानी की बूंदों से भर आई अपनी आँखों को पोंछा था। उसके सामने जो स्त्री आकृति खड़ी थी, उसे देखकर उसे विस्वास ही नहीं हो रहा था कि स्त्री का सौंदर्य ऐसा होता है!! वह  बिलकुल किसी संगमरमर  से तराश कर निकाली गयी सजीव प्रतिमा जैसी लग रही थी।  बारिश में बरसते पानी के कारण  उसके वस्त्र  उसके  बदन  से चिपक गए थे।  उसके बालों से होकर उसके गालों पर ढरकती, ठहरती, फिर ढरकती पानी की बूँदें किसी सद्यःस्नाता  अप्सरा   का आभास दे रही थी … और फिर उसकी नजरें  जैसे - जैसे नीचे झुकती जाती, सौंदर्य के नए आयाम  खुलते जाते … शायद कालीदास के यक्ष ने अपनी ऐसी ही सुंदरी को मेघों द्वारा सन्देश भेजने की कोशिश की होगी … अथवा  यह दुष्यंत की शकुंतला  जैसी  लग रही थी … उसके वक्ष - प्रदेश से सटे  हुए उसके वस्त्र उसके उभार के ग्लोबों के सर्वोन्नत  विन्दु को भी नहीं छुपा पा  रहे थे।  उन्हीं शिखर - स्थलों पर जाकर उसकी नजरें  टिक गयी थी।  उसके हाथ में लड़की का बैग था जिसे वह उसकी ओर बढ़ा चुका था। लड़की ने  उसके हाथ से बैग लिया था, कंधे से लटकता हुआ अपना पर्स सभाला था और खाली पैर ही सड़क पर तेजी से  फिसलन भरी  राह  में  अपने  को सम्हालते हुए तेज कदमों  से दूर चली गयी थी। 
       उसने जब नजरें नीचे की तो देखा, उस लड़की की चप्पलें वहीं पर कीचड़ सनी मिट्टी में दबी थीं। उसने चप्पलों को निकालते हुए पुकारा था, "आपकी चप्पले …" तब तक तो लड़की आँखों से ओझल हो चुकी थी ... तब उसे याद आया कि लड़की तो मेरे वॉलेट और मोबाइल दोनों ले गयी। वॉलेट में उसके सारे एटीएम कार्ड्स और क्रेडिट कार्ड्स हैं, मोबाइल में बहुत सारे एड्ड्रेसेस, मेसेजेस और न जाने क्या - क्या है। अब क्या होगा? उसे अब अपने पर बहुत गुस्सा आ रहा था। एक अनजान लड़की को मदद करने का यही नतीजा होता है। चले थे उपकार करने, अब भुगतो। वह उदास मन से घर की ऒर चला। उसकी दशा ऐसी थी जैसे किसी ब्यापारी ने ब्यापार में सूद के साथ मूल भी गवाँ दिया हो। जब वह घर के आसपास पहुँच रहा था तो उसे अहसास हुआ कि अरे, वह अपने हांथों में उस लड़की की चप्पले ढोए हुए यहाँ तक आ गया है। उसने गुस्से से चप्पलों को गावं के बाहर की झाड़ी में फेंक दिया था।
       घर पहुंचते - पहुंचते बारिश शांत हो गयी थी। उसके आने से घर के सारे लोग खुश हुए थे। माँ ने कहा था, "इतनी बारिश में आने की क्या जरूरत थी, मैं भी कितनी बेवकूफ हूँ।  तुझे आने के लिए कह   दिया।  बाद में मुझे लगा कि  न जाने तुम्हें कितना काम होगा, क्या - क्या काम होगा।  सब को रोककर यहाँ आना पड़ गया।" 
"नहीं माँ, सारे काम एकतरफ तुम्हारा आदेश एक तरफ। आना जरूरी था।" उसने मुस्करा कर, माँ की हाथों को हाथ में लेकर कहा था। 
"माँ - बेटे का भरत - मिलाप अगर हो गया हो तो हमलोग भी जरा बात करें।" पिताजी ने मजाकिया लहजे में कहा था। 
ढेर सारी बातें हुयी थी। उससमय उसने कहा था कि उसका सिलेक्शन भारत पेट्रोलएम में मेंटेनेंस इंजीनियर के रूप में हो गया है। यही खबर वह मोबाइल पर देना चाहता था, लेकिन माँ ने आने का आदेश सुना दिया," … और तुम श्रवण कुमार की तरह दौड़े - दौड़े चले आये।" उसकी बहन ने चुटकी ली थी।
"दौड़ाउंगा तुम्हें, बहुत बात करना जान गयी हो।" उसने क्रोधमिश्रित प्यार के भाव में बहकर कहा था।  
लेकिन जैसे ही मोबाईल की चर्चा की,  उसके मन में वे सारी बातें घूम गयी जो ठीक पहले घटित हुइ  थी ।  उसके मन में तूफान मचा हुआ था।  उसका तो दुनिया से संपर्क ही कट गया था। अपनी यह बेवकूफी किसे से शेयर भी तो नहीं कर सकता।  लोग उसका मजाक ही उड़ाएंगे, हँसेंगे उस पर।  लोगों का तो काम ही होता  है, किसी मुश्किल में पड़े बन्दे की हंसी उड़ाना। बस एक मौका चाहिए  …और उसके बाद  ...ऊपर से अनावश्यक, उलुल - जलूल परामर्शों, विचित्र किस्म की रायों की भरमार। उससे अच्छा तो चुपचाप अपने आप को लज्जित करना, पछताना और इन सबों को पी जाना बेहतर था। उसका मोबाईल एक स्मार्टफोन था।  महंगा तो था ही।  उसे   प्रोजेक्ट करने के एवज में जिस कंपनी ने पैसे दिए थे, उसी से उसने यह मोबाइल खरीदा था, बहुत सारे इन्फ़ोर्मेसन्स  उसमें स्टोर थे।  बहुत  सारे  मेसेजेस  थे।  अगर नहीं मिलता है तो इसके सिम को ब्लॉक करवाना होगा।  हे भगवान, उस लड़की का पता मुझे बता दो, तो उसकी खबर लेता हूँ।  जिंदगी में पहली बार किसी लड़की के तरफ आकर्षित हुआ, उसका परिणाम यह हुआ कि सारी अब तक की कमाई गोल …. गोल ही हो गई न।  वॉलेट में ही तो सारे एटीएम कार्ड और क्रेडिट कार्ड थे, अब उन्हें भी ब्लॉक करवाना होगा। सारी परेशानियां सिर्फ एक गलती के कारण, कि मैंने एक मुसीबत में फँसी लड़की की मदद की।  और वह मुझे ही मुसीबत में डाल गयी … उस लड़की  से  तो  संपर्क भी नहीं हो सकता था।   उसका कोई कांटेक्ट डिटेल्स भी उसके पास नहीं था।  अब जो कुछ भी करना था उस लड़की को ही करना था।  क्योंकि उसके पास करने को कुछ था ही नहीं।  चलो गणपति बाप्पा से प्रार्थना  करें कि लड़की को जल्दी सुबुद्धि दें जिससे वह जिस किसी   भी तरह हो मेरा वॉलेट और मोबाइल लौटा दे। इतने में भाई ने आवाज लगाई  थी, " नितिन, गणपति की सायंकाल आरती हो रही है।  आ जाओ।  कल सुबह गावं के सार्वजनिक पूजा पंडाल में गणपति के दर्शन करने जाना।"       
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     रात में भी उसे नींद नहीं आ रही थी। दिन की सारी घटनाओं ने उसके मन - मष्तिष्क में कोहराम मचाया हुआ था। किस झँझट में वह फंस गया। क्या किसी मुसीबत में पड़े इंसान की मदद करना गुनाह है?   आज से वह तौबा कर रहा है, इस तरह से किसी की मदद करने के लिए। उसकी आँखें झँपने लगी थी। पिछली रात में भी वह सोया नहीं था... उसे लगा कि वह तड़ाग के तरफ दौड़ा जा रहा है … अचानक सामने इमली का पेड़ आ जाता है ...वह पेड़ पर चढ़ गया है… जोर से हवाएँ चलने लगी हैं... इमली   का पेड़ जड़ से उखड गया है ... हवा में उड़ता जा रहा है .… तेजी से वह आसमान के तरफ उड़ा जा  रहा है  ... उसने डाल को जोर से पकड़ा हुआ है  …  वह बादलों के पार जा पहुंचा है  … अचानक उसकी नजर उसी लड़की पर पड़ती है ...  लड़की के बदन पर भींगे हुए कपडे हैं  … लगता है जैसे वह उसी झील से नहाकर निकली है जहाँ उससे उसकी पहली मुलाकात दिन में हुयी थी  …  उसके बालों से चूकर ढरकता  हुआ, उसके गालों पर रुकता हुआ, फिर ढरकता हुआ पानी  उसके वक्ष - प्रदेश पर पहुंचता है ... उसकी नजरें वहां टिकने लगती है ... उसके भींगे वस्त्र उसके उभारों के ग्लोबों के शीर्ष - बिन्दुओं को भी छुपाने में असमर्थ हो रहे हैं .... उन्ही शिखर - बिन्दुओं पर उसकी नजरें टिकने को होती हैं कि वह अपनी आखो को मलता है और हांथों को उठाकर उस लड़की को पकड़ना चाहता है, " सुनो, सुनो…..भागो मत….सुनो … “…कि अचानक माँ के पुकारने से उसकी नींद खुल जाती है।
 "…उठो, उठो, सुबह हो गयी, न जाने नींद में क्या - क्या बड़बड़ा रहा है ...?"
आँखे मलते हुए वह उठा था। सपने में भी वह लड़की हाथ नहीं आयी। हकीकत में क्या हाथ आएगी। 
चलो रे बुद्धूदास तलवारे, लड़की के हांथो गए आज मारे।
सुबह उठकर वह फ्रेश हुआ था। नहा - धोकर  गावं के सार्वजनिक पूजा स्थल में बने गणपति  बप्पा  के दर्शन करने वह पहुंचा  था।  उसके सारे कपडे तो भींगे  हुए थे।  इसलिए उसने अपने भाई का कुरता - पजामा  पहन रखा था। यह थोड़ा ढीला था  और ध्यान से देखने से कोई भी समझ सकता था  कि ये कपडे उसके नहीं थे ।  वह बप्पा  के तरफ देखता हुआ ध्यान लगा ही रहा था कि गावं के दो बच्चे  उसके  कुर्ते की छोर पकड़े खींच रहे थे।  उसने  धीरे से उन्हें मना किया था  और अपना कुरता छुड़ाने की कोशिश    की थी।  बच्चे फिर भी नहीं माने   थे।  वह उन्हें लिए हुए पंडाल से बाहर आया था।  "क्या हुआ ? तंग क्यों कर रहा है?"
वे फिर भी नहीं माने थे। उसके कुर्ते को पकड़े - पकड़े उसे गावं से दूर खेतों में पकड़कर ले जाने लगे थे।   "अबे, बोल तुम्हें क्या चाहिए? आज सवेरे - सवेरे मैं ही मिला तुझे परेशान करने के लिए।"
फिर भी वे खींचते  - खींचते  उसे   वहां ले आये  थे जहां वह लड़की खड़ी थी।  बच्चे लड़की से चार डेरी मिल्क के चाकलेट और लिए  थे  और  वहाँ  से भागते  हुए  दूर  चले गए थे।
अचानक उसकी नजर सामने वाली लड़की पर पडी थी। अरे यह तो वही लड़की थी। …कल की तूफानी बरसात में झील के किनारे। ….  लड़की का बैग  हवा में उड़कर झील  में  …। उसका  झील  में कूदकर बैग निकालना। ....लड़की के हाथ  में बैग थमाना। ....लड़की  का  उसका वॉलेट  और मोबाइल ले भागना। ....
"मेरा वॉलेट और मोबाइल लेकर कहाँ भाग गयी थी?  चलो - चलो जल्दी से मुझे मेरी चीजे लौटा दो।"
वह कहे जा रहा था और लड़की मुस्कराये जा रही थी। "कैसा लड़का है? सामने एक सुन्दर - सी लड़की खड़ी है। उसीसे मिलने आयी है। न कोई हैल्लो, हाय, बस शुरू हो गए मेरी चीजें लौटाओ। अगर न लौटाऊँ तो। अरे भाई, इतनी दूर से उसे उसकी चीजें  ही तो लौटाने आयी हूँ। कम - से - कम  औपचारिकतावश  ही उसे पूछना चाहिए, कैसी हैं?  इतनी बारिश में घर पहुँचने में कोई दिक्कत तो नहीं हुई?  कहाँ घर पड़ता है? ... आदि … इत्यादि  ...."  लड़की ने भी कुछ नहीं कहा था।
रुमाल में लपेटा हुआ उसका वॉलेट और उसका मोबाइल और उसके साथ एक और नया वॉलेट उसकी ओर बढ़ा दिया था। उसने सारी चीजें लगभग झपटते हुए उससे ले ली थी मानो कहीं फिर वह झटक कर ले ना भागे। वह मुड़कर जाना ही चाह रही थी कि नितिन ने उससे कहा था, " बाई डी वे, मैं नितिन तलवारे। " लड़की बोली थी, "मैंने वॉलेट में रखे एड्रेस से नाम और घर का पता जान लिया था।" फिर वह जाने लगी।
उसने रोकते हुए कहा था, "जरा उस झाड़ी के पीछे चलिए …"
लड़की ने प्रश्नवाचक दृष्टि उसकी तरफ डाली थी। शायद सोच रही हो आखिर इसका इरादा तो सही है न?
और नितिन आगे - आगे चल पड़ा था। बिना यह देखे कि वह लड़की उसके पीछे आ रही है या नहीं। लड़की आश्वस्त हो गयी थी कि उसकी नीयत में कोई खोट नहीं है। 
वह झाडी में घुस गया था। उसने दोनों चप्पलें झाड़ी से निकाली थी जिसे कल उसने फेंक दिया था ।" आपकी चप्पलें, "कहकर उसने चप्पले हाथ में लिए हुए उसकी ओर बढ़ा दिया था। लड़की ने देखा कि उसके एक हाथ में झाड़ी के काँटों से खरोंच आ गयी थी और उससे खून बह रहा था। लड़की ने अपने पर्स से अपना रुमाल निकाला था और खून रिसते हुए हाथ के ऊपर लपेट दिया था।
वह मुड़कर जाने लगी थी। "आपका नाम? कुछ तो अपने बारे में बता कर जाइये।"
लड़की तेजी से भागते हुए ही बोली थी, "मेरा नाम, देविका पाटणकर। …मैने आपको एक नया वॉलेट भी दिया है। …उसमे मेरी सारी डिटेल्स हैं। …"
…और वह लड़की भागती हुई आँखों से दूर होती गयी थी। 
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    यह लड़की क्या  थी, बिलकुल कोयंबटूर एक्सप्रेस थी।  जब भी मिली,  भागती हुयी ही मिली।  वह वॉलेट और नयी वॉलेट तथा अपना स्मार्टफोन पुनः पाकर खुश था।  घर पहुंचकर  अबतक सूख चुका पैंट, शर्ट उसने  पहना  था,  आई, बाबा को प्रणाम किया था।  हमेशा की तरह 'गणपति तुम्हें सफल बनावें'  का आशीर्वाद उन्होंने दिया था।   वह वहां से निकलते हुए आगे की योजना मन -ही - मन बना रहा था।  बस समय पर ही मिल गयी थी।  कालेज पहुंचकर सारे सबमिशन कम्पलीट किये थे।  अगले सोमवार ही कोयंबटूर में भारत पेट्रोलियम में ज्वाइनिंग थी।
एक दिन एक लड़की का फोन आया था, "दो दिन हो गए। आपका फोन नहीं आया। मन नहीं माना, इसलिए फोन कर रही हूँ।"
"आप कौन?"
"भूल गए इतनी जल्दी, वही लड़की जो आपका वॉलेट और मोबाइल फोन लेकर भाग गयी थी।"
"अच्छा, देविका जी, सॉरी, मैं आपको फोन नहीं कर सका, यहाँ आकर इतना काम पेंडिंग था। उसी में उलझ गया था।"
"आप मुझे देविका ही कहें, अच्छा लगता है।"
"जैसी आपकी इच्छा, देविका जी।"
"देविका जी, नहीं देविका।"
"ओके, ओके। मुझे अगले सोमवार को कोयंबटूर में भारत पेट्रोलियम में ज्वाइन करना है उसी की तैयारी चल रही थी। आप अपने बारे में कुछ बताइये।"
"उस बरसात के दिन मैं उस बस में यवतमाळ से चढ़ी थी। मैं एक इण्टर कॉलेज में लेक्चरर के लिए इंटरव्यू देकर आ रही थी। इसीलिये सारे ओरिजनल सर्टिफिकेट्स भी मेरे पास ही थे। उस आँधी - तूफान में कीचड से सने रस्ते में मैं सम्हलने में थोड़ी लड़खड़ा गयी थी। इतने में आंधी का तेज झोंका आया और मेरा बैग उड़कर झील में जा गिरा था।"
"....और उसके बाद आपकी कहानी में मेरी एंट्री हो जाती है।"
"आपका बहुत - बहुत शुक्रिया। आप   तुरत   एक्शन नहेीं लेते तो मेरे सारे ओरिजिनल सर्टिफिकेट्स तो गए थे।"
"लेकिन मेरा स्मार्ट फोन और वॉलेट आप दूसरे के द्वारा भी मिजवा सकती थी। आपने खुद आने का कष्ट क्यों किया?"
"उसके दो या तीन कारण हो सकते हैं, नहीं, नहीं हैं। एक तो मन के किसी कोने में आप से मिलने की भी इच्छा थी। दूसरे किसी और के हाथों भेजने से अगर आपको नहीं मिलता तो मैं अपने को कभी माफ़ नहीं कर पाती"
"और तीसरा कारण?"
देविका की हल्की हंसी की आवाज में घुली उसकी खुशी से छनकर जवाब आया था, "आपको अपनी तरफ से एक नई वॉलेट जो देनी थी, जो हमेशा आपके साथ रहे। ।और जब भी आप वॉलेट निकालें तो एक बार मेरी भी याद आपके जेहन में ताजी हो जाय।"
"लेकिन मैंने तो आपको कोई निशानी नहीं दी।"
"आपने तो मेरी सबसे कीमती चीज मेरे ओरिजिनल सर्टिफिकेट्स जिसमें मेरे एम ऐ (अर्थशास्त्र) के सर्टिफिकेट्स भी थे, अपनी जान जोखिम में डालकर डालकर दिए थे। मेरी जिंदगी में इससे बड़ा तोहफा और क्या हो सकता है?"
"ठीक है, हमलोग मोबाइल पर संपर्क में रहेंगे। … देखे इसके बाद कब मिलना होता है?"
"ओके, बाई एंड टेक केयर।"
   उस तूफानी बरसात की मुलाकात के बाद   मोबाइल पर इतनी ही बातें हुई थी। देविका के दिए गए
वॉलेट में ही उसने अधिकांश पैसे औए डेबिट तथा क्रेडिट कार्ड्स रख लिए थे।
पैंट्री के वेटर की 'चाय - चाय' की आवाज से उसकी  नींद  खुली थी।   स्टेशन आनेवाला था , लोग अपने सामानों को ठीक - ठाक ,  ब्यवस्थित  करने में लग गए  थे।  वह भी उठ गया था।  जाकर बेसिन में  अपना चेहरा धोया था।  ट्राली अटैची को बर्थ के नीचे से निकाला था।  रेलवे के द्वारा दिए गए बम्बल , चादर को लपेटकर खिड़की के तरफ खिसका दिया था।  सोने के पहले उसने वॉलेट को  लैप   टॉप वाले बैग में रख दिया था।  उसी बैग से वॉलेट को निकाला था  और पैंट  के बैक पॉकेट में रखकर वह उतरने को तैयार हो  गया  था।  कोयंबटूर स्टेशन पर ट्रेन  रुकी थी।  अटैची और बैग लेकर वह ट्रेन से नीचे उतर गया था।  प्लेटफार्म पर जब वह थोड़ी दूर चल चुका  था तो उसने  अपने हाथ  पैंट  के पिछले  पॉकेट  में रखे  वॉलेट को छूकर, महसूस कर देविका की यादों  को भी  एकतरह  से छेड़ना चाहा  था।  ये लो, वॉलेट तो  वहां था ही नहीं।  क्या हुआ ? उसने तो पैंट के उसी पॉकेट में रखा था। वहां तो था ही नहीं। ट्रेन में ही छूट गया क्या? ट्रेन अभी तक रुकी हुई थी। वह जल्दी से भागकर जिस डिब्बे में वह सफर कर रहा था उसमें घुसा था। अपनी बर्थ पर उसने कम्बल, चादर सारा हटा कर अच्छी तरह खोजा था। ट्रेन लगभग खाली हो गयी थी। उसने बाकी बर्थ पर भी ढूढ़ा था। वह पागलों की तरह सारे कम्बल चादरों को उठाकर, फेंक कर अपने पर्स को ढूढ़ रहा था। लेकिन पर्स नहीं मिली थी। 
        उसके साथ ही हमेशा ऐसा क्यों होता रहता है?  हालाँकि बहुत लोगों के साथ ऐसा होता होगा।  उनके बारे में , उनके ऐसे दुखद प्रसंगों के बारे में वह थोड़े ही जानता है। लेकिन उसे लग रहा था कि उसके साथ ही ऐसा होता है।  उसने तो बड़ी होशियारी से वॉलेट निकालकर अपने पैंट की पिछले पॉकेट में रखा था।  वह बार - बार अपने पैंट के सारे जेब टटोल रहा था।  कही दूसरे जेब में तो नहीं रख दिया और ढूढ़ रहा है दूसरी  जेब में।  वॉलेट तो इतनी छोटी चीज है नहीं कि उसे महसूस नहीं किया जा सके।  पैंट के सारे पॉकेट में हाथ डालकर फिर चेक किया।  वहां   भी वॉलेट  कहीं  नहीं  था। हताश , निराश मन से वह ट्रेन से फिर उतरा  था।  कोई  उपाय भी नहीं था।  ट्रेन  अपने आगे के गंतब्य  की ओर  प्रस्थान करने के लिए खुल चुकी थी।  वह प्लेटफार्म के बेंच पर   ही  बैठ  गया  था। फिर अपने भाग्य , देव , किस्मत सबको एक साथ कोसने की कोशिश में जुटने ही वाला था  कि उसके अंदर से किसी ने ढाढस दिलाया था।
"क्या हुआ? इतनी सी घटना से विचलित हो गए? एक वॉलेट के जाने से इतने उदास क्यों हो गये?   क्या तुम्हारे लिए दुनिया ख़त्म हो गयी?  कुछ पैसे गए थे। कुछ पैसे उसने चोर पॉकेट में सुरक्षित रखे हुए थे। उससे काम चलाओ। सारे कार्ड्स ब्लॉक करवा दो। उसके बाद दूसरा कार्ड आ जायेगा। चिंता क्यों? चित्त में उल्लास भरो। चलो खुशी -खुशी मन से जॉब ज्वाइन करो।"
वह मन को दृढ कर प्लेटफार्म की बेंच से उठा था। बाहर में कंपनी की गाड़ी आयी थी। उसे ढूढने में कोई दिक्कत नहीं हुई थी। उसी गाड़ी से कंपनी के गेस्ट हाउस पहुँच गया था। गेस्ट हाउस में १५ दिनों तक रहा जा सकता था। इसी बीच एकोमोडेशन ढूढ़ लेना होता है ताकि गेस्ट हाउस खाली कर दिया जाय ।
वह गेस्ट हाउस पहुंचकर फ्रेश हुआ। वहां से ऑफिस पहुंचा और अपने ज्वाइनिंग की सारी औपचारिकताएं पूरी की। उसका इंडक्शन प्रोग्राम दे दिया गया और ट्रेनिंग - कम - इंडक्शन शेडूल दे दी गयी। दिन भर तो ऑफिस में मन कहीं - न - कहीं लगा रहा। शाम में अगर देविका का फोन आया तो   उसे   क्या कहेगा? उसके द्वारा दिया गया वॉलेट उसकी अपनी लापरवाही के कारण  कहीं खो गया।  माना कि  वह कुछ नहीं कहेगी।  परिस्थिति की गंभीरता को समझते हुए वह मुझे ही समझाने की कोशिश करेगी, "वॉलेट का क्या है फिर दूसरा लेकर दे दूंगी।  आप बिलकुल चिंतित न हों।  बस यही सबसे बड़ी बात है। " लेकिन उसके मन में तो एक कसक - सी  कहीं - न - कहीं रह रहकर उठती ही रहेगी।  इससे पार तो पाना ही होगा, सामान्य दीखने  के लिए भी और सामान्य जीवन जीने के लिए भी।  आई और बाबा से भी उसने बातें की।  सब  ठीक  है, ऐसा ही कहा था उसने।  फिर कल विस्तार से बात करने का वादा कर वह सो गया था। 
दूसरे दिन फ्रेश होकर जब ऑफिस पहुँचा तो देखा कि लोग उसी का इंतजार कर रहे थे । ऐसा क्या हो गया कि लोगों की रूचि उसके आते ही उसमें बढ़ गयी थी।
"मिस्टर तलवारे एक ब्यक्ति आपका इन्तजार कर रहे हैं। वे बोल रहे हैं कि कल से ही उसे ढूढने में और फिर मिलने के लिए परेशान हैं।" ऑफिस के हेड क्लर्क ने उससे कहा था।
  नितिन खुद कल से परेशान था। वह तो यहाँ किसी को जानता भी नहेीं था। फिर उसे कोई क्यों ढूढ़ रहा है। वह अंदर गया। वे ब्यक्ति ऑफिस के लाउन्ज में उसका इंतज़ार कर रहे थे। 
वह अंदर घुसते ही बोला था, "मैं ही नितिन तलवारे हूँ। लेकिन क्या मैं आपको जानता हूँ?"
"आपने सही कहा - आप मुझे नहीं जानते हैं। मैं रामचंद्रन, मेरी कोयंबरुर में ज्वैलरी की दूकान है।"
"लेकिन मैं तो ज्वैलरी खरीदने में अभी बिलकुल ही इंटरेस्टेड नहीं हूँ।"
"नहीं, नहीं मैं ज्वैलरी की डील के लिए आपके पास नहीं आया हूँ। मैं आपकी एक खोयी हुयी चीज आपको देने आया हूँ।"
"मैं समझा नहीं।"
फिर उस ब्यक्ति ने अपने हैंड बैग से मेरा वॉलेट निकाला था। "क्या यह आपही का है?"
उसके आश्चर्य का ठिकाना नहीं था, "कहाँ मिली यह आपको?”
"उसके बारे में मैं बता रहा हूँ। पहले आप इसे सम्हालिए।" रामचंद्रन जी ने वॉलेट मेरे हाथ में थमा दिया था।
 उसके बाद उसने कहना शुरू किया था, " कल आप जिस ट्रैन से उतरे मैं भी उसी ट्रैन से उतरा था। आप उतरे उसके ठीक पीछे - पीछे मैं भी उतर रहा था। मैंने देखा कि एक बर्थ पर यह वॉलेट पड़ा हुआ था। अगर मैं छोड़ देता तो किसी और हाथों में यह पड़ जाता। इसलिए मैंने इसे उठा लिया। कल से मैं इस वॉलेट के ओनर को लोकेट करने में परेशान था।"
उसने एक साँस ली और फिर कहना शुरू किया ," मैंने दूकान पहुंचकर वॉलेट खोला था।  उसमें आपका नाम मिला था।  लेकिन नाम मिलने से ही तो काम बनने वाला नहीं था। वॉलेट  को देखने से लगा था यह  किसी पढ़े - लिखे ब्यक्ति  का  ही हो सकता है। फिर मैंने दूकान का कंप्यूटर ओन किया था।  इंटरनेट कनेक्ट किया।  फसेबूक पर मेरा भी अकाउंट हैं।  मैंने खोला और आपके नाम से सर्च करना शुरू किया। आपका नाम एन आई टी , नागपुर में एक स्टूडेंट के रूप में दिखा था। "
वे कुछ क्षण के लिए रुके थे। मैंने कहा था, "हाँ, मैंने जॉब मिलने के बाद उसे अपडेट नहीं किया है। कल ही तो मैंने यह जॉब ज्वाइन की है।"
उन्होंने फिर कहना शुरू किया, "फिर मैंने एन आई टी, नागपुर के साइट पर जाकर ऑफिस का फोन नंबर जाना, फिर ऑफिस    में फोन किया था। काफी देर के बाद कई बार इन्क्वारी करने पर उन्होंने बताया था कि नितिन का कोयंबटूर में भारत पट्रोलियम से  जॉइनिंग आया था।  कहाँ ज्वाइन किया है कह नहीं सकते। इतना इनफार्मेशन लेते - लेते कल शाम हो गयी थी।  इसीलिये मैंने सुबह आने का तय किया और आज मैं यहाँ हूँ, आपके वॉलेट के साथ।"
उसने हँसते हुए कहा था। मेरी तो आँखों में आंसू आ गए थे। एक आदमी दूसरे के लिए इतनी परेशानी उठा सकता है, मुझे तो विश्वास नहीं हो रहा था। हमलोग अभी जिस सम्वेदनाविहीन दौर से गुजर रहे हैं उसमे मिस्टर रामचंद्रन जैसे लोग एक फरिस्ते की तरह ही हैं। मैंने उनके हाथों को थाम लिया था। मैं उस फरिस्ते को छूकर उसकी गर्माहट को महसूस करना चाहता था। काफी देर तक मैंने उनका हाथ थामे रहा था। 
"मिस्टर तलवारे अब हम चलें।" उनकी आवाज से ही मेरा विचार - क्रम विराम पाया था। मैंने उनके पैर छू लिए थे। वे मरे लिए पिता - तुल्य ही थे। उन्होंने कहा था,"मेरे हाथ और पैरों के स्पर्श करने से कहीं अच्छा होगा अगर आप अपने में दूसरे के लिए थोड़ा स्पेस दें यानि थोड़ा कष्ट उठाने के इस स्पिरिट (जज्बे) को बनाये रखे. "
इतना कहकर वे लाउन्ज से बाहर निकल गए थे। एक फ़रिश्ते के साथ की यह मुलाकात मुझे जिंदगी भर याद रहेगी। 
…।और इस तरह मेरा पर्स फिर मेरे स्पर्श - क्षेत्र में आ गया था। मेरा पर्स (वॉलेट) मुझे मिल गया था जैसे मुझे मेरी देविका फिर मुझे मिल गयी हो …।

   तारीख: 16-09-2014.

   वैशाली, गाजिआबाद, (यू पी)
 भाग1 लिंक: https://youtu.be/lCBuX8qiuUM
भाग2 लिंक: https://youtu.be/V3xzuEtpsv4
भाग3 लिंक: https://youtu.be/xB39HwKyD9I
भाग4 लिंक: https://youtu.be/xB39HwKyD9I
भाग 5 लिंकः https://youtu.be/JyUK8_GfKWo

2 comments:

Lalita Mishra said...

Very ispiring and budding love story of a young engineer. He lost the waalet gifted by his lady love. It was lost by him and lateron it was found by someone else. The whole run of emotions have been very vividly described. Please read it...

soni said...

This is beautiful story of an engineering student falling in love after his academic sessions are over with a village educated girl. Worth reading..

माता हमको वर दे (कविता)

 #BnmRachnaWorld #Durgamakavita #दुर्गामाँकविता माता हमको वर दे   माता हमको वर दे । नयी ऊर्जा से भर दे ।   हम हैं बालक शरण तुम्हारे, हम अ...