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Sunday, March 1, 2015

सिद्धी मामा (कहानी)

#chhanvkasukh :यह कहानी मेरी पुस्तक "छाँव का सुख" में सम्मिलित की गई है.

मेरी लिखी कहानी संग्रह "छांव का सुख" प्रकाशित हो चुकी है. सत्य प्रसंगों पर आधारित जिंदगी के करीब दस्तक देती कहानियों का आनंद लें.अपने मन्तब्य अवश्य दे.
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सिद्धी मामा

     सिद्धी मामा ऐसे इंसान थे, ऐसे इंसान थे, पता नहीं कैसे इंसान थे। लोगों ने उनका इस्तमाल किया और लोग उनका इस्तेमाल कर रहे हैं यह जानते हुए भी वे इस्तेमाल किये जाते रहे। मेरे अपने मामा (मां के सगे भाई नहीं थे) नहीं होते हुए भी  अपने मामा से बढ़कर थे। मामा से मैं पहली बार कब  मिला था, मुझे भी याद नहीं।  लेकिन मुझे इतना याद है कि मामा मैट्रिक तक की पढाई मेरे भैया, जो उम्र में मुझसे पचीस  साल और मामा से दस साल बड़े होंगे, के पास ही रहकर कर रहे थे। भैया उन दिनों गावं के बगल के ही स्कूल में शिक्षक के रूप में अपनी सेवा दे रहे थे।  पढाई में मामा की दिलचस्पी कम तो नहीं लेकिन उतनी अधिक भी नहीं  थी। हमारे नानाजी जी ने  एक तरह से जबरदस्ती ही उन्हें  मेरे यहाँ पढने के लिए भेज दिया था।  वे माँ के बहुत ही लाडले भाई थे।  माँ के एक इशारे पर कोई भी काम करने से पीछे रहने का कोई सवाल ही नहीं उठता था।  उनका लाख काम हर्ज हो जाय लेकिन माँ के एक इशारा मात्र से कुछ भी कर सकते थे, चाहे वह काम खतरनाक हो या उनको खुद भी परीक्षा छोड़ने की जरुरत आ पड़े तो वह भी वे छोड़ सकते थे। हालाँकि इसकी नौबत कभी नहीं आई।  
  वे अगर डरते थे तो दो ही आदमियों से - एक नानाजी से और दूसरे भैया से जो उनके गुरु जी भी थे और नानाजी ने उनके ही कंधे पर सिद्धी मामा की शिक्षा - दीक्षा का भार डाल दिया था। पहली बार मैंने उन्हें सायकिल पर आते हुए देखा था।  उन दिनों सायकिल पर सवारी करना भी उस देहात में एक तरह का स्टेटस सिंबल माना जाता था।  जैसे ही वे  सायकिल से उतरे मैंने उन्हें पैर छूकर प्रणाम किया और उनकी सायकिल को छूकर देखने  लगा। उन्हें लगा कि मैं उनसे अधिक उनके सायकिल में रूचि दिखला रहा हूँ। मामा ने थोड़ा नास्ता - पानी लिया। " बाबू," माँ मुझे बाबू कहती थी, इसलिए  वे मुझे बाबू ही कहने लगे, "आप सायकिल चलाना जानते हो?" 
"मैं अगर नहीं जानता हूँ तो क्या आप मुझे सिखाएंगे?" मैंने संदेहमिश्रित प्रश्न, उनके प्रश्न के जवाब में कहकर सायकिल सीखाने की चुनौती भी उनके सामने रख दी थी।  
"पहले मुझे देखना होगा कि सायकिल सीखने के लिए आपके हाथ - पावँ की हड्डियों में ताकत है या नहीं?"  जवाब में मैंने अपना हाथ उनकी ओर बढ़ा दिया था। "हूँ, हड्डियां तो मजबूत हैं, लेकिन गठीली नहीं हैं। अच्छा, चलिए, सायकिल से मैदान के दस चक्कर लगाएंगे तो उनमें गठीलापन आ ही जाएगा।"
"ये सिद्धिया, देख बाबू को चोट न लगे, जरा ठीक से सिखैहैं। काहे कि तोर कोई भरोसा न हौ।" माँ ने हिदायत देते हुए ये बातें कही थी।
"दीदी, का कहीत हे, हम भला बाबू के चोट लगे देबई।"
हम और मामू चल दिए गावं के पूरब में मिडिल स्कूल के मैदान में सायकिल चलाना सीखने। 
मामू के साथ सायकिल सीखने जाते हुए बहुत अच्छा लग रहा था। फील्ड में पहुंचते ही मामू ने सायकिल थमा दी। "देखो मैदान खाली है, चलाओ सायकिल।"
"मामू, कैसे चलाऊंगा, मुझे चलाने नहीं आती।" मैंने अपनी विवशता जाहिर की।
मामू ने कहा, "मुझे तो किसी ने चलानी नहीं सिखाई थी।"
"मामू?" मेरी आँखों में आग्रह भरा अनुनय - विनय था।
"अच्छा, ठीक है, चलो सीट पर बैठो, सामने देखना और पैडल तक तो तुम्हारा पैर पहुंचता  ही है।  पैडल पर  पैर मारना, सायकिल आगे बढ़ती चली जाएगी।"  उन्होंने मुझे सीट पर बैठाया और पीछे से धक्का दे दिया।  कुछ दूर तो सायकिल आगे लुढ़कती चली गयी। जैसे ही उसकी गति कम हुई मैंने आगे देखते हुए ही पैर मारे।  पहले तो पैर पैडल पर लगे ही नहीं।  मैं सायकिल की स्पीड बिलकुल कम जाने से गिरने ही वाला था कि अचानक पैडल पर पैर जम गया।  मैं आगे देखते हुए पैडल पर  पैर मारे  जा रहा था।  सायकिल आगे बढ़ती जा रही थी।  मैंने  पूरी फील्ड के चार चक्कर लगाये। अब अच्छा लगने  लगा था। नजरें तिरछी करके मैंने चारो ओर नजरें डाली।  सिद्धी मामू कहीं नजर नहीं आ रहे थे।  मुझे  डर लगने लगा था।  मैं सायकिल चलाते हुए ही सोच रहा था, "कैसे इंसान हैं ये महाराज, मुझ नौसिखिये  को  सायकिल पर बैठाकर अपने फुट लिए।  आज मैं माँ से इनकी शिकायत करके इन्हें खूब खरी - खोटी सुनवाऊंगा।" ऐसा सोचते हुए ही मैंने पैडल मारी, तो सायकिल की स्पीड अचानक तेज हो गई।  आगे देखा तो सायकिल तो मैदान से बाहर निकलकर ढलान पर लुढ़कती जा रही थी।  अब मैं क्या करूँ।  मामू ने तो मुझे ब्रेक कहाँ है, कैसे लगाना चाहिए, कुछ बताया ही नहीं।  इतने में सामने एक पत्थर आ  गया।  मैं उससे बचाता- बचता कि  सायकिल पत्थर पर चढ़ गयी।  मैं   ऐसा गिरा  कि सायकिल एक ओर और मैं दूसरी ओर।  लेकिन यह क्या मैं तो उस पथरीली जमीन पर गिरा ही नहेीं। मुझे जब होश आया तो मैंने देखा कि मैं तो सिद्धी मामू की गोद में हूँ। और बगल में  खून के छींटे दीख रहे थे।  मैं अपने शरीर को टटोलते हुए, झाड़ते हुए उठा  तो उसमें कहीं खून लगा हुआ नहीं देखा। 
जब मैं सायकिल के तरफ रुख किया तो देखा कि मामू सायकिल के तरफ बढ़ रहे हैं और जमीन पर खून के छींटे हैं। ओह! यह खून तो मामू की घुट्ठी (एंकल) में बड़ा - सा खरोंच लगने के कारण बह रहा है। "मामू आपके पैर से खून बह रहा है।"
"चुप भांजे, यह खून नहीं है, थोड़ा छिला गया है।"
"चलिए आप बैजू से बैंडेज करवा लीजिये।" बैजू मेरे गावं के झोला - छाप डॉक्टर थे।
"अरे बैंडेज देखेगी तो दीदी और डांटेगी।"
"और घाव हो गया तो क्या डांट नहीं मिलेगी?"
मामू जितनी देर तक मैं सायकिल चलाता रहा, मेरे साथ ही लगातार दौड़ते रहे - ठीक मेरे पीछे - पीछे ताकि अगर मैं गिर जाऊं तो मुझे वे तुरत थाम लें। 
मामू के पैर में पांच टांके लगे। बैंडेज करवाकर घर पहुंचे तो शाम हो रही थी। लेकिन उस धुंधले में भी माँ ने मामू के पैर में बैंडेज देख लिया। अब उसका शुरू हो जाना तो लाजिमी था, "सिद्धी, तू सायकिल सिखावे गेलं हलय, कि अपना पैर घायल करे?"
अब मामू क्या कहते? मुझे ही कहना पड़ा, "मामू हमको बचाने में अपना पैर घायल कर लिए। इन्हें मत डाँटो। मैं हूँ दोषी इसके लिए।"
माँ तो चुप हो गई। लेकिन मामू ने मुझे अवश्य कहा था, "मैंने आपको कुछ भी कहने के लिए मना किया था न। लेकिन आप टुबहुक दिए।"
मामू दुखी हो गए थे। इसलिए नहीं कि उनका पैर घायल हो गया था, बल्कि इसलिए कि मैंने उनकी बात नहीं मानी।

X X X X X

  एक बार मुझे ममहर (मामा के गावं) जाने का मौका मिला। मैं नानी से मिला। पूछा, “सिद्धी मामू कहाँ पर हैं?"
"होगा कहीं गप्प लड़ाते हुए, दोस्तों के साथ। और क्या पढाई कर रहा होगा।"
सिद्धी मामू बड़े हो गए थे। मैट्रिक तो पास हो गए थे, लेकिन आगे की पढाई में उनका मन बिलकुल नहीं लगता था। हालाँकि नाना के दबाव में कॉलेज में एडमिशन करा दिया गया था। परिवार में अन्य बच्चे भी पढाई कर रहे थे, इसलिए नाना उन्हें भी पढने का मौका जरूर देना चाहते थे। मेरी मां के गावं से ‘गया’ शहर ज्यादा दूर नहीं था। सायकिल से आधा घंटा से चालीस मिनट में पंहुचा जा सकता था।
"मैं यहाँ पढाई कर रहा हूँ।"
घर के अंदर से मामा की आवाज आई थी।
मामा के घर के अंदर झाँका देखा। वे सचमुच पढाई कर रहे थे। मैं बड़ी उत्सुकता से घर के अंदर घुसा। मामा और दिन के बारह बजे तक पढाई कर रहे है, ये तो दसवां आश्चर्य हुआ। मैं घर के अंदर चला गया।
 "आओ, आओ, भांजे। दीदी कैसी है?"
"सब ठीक है, आप क्योँ नहीं आये? क्या आप कभी भी नही वहां आएंगे। दीदी ने मुझे इसीलिये यहाँ भेजा है। यही पूछने के लिए कि सिद्धिया आना क्यों बंद कर दिया? क्या हो गया?"
मैंने वहां चारो तरफ नजरें दौड़ाई।  उस्समय के हिन्दी जगत के प्रसिद्ध लेखकों की सारी फिक्सन की किताबें मैंने देखी। एकतरफ प्रेमचंद की “गोदान, गबन, निर्मला" और मोटी वॉल्यूम वाली "रंगभूमि, कर्मभूमि" आदि  किताबें तथा कहानियों की पूरी श्रंखला थी।  दूसरी तरफ अन्य लेखकों जैसे मोहन राकेश, चन्द्रधर शर्मा गुलेरी, जैनेन्द्र, यशपाल, महादेवी वर्मा, जयशंकर प्रसाद, कमलेश्वर आदि की कहानियां और उपन्यास पड़े थे। एकाध - दो किताबें सआदत हसन मंटो और गुलशन नंदा के भी थे। कहीं भी मैंने उस समय के सस्ते लेखकों  जैसे  इब्ने शफी, वेदप्रकाश काम्बोज या कुशवाहा कांत की कृतियाँ नहीं देखी।  मैंने उत्सुकतावश ही प्रेमचंद की कर्मभूमि जो हाथ में उठाई तो आधी किताब हाथ में आ गयी और आधी टेबुल पर ही रह गई। 
"अरे, अरे, उसको मत उठाओ, उसे सटाना है। पढने के बाद साट देंगें।"
मैंने कुछ समझा नहीं। और इसपर आगे चर्चा करना भी उचित नहीं समझा।  
"आज मैं तुझे बताऊंगा कि मैं क्यों नहीं जा पा रहा हूँ।"
"भांजे, उस दिन जो कुछ हुआ उससे मुझे इतनी ग्लानी हो रही है कि वहां दीदी से मिलने की इच्छा रहने पर भी मिलने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा हूँ।"
"क्या हुआ था उस दिन?"
उस दिन २५ जनवरी की शाम थी। हमलोग सभी शाम में स्कूल के ग्राउंड में ही फुट बाल की प्रैक्टिस कर रहे थे।  २७ जनवरी को गया शहर के एक  स्कूल हरिदास सेमिनरी की  सबसे बेहतरीन टीम के साथ फ्रेंडली मैच था।  उस मैच को देखने इस क्षेत्र के एम पी मुख्य अतिथि  के रूप में, और एम एल ए साहब भी शिरकत करने वाले थे। मैच की  प्रक्ट्स जोरों से चल रही थी।  हमलोग प्रैक्टिस के बाद मैदान के पांच चक्कर दौड़ लगाकर थोड़ा सुस्ता रहे थे।  सारे खिलाड़ी चले गए थे।  बस मैं, कृपाल, तृपित, सरोज और अनिरुद्ध रह गए।  दोस्तों के बीच मजाक चल रहा था।  इतने में तृपित ने एक सिगरेट निकाली और उसे सुलगा लिया।  उन दिनों सिगरेट पीना और पिलाना खासकर स्कूल जाने वाले विद्यार्थियों के लिए बहुत  बड़ा अक्षम्य अपराध था।  अनिरुद्ध तो सिगरेट पीता ही नहीं था, सो उसने लेने से साफ़ मना कर दिया। मैं कभी - कभार एक दो फूँक मार लिया करता था। वही एक सिगरेट में कभी कृपाल, कभी सरोज और कभी मैं एक दो फूंक मारकर गप्पें मार रहे थे।"
सिद्धी मामू ने थोड़ी सांस लेकर अंदर आई वेदना को पीते हुए कहना जारी रखा, " हमलोग धीरे - धीरे स्कूल  बिल्डिंग से दूर हॉस्टल के तरफ निकल आये थे।  अचानक किसी ने देखा कि हेडमास्टर साहब  यानि मेरे भैया हॉस्टल के पिछवाड़े से प्रकट हो गए।  तृपित ने कृपाल को, कृपाल ने सरोज को और सरोज ने मेरे हाथों में सिगरेट थमा दी।  मास्टर साहब अब बिलकुल सामने आ गए थे। मैंने हाथ से ही सिगरेट को मसलकर पॉकेट में रख लिया।  मास्टर साहब कह रहे थे, "अच्छा हुआ आपलोग मिल गए।  कल २६ जनवरी को प्रखंड विकास पदाधिकारी और गया से जिला शिक्षा पदाधिकारी आ रहे हैं।  वे झंडोत्तोलन भी  करेंगे।  स्कूल का निरीक्षण भी करेंगे।  एक सांस्कृतिक कार्यक्रम भी रखा गया है। आप लोगों में कृपाल और तृपित स्कूल के बाहर बनने वाले गेट पर रहेंगे।  सिद्धी और सरोज आपलोग मंच की सजावट का भार सम्भालेंगें।"  इतना बात वे कर ही रहे थे की सबों को कुछ कपडे के जलने की गन्ध नाक में घुस रही थी। "कही कुछ जलने की गंध आ रही है.?" मास्साब ने पूछा।  तब तक  तो उनकी नजर मेरे पैंट की पाकेट की तरफ गई जहाँ से धुआं उठ रहा था। "सिद्धी  तुम्हारे पैंट से धुआं कैसे उठ रहा है?" उन्हें समझते देर नहीं लगी। "तो तुम जलती हुयी सिगरेट पैंट के पाकेट में रख लिए थे। कब से सिगरेट पी रहे हो? तुम तो इसतरह घर में भी आग लगा दे सकते हो। घर में अभी जाड़े के दिनों में पुआल पर ही बिछावन डालकर सोते हो। पुआल में तो आसानी से आग लग जाएगी। झुलस कर मरोगे अपने भी और पुरे परिवार को सोती रात में झुलसाकर मार डालोगे। हम नाना को क्या जवाब देंगें? कल अपना बोरिया बिस्तर समेटो और घर चले जाओ।  हम नाना से कुछ नहीं कहेंगे।  अपनी दीदी से भी कुछ मत कहना। " मैं चुपचाप गर्दन झुकाये सब सुनता रहा।  एक ऐसा अपराध जिसके सभी भागीदार थे लेकिन सजा सिर्फ मैं भुगत रहा था।  मैंने किसी का नाम नहीं लिया।  सारा अपराध अपने सर लेकर मैं वहां से घर चला आया।  चूँकि मैं सेंट उप हो चुका था इसलिए मैट्रिक की परीक्षा मैंने यहीं से 'गया' जाकर दी, जहाँ सेंटर पड़ा था। अब तुम्हीं बताओ मैं कौन सा मुंह लेकर फिर दीदी से मिलने जाऊं।"
मामू को मैंने कभी उदास भी नहीं देखा था। लेकिन उस दिन वे रो रहे थे। मैंने उन्हें ढाढस बँधाते हुए कहा था, "मामू माँ को सब मालूम है। सबों ने आपको बुलाया है। आपके दोस्तों ने खासकर। माँ को आपसे कोई शिकायत नहीं है। लेकिन आप नहीं जायेंगे तो बहुत बड़ी शिकायत हो जायगी।"
मैने यह सब झूठ - झूठ ही सही मामू के चेहरे पर मुस्कान लाने के लिए कही थी।
मामू खुश थे कि उनकी दीदी यानि मेरी माँ ने उन्हें माफ़ कर दिया है। अचानक उनको याद आया," अरे, अरे बाबूजी ने गावं के पूरबी किनारे पर के पम्प सेट पर बुलाया था। वहां बोरिंग से गेहूं की पटवन चल रही है। "चल वहां, बाकी बात वहीं जाकर करेंगे।"
उन्होंने प्रेमचंद के कर्मभूमि की आधे फटी वॉल्यूम अपने कोर्स के किताब के साथ और पढाई की रजिस्टर में रखे। हमलोग पम्प - सेट की तरफ चल दिए। तब मुझे पता चला कि मोटी किताब को खण्डों में विभक्त करने का क्या रहस्य है।
वहां केबिन के अंदर एक टेबुल था, जो वहां रहकर भी पढाई करने के लिए नाना ने मामू को लेकर दे दी थी।  उसपर उनकी कोर्स की किताबें रहती थी।  कोर्स की लम्बी रजिस्टरनुमा  कॉपी के बीच कहानी  की किताबें या उपन्यास रखे जाते  थे  ताकि अचानक अगर नाना यानि मामू के पिताजी  आ जायँ तो कोर्स की रजिस्टर देखकर  आश्वस्त हो जायँ कि सिद्धी कोर्स की किताब ही पढ़ रहा है।  लेकिन उन्हें हमेशा ही इस बात का खटका रहता था कि सिद्धिया  दिखा कुछ और रहा है और पढ़ कुछ और रहा है। 
   लेकिन इस बात अंदाजा होना और विस्वास होना मुश्किल होता था की मामू की रूचि इतनी परिस्कृत थी कि वे स्तरीय एवं साहित्यिक किताबें ही पढ़ते थे। उस टेबुल के पीछे एक पुराने दरवाजे का पल्ला रखा था। मामू मुझे वहां कुर्सी पर बैठाकर थोड़ा बाहर निकले थे। वे एकबार घूमकर देख लेना चाहते थे कि पम्प सेट से निकलता हुआ पानी उन्हीं के खेतों में जा रहा है या उससे बगल के दूसरे खेत का पटाना हो गया और उनका खेत खाली ही रह गया। 
एक बार ऐसे ही हुआ था।  मामू प्रेमचंद की 'निर्मला' पढ़ रहे थे।  पम्प चल रहा था।  किसी की  बदमाशी  से या अपने से  ही ऐसा हुआ कि पानी बगल वाले खेत में जाने लगा।  उनका मन उपन्यास में डूबा हुआ था।  इतने में नाना पहुँच गए थे।  उन्होंने देखा कि पानी तो दूसरे के खेत में जा रहा है। आके  केबिन में देखा तो सिद्धी  किताब पढने में डूबा हुआ था।  वह प्रेमचंद की "निर्मला" रजिस्टर के बीच में रखकर पढ़ रहे थे, इसलिए बच गए।  … और नाना हल्की सी ही  डांट देकर रह गए थे। "सिद्धी तुमको देखा नहीं जाता है की पानी दूसरे के खेत में जा रहा है।  हमने ठीक कर दिया है। ठीक है तुम पढाई करो। "
लेकिन उनकी अंतरात्मा ने तो उन्हें जरूर झकझोरा था, "सिद्धी "निर्मला" के चक्कर में तुम्हारे पम्प सेट के पानी से दूसरे का खेत पट रहा है।"
इसलिए  आज जब वे मेरे साथ केबिन में आये थे तो वे  मुझे वहां ठहरा कर पहले देखने चले गए कि पम्प का पानी सही दिशा में उन्हीं के खेत में जा रहा है न।  उनके बाहर निकलते ही मैं पूरे केबिन का मुआयना करने लगा। बैठने की कुर्सी के पीछे एक टूटे हुए दरवाजे का पटरा रखा था। मैंने उत्सुकतावश  उसे दूसरी तरफ पलट दिया।  मेरी तो आँखे खुली - की - खुली रह गई।  मैं वहां देखता हूँ कि सिनेमा का पेपर "स्क्रीन" का पिछले कई सालों का सेट सजाकर रखा हुआ है।  वहीं पर दूसरे तरफ उससमय  पॉकेटबुक टाइप में  अंगरेजी में  एक मैगज़ीन निकलती  थी "पिक्चरपोस्ट", उसकी पिछली कई सालों की प्रतियां सजाकर रखी हुई थी।  मैं तो वाह! कह उठा। क्या टेस्ट था मामू का: एक तरफ हिन्दी की साहित्यिक किताबे जिसमें हिन्दी के तमाम अग्रिम पक्ति के साहित्यकार शामिल थे और दूसरी तरफ फ़िल्मी किताबो और अखबारों की दुनिया थी।
"मालिक, आपको कोई धुंध रहे हैं?" किसी को लेकर खेतों में काम करने वाला मजदूर पम्प  के केबिन के दरवाजे पर खड़ा था। सिद्धी मां ने झट से उसको अंदर खींचकर केबिन बंद कर लिया।  मैं तो पहचान गया। मेरे ही गावं का एक लड़का था वह। "किसी ने देखा तो नहीं।  बाबूजी देख लेंगें तो तुम्हें भी सुनाएंगे, गिणगिणकर और मुझे तो सुनाएंगे ही। " सिद्धी मामू ने पूछा था। 
"नहीं, नहीं, मुझे पहले ही सरोजकुमार जी बता दिए थे , उनके घरपर जाकर मत मिलना। पता लगाकर वे कहाँ हैं वहीं जाकर मिलना। "
"अच्छा बोल?" 
"सिद्धी जी आझे मैच है "बुधगेरे" के रेलवे लाइन के बगल वाला फिल्ड में। तोरा जरूर - से - जरूर आवे ल कहलथुन हे।"
"अच्छा ठीक हउ तू जो, हम कोशिश करबौ। । जल्दी से यहाँ से फुट। अब बाबूजी आ गेलथुन तब सब काम गड़बड़ा जइतो ..."  
       सिद्धी मामा को जितना फूटबाल खेलने से जूनून की हद तक  लगाव था नानाजी को उससे उतनी ही नफतरत थी।  उनकी दृष्टी में खेल - कूद बस समय बर्बाद करना है।  जो लडके यह समय बर्बाद करेंगे उनको जिंदगी भर पछताना पड़ेगा। लेकिन सिद्धी मामू को अगर कहीं से खेलने का निमंत्रण आया तो कोई - न - कोई  घर में बहाना बनाकर  खेलने के लिए मैदान में पहुँच ही जाते थे। वे  फुलबैक के पोजीशन से खेलते थे।  वे अक्सर हमारे गावं की तरफ से ही खेलते थे।  अगर वे डट गए तो मजाल है कि गेंद गोलकीपर  के तरफ  आ भी जाय।  इसतरह उनके खेलने से हमारे गावं का पलड़ा हमेशा भारी रहता था।
सिद्धी मामू मन - ही - मन सोच रहे थे कि आज बाबूजी (मेरे नानाजी) से क्या बहाना बनाया जाये। अभी तक इतने बहाने बना  चुके थे कि बहानों का स्टॉक भी खत्म हो गया था।  नए बहाने के लिए कुछ नए तरह से सोचना होगा। बाबूजी के चश्में का एक ग्लास दरक गया था।  उसी को बदल करके लाने का प्लान मामू ने सोच लिया।  घर पर पहुंचते ही नानाजी ने उनसे पूछा, "सिद्धी कोई तुमको खोज रहा था।  फिर कोई फूटबाल खेलने का निमंत्रण लेकर नहीं आया था न?"
"नहीं, बाबूजी फ़ुटबाल खेलना तो हम छोड़ ही दिए हैं (आपके कहने पर, ऐसा उन्होंने कहा नहीं , सिर्फ सोचा)" थोड़े विराम के साथ वे बोले ," बाबूजी, सोच रहे थे कि आपके चश्मे का  गिलास जो टूट गया, उसे बनवा देते। और वो जो मुझे खोजने आया था, उसे मुझे एक दोस्त ने भेजा  था।  हमलोगो का आई ऐ का  फॉर्म   भराना शुरू हो गया है। कल ही लास्ट डेट है। तो उसके लिए भी आज ही 'गया' जाना होगा। "
वे प्रश्नवाचक मुद्रा में नानाजी के सामने खड़े हो गए थे,
 "जाओ जल्दी देख क्या रहे हो? पैसा माँ से मांग लेना।"
सिद्धी मामू को तो मन की मुराद मिल गई। जल्दी - जल्दी किसीतरह खाना ख़त्म किया। कपड़ा - उपडा समेटा, बाबूजी का चश्मा लिया, साईकिल उठाई, चल दिए फूटबाल मैच के मैदान की ओर....
  वहां मैदान में दोनों टीमें फूटबाल ग्राउंड पर आ चुकी  थी।  मेरे गावं की टीम में, जिस ओर से सिद्धी मामू खेलने वाले थे मायूसी का वातावरण छाया हुआ था क्योंकि उससमय तक सिद्धी जी का कहीं पता नहीं था।  यह सेमीफइनल मैच था।  इसे जीतना जरूरी था।  सब लोग बार - बार उस रास्ते की तरफ देख रहे थे जिस तरफ से सिद्धी जी आने वाले थे।  इतने में सिद्धी जी साईकिल से आते हुए दिखाई दिए। किसी ने कहा सिद्धी जी आ गए। टीमके कप्तान को खबर कर दी गई।  उसने आयोजक से बात की।  रेफरी से कहकर मैच को शुरू करने में थोड़ा विलम्ब करने की इजाजत ली गई।  विपक्षी टीम ने इसपर आपत्ति जताई।  लेकिन यह आपत्ति अस्वीकार कर दी गई।  सिद्धी जी के  पहुँचने पर वैसा ही लगा जैसे हनुमान जी संजीवनी बूटी लेकर लंका पहुँच गए हो, मूर्छित लक्ष्मण को जीवन दान देने
"…आइ गए हनुमान, जिमि करुणा मँह वीररस।"
मैच हुआ … जमकर  सिद्धी मामू खेले … और मेरे गावं की टीम ने दो गोलों से मैच जीत लिया। यह सब सिद्धी मामू की बदौलत ही हुआ। मैच के ख़त्म होने पर सिद्धी मामू को लोग धन्यवाद देने के लिए खोज ही रहे थे कि सिद्धी मामू कहीं नजर नहीं आये।  किसी ने कहा वे तो सायकिल से गया के रास्ते पर जाते हुए मिले। उन्हें निकलना जरूरी था नहीं तो गया में डॉ तिवारी का क्लीनिक बंद हो जाता और बाबूजी का चश्मा नहीं बनवाने पर सारी पोल खुल जाती। इसीलिये बिना किसी से मिले और कृतज्ञता ग्रहण किये सिद्धी मामू निकल लिए।  लेकिन लोग तो कह रहे थे आदमी सिद्धी जी जैसा निःस्वार्थ नहीं हो सकता जिन्होंने धन्यवाद ग्रहण करने का भी समय नहीं लिया और न धन्यवाद देने वालों को ही समय दिया।
X X X X X     
एक बार त्रिबेनी मामा को डिहरी - ओन - सोन, जो गया से ढाई या तीन घंटे रेल की यात्रा के पड़ाव पर पड़ता था, जाना था। उन्होंने सिद्धी मामा से पूछा, "सिद्धी तोरा फुर्सत हो, चलमें हमारा साथे। एक दिन में लौट आवे ल हे।"
"हाँ, भैया चल न, तोर काम से बड़ा कौन काम होतई।" सिद्धी मामू ने तुरत सकारात्मक उत्तर दिया। 
"अरे, चाचा यानि तोर बाबूजी बिगड़तेथुन, नै न।"
"भैया के बात, हम सम्हाल लेबै न। और ज्यादा बिगड़तां तब तू सम्हाल लिह।"
दोनों चल दिए गया से डिहरी -ओन- सोन के लिए।  जाने के समय तो त्रिबेनी मामा ने दोनों के लिए टिकट कटा लिया।  "सिद्धी ले अपना टिकट।"
“भैया, अपने काहे ल कष्ट किये। हम कटा देतीय हल न।"
"अच्छा, ठीक है, लौटती बार तुही कटाना।"
डिहरी में जो काम था उसे पूरा करते - करते दिन भर लग गया। शाम की लोकल से दोनों को लौटना था। त्रिबेनी मामा ने सिद्धी मामा को टिकट कटाने के पैसे दिए।  सिद्धी मामा टिकट कटा कर एक टिकट त्रिबेनी मामा को थमा दिए। "तुहु अपना लगी टिकट ले लेला हा न, सिद्धी.?"
"अपने काहे ल चिंता करीत ही। चलिए ट्रैन लग गेलै हे। तोरा बढ़िया सीट देख के बैठा दे हिअ।" 
त्रिबेनी मामा को एक बढ़िया सा खिड़की वाला सीट पर बैठा दिए।
"तू, यहीं पर बइठ, हम आवित हिओ।"
"देख, सिद्धी जल्दी आ जैहै।"
तबतक ट्रेन खुल चुकी थी। यह एक लोकल पैसेंजर ट्रेन थी। ट्रेन एक - दो स्टेशन पार कर चुकी तबतक भी सिद्धी का पता नहीं था। टिकट चेकर बाबू आये सबका टिकट चेक कर आगे बढ़ गए। अब त्रिबेनी मामा परेशान। सिद्धिया के कहीं पता नहीं है। जब तीसरा स्टेशन पार कर गया, तब सिद्धी मामा दिखाई दिए। 
"सिद्धी कहाँ चले गए थे? तुम हमको बदनाम करके रहोगे।"
गया का आदमी जब गुस्सा में होता है तब मगही से खड़ी बोली यानि शुद्ध हिन्दी बोलने लगता है।
"भैया, तू काहे ल परेशान होइत ह, हम हिएँ पर न हिए।"
"नहीं, नहीं तुम हिएँ बैठो।"
सिद्धी मामू को तो जैसे जेल हो गई।
"भैया टिटिया, चल गेलै न।"
"तू टिटिया से काहे ल परेशान होइत हैं, टिकट हो न, हम तो टिकट के पैसा तोरा देलिओ हल।"
“हाँ, भैया, तू परेशान मत होअ."
"लेकिन तू यहीं पर बैठो।"
"अच्छा ठीक हव।"
सिद्धी मामू वहीं पर बैठ तो गए। लेकिन बार - बार उठकर वे बोगी के दरवाजे के तरफ झांकते और फिर आकर बैठ जाते। ट्रेन गया स्टेशन पहुँचाने वाला ही था।  गया जंक्शन पर ट्रेन पहुँचने के पहले थोड़ी - सी धीमी होती है, आउटर सिग्नल के पास। कभी - कभी तो प्लेटफार्म खाली नहीं होने पर रुक भी जाती है।  आज ट्रैन वहां पर धीमी हुई - सी लगी। 
"भैया, हम तुरत आवित हिओ।"
कहकर सिद्धी मामू वहाँ से उठकर दरवाजे के तरफ बढे। त्रिबेनी मामा बस इतना ही देखे। फिर ट्रेन धीरे - धीरे गया जंक्शन प्लेटफार्म पर लग गई। त्रिबेनी मामा स्टेशन पर उत्तर गए। सोचे सिद्धी टॉयलेट गया होगा। अब उतरेगा। जब बहुत देर तक नहीं उतरे, तब मामा खुद टॉयलेट में देखने गए। वहां तो सिद्धी है ही नहीं। अब क्या होगा? पता नहीं आउटर गुमटी आने के समय दरवाजे की ओर गया था। गिर गया क्या? गिर जायेगा तो कहीं ट्रेन के नीचे तो नहेीं आ गया। अनेक तरह की आशंकाएं उन्हें घेरने लगीं। अब क्या होगा? हम चाचा को क्या जवाब देंगे?  एक ही परिवार की बात है। कहीं चाचा यह न समझ लें कि यह मेरा ही षड्यंत्र था। मैंने ही उसे ट्रेन से धकेल दिया? यह तो अनर्थ हो जाएगा। वे अपने को कोसने लगे। पता नहीं किस मुहूर्त में मैंने सिद्धी को अपने साथ चलने के लिए कहा था। सारे दुष्परिणामों की जड़ मै ही हूँ। मैं परिवार का बड़ा सदस्य हूँ। क्या बड़े हने की यही जिम्मेवारी निभाई मैंने? एक छोटे भाई को अपने साथ ले गया और जिस कारण से भी हो, वह दुर्घटनाग्रस्त हो गया तो जिम्मेवार कौन होगा? साथ ले जानेवाला ही न। त्रिबेनी मामा अपने को कोसते हुए काफी देर तक स्टेशन पर बैठे रहे। फिर एक हारे हुए जुआरी या एक ऐसे वैष्णव, जिसे धोखे से मांस खिलाकर मदिरापान करा दिया हो, की तरह लुटे - पिटे चेहरे लेकर अपने डेरा की ओर चले।
उन दिनों मेरे ममहर के कॉलेज में पढने वाले सारे लडके गया के 'दुःखहरणी माई के फाटक' से थोड़ी दूर पर रैन - बसेरा  नामक डेरे में रहते थे। वहीं मेरे बड़े मामा के बड़े लड़के महेश भैया भी रहते थे।  वे उम्र में सिद्धी मामा से थोड़े बड़े ही होंगे। त्रिबेनी मामा डेरा पर रिक्शा से उतरते ही महेश भैया  से रोते हुए कहने लगे, "देख ना महेश, सिद्धिया कहीं डेल्हा पर वाला गुमटी के पास गिर गया, क्या हुआ पता नहीं, स्टेशन पर उतरा ही नहीं।  अब हम चाचा को क्या मुंह दिखाएंगे ?"
महेश भैया थोड़े सोचे फिर बोले, "चाचा, तू काहे ल चिंता करीत ह, देख थोड़े देर में उ आउत होतो। तू फ्रेश होक खाना खा। रात बहुत हो गेलो हे।"
"महेश, का तू बोलै हे, हमारा खाना ढुकतौ?" कहकर त्रिवेणी मामू रोने लगे।
तबतक सिद्धी मामू एक फ़िल्मी धुन गुनगुनाते हुए डेरा में घुसे। 
महेश भैया बोले, "देख सिद्धिया आ गेलो न, तू बेकारे परेशान हो रहल हल." 
त्रिवेणी मामा तैश में थे। वे तैश में होते थे तो खड़ी हिन्दी बोलने लगते थे, "सिद्धी तुम कहाँ रह गए थे? हमको बदनाम करके छोड़ दोगे। चाचा क्या कहेंगे? सिद्धी के बिगाड़े में हम भी लगे हुए हैं। ऐसे ही तुम्हारा नाम बदनाम है।"
सिद्धी मामा बिलकुल शांत स्थितप्रज्ञ की तरह बोले. "भैया तू बेकार परेशान हो रहला हल। हम तो आवते हलि न।"
महेश भैया बोले, "देख चाचा हम तो तोरा शांत रहे कहलियो हल। एकरा का होतो। इ तो केतना के चरा देतो।"
"ऐ महेश, देखो ज्यादा लट- पट मत बोलो।"
सिद्धी मामू महेश भैया को अकेले कोने में ले गए, "अरे हम गुमटी के पास ट्रेन धीमा हुआ तब उत्तर गए थे।"
महेश, "टिकट नहीं कटाये थे न।"
सिद्धी मामू हँसने लगे। महेश भैया बोले, "टिकट का पैसा बचाकर सिगरेट पिए होगे।"
"भैया से मत कहना। महेश तुमको हम्मर किरिया।"
"अच्छा, ठीक है। लेकिन एक शर्त है। आज से तुम सिगरेट नहीं पीओगे।"
सिद्धी मामू बड़े सोच में पड़ गए। महेश भैया फिर पूछे, "जल्दी बोलो।"
"जाओ ठीक है आज से कसम खाते हैं कभी सिगरेट नहीं पीयेंगे। जाओ तुम्हारे नाम पर आज से सिगरेट पीना छोड़ रहे हैं।"
और उसके बाद सिद्धी मामू ने सिगरेट कभी मुंह से नहीं लगाई। उन्हें अपनी अनन्यप्रिया, दुःख और दर्द में साथ देनेवाली प्रेयसी सिगरेट से बिछुड़ने का कितना गम था उसे तो उन्होंने ही महसूस किया होगा। उन्होंने अपने पैंट की पॉकेट से सिगरेट की ताजी खरीदी गई डिबिया को टॉयलेट के क्लोसेट में खुद डालकर फ्लश चला दिया। 


4 comments:

Marmagya - know the inner self said...

This is humorous story with a beautiful touch of emotions...

Marmagya - know the inner self said...

This is humorous story with a beautiful touch of emotions...

Lalita Mishra said...

This story has been written with a soft touch of emotions with humour. Worth reading...

Lalita Mishra said...

This is humorous story seems close to reality. I felt amused by reading this story.

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