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Sunday, March 5, 2017

अभिसार के क्षणों को यादों में पिरो लें (कविता)

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अभिसार के क्षणों को यादों में पिरो लें

उत्कंठित मनसे, उद्वेलित तन से,
उर्जा के प्रबलतम आवेग के क्षण से,
बांध को सुदृढ कर, पसरती जलराशि के
अपार विस्तार पर पतवार के नर्तन से।
यौवन से जीवन का अविचारित यात्री बन,
अंतर में टूटते तटबंध  को टटोंलें।
अभिसार के क्षणों को यादों में पिरो लें।

यहाँ प्रेम ज्वर नहीं जीवन का पर्याय है।
खोजता है याचक बन बिखरने का उपाय है।
समर्पण में स्नेह का विस्तार अगर होता है, 
क्या प्रेम बरसाकर तन होता निरुपाय है?
संचयन में नहीं, अभिसिंचन में अमृत कलश
उड़ेलकर देखे, विस्तार को समों लें।
अभिसार के क्षणों को यादों में पिरो लें।

देह, तरंग - सी विचरती अथाह में।
त्वचा और रोम - रोम सूंघते है प्रणय - जल।
लहरे  कहीं उठती है और कहीं गिरती हैं।
थाह - सी लेती हुई,  खोजती हैं अतल  तल।
आँखों क़ी तराई में डूबने दो आँखों को,
सांसों में सांसों को मिलाकर भींगो लें।
अभिसार के क्षणों को यादों में पिरो  लें।

चाँद भी देता है लहरों को नेह निमंत्रण,
चांदनी लुटाती है सम्पूर्ण अपना यौवन।
है डूबकर ही जाना, जाना है डूबकर ही,
अस्तित्व को मिटाकर होता है पूर्ण जीवन।
दिल जहाँ मिलता है शून्य से साकार में
अनन्त राग के उद्रेक को, धडकनों में घोलें।

अभिसार के क्षणों को यादों में पिरो लें।

नींद नहीं है आती, गिन गिन कर तारों को
करवटें बदलकर सोयें, फैला धरा का आँचल।
मलयानिल भी हो चला शांत, बहो धीरे - धीरे,
प्रकृति नटी के पैरों की शिथिल हो चली पायल।
निमिष अरण्य के नयन - निलय - निधि में
पलकों को कर बंद, रस - कलश टटोलें।
अभिसार के क्षणों को यादों में पिरो लें।

यौवन का भार वहन करता है नारि - तन,
पुरुष तो खेल समझ खेलता ही जाता है।
क्यों नारी के हिस्से में है सिर्फ समर्पण ही?
प्रकृति का ये चक्र कभी समझ नहीं आता है।
इन सवालों के घेरे से मुक्त रहें हम दोनों,
आलिंगन करें, छा जाएँ, ओष्ठ - रस निचोड़ें।।
अभिसार के क्षणों को यादों में पिरो लें।

©ब्रजेन्द्र नाथ मिश्र
--तिथि: 05-03-2017

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