Followers

Monday, May 15, 2017

छाँव के सुखभोग कहाँ? (कविता)

#BnmRachnaWorld
#poemonstruggle



यह कविता मैंने अपने संघर्ष के दिनों में शायद २००१ से २००८ के बीच लिखी थी | उन दिनों मैं आर्थिक और मानसिक दृष्टि से काफी ब्यथित था |
जब इस फेज़ को मैं पार गया तब मैंने कविता लिखी थी, "छाँव के सुख भोग पथिक" जो इसी ब्लॉग में, अन्य वेबसाइट पर और मेरी  लिखी कहानी  संग्रह "छाँव का सुख" में भी प्रकाशित हो चुकी है |
#BnmRachnaWorld
#poems#motivational


छाँव के सुखभोग कहाँ


धूप से छाले सहे पर,
छाँव के सुखभोग कहाँ?

कल्पनाओं के क्षितिज पर,
जो सपन मैं बुन सका था।
नयन निलय के नर्तन में
हरीतिमा को चुन सका था।

वे सपन सब खो गए,
प्रकृति के भीषण प्रलय में।
विमूढ़ सा देखा किया,
विस्फोटों के वह्नि - वलय मे।

पथ पर सूर्य - किरणें,
तपिश - सी दे रही,
पाँव के छालों को
आराम का संयोग कहाँ?
धूप से छाले सहे पर
छाँव के सुखभोग कहाँ?

वेदना के शीर्ष पर
सब भाव पिघलते जा रहे।
आशाओं की आस में,
सब अर्थ धुलते जा रहे।

पोर - पोर पीर से
भर उठा है, क्या कहूं?
दर्द के द्वार पर,
उदगार रीते जा रहे।

छीजती इस जिंदगी को,
हँस - हँस कर जी सकूँ,
कोई कोई कर सके तो करे,
मेरे बस में ये प्रयोग कहाँ?
धूप से छाले सहे पर
छाँव के सुखभोग कहाँ?

दलदल भरी कछार में,
दरार होती नहीं।
बह गए वृक्षों पर,
कभी बहार होती नहीं।

चिड़ियों की चहचहाहट
अब यादों  में बसती है।
जड़ से जो उखड़ गए,
उनमें संवार होती नहीं।

जो खो चुके सबकुछ
इस सफर में उस सफर में।
उन्हें और कुछ भी
खोने का वियोग कहाँ?
धूप से छाले सहे पर
छाँव के सुखभोग कहाँ?

(वह्नि-आग)
©ब्रजेन्द्र नाथ मिश्र
जमशेदपुर,
दिनांक: 10-05-2017

नोट: मेरी हाल में लिखी यह कविता ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-79,  आयोजन अवधि 12-13 मई  2017 में स्थान पाई है। Open Books Online प्रसिद्ध साहित्य सेवियों और अनुरागियों की एक वेबसाइट है, जो हर महीने कविता, छंद और लघुकथाओं का आयोजन करता है। इसबार। "छाँव/छाया" शब्द को केंद्रीय भाव बनाकर कविता लिखनी थी। मैंने "छाँव"  को ध्यान में रखकर  कविता लिखी है ।






No comments:

माता हमको वर दे (कविता)

 #BnmRachnaWorld #Durgamakavita #दुर्गामाँकविता माता हमको वर दे   माता हमको वर दे । नयी ऊर्जा से भर दे ।   हम हैं बालक शरण तुम्हारे, हम अ...