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Monday, May 29, 2017

वो संवरा करें (कविता)

#nazm#poems_bnm

वो संवरा करें
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कहीं नहीं जाया जाए अपना उदास चेहरा लिए
छाँव ऐसी खोजें, जहां न हो कोई पहरा किये।

पुकार लेना, जब डूबती हो नाव किनारे से दूर
कोई साहिल तो मिलेगा जब जब बिखरा किये।

वो डोलती, झूमती आती है, यादों का बादल बनकर
उतरती हैं,  गहरे और गहरे, कहीं बसेरा किये ।

वो पर्वत - पर्वत नाचती है, चाँदनी  बनकर,
मैं निहारता ही रहूं,  वो  बस संवरा करें ।


वो नहीं, तो मैं नहीं, मैं नहीं तो वो कहीं भी नहीं,
ये कैसे अनजाने रास्ते है, जहाँ पहुंचे यूँ चलते हुए।

मैं शब्द ब्रह्म का साधक, वो मेरी सतत साधना
कविता - धारा बन बहती हैं, छल छल करते हुए।

-ब्रजेन्द्र नाथ मिश्र
-- जमशेदपुर

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