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Sunday, July 2, 2017

भारतीय संस्कृति के केंद्र विंदु हैं 'राम' (लेख)

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भारतीय संस्कृति के केंद्र विंदु हैं 'राम'
इस विषय पर ता: 01-07-2017 को सिंहभूम हिंदी साहित्य सम्मेलन के तत्वाधान में उपर्युक्त विषय पर श्री नर्मदेश्वर पांडेय जी की अध्यक्षता और श्री अशोक पाठक 'स्नेही' जी के संयोजन में एक साहित्यिक परिचर्या का आयोजन तुलसी भवन में हुआ, जिसमें जमशेदपुर शहर के गण्यमान्य साहित्यकारों जैसे श्रीराम पांडेय 'भार्गव', श्री यमुना तिवारी 'ब्याथित', श्री कहैयालाल अग्रवाल, श्रीमती माधुरी, श्रीमती वीना, श्री शैलजी, श्री सुमनजी, श्री ग़ाज़ीपुरी जी, श्री तोमर जी, श्री बरुन प्रभातजी के साथ मैंने भी भाग लिया। उससमय निर्धारित समय पांच मिनट में उपरोक्त विषय पर मैंने जिस रचना का पाठ किया वह इसप्रकार है:


भारतीय संस्कृति के केंद्र विंदु हैं "राम".
राम भारतीय संस्कृति के रोम-रोम में बसे हैं। उनका चरित्र पौराणिक गाथा नहीं है, बल्कि पौराणिक से आधुनिक के बीच का पुल है। आज  हमारे अंदर, समाज और राष्ट्र के अंदर जो कुछ भी  उदात्त, आदर्श और मर्यादित है, उसके केंद्र में राम ही स्थित हैं। परिवार में भाई और भाई के बीच, पिता -पुत्र के बीच, माँ -बेटे के बीच, देवर-भाभी के बीच, ससुर-दामाद के बीच, सास-दामाद के बीच, समधियों के बीच या परिवार के अंदर और भी जितने तरह के रिश्ते आपको दिखाई पड़ते है, राम उसे हर जगह संस्कारित करते हुए दिखाई पड़ते है।
हारत खेल जितावै मोही
राम अपने भाइयों के साथ जब बचपन में खेल खेलते हैं, तो जानबूझकर अपने छोटे भाइयों को  जीत दिला देते है, खुद हारकर। यह एक महान नेतृत्व के उभरने की दिशा का संकेत देता है। बचपन से प्रजा का चाहने वाला बनकर उसके हृदय में जगह बना लेना, अपने सुकोमल व्यवहार से अपनी विमाताओ  के भी हृदय को जीत लेना, अपने गुरु के प्रति पूर्ण निष्ठा, और अपने पिता की आंखों का तारा बन जाना कोई अनायास नहीं होता है। राम खुद को मर्यादा और संयम की कसौटी पर कसते रहते है। तभी तो राजा दशरथ को राम और लक्ष्मण को विस्वामित्र को सौंपने में, और वह भी राक्षसों से यज्ञ की रक्षा करने के लिए, बहुत कष्ट होता है।
यहां से राम का भारतीय संस्कृति, जो राक्षसों के द्वारा निरंतर प्रताड़ित की जा रही थी, की रक्षा के वृहत उत्तरदायित्व के रोल में प्रवेश होता है।
जहां वे ताड़का, सुबाहु, मारीच से निपटने में अपनी क्षमता दिखाते हैं, वहीं अहिल्या उद्धार के द्वारा स्त्रियों के प्रति अपनी संवेदना को प्रकट करते हैं।
सीता से पुष्पवाटिका में मिलन का प्रसंग मर्यादित प्रेम और शृंगार का जीवंत उदाहरण है, " गिरा अनयन नयन बिनु वाणी,"
धनुष यज्ञ में पिनाक के भंजन के बाद सीता का वरण, परसुराम से मुलाकात में स्थितियों को सूझबूझ से सम्हालने की क्षमता का परिचय और विस्वामित्र और वशिष्ट जैसे युगपुरुषों के प्रति सम्मान उनके चरित्र को ऊंचाइयों तक ले जाता है।
मंथरा के षड्यंत्र से विपरीत परिस्थितियों में अपने संतुलन कायम रखते हुए वन गमन को  गुह और उसके समाज से मिलकर  संगठनात्मक  अवसर के रूप में बदल देना कोई राम से ही सीख सकता है। वन में वे अश्थि समूह को देखकर आर्य भूमि की संस्कृति का आततायियों द्वारा क्रमिक कुठाराघात के विरुद्ध  सिंहनाद करते हुए घोषणा करते हैं, "निशिचरहीन करौं महि, भुज उठाई पैन कीन्ह" शायद पूरी  लीलायात्रा में राम यहीं पर अपनी मनसा ब्यक्त करते हैं, अन्यथा अन्य सारे स्थलों पर कोई भी निर्णय वह दूसरों पर छोड़ते हैं।
समूह में हर कोई अपने विचार देता है, और राम उन सारे विचारों को उचित स्थान देते हुए, निर्णय लेते हैं। यह उनके नेतृत्व की खूबी है। उच्छृंखल चरित्रहीन स्त्री के नाक कान काटने में संकोच नहीं करते है, वहीं सबरी जैसी तपस्विनी से मिलकर उसे सम्मान के उच्च धरातल पर प्रतिष्ठित करते हैं। समाज को समरस बनाने का इससे बेहतर उदाहरण अन्यत्र दुर्लभ है।
जो स्त्री को सम्मान नहीं देता उसका बध करने से वे नही हिचकते, चाहे वह बाली जैसा बलसाली ही क्यों न हो।
अनुज बधू भगिनी सूत नारी।
सुनु सठ कन्या सम ये चारी।।
इन्हीं कुदृष्टि बिलोकत जोई।
ताहि बधे कछु पाप न होई।।
 रावण के प्रति उनके मन में कोई द्वेष नहीं हैं। लेकिन समाज में रावणत्व की प्रवृत्ति का समूल नाश करने से उन्हें कोई भी नही डिगा सका।
वे अपनो लीला यात्रा में अगर सीता हरण के बाद प्राकृत प्राणी की तरह विलाप करते दिखते हैं,  तो कहीं लक्ष्मण  के शक्तिवाण लगने पर सुधबुध खो बैठते हैं। कभी भक्त के  प्रति भक्तवत्सलता दिखाते हैं, तो  राक्षसों का वध करने से नहीं हिचकते।
भक्त हनुमान के प्रति उनकी प्रीति अगाध है शायद समुद्र की गहराई भी कम पड़ जाय।  केवट के प्रेम लपेटे अटपटे वचनों को सुनकर विहँस उठते हैं।
राम के चरित्र की जितनी भी ब्यख्या की जाय वह विशद कभी नहीं  होती, बस उनके विशाल समुद्र से कुछ मोती चुनने जैसा ही है। इसीलिए राम भारतीय संस्कृति के केंद्र में स्थित है, घुले मिले हुए हैं।
राम के आदर्शों पर चलकर आज भी भारतीय संस्कृति के उत्स को संचयित किया जा सकता है। इसकी बहुत जरूरत है, और इसलिए राम आज भी उतने ही प्रासंगिक है, और हर युग में वे रहेंगें।


1 comment:

Lalita Mishra said...

Bhagvaan ram par ek sundar Leah, awashy pathneey!

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