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Thursday, November 2, 2017

उजाला दे दूंगी (लघुकथा)


#shortstory#social
#BnmRachnaWorld

नोट: मेरी हाल में लिखी यह लघुकथा "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-30, आयोजन अवधि 29-30 सितम्बर   2017 में स्थान पाई है। Open Books Online प्रसिद्ध साहित्य सेवियों और अनुरागियों की एक वेबसाइट है, जो हर महीने कविता, छंद और लघुकथाओं का आयोजन करता है। इसबार "उजाला" शब्द को केंद्रीय भाव बनाकर लघुकथा लिखनी थी। मैंने "उजाला दे दूंगी"  शीर्षक से यह लघुकथा लिखी  है ।


उजाला दे दूंगी 

"माँ, आज साहब के बंगले में इतनी भीड़  क्यों है?" रोहित बाबु के बंगले के आउट हाउस में अपनी माँ के साथ रहने वाली छोटी  बच्ची रानी ने अपनी माँ अहिल्या से पूछा था।
अहिल्या जानती थी कि साहब के यहां नवरात्र में दुर्गा जी की पूजा होती है। आज उसी की पूर्णाहुति पर कुंवारी कन्याओं को भोजन कराया जाता है। उसके बाद दक्षिणा के रूप में उपहार भी दिया जता है।
"वहां माँ दुर्गा जी की पूजा हो रही है।"
"उससे क्या होता है?"
"उससे दुर्गा जी सद्बुद्धि देती हैं। और सद्बुद्धि से जीवन में उजाला आ जाता है। उसके प्रकाश में जीवन जीने से कोई भय नहीं होता है।"
"माँ, हम भी दुर्गा जी की पूजा क्यों नहीं करते?"
"करती हूं न। जहां दुर्गा जी की पूजा होती है, वहां की सफाई तो मैं ही रोज करती हूं। हमारी यही पूजा है।"
"तो फिर कन्या को बुलाकर खिला भी देंगे और दक्षिणा भी देंगें।"
"मैं तो रोज खिलाती हुँ कन्या को।"
"मैने तो किसी को आते हुये नहीं देखा।"
"तुम जो मेरी कन्या हो।"
"तुम दक्षिणा क्या दोगी?"
"मैं दुर्गा जी के पूजा स्थल की सफाई करते हुए पूजा भी करती रहती हूँ| वहाँ से .... "
"हां, तो वहां से दक्षिणा लायेगी क्या?
"हां, वहीं से सद्बुद्धि का उजाला लेकर तुम्हें उसमें से थोड़ा  सा उजाला दे दूंगी।"
"तुम्हारी यही बात मेरी समझ में नही आती।"
अहिल्या अपनी रानी को गले लगा लेती है।


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