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सदी का अट्ठारहवाँ साल !
इस सदी का अट्ठारहवाँ साल है।
उमंग है, उल्लास है,
छाया मधुमास है।
मधुर – रस सिंचित,
यहां हर सांस है।
प्रकृति रस घोल रही,
घूंघट – पट खोल रही।
रंग – बिरंगी फूलों से,
भरा हुआ थाल है।
इस सदी का अट्ठारहवाँ साल है.
सूर्य की किरणें भी,
ठंढ को शोध रहीं।
पथ को आलोकित कर,
जीवन को बोध रही।
कुहेलिका के पार भी,
खुला नव संसार भी,
नृत्य कर रहा है,
मचा रहा धमाल है।
इस सदी का अट्ठारहवाँ साल है।
अंग – अंग में अनंग,
बज रहा जलतरंग।
निहारती घटाओं से,
ढूढती पिया का संग।
रस – रस बरस रहा,
अभ्यंतर भींग रहा।
शब्द – शब्द टांक दिए,
बिछा हुआ रुमाल है।
अट्ठारहवाँ साल है।
चंचल चितवन, नयन खंजन,
रमण करता, मानव- मन।
मस्ती लुटाती, मुस्कुराती,
सकुचाती, संवारती यौवन – धन।
दर्पण निहारती,
इतराती, बलखाती,
नव-पल्लवित लता – सी,
डोलती – सी चाल है।
अट्ठारहवाँ साल है।
श्रृंगार रस के पार भी,
जो विवश विस्तार है।
जहां भय है, भूख है,
जी रहा जीवन, एक लाचार है।
जीना मजबूरी है,
फिर मौत से क्यों दूरी है?
चारो ओर बिखरा, सुलगता सवाल है.
इस सदी का अट्ठारहवाँ साल है।
शीर्ष पर जो स्थित हैं,
विवादों से ग्रसित हैं।
संसद में हलचल है,
जनमार्ग ब्यथित है।
कौन कितना बेशरम,
कितना चुराया धन?
इसी पर मचा हुआ,
शोर और बवाल है।
इस सदी का अट्ठारहवाँ साल है।
क्यों मनुष्य मानवता का,
बन बैठा ब्यापारी है?
क्या पशुता का पहनना ताज़,
मनुजता की लाचारी है?
धारा प्रवाह रुक रहा,
अवसर है चुक रहा।
किनारे को घेरकर
फैलता शैवाल है।
इस सदी का अट्ठारहवाँ साल है।
मन- विहंगम गगन – पथ में,
खोजता संसार है।
हो नहीं नफ़रत जहां पर,
प्यार ही बस प्यार है।
सहज, सुलभ, विश्वास है,
सहकार है, उजास है।
ईर्ष्या, मद, मोह, मत्सर
का नहीं मकड़-जाल है।
इस सदी का अट्ठारहवाँ साल है।
***
–ब्रजेंद्र नाथ मिश्र
जमशेदपुर|
तिथि: 28-12-2015
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