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Saturday, November 15, 2025

पुस्तक समीक्षा - दीवार में एक खिड़की रहती थी

 






दीवार में एक खिड़की रहती थी: 

पाठकीय विचार 

–ब्रजेन्द्र नाथ मिश्र 

विनोद कुमार शुक्ल (अभी उम्र 89 वर्ष)

की यह पुस्तक अभी इसलिए चर्चित हो गई है, क्योंकि रायपुर छतीसगढ़ में दिल्ली के प्रकाशक हिन्द युग्म के शैलेश भारतवासी द्वारा हिन्द युग्म महोत्सव में उन्हें तीस लाख का एक चेक दिया गया. पुस्तक को 1997 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया था. उस समय यह पुस्तक वाणी प्रकाशन से प्रकाशित हुई थी. हिन्द युग्म ने इस पुस्तक को सन 2023 दिसम्बर में पहली बार अपने प्रकाशन से प्रकाशित किया. चर्चा पुस्तक के आवरण, मुद्रण और शिल्प से अधिक चेक की राशि की हो रही थी. हिन्द युग्म प्रकाशन में कई लेखकों को इतना से अधिक राशि प्राप्त हो चुकी थी, जिसे शैलेश जी ने अपने एक साक्षात्कार में स्वीकार किया. क्या दो वर्षों में इस पुस्तक की इतनी बिक्री हुई कि लेखक को तीस लाख की राशि प्राप्त हुई. अगर यह राशि इन दो वर्षों में हुई बिक्री की दस प्रतिशत रॉयल्टी हो, जो समान्यत: प्रकाशक लेखकों को प्रदान करते हैं, तो तीन करोड़ की पुस्तकें बिक्री हुई हैं. हर पुस्तक की कीमत अगर ₹300 रु है, तो एक लाख प्रतियाँ बिकी. या इस पुस्तक के साथ उनकी अन्य पुस्तकों की भी प्रतियाँ होंगी. 

क्या हिंदी में किसी पुस्तक को एक लाख पाठक खरीद कर पढ़ रहे हैं? अभी संस्थागत खरीद तो बहुत कम है, ऐसा मान कर चल रहे हैं. है न यह आश्चर्य की बात! पाठकों की रूचि में सुधार आया है और पुस्तकों के प्रति उनका आकर्षण बढ़ा है, ऐसा माना जा सकता है क्या? या हिन्द युग्म प्रकाशन ने ऐसा क्या किया कि पाठक हिन्द युग्म से प्रकाशित पुस्तकों की ओर आकर्षित होने लगे है. या सिर्फ बिनोद कुमार शुक्ल जी की यही पुस्तक यह मिशाल कायम करने में कामयाब हुई है. परन्तु यह पुस्तक जब वाणी प्रकाशन से 1997 में प्रकाशित हुई थी, तब तो कोई ऐसा हाइप कायम नहीं हुआ था. मैं बताता चलूँ कि मैं हिन्द युग्म प्रकाशन का कोई प्रवक्ता या प्रचारक नहीं हूँ. लेकिन यह भी सत्य है कि पिछले कई वर्षों से 'जागरण' - नेलसन द्वारा हिंदी के बेस्ट सेलर पुस्तकों की प्रसारित सूची में टॉप टेन मे हिन्द युग्म की पांच - छह पुस्तके अवश्य होती थी. हालांकि इस सूची के मानकों पर विवाद होता रहा है. हिन्द युग्म कुछ तो अलग और विशेष कर रहे हैं, जो अन्य बड़े - बड़े प्रकाशक नहीं कर पा रहे हैं. मैं बताता चलूँ कि मेरी दो पुस्तकें "छाँव का सुख" (कहानी संग्रह) और "डिवाइडर पर कॉलेज जंक्शन" (उपन्यास) भी हिन्द युग्म से प्रकाशित हो चुकी हैं. 

इस चर्चा को यही छोड़ते हुए, पुस्तक पर विचार करें. मैंने यह पुस्तक हाल ही में अमेज़न से मंगाई थी. कल मैंने यह पुस्तक पहली बार पढ़ी. इस पुस्तक का आवरण बहुत आकर्षित करने वाला नहीं लगेगा. एक हाथी उसके ऊपर एक खिड़की जैसी तस्वीर दिखेगी. दूर आसमान में बाल चंद्र का प्रकाश वलय दिखेगा. अति साधारण वैसी ही पुस्तक की कहानी. आजकल के उपन्यास जहाँ वादों के विवादों और मतभिन्नताओं के मनसूबों के साथ, निरंतर परिवर्तित होते घटनाक्रम का निर्माण करते हुए, पात्रों के अंतर्विरोधों को दर्शाते हुए पाठकों की रूचि के अनुसार साहित्य परोसने और पॉपुलर होने का प्रयास करते नजर आते है, वहां यह उपन्यास अतिसाधारण ढंग से सामान्य पात्रों के साथ कहानी का ताना बाना बुनते हुए आगे बढ़ता है. 

कहानी रघुवर प्रसाद (एक शिक्षक) और उनकी पत्नी सोनसी के इर्द-गिर्द घूमती है। उनका जीवन बहुत ही साधारण है, जिसमें कॉलेज जाना, घर के काम करना, और अपने पड़ोसियों के साथ रहना शामिल है। 

 उनकी दीवार में बनी एक जादुई खिड़की सिर्फ एक खिड़की नहीं, बल्कि सपनों, आशाओं और आज़ादी का प्रतीक है। इस खिड़की से उन्हें एक जादुई दुनिया दिखाई देती है, जिसमें तालाब, हाथी, पक्षी और एक बूढ़ी अम्मा हैं। 

यह उपन्यास ठोस यथार्थवाद का एक उत्कृष्ट उदाहरण है, जहां वास्तविकता और कल्पना के बीच की रेखा धुंधली हो जाती है। यह दिखाता है कि कैसे साधारण जीवन में भी असाधारण चीजें हो सकती हैं, अगर आप में उन्हें महसूस करने की दृष्टि हो। 

उपन्यास प्रेम, रिश्ते, और जीवन के प्रति आस्था जैसे विषयों को दर्शाता है। यह सिखाता है कि अभाव में भी कैसे खुश रहा जा सकता है और जीवन को उसकी समग्रता में कैसे स्वीकार किया जा सकता है। 

शुक्ल जी ने छोटे - छोटे वाक्यों और संवादों द्वारा गहरी आत्मीयतापूर्ण अभिव्यक्ति की सरसता को पूरे पृष्ठ पर फैला दिया है. साधारण लिखना कठिन भी है और सरल भी. उनका वर्त्तमान के प्रति आशावादिता, इस वाक्य में दिखता है - "वर्तमान का सुख इतना था कि भविष्य आगे उपेक्षित-सा रस्ते में पड़ा रहता, ज़ब तक वहां पहुंचो तो लगता खुद बेचारा रास्ते से हटकर और आगे चला गया."

विनोद शुक्ल जी ने साबित कर दिया है, निम्न-मध्ययवर्गीय भारतीय जीवन में ऐसा जादू है जो अन्यत्र नहीं है. सबसे बड़ी बात है कि इस उपन्यास के पात्रों और घटनाओं के प्रतिबिम्ब में हम अपने को, संबंधों को, आसपास को बार - बार देखते और पहचानते हुए आत्मीय हो जाते हैं. 



पुस्तक समीक्षा - दीवार में एक खिड़की रहती थी

  दीवार में एक खिड़की रहती थी:  पाठकीय विचार  –ब्रजेन्द्र नाथ मिश्र  विनोद कुमार शुक्ल (अभी उम्र 89 वर्ष) की यह पुस्तक अभी इसलिए चर्चित हो गई...