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Friday, May 29, 2020

पिता आकांक्षाओं की उड़ान होता है (कविता)

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पिता आकांक्षाओं की उड़ान होता है

वह चिलचिलाती धूप सहता है,
वह मौसम की मार सहता है।
तूफानों का बिगड़ा रूप सहता है
वह बताश, बयार सहता है।
मजबूत अंगद का पाँव होता है।
पिता बरगद की छाँव होता है।

वह परिवार के लिए ही जीता है।
पिता सब फरमाइशें पूरी करता है
परिवार के लिए हर गम पीता है।
सब कुछ करता, जो जरूरी होता है।
पिता न जाने कहाँ कहाँ होता है,
पिता हमारा सारा जहाँ होता है।

पिता को मैंने हंसते ही देखा है,
पिता कभी अधीर नहीं होता है।
पिता को मैने हुलसते ही देखा है।
पिता कभी गंभीर नहीं होता है।
वह नीली छतरी का वितान होता है।
पिता परिवार का आसमान होता है।


जब पिता है, तो हम विस्तार होते हैं।
जब पिता है, तो हमारा अस्तिव है,
जब पिता हैं, तो हम साकार होते हैं,
जब पिता हैं, तो हमारा व्यक्तित्व है।
वह हमारी उपलब्धियों का प्रतिमान होता है,
वह हमारी आकांक्षाओं की उड़ान होता हैं।

वह नीली छतरी का वितान होता है।
पिता परिवार का आसमान होता है।
©ब्रजेंद्रनाथ मिश्र

Wednesday, May 27, 2020

बच्चे जियें खुशहाली से

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बच्चों में खुशहाली

लड़का लटका डाल से
मचता रहा धमाल।
बाकी दोस्त ताकते
उसका देख कमाल।।

बच्चे करते तड़ाग में
जमकर जल विहार।
गरमी के इस जलन से
राहत मिलता यार।।

सूरज ऊपर तप रहा,
सोखे ताल तलैया ।
पानी की बूंदे दे दो,
फुदक रही गोरैया ।।

गर्म हवाओं से जल रहे
धरती और गगन।
बाहर निकलने के पहले
ढंके सिर और बदन।।

छाछ पियें, आमरस पीएं,
और पियें जल जीरा।
मस्त मेलन, तरबूज औ'
खाएँ ककड़ी खीरा।

सूखने दो समंदर को,
और बनने दो बादल।
दौड़ लगाएंगे पावस में,
बरसे बूंदे छल छल।।

पेड़ लगाओ धरा में
छा जाए हरियाली।
पर्यावरण निर्मल हो,
बच्चों में खुशहाली ।।

©ब्रजेंद्रनाथ मिश्र

Saturday, May 23, 2020

भीड़ में कितने अकेले हैं (कविता) #life

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भीड़ में कितने अकेले हैं


इस जहाँ में बहुत कुछ झेले हैं।
पर वहाँ भी बहुत ही अकेले हैं।

शामें उतरती हैं कुछ इसतरह
जैसे भूल चुकी यादों के रेले हैं।

कई-कई रास्ते ऐसे मिलते गए
जहाँ फैले नागफणी  नुकीले हैं।

हर जगह स्वाद मीठे तो होंगें नहीं
चखता गया जैसे वक्त के करैले हैं।

ऊपर से मीठे दिखने वाले आम भी
अन्दर  घुलते, कितने लगे कसैले है।

झक सफेदी जो है उनके कुरते पर
झाँको, देखो, अंदर से कितने मैले हैं।

विशाल अजगर के फैलने के पहले
मिटा दो उन्हें तभी जब संपोले हैं।

आपके मुस्कराने में भी लगता है
छूटेंगें तीर जो खासे विषैले हैं।

उड़ाते चलो सच का परचम दोस्तों
'मर्मज्ञ' है जिन्दा तभी तो झमेले हैं।

©ब्रजेन्द्र नाथ 

(तस्वीर गूगल से साभार)

Wednesday, May 20, 2020

जीने की चाह करें (कविता) #streetchildren

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(स्ट्रीट चिल्ड्रन पर लिखी एक कविता)

जीने की चाह करें 

सड़कें सुनसान हो गयी,
जिंदगियां परेशान हो गयी,
जिन गलियों में जीवन बीता,
आज कितनी वीरान हो गयी।

कोई हाथ बढ़ाने वाला,
क्या आएगा कभी यहाँ?
कोई हमें थामने वाला,
क्या आएगा कभी यहाँ?

चाह नहीं इसकी अब भी,
पहले भी कभी नहीं रही,
मस्ती में जीवन कटता है,
कभी कमी भी नहीं रही।

आओ दोस्तों, थोड़ी अपनी भी परवाह करें,
आओ खेलें, मेल बढ़ाएं, जीने की चाह करें।

ऐसे जीवन में मलंग भी
गीत जीत का गाता है,
कल का किसने देखा है,
आज सूरज से नाता है।

रातें कटती, करते बातें,
कभी चाँद, कभी सितारे,
आँखे झँपती, जगी हैं आंतें,
रिश्ते सारे स्वर्ग सिधारे।

मेरे मन में जगती आसें,
उड़ें गगन में पंख फुलाएं,
जंग जीतनी है, जीवन की,
क्षितिज पार से कोई बुलाये।

गोलू, भोलू, आओ, बैठो थोड़ी तो सलाह करें,
आओ खेलें, मेल बढ़ाएं, जीने की चाह करें।

©ब्रजेंद्रनाथ मिश्र

Monday, May 18, 2020

बादल से विनती (कविता)

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बादल से विनती

(यह कविता बिहार में 1966-67 के भीषण अकाल के समय जब मैं दसमी से ग्यारहवीं में गया था, उसी समय लिखी थी।। यही कविता बाद में मेरे स्कूल की पत्रिका और अन्य कई पत्रिकाओं में भी छपी थेी।)

धूप हाँफती,
बंजर में ठहरती, पूछती - सिसकती,
आहें भरती, उच्छ्वासें छोड़ती।
गर्म हवाओं से बातें करती--
ये मौसम तो था,
धरती की गोद में,
हरे - हरे शैशवों की किलकारियों का।
सोच भी नहीं सकती थी,
उतरने को, धरती को छूने को।
...रोक लेते,
बादल, उन्मत्त, पागल.
मिलन के आवेग में।
आँचल में लिपटने को,
आनन्दातिरेक में झूमने को।
खेतों में, बागों में,
मैदानों में, बागानों में,
पहाड़ों पर, चंचल झरनों में,
झीलों में, तालों में,
नहरों में, नालों में।

...लेकिन आज कोई टोकता नहीं,
कोई रोकता भी नहीं।
कहाँ गए बादल, उन्मत्त पागल?
उनका पागलपन कहाँ खो गया?
कहाँ गई वो आसक्ति?
आज क्यों रोकते नहीं?
विरक्त क्यों हो गए?
भागते कहाँ हो?
झूमते क्यों नहीं बागों में?
गाते क्यों नहीं, कजरी के गीत?

यक्ष कहाँ जाएगा?
जिसकी आशा में बैठा है
यहां इस दूरस्थ पर्वत पर?
प्रिया का सन्देशा, कौन ले जाएगा?
...तुम नहीं आओगे,
 तो कैसे रचेगा कोई कालिदास,
'मेघदूत'?
कल्पना का पंछी, बादल की खोज में
भटकता – भटकता, इसी बियावान में,
दम तोड़ देगा।

...जरा झांको तो
खेतों की छाती पर फटती बेवाई में,
अगर कोई बूँद नज़र आये
तो मत बरसो, चले जाओ यूं ही,
हम बूँदें बहा लेंगें
तुम्हारी बूँदों की याद में।
सूनी धरती की गोद में,
सूखी धूल की आंधी में।
बिलखते बच्चों को,
याद दिला किलकारियों की,
हँसती, लहलहाती क्यारियों की,
सुला देंगें लम्बी नींद में।
यादों को संजोकर,
कि तुम फिर आओगे,
फिर हरे होंगे, हमारे तन - मन।
धरती होगी सगर्भा,
आँचल होगा नम…
आँचल होगा नम… 


©ब्रजेंद्रनाथ मिश्र

कहाँ चली ओ कली? (कविता)

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कहाँ चली ओ कली?


वृंतों पर अरुण प्रभा जब थी बिहँस रही,
प्रात में, प्रभात में, जब निशा सिमट रही।

ओस-कण ढुलक रहे, विभावरी थी बीतती,
हवा थी मंद-मंद-सी, पराग-कण समेटती।

तब एक डाल पर, उषा-किरण के भाल पर,
झाड़ियों में सर उठाये, पत्तियों के थाल पर।

मलय सुगंध घोलती, हवा जब चली,
नेत्र-पट खोलती, निकल पड़ी इक कली।

देखती उजास से भरी मही,
हरी दूब दूर तक पसर रही।
तरु झूमते, कूक गूँज रही,
प्रकृति रस घोलती संवर रही।

साफ जल में मछलियाँ थी तैरती उमंग में,
सरोवर तल पर जलराशि उठ रही तरंग में।

हिमाच्छादित शिखरों से गिर रही धवल-धार,
सरिता अपने तटों बीच संवारती कण तुषार।

जब अरुण प्रभा की चादर में था लिपटा उपवन,
हवा लेके चादर उड़ चली विस्तीर्ण था नीला गगन।

पुष्प - लता थी पूछ रही, कहाँ चली ओ कली?
बावरी सी, पराग कण उछालती, कैसी है बेकली?

इस सुंदर प्रभात में, चलो मेरे साथ में, प्यारी सखी,
जग को निहारने, श्रृंगार-रस पसारने, मैं बढ़ चली।

तू नहीं जानती , अग जग को नहीं पहचानती,
भर के बहु पाश में, मसल न दे तुन्हें प्यारी कली।

कली सहम सहम गयी, चल पड़ी वापस उपवन में,
जहां पुष्प लता थी खड़ी उदास, जल भरे थे नैनन में।

मन में थी बेचैनी, नैनों में छाई विवशता की रेखाएं,
कली लिपट गयी, नयन निलय में बह चली जल धारायें।

मैं तेरे साथ में, झाड़ियों के बीच बिछे पत्तों की थाल में,
यहीं खेलूं, खिलूँ, तेरे अंक में सुरक्षित रहूँ हर हाल में।
तेरे अंक में सुरक्षित हूँ हर हाल में...
©ब्रजेंद्रनाथ

Wednesday, May 13, 2020

थाम कर हाथ मेरा, देना तुम सहारा (कविता)

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थाम कर हाथ मेरा


थाम कर हाथ मेरा, देना तुम सहारा।
पर्वतों के पार है, कहीं घर हमारा।।

हर एक गम तुम्हारा, हँस के सह लेंगें,
साथ हो तुम तो, तूफानों में चल देंगें।

गर सफल न हों, करना नहीं किनारा।
थाम कर हाथ मेरा, देना तुम सहारा।
पर्वतों के पार है, कहीं घर हमारा।।

पता होगा तुमको कि तुम मेरे क्या हो?
मेरे साथ चंलने का, तुम्हीं आसरा हो।

रखेंगे याद वो पल हमने कभी गुजारा।
थाम कर हाथ मेरा, देना तुम सहारा।
पर्वतों के पार है, कहीं घर हमारा।।

पास होते हो, जिंदगी कटती है खुशी से,
पास हो तुम तो शिकवा नहीं किसी से।

इस जहाँ में कोई तुमसे नहीं है प्यारा।
थाम कर हाथ मेरा, देना तुम सहारा।
पर्वतों के पार है, कहीं घर हमारा।।

साथ में हो तुम तो हमें खुशी है होती,
तुम बिन जीने की चाहत नहीं है होती।

नहीं दोगे साथ तो, कहाँ जाएगा बेचारा?
थाम कर हाथ मेरा, देना तुम सहारा।
पर्वतों के पार है, कहीं घर हमारा।।

©ब्रजेंद्रनाथ मिश्र

Monday, May 11, 2020

सूरज जा रहा अपने गाँव (कविता) #poemonnature

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सूरज जा रहा अपने गाँव

सुबह हुयी, अम्बर में जैसे
छूटी हो इक आतिशबाजी।
किरणों की बौछार हो  रही
धरा नहाई,  हुयी वह ताजी।

पीला हुआ रंग क्षितिज का
पूर्व लाल , जलता अलाव।
सूरज जा रहा अपने गाँव।

ज्यों - ज्यों सूरज चढ़ता ऊपर
बचपन बीता आयी जवानी।
किरणों में तपिश बढ़ रही
यौवन में ज्यों आई रवानी।

सूखी  धरा पर चले अगर ,
सिर हो गरम, जलेंगे पाँव।
सूरज जा रहा अपने गाँव।

भास्कर जैसे एक जिश्म है
धूप बनी है उसकी छाया।
परछाईं कभी अलग नहीं है
स्थिति में है जब तक काया।

आत्मन मिलता परमात्मन में
तब आ जाता है ठहराव।
सूरज जा रहा अपने गाँव।

दोपहर बाद दिनकर भी
चलता पश्चिम मद्धम - मद्धम।
जब ढंकता बादल सूरज को
गरम धूप हो जाती नरम।

इतना चलकर, दौड़ भागकर
ढूढ़ रहा अपना पड़ाव ।
सूरज जा रहा अपने गाँव।

प्रेमातुर हो वाट जोह रही
उनकी याद में अटकी आस।
संध्या रानी कुहनी टिकाये
मिलने को है खड़ी उदास।

आया प्रेमी, मधुर मिलन में,
आरक्त हो गए उसके गाल।
स्फुरण दौड़ गयी रोम- रोम में,
धूप हो गयी अरुणिम लाल।

विछुड़न के बाद विरहन ने
सुख के खोजे अपने ठाँव।
सूरज जा रहा अपने गाँव।

©ब्रजेन्द्रनाथ मिश्र


Saturday, May 9, 2020

ऋषिवर तुझे मेरा प्रणाम (कविता) चित्र आधारित कविता

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चित्र आधारित सृजन

ऋषिवर तुझे मेरा प्रणाम


दो आशीष जगावें उनको,
घोर नींद में जो सोए हैं ।
खाओ, पीओ और जीओ
के भेड़ चाल में जो खोए हैं।

उनके अन्तर में जग जाए
स्फूर्ति और शक्ति अविराम।

दो आशीष जगावें उनको
घोर निराशा में हैं ठहरे।
जीवन में बढ़ जाने के
प्रयास पर, डाले हैं पहरे।

वे सतत संघर्ष रत हों,
कार्य पूर्ण कर लें आराम।

उनको समझा सकें यह
संकट विकट कोरोना काल के।
उनको मन मे बिठा सकें,
फन कैसे हैं कठिन व्याल के।

धीरज, शांति और संयम से,
बीत जाएगी विपत्ति तमाम।

दुश्मन थर-थर काँपेगा
रूधिर वेग प्रबल होगा।
युवा देश के जग जायेंगें,
राष्ट्र मुकुट उज्ज्वल होगा।

हर नारी होगी गार्गी, भारती,
युवक होगा अब्दुल कलाम।

जो लासरहित, निरानंदित हैं,
थकित, श्रमित और व्यथित हैं।
सेवा व्रत में आगे हों हम,
उनके काम में जो वंचित है।

दो आशीष कि हम आयें,
लोकहित में सबके काम।

©ब्रजेंद्रनाथ मिश्र

Wednesday, May 6, 2020

घर से चुपचाप निकल (कविता) बुद्ध पूर्णिमा पर

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मिटाने को संताप निकल
घर से चुपचाप निकल
दबाकर अपने पदचाप निकल,
अलख जगाने को मेरे मन,
मिटाने को संताप निकल।
गलियों को देख जहां
सोये है लोग सताए जाकर।
उनके लिए उम्मीदों के छत का
तू एक वितान खड़ा कर।
तू सूरज का एक कतरा
लाने को रवि ताप निकल।
अलख जगाने को मेरे मन
मिटाने को संताप निकल।।      
कोई नारा नहीं जो बदल दे
सूरत आज और कल में।
मुठ्ठियों को भींच, छलकाओ,
अमृत कलश जल थल  में।
सिसकियों में सोते हैं, उनके
मिटाने को विलाप निकल।
अलख जगाने को मेरे मन
मिटाने को संताप निकल।
जो बीमार सा चाँद दिखे
तो तू लेकर उपचार चलो।
जंगल में जब दावानल हो,
तू लेकर जल संचार चलो।
लेते हैं जो छीन निवाले
बन्द करने उनके क्रिया कलाप चल।
अलख जगाने को मेरे मन,
मिटाने को संताप निकल।
भेद डालकर अपनो में
जो विग्रह करवाते  है,
यहां लड़ाते, वहां भिड़ाते,
खून का प्यासा  बनाते हैं।
वहां प्रेम का विरवा रोपें,
करवाने को मिलाप चल।
अलख जगाने को मेरे मन
मिटाने को संताप निकल।
©ब्रजेंद्रनाथ
मेरी यह कविता मेरी आवाज में यूट्यूब चैनल marmagyanet के इस लिंक पर:
https://youtu.be/Bud394vqGDw

मतवाला हो झूम-झूम (कविता) मदिरालय के आगे लंबी लाइन पर

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परम स्नेही मित्रों,
कुछ दिन पहले लॉक डाउन को थोड़ा ढीला करने पर लोग मदिरा क्रय के लिए  लंबी लाइनों में लगे दिखे। उसी को मैंने अपनी कविता का विषय बनाया है। आप भी पढ़ें और अपने विचारों से अवगत कराएं:








मतवाला हो झूम-झूम


लॉकडाउन के बाद आज
जब थोड़ी दी गयी ढील।
सोचे पीने वाले चलकर
कंठ थोड़ी करते हैं गील।

मधुशाला के बाहर बाहर
लोग पंक्ति में रहे खड़े।
बोतल मिलने की आस
में घाम, धूप में रहे अड़े।

पीने की खुशी इतनी कि
चलन, नियम भी गए भूल।
दूरी रखनी कितनी जरूरी
कोरोना क्षय होगा समूल।

घर वापसी की टिकट पर
कैसा घमासान है जारी?
मदिरालय में लगी पंक्ति पर
दिखा रहे अपनी लाचारी।

आतंकी से लड़ रहे जवान
प्राण कर रहे अपने अर्पण।
मदिरा की घूंट के पहले,
राष्ट्र-उन्नयन का हो प्रण।

राष्ट्र - भूमि, राष्ट्र- किरीट
इसको भी तू चूम - चूम।
देशप्रेम का प्याला लेकर,
मतवाला हो झूम झूम।

©ब्रजेंद्रनाथ मिश्र

Monday, May 4, 2020

उन दिनों की है बात (कविता) रेडियो पर कविता

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यह उन दिनों की है बात


रेडियो में बजी शहनाई
बंदे मातरम से होती थी
सुबह की शुरुआत।
भक्ति संगीतोंका कार्यक्रम बन्दना,
उसके पश्चात।
अवगाहन करते भक्ति की सरिता में,
होता था प्रफुल्लित मन और गात।
यह उन दिनों की है बात।

जैसे ही पहुँचते बस्ता लेकर स्कूल,

पाठ तो जाते थे भूल।
बस याद रहता था
आज होगा रेडियो पर,
विद्यालय में समय दोपहर,
अंग्रेजी व्याकरण का प्रसारण,
फिर होता था उसी का मनन।
ऐसे रेडियो से होती रही मुलाकात।
यह उन दिनों की है बात।

रेडियो का बड़ा सा बॉक्स

सिमट कर हो गया ट्रांजिस्टर।
इसे कहीं भी ले जा सकते थे,
घर में, दालान में, खलिहान में,
या कहीं का हो सफर।
विविध भारती से सिनेमा की
गीतों भरी भरी कहानी।
मनपसंद फिल्मी गीतों से
गुलजार रहता रविवार का दोपहर।

फरमाइसें आती थी ज्यादा,

राजनांदगांव, अकोला
और झुमरीतिलैया से,
जैसे सारे संगीतप्रेमी
इन्हीं जगहों में जाकर हों बसे ।

हिंदी समाचार देवकीनंदन पांडे,

शाम को मुखिया जी की चौपाल,
और फाटक बाबा, खदेरन के मदर
लोहा सिंग का भैंसालोटन में धमाल।
बिनाका गीतमाला में अमीन सायनी
क्रिकेट की कमेंट्री,
सुरजीत सेन, विजय हजारे
और बापू नाडकर्णी।
समाचार विवेचन बी बी सी मार्क टली
और बातें ज्ञान विज्ञान की ।

संगीत और गीत की

होली, चैता, बिरहा
और आल्हा की झंकारों में।
बड़ा सुकून देता है,
गुजरते हुए उन गलियारों में।
खोकर रह जाए हम
होती रही यादों की बरसात,
यह उन दिनों की है बात!
यह उन दिनों की है बात!

©ब्रजेंद्रनाथ मिश्र

Friday, May 1, 2020

श्रम देवता बन धरती को जगाता हूँ (कविता)

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श्रम - देवता बन धरती को जगाता हूँ


बाजुओं का माँस औ' गठन गलाता हूँ,
श्रम-देवता बन, धरती को जगाता हूँ।

पर्वत के मस्तक पर फावड़ा चलाता हूँ,
चट्टानों को तोड़कर अपनी राह बनाता हूँ।

हाथ काले, उंगलियाँ खुरदरी बनाता हूँ,
उनपर लाल फफोलों के मोती उगाता हूँ।

रक्त वाष्पित कर पसीना जब गिराता हूँ,
वहीं उत्तुंग - शिखर हिमालय उठाता हूँ।।

वहाँ पर गगन को जो महल चूमता है,
उसकी कंक्रीट में श्रम- बिंदु मिलाता हूँ।

चीर हल से, धरा को उर्वर बनाता हूँ,
देता अन्नदान, मैं किसान कहलाता हूँ।

जो भी मिले, उससे संतुष्ट हो जाता हूँ,
कर्मयोगी बनकर मैं किस्मत जगाता हूँ।

बाजुओं का माँस औ' गठन गलाता हूँ,
श्रम-देवता बन, धरती को जगाता हूँ।


©ब्रजेंद्रनाथ

माता हमको वर दे (कविता)

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