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Tuesday, December 22, 2020

छिन्न - संशय (कविता)

 #BnmRachnaWorld

#futility of war









यह कविता मैंने 6 दिसंबर 20 को मारुति सत्संग पुणे के वेबिनार में सुनाई जिसका यूट्यूब लिंक इसप्रकार है:

https://youtu.be/jF0XsqjvAaY

छिन्न – संशय

यह कौन बैठा नदी की तीर पर,
निश्चेष्ट, निश्चल देखता जल - प्रवाह।
टूटना, बिला जाना, तट से मृतिका - कणों का,
और डूब जाना पत्थरों का अतल - जल में।


पत्थर बने जो करते अलंकृत 
स्वयं को मिथ्या अहमन्यता से।
वे ही कहीं तो डूबते नहीं
प्रवाहमान जल के अतल - तल में?

परन्तु अपने उस अभिमान में 
हिंसा का तांडव किया करते हैं वे।
उससे विगलित समाज के तन्तु को,
किस तरह, झकझोर, तोड़ फेंकते अनल में।

ऐसे तत्व भी, (या) ही, इतिहास में स्थान पाते,
झोंक जन को और जग को।
एक भीषण युद्ध की विभीषिका में,
मानवता जहां मृत्यु – शवों को ढूढती विकल हो।


हिंसा का प्रत्युत्तर न दे,
चुपचाप रहकर सहे जाना।
उदारता, सदाशयता का ओढ़ आवरण,
क्लैब्य-दोष-मण्डित कर लेना नहीं तो और क्या है?


फिर क्या हिंसा का प्रत्युत्तर
प्रतिहिंसा के अग्नि-दहन में,
लाशों की अगणित बोटियाँ,
जब बिखर जाएँ धरा - गगन में?

तभी शूरता नियत करती रही है
मुकुट-मणि स्थान जन-जन में?
तभी नर-पुंगव पूजित हुआ है,
उच्च सिंहासन अवस्थित इस भुवन में?


तो क्या शांति हिंसा का ही
एक उप - उत्पाद हमेशा से रहा है?
मरघट पर जलती चिताओं की
आत्माएं विकल नहीं होती विजन में?

युद्ध बाहर का और अंतर का,
मांगता है लाशें रण-चण्डी बना।
सिन्दूर-पुंछी बहनों का भाल
और उनका क्रन्दन करुणा से सना।

या कि समय देना और सहते रहना
उदासीनता, विवशता अपनाना।
आँखें बंद, मुंह मोड़ खड़ा रहना,
चुपचाप ही हालाहल पीते जाना।

इससे नहीं कोई नीलकंठ कहलाता
क्लैब्य ही उसको आ घेरता है।
तांडव कर सकता नहीं, वह काल पर,
आसुरी शक्ति को जीत नहीं सकता है।

इन्हीं प्रश्नों में उलझा हुआ वह,
खड़ा है नदी - तीर पर प्रश्तर बना।
अपने में अनल - दाह पीते हुए
कृत्य गुरु-जनों का नश्तर - सा चुभा।

क्या चाणक्य ने अखण्ड-
भारत-स्थापन के लिए,
हिंसा का सहारा नहीं लिया,
विद्रोह-दमन के लिए?

या कृष्ण ने नहीं दी सीख
छल का प्रतिउत्तर दो छल से,
अगर साध्य है, दुर्भेद्य करना 
राष्ट्र को अरि से, खल से।

विजय का सूर्य अम्बर में
अगर होता देदीप्यमान है।
संत्रास से, अरि अनय से,
दिलाता जन को त्राण है।

तो अरि मर्दन करना
शांति स्थापन हेतु सुकर्म है।
धरा को दिलाकर मुक्ति,
लोकनीति - स्थापन हेतु सद्धर्म है।

प्रलय के बादलों से दिला
अवनि को त्राण है।
नींव रखेगा वह साम्राज्य का, जहां
जन - जन को मिलता मान है।

ब्यथित मन क्षुब्ध है,
गाँठ पड़ी, उलझ गयीं।
बुद्धि स्थिर है मगर,
गुत्थियाँ सुलझ गयीं।

ब्यक्ति कोई अगर शत्रु बना, स्वघोषित
न्याय - दण्ड - निर्धारक बनकर करता कुकर्म है।
उसका मस्तक - भंजन करना
शांति - स्थापन हेतु न्याय - धर्म है।

©ब्रजेंद्रनाथ




Monday, December 7, 2020

मित्रता (कविता) #friendship

 #BnmRachnaWorld

#friendship











मित्रता
मित्र बनाने के पहले विचारना
जरूरी है।
द्रोण और द्रुपद की गुरुकुल में मित्रता
कहाँ निभ पाई थी?
जब द्रोण गए थे,
माँगने सहायता राजा द्रुपद से।
द्रोण की गरीबी का
उड़ाया था मजाक।
इसी ने बो दी थी,
आपसी रंजिश के बीज।
महाभारत में वर्णित कुरुक्षेत्र के युद्ध में
निकली थी सारी खीज।
इसलिए दोस्त को पहचानना जरूरी है।
दोस्त बनाने के पहले विचारना जरूरी है।
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मित्रता के मिलेंगे वैसे भी उदाहरण
जिन्होंने निभाये दिए हुए वचन।

राम सुग्रीव की मित्रता दृढ़ हुई
सुग्रीव ने सीता की खोज में
सभी दिशाओं में वानर भेजवाये।
राम सुग्रीव की मित्रता में
दृढ़ता थी आयी।
सीता की खोज की थी
सुग्रीव के मंत्री हनुमान ने,
ध्वस्त किये दुर्ग और लंका जलायी।

कृष्ण सुदामा की मित्रता
की दी जाती है मिशाल।
गरीब, दीन-दुखी सुदामा से
द्वारिकाधीश कृष्ण ने मित्रता निभायी।
दे दिए सबकुछ दो मुठ्ठी
चिउड़े के बदले में भाई।

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मित्रता होती नही है कोई अनुबंध।

अर्जुन के साथ धनुर्विद्या के
कौशल दिखाने को ।
जुटे थे कौरव और पांडव कुमार।
उसमें कर्ण ने किया प्रवेश,
जिसे भीष्म ने किया था अस्वीकार।
कर्ण को देकर अंग देश का राज्य,
दुर्योधन ने कर्ण को अपनी ओर किया था।
यह मित्रता नहीं थी, था स्वार्थ-संबंध।
मित्रता होती नहीं है कोई अनुबंध।

इसलिए मित्र बनाने से पहले
मित्रता निभाने की सोचिए।
बार-बार त्याग और तप
की लौ पर तप्त कीजिये।
फिर मित्र बनाने पर विचारिये।
एक बार मित्र बन जाने पर,
मित्रता निभाने की सोचिए।
©ब्रजेन्द्रनाथ

माता हमको वर दे (कविता)

 #BnmRachnaWorld #Durgamakavita #दुर्गामाँकविता माता हमको वर दे   माता हमको वर दे । नयी ऊर्जा से भर दे ।   हम हैं बालक शरण तुम्हारे, हम अ...