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Wednesday, July 24, 2019

एक सपने का अंत (कहानी)

#BnmRachnaWorld
#love #revenge #hindistory

एक सपने का अंत


प्रिय नीलेन्दु
पता नहीं तुम कहाँ हो? जिन्दगी के इस मुकाम पर जब मेरे पास एक बड़े ऑफिस के एक बड़े केबिन में, एक मल्टीनेशनल कंपनी के एक बड़े एक्सिक्युटिव की नौकरी है, अपने सिरहाने आज तक सम्हाले हुए, आज से बीस साल पहले की डायरी में लिखे गये संस्मरण को मैं फिर पढ़ने बैठी हूँ। वे सारी घटनाएं, सारे परिदृश्य जो हमने एक साथ बैडमिन्टन के लिये ट्रेनिंग लेते हुये क्लब में गुजारे थे, जीवन्त हो गये।
तुम अंडर सिक्स्टीन बॉयस और मैं गर्ल्स के लिये स्टेट लेवेल प्रतियोगिता में भाग लेने वाले थे। इसीलिये हम दोनों उस क्लब - कम- ट्रेनिंग सेन्टर में विशेष प्रशिक्षण के लिये दाखिला लिये थे। वहां हम दोनों ही साइकिल से ट्रेनिंग के लिये जाते थे। तुम्हें मेरा शॉटस में साइकिल चलाकर आना पसन्द नहीं था। शायद उन दिनों कोई लड़की इतनी बोल्ड नहीं थी कि घर से शॉटस में साइकिल चलाकर क्लब आये। सभी लड़कियाँ क्लब में आकर ही अपना वस्त्र परिवर्तन करती थी।
मैने तुम्हें कितनी बार कहा था, "विद्यालय से घर आकर पहले लड़कियों द्वारा साइकिल चलाने वाला वस्त्र, सलवार - कुर्ता पहनो। फिर साइकिल चलाकर क्लब पहुंचो। वहाँ फिर वस्त्र परिवर्तन करो। इसमें पूरे 20 से 25 मिनट निकल जायेंगे। यानि मेरी प्रैक्टिस सेशन के उतने समय निकल जायेंगें। मैच में एक - एक सेकेन्ड हर गेम में कितना कीमती होता है? यह जानते हुए भी तुम मुझे 20-25 मिनट बर्बाद करने का परामर्श देते हो। कैसे दोस्त हो तुम?"
इसके आगे तुम्हारे सारे तर्क निरस्त हो गये थे। मैं जानती थी, तुम मेरे लिये इतने सुरक्षा कवच क्यों खड़ा कर देना चाहते थे? क्योंकि तुम मुझे बेइन्तहा चाहते थे। लेकिन यह तुमने तबतक जाहिर नहीं होने दिया जबतक कि मैंने खुद उस दिन की घटना के बारे में तुमसे जानने की कोशिश नहीं की थी।
उस दिन की शाम को जेहन से मिटाने की कई बार नाकाम कोशिशें कर चुकी हूँ। फिर भी वह सारा परिदृश्य दैत्य की तरह सामने आकर खड़ा हो जाता है।
मैं बैडमिन्टन की प्रैक्टिस तुम्हारे साथ कर रही थी। तुम्हारे साथ प्रैक्टिस करने में बड़ा मज़ा आता था। मैं अगर पहला गेम जीतती, तो दूसरा गेम तुम जीतते। मुकाबला हमेशा कड़ा और कांटे का होता था। तुम भी अंडर 16 बॉयस के उभरते हुए सितारे थे। तुम्हारे साथ खेलने में मज़ा आता था। मैच में बाकी सारी लड़कियाँ तो मुझसे दूसरा सेट समाप्त होते - होते बुरी तरह हार जाती थी।
कभी -कभी मैं सोचती हूँ कि पहला गेम क्या तुम जानबूझ कर हार जाते थे या मैं सचमुच हरा देती थी? तुमसे मैं यह सब कभी नहीं पूछ सकी। क्योंकि तुम हमेशा गम्भीर, एकान्त प्रिय और रिसर्व टाइप के लगते थे। परन्तु मुझे ऐसे ही प्राणी पसन्द थे।
उस दिन की प्रैक्टिस ज्यादा ही थकाने वाली थी। एक तो कोर्ट के सारे क्षेत्र को कवर करते हुए तुम्हारे हर ऐंगल के शॉटस का सही रिटर्न देना, दूसरे खेल के बाद पूरे मैदान (यह फुटबॉल का मैदान था) का चार चक्कर दौड़ कर लगाना, थोड़ा अधिक ही हो गया था। लेकिन तुम्हारे साथ खेलने का समय बहुत कम दिया जाता था, खासकर लड़कियों को। इसलिये मैं भी जी जान से खेली। मैदान में दौड़ लगाते - लगाते मैंने महसूस किया कि मेरी जांघों के बीच कुछ द्रव जैसे स्राव से मेरी अंडरगार्मेन्ट गीली हो रही है। मैं समझ गयी कि यह मेरे पहले मेन्स (रितुश्राव) की आहट है। मैंने अपना बैक्पैक लिया और भागी लेडिज वाश रुम की तरफ!
लेडिज वाश रुम इस क्लब कम ट्रेनिंग सेंटर के एडमिनिस्ट्रेटिव ब्लॉक के उस तरफ है जिधर इन्स्ट्रक्टर और ऑफिसर का केबिन है। शायद लडकियों को अधिक सुरक्षा और सुकून देने के लिये उनका वाश रुम स्टाफ ब्लॉक की ओर ही रखा गया है, जबकि लड़कों के लिये इस बिल्डिंग की दूसरी ओर, जहां इनडोर खेलों और स्क्वैश के लिये ट्रेनिंग सेन्टर है।
उसतरफ आज अन्धेरा जैसा था। स्टाफ सारे जा चुके थे। किसी-किसी केबिन में थोड़ी धुंधली-सी रोशनी पसरी थी। मैं वाश रुम की ओर आगे बढ़ भी रही थी और पीछे मुड़कर देखती भी जा रही थी कि कोई पीछे -पीछे आ तो नहीं रहा है। हम सभी लड़कियाँ वाश रुम भी जाती थी तो कम-से-कम दो तो अवश्य साथ में रहती थी। मैं ही कभी-कभार, खासकर दिन में अकेले ही वॉश रुम चली जाती तो बाकी सारी लड़कियाँ मुझे घूरती रहती, जैसे मैं दूसरे के अधिकार क्षेत्र में अनाधिकार प्रवेश कर गई हो। हमलोगों का ही वाश रुम है, फिर हमें जाने में क्या डरना?
क्यों असुरक्षित या अरक्षित महसूस करती रहती हैं, ये लड़कियाँ? उन्हें बचपन से ही डरना सिखाया जाता है। वे खुलकर उड़ान भी नहीं भर पाती कि उनके पंख कुतर दिये जाते हैं। मुझे तो किसी ने डरने को नहीं कहा। मेरी माँ ने भी नहीं। हाँ, सतर्क रहने के लिये अवश्य आगाह किया है। मैं वाश रुम में घुसी। कोई नहीं था वहाँ। मैंने चारो तरफ जाकर चेक कर लिया। अन्दर से छिटकीनी बंद की। मैने अपनी अंडरगार्मेन्ट उतारी, बैक पैक से पैड निकाला, अंडरवीयर पर फिक्स किया, उसमें दोनों पैर डाले और उसे उपर सरका कर अपनी कमर तक चढ़ा लिया। उसी हालत में मैंने अपनी पीठ को पीछे की तरफ करके बेसिन के पास के शीशे में देखा कि पैड सही जगह स्थिर हो गयी है। श्राव के रिसने से कोई लाल रंग का दाग तो पीछे नहीं उभर आया है। यह सैनिटरी पैड पहनने का मेरा पहला प्रयास था, और पहला अनुभव भी, इसीलिये मुझे अभी भी यह सब याद है। उसके उपर मैंने अपनी शॉटस पहन ली।
मैंने बैक पैक टाँगे, वॉश रुम की छिटकीनी खोली, इधर - उधर झाँककर निश्चित किया कि कोई आसपास तो नहीं है, तेज़ कदमों से तीर की तरह निकलकर साइकिल स्टैंड के तरफ बढ़ ही रही थी। घोषाल दा, मेरे बैडमिंटन कोच भी शायद घर जाने के लिये अपनी केबिन से बाहर निकल रहे होंगे। उसी समय लगता है उन्होंने मुझे वॉश रुम से बाहर निकलते हुए देख लिया होगा।
"अरे, माला मुझे तुम्हारा ही ख्याल आ रहा था। आओ, आओ एक स्पोर्ट्स मैगजीन में वर्ल्ड वीमेन बैडमिंटन चैम्पिऑन का इंटरव्यू छपा है, जिसमें उसने कुछ टिप्स की चर्चा की है। मैं तुमसे शेयर करना चाहता हूँ। आओ, आओ।"
"पता नहीं, मैं किस अदृश्य शक्ति के इशारे पर उनकी केबिन के तरफ बढ़ गयी। कभी-कभी कुछ होना रहता है तो अनचाहे भी उस ओर कदम बढ़ जाते है, जिसके बारे में कभी सोचा भी नहीं गया है।
"माला, बैठो, बैठो, तुम बहुत थकी लग रही हो।"
मैं उनके सामने वाली कुर्सी पर बैठ गयी। उन्होंने अपनी केबिन के फ्रिज से एक टेट्रापैक में कोई ड्रिंक निकाला और एक स्ट्रॉ के साथ मेरी ओर बढ़ा दिया।
"मैं पिछली बार बैडमिन्टन टूर्नामेंट में कोच के रूप में सिंगापुर गया था, वहीं से लाया हूँ। यह बहुत ही प्रभावशाली एनर्जी ड्रिंक है। तुम थोड़ा सहज हो लो। तबतक मैं मैगजीन खोजता हूँ। मैं स्ट्रॉ से ड्रिंक सिप करने लगी। मैंने घोषाल दा को मैगजीन खोजते हुए चोर नजरों से अपनी तरफ झाँकते हुये भी देखा। मेरा सर हल्का - हल्का घूमने लगा। उसके बाद मुझे कुछ याद नहीं। मैने अपने को सायकिल स्टैंड के पास खुले हुए नल से तुम्हें मेरे चेहरे पर पानी के छींटे डालते हुये देखा। मेरा सिर तब भी चक्कर दे रहा था। तुमको कहते सुना, "आर यू ओके?"
"मैं ठीक ही हूँ, मुझे क्या हुआ है?" वहाँ से मैं उठी, तुम्हारे हाथ से मैंने अपना बैक पैक लिया, अपनी साइकिल उठायी और घर के तरफ धीरे धीरे सायकिल चलाते हुए बढ़ती चली गयी।
मैं समझ नहीं पा रही थी कि मैं घोषाल दा के केबिन से सायकिल स्टैंड के नल के पास कैसे आई या कैसे लायी गयी?
घर पहुंचकर मैने साइकिल पोरटिको में ही लगा दी। माँ नीचे के ड्रॉइंग रुम से लगे अपने कमरे में कुछ लिख रही थी। मैं दबे पाँव धीरे-धीरे कमरे में दाखिल हो ही रही थी कि माँ ने आवाज लगाई, "बेटा, सब ठीक तो है?" माँ मुझे बेटा ही कहती थी। माँ के घर में नीचे रहने से मैं बिना उनसे मिले ऊपर अपने कमरे में नहीं जाती थी। माँयें अपनी सन्तानों के हाव भाव देखकर और सूंघकर ही समझ जाती हैं कि कितना ठीक है और कितना नहीं। बहुत अधिक सम्वेदनशील होती हैं वे।
ठीक तो नहीं ही था। "मॉम, कमिंग डाउन आफ्टर बाथ!"
माँ चुप हो गयी। मैने बाथ तो नहीं लिया। हां, मैने अपने शॉटस उतारे, पूरे बदन को भींगे हुए टॉवेल से अच्छी तरह पोंछा, अन्डरगार्मेन्ट के अन्दर पैड को चेक किया, सही जगह तो है। फिर आईने के तरफ पीठ करके देखा कि कहीं स्राव निकलकर बाहर तो नहीं आ गया है। मुझे क्या मालूम कि पैड काफी तकनीकी शोध के बाद और कई बार टेस्ट कर लेने के बाद ही बाज़ार में बिक्री के लिए लायी जाती है। मुझे मॉम ने बताया था कि एक पैड 5-6 घन्टे के बाद ही बदला जाता है। ऐसा पांच दिनों तक करना होता है। इसलिये मेरे बैक पैक में पैड का पूरा पैकेट रखा हुआ था। पहली मेन्स थी ना, उत्सुकता, डर और कौतूहल के मिलेजुले अहसास से मैं गुजर रही थी।
तौलिया से बदन पोंछ लेने के बाद मैंने डियो से पूरे शरीर को खुशबू से नहला दिया ताकि अगर रितु श्राव की कोई गन्ध या महक जैसी हो तो वह डियो की मादक गन्ध के अन्दर छुप जाय।
मैंने नाइट ड्रेस पहनी और नीचे खाने की मेज पर जाकर बैठ गयी। माँ भी अपने कमरे से निकलकर आ गयी।
"तुम इतनी चुप - सी क्यों हो? सो काम?"
मैं उठकर माँ की छाती से लग गयी और उसे जोर से हग किया।
"सो यू हैव यौर फ़र्स्ट मेंस टुडे?"
"मॉम, यू आर अ बिग डिटेक्टीव। तुम तो बड़ी जासूस हो।"
"जो अपने बच्चे के क्रियाकलाप से नहीं समझ जाय कि उसके साथ क्या हुआ है, वह माँ कैसी?"
"सब ठीक है, तुम्हारी ट्रेनिंग मेरे काम आयी। मैने पैड ठीक से चेंज कर लिया।" मैं चहक कर बोली थी। मेरी उसी चहक में मैंने अपने अन्दर के दाह को दबा लिया था। माँ आश्वस्त हो गयी थी।
हमलोगों ने ठीक से डिनर लिया।
माँ ने कहा था, "तुम आज मेरे साथ ही सोयेगी। पहला मेन्स के दिन बेटी अकेली नहीं सोती।"
"मॉम, आई एम नॉट अ चाइल्ड।"
"यह मेरा आदेश है। और आदेश का सिर्फ पालन किया जाता है।नो इफ, नो बट्स।"
मेरे लिये कोई विकल्प नहीं था। मैं नीचे आकर माँ के गले में बाहें डाल दी। सोने की कोशिश करने लगी। माँ मेरे बालों में अपनी उँगलियाँ फेरती रहीं। मेरा मन तो आज की घटना या दुर्घटना को याद करने का प्रयत्न कर रहा था। मैं याद करने के लिये विचारों की रील को थोड़ा पीछे ले गयी, तो अपने को घोषाल दा के केबिन में उनके सामने पायी।
कुछ - कुछ धुंधली - सी याद स्मृति के गहन क्षितिज को चीरकर झांकने की कोशिश कर रही थी, 'हाँ, उसके बाद घोषाल दा ने एक पैक में ड्रिंक दिया। मैने उसे पिया था...उसके बाद कुछ याद नहीं। उसके बाद मैं और तुम साइकिल स्टैंड के पास। मुझे होश आया तो तुम मेरे चेहरे पर पानी के छींटे मारते हुए दिखे। इसका मतलब कि मुझे घोषाल दा के केबिन में बेहोश होने के बाद की घटनाएँ तुम ही बता सकते हो।'
इसलिये कल भी मेरा क्लब जाना जरूरी है। इस निश्चय के साथ मैं नींद के वश में विवश होती चली गयी।
♡♡♡♡♡
दूसरे दिन भी मैं बिल्कुल सामान्य ढंग से क्लब गयी थी। मेरी नजरें घोषाल दा को और तुमको ढूढ रही थी। मैं अपने नेट प्रैक्टीस पर अपनी एक मित्र के साथ खेल रही थी। इतने में तुम दिखाई दिये थे। तुम तो रोज ही दिखते थे। आज तुमको मेरी नजरें ढूढ रही थी और तुम दिख गये। कोई भी लड़का या लड़की जिसे आप रोज देखते हैं, वो रोज मिलता रहता है, तो कोई नयापन नहीं लगता। परन्तु अगर आप उसे ही ढूढ रहे हों, और नजर नहीं आ रहा हो, तो बेचैनी बढ़ जाती है। और काफी देर बाद अगर नज़र आ जाय तो खुशी दुगनी हो जाती है।
"ये, नील, व्हेयर वेयर यू? आ एम वेहेमेन्टली सर्चिंग फ़ॉर यू।"
मुझे लगा कि तुम जान बूझकर मुझसे नजरें चुराते हुए निकल जाना चाह रहा हो और अचानक मेरी स्कैन रेंज में आ जाने से तुम घबरा गये हो।
"तुम इतने घबराये हुए क्यों लग रहे हो, सो पज़्ज़्ल्ड?
"नो, आई एम क्वाईट काम ऐण्ड कूल।" तुमने अपने भावों को छिपाते हुये कहा था।
मुझे लगा कि यही मौका है, तुम्हें विश्वास में लेने का। "विल यू वॉक विद मी टुवार्द्स द अशोक ट्री?" अशोक वृक्ष फूटबाल मैदान के दूसरे छोर पर स्टाफ ऑफिस से दूर था।
किशोरावस्था अर्थात जवानी की दहलीज़ पर खड़े वयस्कोन्मुख लड़के को कोई चिकनी, रोमरहित सुगठित टांगों वाली शॉटस और स्लिम फिट टॉप में समुन्नत वक्ष और सुपुष्ट नितम्बों वाली हम उम्र लड़की, अकेले में, अकेले - अकेले शाम के फैलते-घिरते धुन्धलके में दूर स्थित पेड़ों की ओर चलने को कहे, तो इसका अर्थ बेवकूफ से बेवकूफ लड़के को समझने में कोई परेशानी नहीं होनी चाहिये। लेकिन तुम परेशान हो गये थे। शायद तुम मेरे अजीब, उटपटांग ब्यवहार और उन्मुक्त हावभाव से डरे रहते थे। तुम्हारे असमंजस की स्थिति को समझते मुझे देर नहीं लगी।
"तुम डरे हुए से लग रहे हो क्यों? मैं तुम्हे ऐस्सोर करती हूँ कि मैं तुम्हारा सेक्सुअल हैरासमेन्ट, यौन शोषण नहीं करूंगी।" मैं वातावरण को हल्का करने के लिये जोर से हँसी थी। परन्तु तुम उतने ही गम्भीर बने हुये थे।
तुम आश्वस्त से लग रहे थे। तभी तुमने कहा था, "ठीक है, चलो।"
तुम और मैं दोनों उस फूटबाल मैदान के ऑफ़िस बिल्डिंग से दूर वाले छोर पर अशोक पेड़ के नीचे बने सीमेन्ट के बैंच पर बैठ गये।
मैंने तुमको सहज करते हुए कहा था, "नील, बी कम्फोर्टेबल।" मैंने तुमसे दूरी रखते हुए ही कहा।
अब उस दिन का राज जानने के लिये, या निकलवाने के लिए तुम्हारी प्रशंसा करनी जरूरी थी।
"नील, तुम बहुत अच्छा खेलते हो। लगता ही नहीं कि आम तौर पर सीधा- साधा, साधारण-सा दिखने वाला लड़का बैडमिंटन कोर्ट में बिजली की तेजी से शटल पर टूट पड़ता है और विरोधी पर तुरत हावी हो जाता है।" मैंने एक तरह से तुम्हारी अतिशय प्रशंसा करते हुए ही कहा था।
"तुम भी बहुत अच्छा खेलती हो।" तुमने छोटा - सा जवाब दिया था। तुम कुछ सहमे - सहमे - से लग रहे थे।
तुम्हें और भी सहज करने के लिए मैं तुम्हारे और करीब खिसक गयी थी।
"नील, देखो तो अशोक के पेड़ के चिकने पत्ते हवा में कैसे सरसरा रहे हैं। उसपर सूर्य की रश्मियाँ कैसी झिलमिला रही हैं।"
मैंने तुम्हें थोड़ा और सहज करने के लिये कहा था।
"तुम मुझे यहाँ तक किसलिए ले कर आयी हो?" तुमने सपाट-सा सवाल उठा दिया था।
अब सहमने की बारी मेरी थी। तुम्हें सहज करके सच कहलवाने की मेरी सारी चेष्टाओं पर तुषारापात हो गया था। मैंने तय कर लिया कि अब मुझे स्ट्रेट फॉरवर्ड होकर अपना सीधा सवाल दाग ही देना चाहिये।
"नील, उस दिन मैं तो घोषाल दा के केबिन में थी, फिर तुम्हारे साथ सायकिल स्टैंड तक कैसे आई? और तुम मेरे चेहरे पर पानी के छींटे क्यों मार रहे थे? क्या मैं बेहोश थी?"
"तुम कुछ और पूछो। इसके बारे में मैं तुझे कुछ नहीं बताऊंगा।"
मेरी सारी योजना पर तुम्हारे इस जवाब ने एक टैंकर पानी डाल दिया था।
अब क्या किया जाय? हम तीनों के अलवा कोई था भी नहीं, जो बता सके। सदियों से रंभा, उर्वशी या तिलोत्तमा जैसी स्त्रियां या समुद्र - मंथन के समय स्वयं विष्णु ने मोहिनी रूप धारण कर, शारीरिक सानिध्य बढ़ाकर पुरुषों को लुभाने का जो कार्य करती आ रही हैं, मुझे भी वही सब करने को विवश होना पड़ा था।
याद है, उसी अशोक वृक्ष के पास वाली बैंच पर जब आसपास कोई नहीं था, मैने तुम्हारा हाथ पकड़ा था, पहली बार मैंने किसी लड़के का हाथ पकड़ा था। तुम्हारे गर्म हाथों का अहसास अपनी हथेलियों पर अंकित हो गया था। उसी छुवन को आजतक मैं अपनी हथेलियों के ऊपरी आवरण के नीचे कैद किये हूँ। मैं अन्तिम अस्त्र फेंककर निशस्त्र हो गयी थी, "तुम्हें, मेरी कसम, तुम कुछ मत छुपाना, नील!"
जो काम मेरी कांपती आवाजों ने नहीं किया, उससे अधिक मेरे गालों पर ढुलक आये आँसुओं ने किया था।
तुमने अपनी उंगली मेरे होठों पर रखी थी, "तुमने मुझे मजबूर कर अच्छा नहीं किया । बहुत भयावह यादें हैं। मैं उन्हें फिर से याद नहीं करना चाहता हूँ।"
मेरे आंखों की बहती नमी को देखकर तुमने कहना शुरु किया,
"उस दिन दौड़ लगाते-लगाते जैसे ही तुम ऑफ़िस के तरफ भागी, मुझे समझ नहीं आया आखिर तुम्हें हुआ क्या? मैं वहीं रुक गया। तुम्हारा इन्तजार करने लगा। काफी देर तक जब तुम्हें वापस आते हुए मैने नहीं देखा, तो मेरे मन में जिज्ञासा और आशंका दोनो घिरने लगी। इतने में मुझे घोषाल दा के केबिन में हल्की - हल्की रोशनी दिखी। सारे अधिकारी जा चुके थे। मैं उत्सुकता वश उसी तरफ बढ़ा। उनके बंद दरवाजे के की होल से देखने के कोशिश की, तो लगा कि तुम उसी केबिन में हो। मैंने उसके दरवाजे पर नॉक करने लगा। सोचा अगर तुम ना भी हुई, तो दादा से ठंढा पानी माँगूगा। उन्हें जब खोलने में देरी हुई तो मैं और भी जोर-जोर से पीटने लगा। जब दरवाजा खुला, तो मैंने तुझे सामने सोफे पर निश्चेष्ट लेटे हुए पाया। घोषाल दा लगता है, अन्दर के बाथरूम में घुसकर स्वयं को बंद कर लिये थे। मेरे पास कोई ऑप्शन नहीं था। तुम्हारा बैक पैक लिया, तुम्हें कन्धे पर उठाया, साइकिल स्टैंड के पास लाकर पानी के छींटे डाले, तब तुम्हें होश आया।"
इतना कहते - कहते तुम हाँफने लगे थे, जैसे मुझे उठाने के बोझ से अभी भी दबे हो।
मैंने तुमसे सिर्फ एक सवाल पूछा था "क्या मैं नेकेड थी?"
तुमने इसका कोई जवाब नहीं दिया था। सिर्फ सर हिलाकर "ना"का इशारा किया था। मेरी भौहें तन गयी थी। मैं वहां से सीधा उठी।।शाम का धुंधलका फैल चुका था। मैं तेजी से भागी।
तुम मेरे पीछे - पीछे दौड़ते भागते आ रहे थे।
♤♤♤♤♤
मैने क्लब जाना बंद कर दिया था। एक सप्ताह के बाद मेरे स्कूल में ही पढ़ने वाली लड़की मिली।
"तूने क्लब आना बन्द क्यों कर दिया? अरे जानती हो। एक दिन बैडमिन्टन कोच घोषाल दा को किसी ने पीछे से सिर पर इतनी जोर से मारा कि वह बहुत दिनों तक अस्पताल में पड़े रहे। उनके अंग का दाहिना हिस्सा लकवाग्रस्त हो गया है।"
"तूने नील को देखा था क्या?"
उसने भी आना बंद कर दिया है। वह भी कभी नहीं दिखाई दिया।"
मैं मुस्कराती हुई साइकिल चढ़ी और घर के तरफ चल दी।
अपने बैडमिन्टन चैम्प बनने के सपने को मैंने वहीं दफन कर दिया।
तुम्हारी खोज में,
मेरी 15 साल पहले की डायरी
-------
--ब्रजेन्द्रनाथ
ता: 25-03-2018,

Thursday, July 11, 2019

स्टोरी मिरर साइट पर 21 मई से 31 मई तक प्रकाशित कविताएँ (भाग 3, Vol III )

#BnmRachnaWorld
#poetriesonpictures

स्टोरी मिरर साइट पर 1 मई से 31 मई तक हर दिन दिए जाने वाले चित्रों पर मेरे द्वारा लिखी गई कविताएँ जिसके लिए मुझे यह प्रमाणपत्र मिला: इस साइट का लिंक इस प्रकार है:
https://storymirror.com/profile/6g3aqk4j/brajendranath-mishra/poems





21st May prompt Day 21।prompt 21 submission conf

चित्र: तिलश्मी चेहरे, भूतिया जैसे।



दाग छिपा लेते हैं लोग

चेहरे पर चेहरे लगा लेते हैं लोग।
असली चेहरा छुपा लेते हैं लोग।

यह जहाँ एक तिलश्मी जाल है,
कैसे - किसे यहाँ फँसा देते हैं लोग।

कोई चेहरा हँसता हुआ - सा है, मगर
उसके अंदर भी गम छुपा लेते हैं लोग।

आप के नाराज चेहरे से हमें याद आया,
छुपा कर भी बहुत कुछ बता देते हैं लोग।

उनकी पोशाक में जो झक्क सफेदी है,
'मर्मज्ञ' के दामन में दाग छिपा लेते हैं लोग।

©ब्रजेंद्रनाथ √

22nd May prompt Day 22।prompt 22 submission conf

चित्र: जर्सी में एक फुटबॉल लिए खिलाड़ी चला जा रहा है।



राही तू चलता जा

राही तू चलता जा,
चलने से तेरा वास्ता।
राहों पर कंकड़ - पत्थर,
टूट - टूटकर धूल बन गए।
वे सहलाती राही के
पैरों के नीचे फूल बन गए।

नहीं रहेगी थकन,
छाँव के नीचे बना है रास्ता।
राही तू चलता जा,
चलने से तेरा वास्ता।

चले चलो क्रीड़ागण की ओर
ध्येय प्राप्ति को मन संकल्पित।
तू रुकना मत, तू थकना मत,
कभी न हो तन व्यथित।

बाधाओं, अवरोधों से तुम,
जोड़ चलो एक रिश्ता।
राही तू चलता जा,
चलने से तेरा वास्ता।

सत्य शपथ ले, चले चलो तुम,
विजयपथ पर बढे चलो तुम।
अशुभ संकेतों से निडर हो,
रश्मिरथ पर चढ़े चलो तुम।

तन बज्र - सा, मन में शक्ति
झंझावातों में समरसता।
राही तू चलता जा
चलने से तेरा वास्ता।

©ब्रजेंद्रनाथ

23rd May prompt Day 23।prompt 23submission
Conf

चित्र: बड़ी सी तर्जनी जिसपर वोट देने के पहले स्याही लगायी जाती है।



मौसम का मिजाज बदल रहा है

ये कहना बहुतों को खल रहा है,
कि मौसम का मिजाज अब बदल रहा है।

सदियों से हवायें कैद थी कोने में कहीं,
 बहने को उनका भी दिल मचल रहा है।

दशकों से जिनके गुर्गे बाँट खाते थे सारे निवाले,
वही अब सबके हलक में उत्तर रहा है।

कसमसाकर रह जाते थे कई सवाल,
अब सबके जेहन से निकल रहा है।

नोंचकर फेंक देना है देशद्रोह के नासूर को,
दशकों से जो इस ब्यवस्था में पल रहा है।

मन कहता है कह दूँ, अब अँधेरा होगा नहीं,
देखो सूरज को, हर कहीं तो निकल रहा है।

ये कारवां है सच का जाएगा दूर तलक,
क्योंकि झूठ का पर्वत अब पिघल रहा है।

©ब्रजेंद्रनाथ

24th May prompt Day 24prompt 24submission
Conf

चित्र: एक कार्टून चरित्र की पीठ पर बंधे डंडे से 90 डिग्री पर बंधे एक और डंडे में ब्रेड बंधा है, और वह दौड़ा जा रहा है। सामने खाई है।



पड़ेगा तुम्हें पछताना

पीठ पर बंधे डंडे से बंधा हुआ है ब्रेड,
उसे देख दौड़ रहा क्यों एब्सेंट माइंडेड।

सामने दिखता नहीं क्या खुला हुआ है डिच?
आगे पैर बढ़ाये तो ऑफ हो जाएगा स्वीच।

खूब लगा लिए तूने खाने के लिए चक्कर,
दिमाग को ठंढा करके सोच जरा घनचक्कर।

हाथ तुम्हारे खुले हुए है, पीठ का डंडा खोलो।
उसके बाद ब्रेड को खोलो और उसे खा लो।

आँख मूंदकर कभी भी दौड़ नहीं तुम लगाना।
मुसीबत बढ़ जाएगी, पड़ेगा तुम्हें पछताना।

©ब्रजेंद्रनाथ √

25th May prompt Day 25prompt 25submission
Conf

चित्र: इस चित्र के आधे भाग में एक पिता अपने बेटे की उंगली थामे है। दूसरे आधे भाग में एक बूढ़ा व्हील चेयर पर है और एक नौजवान उसे थामे है।



सर्वत्र तुम्हारी जय हो

तेरी मुस्कराहटें फैलाती रहे रोशनी,
तेरी चपलताएँ चटपटी चाशनी।

तुम अपने पांवों से
मुझको भी चलना सिखला दे,
उठकर गिरना, गिरकर उठना,
और सम्भलना  फिर चल देना,
सारी दुनिया को, जीने का
यही तो है फंडा बतला दे।

तुम पकड़कर मेरी उंगली,
कदम बढ़ाओ ऐसे पथ पर,
नए बदलाव लाओ जग में,
चढ़े चलो रश्मिरथ पर।

सबों के चेहरे पर मुस्कान हो
ऐसे काज जहाँ में करना।
तेरे कर्मों के प्रकाश से,
फैले उजाले सबके अँगना।

तुम सच करना अपने सपने,
दुआएं दे रहे तुम्हारे अपने ।

मैं जब बूढ़ा हो जाऊँगा,
मेरा पाँव शिथिल हो जायेंगा।
सहारा देना तुम मुझको
मेरा जन्म सफल हो जाएगा।

इस जहाँ में निर्भीक बनो तुम
सर्वत्र  तुम्हारी  जय हो,
हर दिन तुम्हारा मंगलमय हो !
हर दिन तुम्हारा मंगलमय हो।

©ब्रजेंद्रनाथ √

26th May prompt Day 26 prompt 26 submission
Conf

चित्र: एक पौधा लगाकर हाथ के चुल्लू से जल का प्रवाह उसकी जड़ों में दिया जा रहा है।



धरा का भाग्य जगायें

एक छोटा सा पौधा लगायें,
आओ धरा का भाग्य जगायें।

पौधे की जड़ों को, गाड़ दो जमीन में,
बढ़ने दो, खड़ा होने दो।
फिर उन जड़ों में जल का प्रवाह दो,
ऊपर और ऊपर बड़ा होने दो।

धरा को हरा करें, सारी पृथ्वी का हो सिंचन,
अपने अंतर का त्याग दिखायें।
एक छोटा सा पौधा लगायें,
आओ धरा का भाग्य जगायें।

वृक्षों को काटकर बस्तियाँ बसाई,
वनों को उजाड़कर खेतियाँ सजाईं।
आबादी बढ़ती रही, जंगल कटते रहे,
धरा की सतह पर फटती रही बेवाई।

कबतक होगा यह, प्रकृति का दोहन
अब तो चेते, कुछ अनुराग दिखायें।
एक छोटा सा पौधा लगायें।
आओ धारा का भाग्य जगायें।

बादल उड़ते जा रहे गगन में,
कैसे धरा पर वे उतरेंगे ।
सीढ़ियाँ है नहीं वृक्षों की,
कैसे धरा पर वे पसरेंगें।

जल से शून्य धरती का उपवन
संभल जाएं, अपना सौभाग्य जगमगाये।
एक छोटा सा पौधा लगायें।
आओ धरा का भाग्य जगायें।

©ब्रजेंद्रनाथ √

27th May prompt Day 27 prompt 27 submission
Conf
चित्र: एक परी जैसी राजकुमारी अपने पलंग पर लेटी है।



अभिसार को यादों मे पिरो लें

अभिसार के क्षणों को यादों में पिरो लें।

खिड़कियों को  बन्द मत करो, खोल दो
हवाओं को निर्बाध अंदर तो आने दो।
बादलों में उड़ रहे पवन के रेशों से,
बदन को स्नेहिल स्पर्श से भिंगो लें।
अभिसार के क्षणों को यादों में पिरो लें।

उत्कंठित मनसे, उद्वेलित तन से,
उर्जा के प्रबलतम आवेग के क्षण से,
यौवन से जीवन का अविचारित यात्री बन,
अंतर में टूटते तटबंध  को टटोंलें।
अभिसार के क्षणों को यादों में पिरो लें।

यहाँ प्रेम ज्वर नहीं जीवन का पर्याय है।
खोजता है याचक बन बिखरने का उपाय है।
संचयन में नहीं, अभिसिंचन में अमृत कलश
उड़ेलकर देखे, विस्तार को समों लें।
अभिसार के क्षणों को यादों में पिरो लें।

देह, तरंग - सी खोजती है अतल तल
त्वचा और रोम - रोम सूंघते है प्रणय - जल।
आँखों क़ी तराई में डूबने दो आँखों को,
सांसों में सांसों को मिलाकर भींगो लें।
अभिसार के क्षणों को यादों में पिरो  लें।

चाँद भी देता है लहरों को नेह निमंत्रण,
चांदनी लुटाती है सम्पूर्ण अपना यौवन।
है डूबकर ही जाना, जाना है डूबकर ही,
धड़क रहा है दिल तो, उसे धडकनों में घोलें।
अभिसार के क्षणों को यादों में पिरो लें।

नींद नहीं आती, गिन गिन कर तारों को
करवटें बदलकर सोयें, फैला चाँदनी का आँचल।
मलयानिल भी हो चला शांत, बहो धीरे - धीरे
पलकों को कर बंद, अमृत- कलश टटोलें।
अभिसार के क्षणों को यादों में पिरो लें।

©ब्रजेंद्रनाथ √



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28th May prompt Day 28 prompt 28 submission
Conf
चित्र: जयमाल पहने हुए नव युगल में पत्नी महावर लगे हाथों की अंजुली से पति की अंजुली में रश्मअनुसार कुछ देते हुए:



तू है मेरा दिलवर

महावर लगे हाथों को
तेरे हाथों में सौंपती हूँ।
जीवन मेरा है तेरा,
समर्पण मैं करती हूँ।

मेरी सांसों में तेरी ही
अब यादें बसा करेंगीं।
तू ही है मेरा रहबर
तेरे संग चला करूंगी।

जीवन में आएंगे, कभी
पतझड़ कभी बसंत।
मुझे उसकी नही परवाह
अब तू है मेरा कंत।

अगर कभी भी कुछ भी
गलती हो जाएगी।
इशारों में बता तू देना,
मैं खुद संभल जाऊंगी।

मन उचाट हो जाये,
कभी मैं रूठ जाऊँ।
मुझको मना लेना तू,
तेरे पास आ मैं जाऊँ।

मन में बसा लिया है,
दिल में समा लिया है।
अपने नाव की पतवार
तेरे हाथों में दे दिया है।

तुझपे है भरोसा
भगवान से भी ज्यादा।
अंतर में उतर गया तू
भगवान से भी ज्यादा।

मुझे साथ लेके चलना
मेरे प्यार मेरे दिलवर।
हम आगे बढ़ चलेंगें
जब तू है मेरा रहबर।

©ब्रजेंद्रनाथ √

29th May prompt Day 29 prompt 29 submission
Conf
चित्र: एक तराजू में एक तरफ एक लड़का और दूसरी तरफ नोटों के बंडल, तराजू के डंडे पर लिखा है educaton।



शिक्षा को मत व्यापार बनाओ।

शिक्षा में अब चल रहा है नोटों का जोर,
अध्ययन और अध्यापन का चला गया है दौर।

पैसा से ले लो भैया डिग्रियाँ हैं बिक रही।
कौन सी डिग्री चाहिए, कीमत दे ले जा सभी।

डिग्रियाँ ले मेरा लाल, क्या कमाल कर जाएगा?
क्या उसकी प्रतिभा में नोटों से निखार आएगा?

यह सवाल है बड़ा बहुत, मंथन चाहिए।
शिक्षा क्या ऐसे चलेगी, मनन चाहिए?

शिक्षा को तौलो मत, इसे मत व्यापार बनाओ।
प्रतिभा का मत करो हनन, इसे मत बीमार बनाओ।

©ब्रजेंद्रनाथ √

30th May prompt Day 30 prompt 30 submission
Conf
चित्र: क्रिकेट के मैदान में भारत का लहराता हुआ झंडा।


यह क्रिकेट का मैदान नहीं, देश का सम्मान है।

भारत का तिरंगा फहर रहा,
क्रिकेट के मैदान में।
चौके छक्के लग रहे,
देश के सम्मान में।

पूरा देश है आ गया
मानों हरे भरे क्रीडांगण में।
तिरंगे की शान बढ़ाने को
खिलाड़ी जुटे इस आंगन में।

कोटि कोटि की नजर लगीं,
क्रिकेट के हर बॉल पर।
कोटि कोटि खिलाड़ी खेल रहे,
उमंगों हैं उबाल पर।

आगे बढ़ो वीरों रखो शान, हमारा देश महान है।
यह क्रिकेट का मैदान नहीं, देश का सम्मान है।

हर बाल है कीमती,
छूटने न पाए,
हर कैच है जोखिम भरा,
बाल चाहे कहीं भी जाये।

इधर झपट लो,
उधर लपक लो,
डाइव मारकर
बाल पकड़ लो।

क्षेत्ररक्षण हो सशक्त,
हर बाल पर रन रोको।
दुश्मन के इरादे पहचानो
हर बैट्समैन टन ठोको।

वीर बांकुरों, विश्व कप ले आओ, देश का अरमान है।
यह क्रिकेट का मैदान नही, देश का सम्मान है।

©ब्रजेंद्रनाथ √

31st May prompt Day 31 prompt 31 submission
Conf
चित्र: सारे धर्मों जैसे हिन्दू, ईसाई, यहूदी, मुस्लिम, सिख, जैन, बौद्ध, के प्रतीक चिन्ह एक फ्रेम में दिख रहे हैं।



एक धर्म हो मानवता

आओ एक धर्म ऐसा चलाएँ,
जहाँ सारे धर्मों के प्रतीक चिन्ह घुल जाएं,
और उनके जानने और मानने वाले,
एक दूसरे में ऐसे घुलमिल जाएँ,
जहाँ सिर्फ एक धर्म हो मानवता,
दया, प्रेम, करुणा, स्नेह और ममता।

स्व के ऊपर परमार्थ हो,
न कुछ अपना निहितार्थ हो।
हर कोई दर्द देखें तो दूसरों का,
कष्ट दूर करे तो दूसरों का।

हर कोई का मुक़म्मक ईमान हो,
गरीब न हो, हर कोई धनवान हो।
भूख और भय से ऊपर हो,
भ्रष्टाचरण मुक्त, हर कोई की पहचान हो।

कोई मुखौटा न हो,
शुद्ध हो आचरण।
एक ही ईश्वर हो,
जिसका करें सब वंदन।

परस्पर विश्वास हो,
शुद्ध हो अंतःकरण।
छल, कपट, द्वेष, दम्भ,
का मिट जाए चलन।

उल्लास हो, उमंग हो,
जीवन में प्रेमराग हो।
मधुर-मधुर धुन पर नर्तन हो,
परस्पर व्याप्त अनुराग हो।

©ब्रजेंद्रनाथ √


स्टोरी मिरर साइट पर 11 मई से 20 मई तक प्रकाशित मेरी कविताएँ (भाग 2, Vol II )

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स्टोरी मिरर साइट पर 1 मई से 31 मई तक हर दिन दिए जाने वाले चित्रों पर मेरे द्वारा लिखी गई कविताएँ जिसके लिए मुझे यह प्रमाणपत्र मिला: इस साइट का लिंक इस प्रकार है:
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11th May prompt Day 11, prompt 11 submission conf

चित्र: एक बड़े हाथी के साथ उसका छोटा बच्चा:


हाथी का शावक

हाथी का शावक, चलता माँ के साथ,
सूँड़ उठाये, मंद-मंद करता माँ से बात।

चलो माँ चले हम खुले अम्बर के नीचे,
मैं खेलूंगा, दोस्तों संग अँखिया मीचे मीचे।

खूब धमाल मंचाएँगे, झील के नीले जल में,
फेंकेंगे सूँढ़ से पानी, भींगेंगे सब पल में।

नन्हें चलना बाग में धीमे-धीमे बच- बच के,
फूलों की डालियां कहीं टूट न जाएं कुचल के।

खा लेना कहीं मिले जो बाग में पके केले,
पर बर्बादी कहीं न हो इसका शपथ तू लेले।

खूब बढ़ो, औ' खेलो, माँ करती देखभाल,
माँ हो जाये बूढ़ी, उनका रखना खयाल।

©ब्रजेंद्रनाथ √

12th May prompt Day 12, prompt 12, submission conf
चित्र: एक माँ के आँचल में, गौद में एक बच्चा:



माँ का आँचल

माँ का आँचल, हृदय की धड़कन,
बालक माँ के गोद में, सुरक्षित उसका जीवन।

बचपन में बालक जब भी
करता है मल- मूत्र -विसर्जन,
माँ उसको नई उत्साह से
करती अंतः वस्त्र परिवर्तन।

माँ की आशाओं का अंकुर,
यत्न से वह करती है, उसका लालन पालन।

कितना सुकून है माँ के
आँचल में बीते बचपन।
माँ तेरी ममता से सिंचित
हो मेरे प्राणों का पोषण ।

माँ तेरे सपनों का सुंदर,
मैं निर्मित करूंगा, एक भव्य भवन।

माँ मेरे तू रहती पास
स्नेह की देती शीतल छाँह,
माँ मेरी त्रुटियों पर देती,
सुधार करने की सही सलाह।

तेरी आशाओं के अनुरुप
आगे बढ़, जग में कुछ नए करूँगा परिवर्तन।
माँ तेरी ही गोद में सुरक्षित मेरा जीवन।


©ब्रजेंद्रनाथ √

13th May prompt Day 13, prompt 13, submission conf
चित्र: एक हाथ पर रखी अलार्म घड़ी।



वक्त के साथ कुछ वक्त बिताता हूँ

आ तुम्हें घड़ी की टिक-टिक सुनाता हूँ,
चलो वक्त के साथ कुछ वक्त बिताता हूँ।

समय जो निकल गया लौट आएगा फिर,
इसी गलत फहमी में खुशियाँ मनाता हूँ।

दस्तक देता है समय, अवसरों के साथ
उनसे अनजान अपनी पहचान बनाता हूँ।

घड़ी का क्या वो तो निकलता जाएगा।
रेत भरी मुट्ठियों में जुगनूयें सजाता हूँ।

समय के पार कोई न निकला है कभी,
उसी दायरे में खुशी के पल चुराता हूँ।

©ब्रजेंद्रनाथ √


14th May prompt Day 14, prompt 14, submission conf

चित्र: शतरंज के बोर्ड पर 'बादशाह' के गोटी की तस्वीर।



वही वीर कहलायेगा

शतरंज के रण में राजा खड़ा, खोज रहा है साथ,
घोड़े, हाथी, सैनिक दौड़ो, होगी सह और मात।

आक्रमण की हो रणनीति कि वह निकल न पाए,
दुश्मन पर करो प्रहार कि वो फिर सम्हल न पाए।

चाल उसकी भाँपो, और अपनी चल तो ऐसी चाल,
दुश्मन के घोड़े - हाथी मारो, मचा दो रण में बवाल।

बजाओ नगाड़े, घंटों को,, गूंजे दिशाएं ललकारो से,
रुंड, मुंड, मेदिनी, अंतड़ियाँ बेधो तीर- तलवारों से।

ऐसा रण हो, ऐसा रण फिर कभी नहीं वैसा रण हो,
गिरती रहे बिजलियाँ, विकट आयुधों का वर्षण हो।

एक युद्ध चल रहा अंतर में, लड़ें उससे ऐसे रथ पर,
सत्य, शील की ध्वजा, बल विवेक के घोड़े हो पथ पर।

क्षमा, कृपा , समता की रस्सी, ईश भजन हो सारथी,
विराग, संतोष का कृपाण हो, युद्ध में बने रहे परमार्थी।

यह संसार है माहारिपु, उससे युद्ध जो जीत जाएगा,
जिसका ऐसा दृढ़ संकल्प हो, वही वीर कहलायेगा।

©ब्रजेंद्रनाथ√

15th May prompt Day 15 prompt 15, submission conf

चित्र: कोयले के रंग से सने काले हाथ एक दूसर्व के ऊपर सजे हैं:



धरा का भाग्य जगाता हूँ

हाथ काले, उंगलियाँ खुरदरी बनाता हूँ।
उनपर फफोलों की मोती उगाता हूँ।

सबों का भाग्य जगाने वाला श्रम - देवता हूँ।
बाजुओं की गठन, मांस-मज़्ज़ा पिघलाता हूँ,

मेरी पसीने की बूँद जिस जगह गिरती है,
वहॉं हिमालय - सा ऊँचा महल उठाता हूँ।

वहाँ पर आसमानों को जो कंगूरे छू रहे हैं,
उसकी कंक्रीट में श्रम- बिंदु मिलाता हूँ।

चीर कर हल से, अन्न देवता को जगाता हूँ,
फिर भी, अन्न कम, मैं किसान कहलाता हूँ।

जो भी मिले लेकर,उसे संतुष्ट हो जाता हूँ,
कर्मयोगी बनकर धरा का भाग्य जगाता हूँ।

©ब्रजेंद्रनाथ √

16th May prompt Day 16 prompt 16, submission conf
चित्र: एक तीर चलानेवाला धनुष बाण लिए हुए और सामने लक्ष्य , कुछ तीर नीचे गिरे हुए:


तकली गलाकर तीर गढ़ लिए हैं

तू खड़ा हो, ले धनुष, खींच
प्रत्यंचा पर रखकर वाण को।
लक्ष्य - भेदन के लिए, ध्यानस्थ हो,
दृष्टि टिका, संधान को।

कुछ वाण होंगे जो गिरेंगे,
लक्ष्य से कहीं दूर जाकर।
मत कर, तू उनकी फिकर,
धनुष उठा अभ्यास कर।

अभ्यास से तुम साध सकते
हो, धरती, हवा औ' गगन को।
अभ्यास से ही बांध सकते हो,
उदधि, गिरि, नदिया, अगन को।

तुम धनुर्धर हो, परसुराम, द्रोण,
भीष्म, अर्जुन की हो संतान ।
तीक्ष्ण कर वाणों को अपने
जग को बता अपनी पहचान।

अहिंसा की तकली गलाकर
तीर हमने गढ़ लिए हैं।
त्रिपिटक सजाकर रख दिये
हल्दीघाटी को हमने पढ़ लिए हैं।

©ब्रजेंद्रनाथ √

17th May prompt Day 17 prompt 17, submission conf

चित्र: एक पंख फैलाये परी आसमान से उतर रही है। एक खंडहर जैसे महल के पाए की जड़ के पास एक व्यक्ति बैठा है । उन दोनों के बीच एक छाया मूर्ति सी है।



उत्सव मना ले

कौन बैठा है एकांत,
खंडहर के अवशेष में।
रोकता हुआ स्वयं की
छाया को इस परिवेश में।

लो उतरती बादलों के
बीच से पंखों वाली परी।
बाँट ले उससे तू अपनी
चिंताओं, अवसादों की घड़ी।

भूल जा वो क्षण जो
थे तुम्हें विच्छिन्न करते।
लासरहित, निरानंदित
श्रमित, थकित, व्यथित करते।

लेकर है आयी एक नव
उल्लास तुझमे जगाने।
तेरे मन से विषाद के
फैले हुए घेरे मिटाने।

जीवन में उमंगों के,
खुशियों के पल चुरा ले।
मिलेगी ना दुबारा जिंदगी
मस्ती भरा तू उत्सव मना ले।

©ब्रजेंद्रनाथ √

18th May prompt Day 18 prompt 18, submission conf
चित्र: टूटी हुई है कुछ चारपाइयाँ हॉस्पिटल में, बिखरे हुए हैं कागजात! लगता है कोई आतंकवादी घुसकर ऐसी दशा कर गया है:


कुदरत का कहर टूटेगा

टूटी हुई हैं चारपाइयाँ अस्पताल की,
बयाँ कर रहे हैं इसके बुरे हाल की।

क्या हुआ यहाँ कोई घुस आया है।
दहसत फैला कर कोई इनाम पाया है।

यह अस्पताल है, दर्द मिटाने की जगह
इसे तो बक्श दो, है प्यार बाँटने की जगह।

इसे तो छोड़ दो ऐ इंसानियत के दुश्मन।
यहाँ पर मरीज है, ऐ मुहब्बतों के दुश्मन।

अपने खूनी पंजे यहाँ पर न डाल,
अपनी दरिंदगी यहां पर ना निकाल।

तेरे ऊपर कुदरत का कहर टूटेगा।
तेरे पापों का घड़ा एक दिन फूटेगा।

©ब्रजेंद्रनाथ √

19th May prompt Day 19 prompt 19, submission conf
चित्र: एक घर और उसके दोनों तरफ पति-पत्नी और बच्चा और बीच में चाभी का गुच्छा!



आओ बनाये हम अपना घर

ये मेरा घर, ये तेरा घर,
आओ बनाएं इसे हमारा घर।

चलो ले कर चाभी खोले घर अपना
आओ बच्चे साकार करें एक सपना।

तेरी किलकारियाँ गूंजेंगी घर अंगना,
खनकेगा सजनी के हाथों का कंगना।

छत की मुंडेर पर, धूप उतरेगी
छलकेगा कलश , गैया रंभायेगी।

शाम से पहले धूप अरगनी पर टँगेगी,
चाँदनी आंगन को रजत रंग रंगेगी।

छत - आंगन भींगे, बूँदे अब बरसेंगी
मन में आनंद भरे, धरा अब सरसेगी।

प्रेम से आप्लावित, सींचित कर,
आओ बनाये हम अपना घर।
आओ बनाये हम अपना घर।"

©ब्रजेंद्रनाथ √

20h May prompt Day 20 prompt 20 submission missed
चित्र: तिरंगे में लिपटे हुए ताबूत



जलाओ आग सीने में

धरा पुकारती, गगन पुकारता
जलाओ आग सीने में, वतन पुकारता।
जो रच रहे षड्यंत्र देश के विखंडन का,
उनके मान- मर्दन को प्रण पुकारता।

ये तिरंगे में लिपटे ताबूत है शहीदों का,
ये आंसू बहाने का वक्त नहीं है।
चलो मनाओ जश्न, आग जगाओ
तूफान शांत करने का वक्त नहीं है।

जो छद्म युद्ध कर रहे, उन्हें दिखा दो।
छिप के वार कर रहे, उन्हें सिखा दो।
क्रुद्ध हिन्द कितना कराल होता है।
त्रिशूल पर सवार कैसे महाकाल होता है।

क्षत विक्षत लाशों की ढेर से
एक लिंग प्रकट होंगे ले मशाल लाल
लेलिह्य जिह्वा से रक्तपान के लिए
रणचंडी सजायेगी एक नया थाल।

देश के सब्र का टूट गया बाँध अब
बलिदानी जत्थो का समर्पण पुकारता।
जो रच रहे षडयंत्र देश के विखंडन का
उनके मान मर्दन को प्रण पुकारता।
------

देश प्रेम की अग्नि को जलाये रखने के लिए
तूफान को आसमान उठाये रखने के लिये।
रण के मैदान में आ जुटो ऐ वीर बान्कुरों,
ये रक्त के लाल रंग से मशाल बालने के लिए।

यह युद्ध महायुद्ध है, बचे ना कोई जयचन्द,
अंदर और बाहर यह युद्ध छिड़ा है प्रचंड।
रुको ना वीर साहसी, झुको ना वीर साहसी,
दुश्मन के इलाकों को बांट दो खण्ड - खण्ड।

आँसू नही, आक्रोश है छाया हर चेहरे पर,
यह आग नही बुझने देना, चमन पुकारता।
जो रच रहे षडयंत्र देश के विखंडन का,
उनके समूल उन्मूलन को प्रण पुकारता।

धरा पुकरती, गगन पुकारता
जलाओ आग सीने में वतन पुकारता।
जो रच रहे षडयंत्र देश के विखंडन का
उनके मान मर्दन को प्रण पुकारता।

ब्रजेन्द्रनाथ √

स्टोरी मिरर साइट पर 1 मई से 10 मई तक लिखी कविताएँ (भाग 1, Vol I )

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स्टोरी मिरर साइट पर 1 मई से 31 मई तक हर दिन दिए जाने वाले चित्रों पर मेरे द्वारा लिखी गई कविताएँ जिसके लिए मुझे यह प्रमाणपत्र मिला: इस साइट का लिंक इस प्रकार है:
https://storymirror.com/profile/6g3aqk4j/brajendranath-mishra/poems

3rd May के चित्र पर: Prompt 3, Day 3,
sbmission conf.
चित्र: आसमान पर सीढ़ी लगाए हुए एक आदमी कैनवास पर ब्रश से रंग रहा है:




आसमाँ पर कूची चलाऊँ

बादलों पर सीढ़ी लगाऊं, आसमाँ पर कूची चलाऊँ।
उनके संग उड़-उड़, हवा में, रंगीन बिजलियाँ सजाऊँ ।

ऐ पवन रुक जा कहाँ तू बावरी सी जा रही?
बादलों पर लिखी है पाती में अपने दिल का हाल
तू उन्हें भी संग लेकर उड़ती जा, और उड़ती जा,
देना संदेश मेरा और लेना प्रेमा को संभाल।

मैं तो हूँ अभिशप्त दूर पर्वत पर भोगता संत्रास
कैसे पाऊँ प्रिया तेरे अंक को और विश्रांति पाऊँ।

4th May के चित्र पर: बीच में आग जल रही है, माँ और सामने बच्ची हंस रहे है Prompt 4, Day 4,
sbmission conf



जिंदगी की भूख में

आग सी जलती रही है, जिंदगी हर भूख में।
हँस के थापेंगे रोटियाँ, जिंदगी की भूख में।।

भूख भी कोई प्रश्न है, जैसा मन वैसा ही तन
ओढ़ लेंगें रोटियाँ, जिंदगी की भूख में।

आंतों में छुपाकर भूख को, नींद लेते ही रहेंगें
ओढ़ उम्मीदों की चादर, जिंदगी की भूख में।

कल की फिकर, कल पर ही छोड़कर
आज नारे ओढ़ लेंगें, जिंदगी की भूख में।

हड्डियों ने ओढ़ ली है आज चमड़ी की चादर
आंतें जागती रहीं है, जिंदगी की भूख में।

विरासत की सियासत होती रही भूख में पर
तस्वीर कभी बदली नहीं, जिंदगी की भूख में।

5th May का चित्र, हाथ में काले ग्रीज़ सने हुए हैं, Prompt 5, Day 5, submission conf



खींचता हूँ रेखायें

हाथों में लगाकर लेप, मैंने मिटा दी रेखायें।
अपने बाजुओं के दम से खींचता हूँ रेखायें।

जहाँ पर ताप ने सोख ली है नमी धरती की,
मैं बादल बन बरसकर सींचता हूँ रेखायें।

कहीं पर मिट्टी है और है उड़ती धूल के साये,
मगर आशियाँ में तिनकों से सजाता हूँ रेखायें।

जोर कितना हो हवा में, तूफानों से नहीं डरता
कश्तियों के भी पतवार से रचता हूँ रेखायें।

मेरे नशे मन में फैले डोरों के रंग पे ना जाओ,
रोशनी गुल है, अंधेरे में भी खींचता हूँ रेखायें।

6th May Day 6, prompt 6: submission confirmed
चित्र: एक हाथ में मिट्टी और उसपर उगे पौधे से आती रोशनी, दूसरे हाथ से उसे ढंकने की कोशिश:



जुगनू उगाते हैं

चलो हाथों में कुछ जुगनू उगाते है,
रेखाओं से परे, किस्मत जगाते हैं।

उन्हीं तस्वीरों पर रोया करते है लोग,
जीवन में जो दूसरों के काम आते है।

कोई तो सूरत होगी इस भीड़ में कहीं,
जिसकी आंखों से आप आंखें मिलाते हैं।

मैं भटकता हूँ नहीं, तिश्नगी में कहीं,
मिलेगा कोई, जो प्यासे के पास जाते हैं।

कुछ लोग तो होंगे सफर में ऐसे भी,
जो दूसरों का बोझ अपने सर उठाते हैं।

©ब्रजेंद्रनाथ

7th May prompt Day 7, prompt 7, Submission।conf
चित्र: एक अंतरिक्ष यात्री के सामने आदि मानव, जानवर के खालों में:


आओ मेरे जग में साथी

तुम हो किस ग्रह के साथी,
आओ मेरे जग में साथी।

देखो इस नवीन धरा को,
हरे भरे बागों को देखो,
देखो ताल तलैया को
रंगीन परागों को देखो।

हम उन्मुक्त वासी हैं जग के
यहाँ न कोई बंधन है।
हम नाचते गाते है खुलकर
यहाँ न कोई उलझन है।

मेरे साथ गुजारो कुछ पल
आओ मेरे संग में साथी।

©ब्रजेंद्रनाथ

8th May prompt Day 8, prompt 8, Submissiin conf
चित्र: एक कार्टून कैरेक्टर छोटे टेबल पर सोया है। उसके चारों तरफ बोतले है। एक बोतल उसके पेट पर भी है।



बोतलों में हंसी ढूढ़ता हूँ

मैं अपने पास फैली
बोतलों में हंसी ढूढ़ता हूँ।
अपने दर्द को उसमें डुबोता हूँ,
उसमें घोलता हूँ,
और उससे खुशी के पल
निकालता हूँ।
कोशिश करता हूँ,
उसे संजोकर रख लूँ,
समेटकर बंद कर दूँ, संदूक में।
...और जरूरत पड़ने पर
उस समय निकालूँ,
उस उस समय निकालूँ,
जब घेरने लगते है,
आँसुओं के घेरे,
संवादों, विवादों और
दुर्वादों की बर्फ पर...
और बर्फ पड़ जाती है।

लेकिन वे पल मुठियों में,
रेत की तरह फिसल पड़ते हैं।
मैं फिर खुशी को ढूढ़ने की
वैसी ही कोशिश करता हूँ।
पर अब हँसी भी नहीं मिलती है।
जिंदगी कहीं फिसलती है,
और फिर नहीं मिलती है।
और फिर नहीं मिलती है।


9th May prompt Day 9, prompt 9, submission conf.
चित्र: एक चिंपांजी के आगे एक लड़की बैठी हुई खिल खिलाकर हंस रही है।



खिली-खिली रहो

खिलखिलाकर हंसती रहो,
तुम खिली खिली रहो।

मुझे हंसते हुए लोग
अच्छे लगते हैं।
चाहे उनकी हंसी
मेरा मजाक ही बनाती हो।
पर तुम मेरा मजाक नहीं
बना रही,
मुझे मालूम है।
तुम मुझे भी हँसाना चाह रही हो।
जो तुम चाह कर भी
नहीं कर सकती।
क्योंकि अगर मैं हंस भी दूँ,
तो मेरी हँसी दिखेगी नही,
मेरा चेहरा ही ऐसा है।
मुझे मालूम है।

पर तुम हँसती रहो,
खिलखिलाती रहो।
मेरे साथ खेलकर अठखेलियाँ,
खिली-खिली रहो!
खिली-खिली रहो!!

©ब्रजेंद्रनाथ मिश्र

10th May prompt Day 10, prompt 10 submission conf
चित्र: नंग धड़ंग बच्चों द्वारा जल-क्रीड़ा करना:


बच्चे रहें खुशहाली से

बच्चे कर रहे तड़ाग में जमकर जल विहार,
गर्मी के मौसम में यही राहत और सम्हार।

सूरज ऊपर तप रहा, सोखे ताल तलैया को,
पानी की बूंदे दे दो, फुदक रही गोरैया को।

गर्म हवाओं से जल रहे धरती और गगन,
बाहर निकलने के पहले ढंके सिर और बदन।

छाछ पियें, आमरस पीएं और पियें जल जीरा,
मस्त मेलन, तरबूज और खाएँ ककड़ी खीरा।

सूखने दो समंदर को, और बनने दो बादल,
दौड़ लगाएंगे पावस में, बरसे बूंदे छल छल।

पेड़ लगाओ, करो धरा को आच्छादित हरियाली से,
पर्यावरण स्वच्छ, निर्मल हो, बच्चे रहें खुशहाली से।

©ब्रजेंद्रनाथ


Tuesday, July 9, 2019

संजय पथ डिमना रॉड मानगो: कहे अपनी व्यथा कथा (कविता)


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एक जुलाई को दैनिक जागरण के जमशेदपुर एडिशन के पृष्ठ संख्या ७ पर प्रकाशित मेरी कविता जिसमें संजय पथ, डिमना रोड, मानगो ,जमशेदपुर (जहाँ मैं रहता हूँ)  अपनी ब्यथा सुना  रहा है . इस रोड को शुरू में ही ऐसा  एन्क्रोचा  गया, कोंचा गया  कि इसकी साँसें अवरुद्ध होने लगी . फिर भी यह निशक्त बच्चे की तरह बढ़ता गया.. आप भी सुनें इसकी कहानी और dislike  करें उस ब्यवस्था को और मनुष्य की कर्तब्यविहीन, गैरजिम्मेदाराना ब्यवहार  को जिसके कारण सड़कें अनधिकृत अतिक्रमण के कारण कहीें - कहीें इतनी संकीर्ण हो गयी है कि दुर्घटनाओं की स्थितियां बनती प्रतीत होती हैं...

संजय पथ, डिमना रोड मानगो,
कहे अपनी कहानी

मैं संजय पथ, डिमना रोड से,
दैनिक जागरण प्रेस के ठीक सामने,
पूरब की तरफ अंदर तक पसरा हूँ,
दर्द से कराहता हूँ,
रोता हूँ, बिलबिलाता हूँ,
आंसुओं से लथपथ हूँ,
मैं संजय पथ हूँ .
मैंने जैसे ही अपना जिश्म फैलाना चाहा,
मेरी गर्दन को दोनों ओर से चोक कर डाला,
साँसें सुबकने लगी,
संतप्त, त्रस्त, भयभीत, 
लेकिन मैं मरा नहीं,
निशक्त बच्चे की मानिंद बढ़ता गया,
पसरता गया, 
इस आस में कि कभी तो फिरेंगे दिन मेरे,
आपने फुटपाथों के उद्धार का लिया संकल्प,
शायद  इस अहिल्या का भी उद्धार हो,
फिरें दिन मेरे.
*****
मुझपर चलती है, छोटी - बड़ी,
सैकड़ो  गाड़ियां, रोज सुबह से रात तक.
बोलेरो, स्कोर्पिओ, 
हौंडा, हुंडई, टोयोटा पेजेरो,
न जाने कौन - कौन,
मैं  ५०० घरों, कई अपार्टमेंटों और कैम्पसों का ,
निकास - द्वार हूँ, मुख्य सड़क तक,
मैं रोज  उठता हूँ, डरते - डरते,
दिन गुजरता है, डरते - डरते,
रात आती है, डरते - डरते,
कही कोई टू व्हीलर, फॉर व्हीलर,
गिट्टी, बालू, सीमेंट भरा ट्रक ,
कुचल न दे, किसी मासूम को, किसी बुजुर्ग को,
शायद मैं इसी डर में जीता रहा हूँ,
जीए जा रहा हूँ.
बस एक सुकून भरा है दिल में,
जब आनंद  से भर जाता हूँ,
जब मासूम, नन्हें, नन्हें पाँवों का स्पर्श  पाता हूँ. 
बस इसी एक आस में मैं दिनभर,
ट्रक, टू व्हीलर, फॉर व्हीलर द्वारा 
रौंदा जाना भी बर्दास्त करता रहा हूँ.
भगवान न करे,
आग अगर लग जाए, किसी भी घर में,
कैसे लेकर आऊंगा मै अग्निशमन गाड़ियों को?
मैं क्या जानूँ, भगवान ही जानें,
भगवान ही जानें,
ऐसा भगवान न करें ...
भरोसा उन्हीं का है,
मैं तो आदमियों के टूटे भरोसे के साथ
जी रहा हूँ,
सांस रुक रूककर चल रही है,
फिर भी जी रहा हूँ.
मेरी छाती पर बम्प बना दिए गए हैं,
उन्हें भी मैं लिए जा रहा हूँ,
मेरे शरीर को जगह - जगह,
घायल किया  जाता  है,
उस दर्द को भी पीये जा रहा हूँ.
मैं ३० फ़ीट चौड़ा  शरीर कभी भी, कहीं भी 
धारण नहीं कर पाया,
पता नहीं कब दिन फिरेंगे मेरे?
कब मैं पंगु लाचार, पाउँगा विस्तार?
कब होगा मेरा उद्धार, कहाँ लगाऊँ मैं गुहार?
इसी आस में जिए जा रहा हूँ,
मैं संजय पथ हूँ,
रोता हूँ, बिलबिलाता हूँ,
आंसुओं से लथपथ हूँ,
मैं संजय पथ हूँ.

--ब्रजेंद्र नाथ मिश्र
सुन्दर गार्डन, संजय पथ, डिमना रोड, मानगो.

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