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Thursday, July 28, 2022

शिव समर्पित तन हो मेरा (कविता )

 #BnmRachnaWorld

#shivapoem



सत्य शोधित मन हो मेरा 










शिव समर्पित तन हो मेरा

उदधि में अथाह हो जल,
पतवार तू चलाता चला चल।
उठती लहरों से डरो मत
बाजुओं में भरो हिम्मत।
उत्साह भर नाविक बढ़ो,
पास  देखोगे  किनारा।
बढ़ चलो...

गीता ज्ञान का नित्य चिंतन
नीति पथ  पर धर चरण।
अविद्या - तम का हो विनाश,
सत्य का  फैला हो प्रकाश।

जीना उसी का है सार्थक,
जिसने इन्हें जीवन में उतारा।
बढ़ चलो प्रगति पथ पर
हो तेरा संकल्प न्यारा।

शिव समर्पित तन हो मेरा,
सत्य शोधित मन हो मेरा।
तपस्वी की हो तितीक्षा,
प्रखरता की हो परीक्षा।
कल्याणकारी पथ के राही
चलो निरंतर सबका प्यारा।
बढ़ चलो प्रगति पथ पर
हो तेरा संकल्प न्यारा।

ताम्र पात्र में भर गंगाजल
चल काँवरिया चल चला चल.
बोल बम का स्वर निनादित,
अभिषेक का बीते न पल.
शिव शंभू, औघड़ दानी
देंगे हर पल तुझे सहारा.
बढ़ चलो...

सावन में  हो रुद्राभिषेक
शंभू की होंगी कृपा विशेष
दूर होंगी सब बाधाएं
लक्ष्य पर दृढ हो निगाहें.
शिव आराधन में मगन मन
दृष्टि पथ में  ध्रुवतारा.
बढ़ चलो...

©ब्रजेन्द्र नाथ


मेरी आवाज में इस रचना को मेरे यूट्यूब चैनल "marmagya net" के इस लिंक पर सुनें :

https://youtu.be/PkgIw7YRzyw




Friday, July 22, 2022

पुरस्कार मिलने के बाद की परीक्षा (कहानी )

 #BnmRachnaWold

#inspiringstory








पुरस्कार मिलने के बाद की परीक्षा

जनवरी की सुबह पाँच बजे की ठिठुराती ठंढ... साँय - साँय करती हवा...पहाड़ की तलहटी से गुजरना....पैर तो कटा जा रहा था क्योंकि उसमें हवाई चप्पल पहने ही मैं जल्दी - जल्दी में निकल गया था...बर्फीली हवा ज्यादा तेजी से चलने को विवश कर रही थी...शायद रफ्तार बढ़ाने से शरीर में गर्मी आ जाय...इससे लगभग दौड़ते हुए ही स्टेशन की तरफ सुबह साढ़े छः बजे की ट्रेन पकड़ने जा रहा था। बात सन 1964 की है, जब मैं नवीं में था। अवसर था, 26 जनवरी को ब्लॉक स्तर पर आयोजित  निबंध प्रतियोगिता में भाग लेने का।
हमलोग वजीरगंज स्टेशन उतरकर प्रतियोगिता स्थल पर सुबह ही सुबह पहुँच गए। दस बजने वाले थे,  लाउडस्पीकर पर प्रतियोगियों को कमरे में जाने की घोषणा हुयी। हमलोग एक कमरे में  निर्धारित स्थान पर बैठ गए। निरीक्षक द्वारा घोषणा की गयी कि अभी आपलोगों के लिए सामने के श्याम पट पर विषय लिखा जाएगा। उसी समय से आपकी प्रतियोगिता का समय प्रारम्भ हो जाएगा। नियत समय 45 मिनट था। एक दूसरे अधिकारी आये। उन्होंने बोर्ड पर बड़े-बड़े अक्षरों में विषय अंकित किया। मैंने विषय देखा और लिखना शुरू कर दिया। कब 45 मिनट समाप्त हो गए, पता ही नहीं चला। निरीक्षक ने स्टॉप राइटिंग की घोषणा की और आकर पुस्तिका एकत्रित कर चले गए।
चार बजे अपराह्न से पुरस्कार वितरण का कार्यक्रम आरम्भ हुआ। उस क्षेत्र के कलेक्टर पुरस्कार वितरण के लिए पधारे थे। सबसे पहले खेलों और दौड़ आदि प्रतियोगिताओं के पुरस्कार वितरण किये जा रहे थे। पर हमें तो इंतजार था, निबंध प्रतियोगिता के पुरस्कार की घोषणा की। सभी पुरस्कार जब वितरित हो गए, तब एक अन्य उदघोषक, जिन्होंने श्याम पट पर निबंध प्रतियोगिता का विषय लिखा था, आकर बोलना शुरू किये। निबंध प्रतियोगिता के आयोजन के बारे में भाग लेने वाले कुल विद्यालयों और विद्यार्थियों की संख्या के बारे में विवरण देते हुए उन्होंने बताया कि निबंध लेखन की जाँच भाषा की शुद्धता, शब्दों के चयन, विषय प्रवेश की सार्थकता, विषय के विस्तार तथा हस्तलेखन की सुंदरता आदि मानकों पर की गयी।
इसमें मेरे गांव के हाई स्कूल, के प्रतियोगी सारे मानकों पर अन्य विद्यालय के प्रतियोगियों से ऊपर थे। और उन सबों में तृतीय रहे मेरे विद्यालय के ही एक विद्यार्थी का नाम लिया गया, द्वितीय आये मेरे विद्यालय के ही दूसरे विद्यार्थी का नाम लिया गया। ...और प्रथम आये उसी विद्यालय के ब्रजेंद्रनाथ मिश्र! सारा जनसमूह तालियों से गूंज रहा था। हमलोगों को पुस्तकें, जिसमें मुझे याद है कि एक मोटी सी अंग्रेजी हिंदी डिक्शनरी थी और उसके साथ अन्य पुस्तकें भी थी, जिसका वजन तीन किलो के करीब अवश्य रहा होगा, मिलीं। उसके साथ-साथ प्रमाणपत्र भी मिला था। विद्यालय के लिए एक ट्रॉफी मिला जिसे विद्यार्थियों के साथ प्रधानाध्यापक और हिंदी शिक्षक ने एक साथ ग्रहण किया। अधिकारी महोदय के साथ समूह में हमलोगों की तस्वीर भी ली गयी।
◆◆◆◆◆
अब पुरस्कार प्राप्ति के बाद की परीक्षा आगे आने वाली थी। पारितोषिक वितरण समारोह समाप्त होते - होते शाम के साढ़े पाँच बज गए थे। जाड़े के दिनों में सूर्यास्त जल्दी हो जाता है। हमलोग स्टेशन की ओर चले ताकि शाम को साढ़े चार बजे वाली ट्रेन अगर लेट हुई तो मिल जाएगी।  ट्रेन सही समय पर आयी और हमारे स्टेशन पहुँचने के पहले ही निकल गयी। अगली ट्रेन रात में दो बजे के बाद ही आती थी। स्टेशन पर ठंड में ठिठुरन भरी रात काटनी कितना कष्टकर होता, इसकी कल्पना से ही मन सिहर गया। जो थोड़े लोग बचे थे, सभी मेरे ही गाँव के तरफ जानेवाले थे। कुछ स्कूल के शिक्षक भी साथ में थे। गाँव यहाँ से ढाई कोस यानि 5 मील से थोड़ा अधिक था। इतनी दूर तक की पैदल यात्रा और वह भी जनवरी की ठंढी रात में चप्पल पहनकर मैंने पहले नहीं की थी।  अँजोरिया रात थी, इसलिए उसमें भी पैदल चलने में ज्यादा कठिनाई का सामना नहीं करना पड़ेगा, इसी सोच के साथ सभी लोग आगे बढ़ चले।
मेरे साथ समस्या यह थी कि मेरे एक हाथ में तीन किलों के करीब पुरस्कार में मिले पुस्तकों वाला झोला था और पैर में हवाई चप्पल थी  जिसे पहनकर चलते हुए अन्य लोगों के साथ गति कायम रखने में कठिनाई पेश आ रही थी। लोग जल्दी पहुँचने की जल्दी में तय रास्तों से न होकर खेतों के बीच से निकलते जा रहे थे। खेतों की जुताई हुई थी जिसमें बड़े-बड़े ढेले पड़े हुए थे। मेरी हवाई चप्पल कभी-कभी उसमें फँस जाया करती थी। आगे बबूलों के छोटे से जंगलनुमा विस्तार से गुजरना था। उसके पास आने के ठीक पहले मेरा एक चप्पल टूट गया। वह अंगूठे के पास से ही उखड़ गया था। मैं चप्पल को झोले में नहीं रख सकता था। मन में यह संस्कार कहीं बैठा हुआ था कि पुस्तकों में विद्यादायिनी माँ सरस्वती का वास होता है। उसके साथ अपनी चप्पलें कैसे रख सकता था? मेरे लिए कोई दूसरा उपाय नहीं था। किसी को मैं मदद के लिए पुकार भी नहीं सकता था। हर कोई जल्दी घर पहुँचने के धुन में तेजी से कदम-दर-कदम बढ़ा जा रहा था। मैं पिछड़ना नहीं चाहता था।
रास्ते में बीच में बबूल-वन पड़ता था। ये बबूल लगाए तो नहीं गए थे पर संरक्षित अवश्य थे।
जैसे ही मैं बबूल - वन में आगे की ओर बढ़ा, तो पगडंडी देखकर मुझे खुशी हुई। लोग भी लकीर पकड़कर ही चल रहे थे। मैं बबूल-वन को करीब आधा से अधिक पार कर चुका था, कि मेरा खाली पाँव बबूल के कांटे पर पड़ा। कांटा मेरे पैर में घुस गया था। मैं थोड़ा रुका, टूटे चप्पल को दूसरे हाथ में लिया, और चुभ गए कांटे को खींचकर बाहर निकाला। खून की धारा निकलने लगी। पॉकेट से रुमाल निकाला और जोर से पैर में बाँध दिया। मन तो किया कि टूटे हुए चप्पल को किताबों वाले झोले में डाल दूँ। पर मन के अंदर बैठी हुई यह मान्यता कि पुस्तकों में वीणा पुस्तक धारिणी माँ सरस्वती का वास होता है, मैने टूटे हुए चप्पल को पुस्तकों के झोले में न डालकर, दूसते हाथ में लिया और भटकते हुए दौड़ लगायी, ताकि आगे निकल गए समूह के लोगों को पकड़ सकूँ।  आखिर बबूल-वन का क्षेत्र हमलोग पार कर गए। अब पहाड़ की तलहटी से होकर उबड़-खाबड़ पत्थरों पर से होकर गुजरना हुआ। पहले से ही छिल गए पैरों की बाहरी त्वचा पर नुकीले पत्थरों का चुभना मेरे लिए दर्द की एक और इम्तहान से गुजरने जैसा था। मैं रुका नही, और न ही मैंने हार मानी। मैं बढ़ता रहा जबतक घर नहीं पहुंच गया।
घर पहुंचते ही पहले घायल पैर में बँधे खून और धूल-मिट्टी से सने रुमाल को खोलकर पॉकेट में रखा और बिना लंगड़ाते हुए आंगन में प्रवेश किया ताकि माँ मेरे पुरस्कार पाने की खुशी का आनन्द तो थोड़ी देर मना पाए, न कि मेरे पैरों के घाव को सहलाने बैठ जाए। मेरे खाट पर बैठते ही माँ गरम पानी से मेरे पैर धोने को बढ़ ही रही थी कि मैंने उसके हाथ से लगभग झपटते हुए लोटा अपने हाथ में ले लिया। माँ मेरे इस व्यवहार पर थोड़ी आश्चर्यचकित जरूर हुई, पर मैंने लोटा हाथ में लिए हुए ही जब उसे सुनाया कि मुझे पूरे प्रखंड में निबंध प्रतियोगिता में प्रथम स्थान प्राप्त हुआ है, तो उसका ध्यान मेरे घायल पाँव से लगभग हट गया । मैं निर्भीक होकर आँगन के चापानल के तरफ पाँव धोने के लिए बढ़ गया। मुझे इस बात का संतोष था कि अपने जख्मों को छिपाकर में मैं माँ की आंखों में खुशी के कुछ कणों को तैरते हुए  देख सका।
©ब्रजेंद्रनाथ


यह कहानी मैंने 29 मई को सिंहभूम जिला हिंदी साहित्य सम्मेलन/तुलसी भवन, जमशेदपुर द्वारा आयोजित "कथा मंजरी" कार्यक्रम में भी सुनाई थी. आइये दृश्यों का दर्शन करते हुए कहानी का आनंद लेते हैं --
यूट्यूब लिंक :
https://youtu.be/os1A1v2MJGA

Wednesday, July 20, 2022

और कितने तीखे मोड़ (कहानी ) उपन्यास

 #BnmRachnaWorld

#novelaurkitaneteehemod

#और कितने #तीखेमोड़













और कितने तीखे मोड़ (उपन्यास):

Amazon Link:

Aur Kitane Teekhe Mod (Hindi Edition) https://www.amazon.in/dp/B0B6FG3JQJ/ref=cm_sw_r_apan_0752920J2ZJFQ1C5SCQJ

Shortened link:

amzn.to/3REqS7K


परमस्नेही साहित्यान्वेषी सुधीजनों,

सादर नमस्ते 🙏❗️

कृपया इस संदेश को अवश्य पढ़ें :

मेरा लिखा उपन्यास "और कितने तीखे मोड़" (133 पृष्ठ ) अमेज़न किंडल के ऊपर दिए गए लिंक पर प्रकाशित हो चुका है.  18 जुलाई से 22 जुलाई तक इसे "फ्री बुक प्रमोशन" के अंतर्गत मुफ्त डाउनलोड किये जाने की सुविधा दी जा रही है. अभी डाउनलोड कर लें बाद में ज़ब मन होगा तब पढ़ लीजियेगा (देखें लिंक )

इस पुस्तक के बारे में मेरा आत्मनिवेदन :

इस उपन्यास में सामाजिक व्यवस्था में अंतर्निहित समरसता को रेखांकित करते हुए पात्रों और कथानक का ताना बाना बुना  गया है |  सामाजिक परिवर्तन के लिए संकल्पित और समर्पित व्यक्ति के सार्थक पहल को किन निःस्वार्थ और निष्कलुष शक्तियों का समर्थन मिलता है और किन स्वार्थी और कुटिल तत्वों से संघर्ष करना पडता है, उसका जीवंत चित्रण इसमें हुआ है | मुझे लगा कि सभी पात्र मुझे प्रेरित कर रहे हैं कि मैं उन्हें शब्दों की किरणों में नहला दूँ ताकि गुमनामी में नीँव की पत्थर की तरह पड़ी दलित महिला रोहिणी भी परिवर्तन की माशाल को लेकर सबसे आगे -. आगे कदम बढ़ाती चली जाय |  कुछ और नहीं कहते हुए आपसे इस उपन्यास से जुड़ने का और अमेज़न किंडल पर, मेरे मोबाइल और इ मेल पर अपने विचारों से अवगत कराने का आग्रह करता हुआ मैं हूँ आपसे आपका थोड़ा समय चुराने वाला

स्नेहास्पद

ब्रजेन्द्र नाथ

मोबाइल : 7541082354

इ मेल : brajendra.nath.mishra@gmail.com

अमेज़न के किंडल इ बुक को कैसे डाउनलोड करें?

अमेज़न का अकाउंट बना ले. इस लिंक पर वीडियो को देखकर सारे स्टेप्स फॉलो करें :

Link:

https://youtu.be/bAdDArZppOI

Sunday, July 17, 2022

क्यों मचा रहे हो घमासान? (कविता)

 #BnmRachnaWorld

#poemonunmad







15 जुलाई 2022:

पिछले कुछ दिनों से घट रही घटनाओं से ह्रदय व्यथित, चेतना उद्वेलित और मन आक्रोशित है. इन्हीं भावों को समाहित करते हुए प्रस्तुत कर रहा हूँ, अपनी लिखी कविता जिसका शीर्षक है, "क्यों मचा रहे हो घमासान?"  कविता मेरे यूट्यूब चैनल "marmagya net" के नीचे दिए गए लिंक पर भी सुनें. चैनल को सब्सक्राइब नहीं किया है, तो सब्सक्राइब करें, लाइक और शेयर करें. सादर!

क्यों मचा रहे हो घमासान?

मैं ही सही और सभी गलत,
बेवजह  फैलाते हो  नफरत.
सब कुछ सहते ही रहते हैं वे,
मत रहना पाले ऐसी ग़फ़लत.
बेमानी परिभाषायें गढ़कर
कहते हो यही है महाज्ञान.
क्यों मचा रहे हो घमासान?

बिगड़े बोल, बोल बोल कर,
माहौल  प्रदूषित करते हो.
शब्द ब्रह्म को लज्जित कर,
विष वमन किया करते हो.
सहन नहीं अब रंच मात्र भी
देवी देवताओं का अपमान.
क्यों मचा रहे हो घमासान?

जो नहीं मानते बात तेरी
उनको काफिर तुम कहते हो,
हऱ मतभिन्नता रखने वाले को
वाजिब ए क़त्ल तुम कहते हो.
हथियारों से हल होते मसले तो
धरती बन गई  होती कब्रिस्तान.
क्यों मचा रहे हो घमासान?

चराचर जगत का सत्य एक है,
कर्मों का फल पाता है मानव.
जो दुष्कर्म में लिप्त रहते हैं,
उनको कहते हैं हम दानव.
इसलिये सुन ले ये चेतावनी
मत खोल अपनी जहरीली जुबान
क्यों मचा रहे हो घमासान?

छिन्न भिन्न किया ताने बाने को
कठिन कुठार  गर निकल गया,
शोणित का प्यासा  वाण  अगर
तरकश से बाहर निकल गया.
तो कोई क्या अंदर रख पायेगा
घर में छुपाकर असि और म्यान.
क्यों मचा रहे हो घमासान?

सही समझ नहीं है अगर तुम्हें
मिल बैठ मसलों पर संवाद करो.
उन्मादी, उपद्रवी बनकर तुम,
राष्ट्र धन को मत बर्बाद करो.
इसकी कड़ी सजा मिलेगी,
अब नहीं सहेगा हिन्दुस्तान
क्यों मचा रहे हो घमासान?

©ब्रजेन्द्र नाथ 


यूट्यूब लिंक :
https://youtu.be/WdvaPzJv4rI


Thursday, July 7, 2022

दवाई (कहानी)

 #BnmRachnaWorld

#dawaihindistory









दवाई

  हालाँकि बारिश की रफ़्तार थोड़ी कम हो गयी थी, इसीलिये मैंने बूढ़े बाबा को मेन. रोड से अपनी कार मोड़ने के पहले उतार कर कहा था, "बाबा ठीक से घर तो पहुँच जाओगे,…" ,

'हाँ बाबू, तूने इस बारिश में मेरे लिए इतना कर दिया यही काफी है। अब ये दवाई मेरी पोती की जान जरूर  बचा लेगी ।"

मैं घर पहुंच कर भी थोड़ा  अन्यमन्यस्क  सा था। पत्नी ने देखते ही समझ लिया था कि जरूर कोई गंभीर समस्या से परेशान हो रहे हैं। पतियों के चेहरे के भाव पढ़कर ही पत्नियां अक्सर उनकी परेशानियों से खुद को परेशान करने लगती हैं। मेरे साथ अक्सर ऐसा होता है।
इस परेशानी की  ज्यादा बात नहीं करते हुए मैंने कहा , “अरे भई ,  वारिश में आया हूँ , गरमा- गरम चाय का तलबगार हूँ, और आप पूछ भी नहीं रही हैं." मैंने हंसकर कहा तो पत्नी मान गयी और चाय की तैयारी में लग गयी. लेकिन मैं बड़ी सफाई से अपनी परेशानी को छुपाने में सफल रहा था।

मैंने जैसे -  तैसे चाय ख़त्म की. कार बाहर ही खड़ी थी। कार को मोड़कर मैं फिर मेन रोड के तरफ चल पड़ा जहाँ पर आते समय मैंने बूढ़े बाबा को छोड़ा था ।

   ड्राइव करते हुए आज  की सारी घटनाएँ घूम रही थी। 
   मुझे कारखाने से निकलते - निकलते रात के नौ बज गए थे। पिछले दो दिनों की लगातार वारिश के कारण कारखाने में जगह - जगह जल जमाव को ठीक करना जरूरी था ताकि उसके कारण  कररखाने  में कच्चे माल की सप्लाई में कोई बाधा न हो।  साथ ही  रात भर बिना ब्रेकडाउन के कारखाना चलता रहे और  मैं आज की रात अच्छी नींद ले सकूँ।

    बारिश के दिनों में पहाड़ियों से घिरे इस शहर का सौंदर्य दुगना हो जाता है। हरियाली की चादर ओढ़े पहाड़ और उसपर झुके हुए बादल जैसे किसी नयी - नवेली दुल्हन को आगोश में लिए हुए हों।  प्रकृति का यह संवरा -  निखरा रूप किसी भी प्रकृति प्रेमी को भाव - विह्वल किये बिना नहीं रह सकता ।  किन्तु जब यही बारिश लगातार कई दिनों तक होती रहे तो पहाड़ काल से प्रतीत होते हैं। 
  आज भी ऐसा ही हुआ। रात की नौ बजे मैं   जैसे ही कारखाने के गेट से बाहर निकला कि काले बादलों से आकाश भर उठा था।  जोर की बारिश के संकेत आने लगे थे।  जैसे - जैसे मैं घर के तरफ बढ़ने लगा, अचानक तेज बौछारें शुरू हो गयी, तेज हवाएँ भी साथ आ रही थी, तूफानी मंजर था, पेड़ झूम रहे थे और कार पर  लगातार  पड़ती तेज बूंदों को वाइपर से किसी तरह काटते हुए हेड - लाइट के प्रकाश में मैं  धीरे - धीरे बढ़ रहा था।
मैं एक दो किलोमीटर ही आगे बढ़ा था कि मैंने देखा सारी दुकाने बंद हो
चुकी थी। कुछ दवा की दुकाने खुली थी।  उनकी अपनी प्रकाश व्यवस्था के कारण  प्रकाश नजर आ रहा था।  इतने में अचानक बीच सड़क पर हेड लाइट के प्रकाश में एक व्यक्ति दिखाई दिया।  कार के नजदीक पहुचने पर  मैंने देखा कि वह अपनी धोती आधी ऊपर उठाये, टूटे हुए छाते जिसकी कमानी लगता  है इस आँधी तूफ़ान में टेढ़ी हो गयी थी और उसपर चढ़ा कपड़ा तार - तार हो गया था, किसी तरह बाहों और छाती के बीच समेटे बीच सड़क पर चला जा रहा था।  मैं बिलकुल नजदीक साइड में कार करके अचानक कार रोकी, शीशे को थोड़ा नीचे करके जोर से आवाज दी, " बीच सड़क पर क्यों चल रहे हो ? इस तेज बरसात में किसी गाड़ी से कुचलकर जान देने का इरादा है क्या?"
उस व्यक्ति ने मेरी आवाज सुनकर जब अपनी गर्दन घुमाई तो मैंने देखा कि सत्तर वर्ष के आसपास का एक बूढा आदमी अपने चश्मे पर पड़ी बूंदो को, उन्हें पहने हुए ही हाथ से साफकर बोला, "माफ़ करना बाबू ! पानी चारो तरफ इतना भरा है कि सड़क का कहीं पता ही नहीं चल रहा है।
फिर वह मन - ही - मन  बुदबुदाने लगा,  " नहीं बचेगी, लगता है नहीं बचेगी। ……"

मैंने फिर शीशा नीचे किया और पूछा, "क्या हुआ? क्या बुदबुदा रहे हो बाबा ?"

" बाबू यह दवा नहीं मिली तो वह नहीं बचेगी.."

फिर पता नहीं क्यों मेरे भीतर से एक आवाज आई और उसे मैंने कार के अंदर आ जाने को कहा,  कार की सीट पर मैंने आफिस के पुराने  कुछ पेपर और पुराने अख़बार के टुकड़े बिछा दिए ताकि सीट अधिक गीला न हो जाय ," बाबा कार के अंदर आ जाओ। "
कुछ झिझकते हुए बूढ़े बाबा अंदर आ गए। वारिश अभी भी उसी गति से लगातार जारी थी। सड़क पर घुटना भर पानी जमा हो गया था। इस स्थिति में कार ड्राइव करना मुश्किल हो रहा था।
चार या पांच मीटर से आगे कुछ नजर नहीं आ रहा था। पहाड़ो पर लगातार वारिश की विकरालता का सिर्फ अनुमान लगाया जा सकता था। बौछारों का जोर और कार के शीशे पर पड़ने वाली बूंदों का शोर दोनों ही इस तूफानी रात का साथ दे रहे थे।
"बाबा क्या हुआ ? आप बुदबुदा रहे थे..., नहीं बचेगी , नहीं बचेगी। " मैंने अपनी उत्सुकता जताई थी ।
"बाबू क्या आप मेरी मदद करोगे? " उसके सवाल में अनुरोध और निराशा - मिश्रित जवाब की तैयारी दोनों ही दिखाई दे रहे थे।
"जरूर , आप बोलो तो सही... ।" मैं उसकी कातर नेत्रों से झांकते मदद के लिए  मौन निमंत्रण को ठुकरा नहीं सका।
 "मैं अपनी पोती के लिए दवा लेने निकला था। शाम को डाक्टर को दिखाया था। उसने कहा था कि क़फ़ बहुत ज्यादा है। जल्दी से यह दवा लेकर दीजिये नहीं तो रात में अगर साँस लेने में दिक्कत बढ़ गयी तो जान भी जा सकती है।"  बाबा एक ही साँस में बोल गए थे।
मैंने पूछा " कोई दूकान में दवा नहीं मिली क्या? "
"बहुत सारी दुकानें बंद मिली। अब मैं कहाँ से दवा लाऊँ ?" उनकी आवाज थरथरा रही थी।
मेरा मन द्रवित हुए बिना नहीं रहा। मैंने ठान लिया कि कम – से - कम दवा खरीदने में तो इनकी जरूर मदद करूंगा।
मैंने कार मोड़ दी। मैं जानता था कि ऐसे मौसम में दो ही जगह दवा मिल सकती थी.  एक गुरु नानक देव क्लिनिक के दवा काउंटर पर और दूसरे स्माइल लाइन मेडिकल में।  क्लीनिक नजदीक होने के कारण  मै उसी तरफ कार मोड़ कर बढ़ता गया।
" कहाँ रहते हो बाबा?" मैंने बाबा के अंदर चल रहे विचारों की हलचल के मौन को तोड़ते हुए पूछा था।
" बस 'नीहारिका' टावर कैंपस के बगल से जो रोड नीचे के तरफ बस्ती में गयी है उसी में रहता हूँ। "
बाबा ने कहा था।
"घर में और कौन - कौन है?" 
मेरे यह पूछने पर जब बाबा ने कहा कि चार वर्ष पहले ठेका मजदूर के रूप में काम करते हुए दुर्घटना में उसके बेटे की मौत हो गयी और पिछले साल कोरोना में उसकी पत्नी भी चल बसी, तो इस सवाल के पूछने पर मुझे खुद को कोसने का मन कर रहा था.
फिर बाबा चुप हो गए।  उनके अंदर की और बाहर की बारिश दोनों में थोड़ा ठहराव जैसा लग रहा था। क्लीनिक नजदीक आ गया था।  मैंने वहीं पर गाड़ी रोकी।  बाबा के साथ जाकर काउंटर पर दवा ली।  सारी दवाईयां और डाक्टर का लिखा पुर्जा एक गुलाबी रंग की पॉलिथीन की थैली में डालकर बाबा के साथ आकर गाड़ी में बैठ गया।
चलो बाबा मैं भी 'नीहारिका' टावर कैंपस के तरफ ही जा रहा हूँ। आगे तक छोड़ देता हूँ।

" बाबा आपकी पोती बिलकुल ठीक हो जाएगी, आप निश्चिंत हो  जाईये , बहादुर बच्ची है।  ठीक हो जाएगी। "
मैंने उन्हें ढाढ़स बंधाते हुए कहा था।
वारिश की रफ़्तार थोड़ी कम होने के कारण मैं गाड़ी तेजी से चला रहा था। निहारिका टावर से एक मोड़ पहले मैंने कार रोक दी। यहाँ से मुड़कर मैं अपने घर की ओर जल्दी पहुँचना चाह रहा था।
"बाबा, यहाँ से तो चले जाओगे न।"
"हाँ बाबू यहाँ से तो बिलकुल नजदीक है, अब मेरी पोती को कुछ नहीं होगा। वह बच जायेगी।"
बाबा के आँखों में विश्वास देखकर मुझे भी उनके उतर कर जाने के अनुरोध को बेमन से ही स्वीकार करना पड़ा।
" बाबा, सुबह मैं आऊंगा पूछने कि बिटिया कैसी है ?"
"बाबू मैं मोड़पर वाली चाय की दूकान पर ही सुबह मिल जाऊंगा। वहीं मैं आपको खबर दे दूंगा।"
बाबा आगे बढ़ गए। तब मैं अपनी कार मोड़कर घर की ओर चल दिया था।
घर पर पहुँच कर जब मुझे चाय पीने के बाद भी अच्छा नहीं लगा तो मैं कार लेकर फिर उसी जगह पर पंहुचा जहाँ मैंने बाबा को छोड़ा था।  रात के करीब साढ़े दस बज रहे थे सड़क सुनसान थी।  मैंने कार जैसे ही आगे बढ़ायी  कार के हेडलाइट की रोशनी में एक पिंक कलर का पॉलिथीन गिरा हुआ दिखाई दिया।  मेरा मन अनिष्ट आशंका से काँप उठा।  कार की हेडलाइट मैंने ऑन कर  रखी थी।  कार वहीं रोककर पैदल आगे बढ़ा तो सामने गटर का ढक्कन खुला था।  गटर के बगल में एक चप्पल पडी थी।  और सामने वही पिंक कलर का पॉलिथीन पड़ा था जिसमें अभी - अभी बाबा के साथ जाकर मैंने दवाईयां दिलवायी थी।
मैंने कांपते हाथों से पालीथीन उठाया था और बाबा के बताये हुए बस्ती की गली में उनके मकान को याद करने लगा। जल्दी से गाड़ी स्टार्ट की और गली के मोड़ पर टीम - टीम लाइट की गुमटी की और बढ़ कर बाबा, पूर्णो बाबा हाँ, यही नाम था उनका, मकान पूछा था।
"यहाँ से तीसरा मकान जो खपड़ैल का है, वही है उनका मकान, अभी तो थोड़ी देर पहले दवा लाने निकले हैं, लगता है लौटे भी नहीं हैं।"
बस्ती में हर आदमी को हर आदमी की खबर होती है, खासकर जब कोई बच्चा या बच्ची बीमार हो तो अवश्य होती है।
मैंने तीसरे खपड़ैल के मकान में कुण्डी खटखटाई। दरवाजा एक वृद्धा ने खोला था। अपने कांपते हांथों से "दवाई है " कहकर दवा देते ही जल्दी से वहां से लौट गया, अपने को लगभग बचाते हुए ताकि कोई यह न पूछ दे कि बाबा कहाँ रह गए? इस सवाल का मैं क्या जवाब देता?
मैं घर पहुंच कर रात में सोते हुए भी जागते रहा। लोकल न्यूज़ चैनल में खबर आ रही थी, " सुरेखा नदी  में जलस्तर बढ़ जाने के कारण नदी के किनारे के रिहायसी क्षेत्रों में बाढ़ जैसी स्थिति पैदा हो गयी है।  नदी का जलस्तर स्लूस गेट से ऊपर आ जाने के कारण इसे बंद कर दिया गया है। स्लूस गेट बंद किये जाने से शहर के नाले का पानी भी नहीं निकल रहा है...... इसीलिये      शहर के निचले इलाके में भी जल जमाव बढ़ गया है।"
दूसरे दिन शाम को खबर आई की जलस्तर कम हो रहा है और बाढ़ का खतरा टल गया है। इसमें वारिश के थम जाने से अधिक प्रशासन की मुस्तैदी का हाथ था।
तीसरे दिन सुबह के अखबार के तीसरे पन्ने पर जिसमें शहर की सारी अप्रमुख और महत्वहीन खबरे होती हैं ... लिखा था, " निचले इलाके में नाले के मुहाने पर वाले स्लूस गेट के खोलने पर एक सड़ी हुयी लाश मिली है।  लगता है दो दिन पहले नीचे के इलाके में पानी घुसने के कारण यह मौत हुयी होगी।“
यह खबर फिर कहीं दब गयी कि खुला हुआ गटर एक और जान लील गया।


©ब्रजेन्द्र नाथ

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लिंक :

https://youtu.be/2X9u2CHvgPY





 

 

माता हमको वर दे (कविता)

 #BnmRachnaWorld #Durgamakavita #दुर्गामाँकविता माता हमको वर दे   माता हमको वर दे । नयी ऊर्जा से भर दे ।   हम हैं बालक शरण तुम्हारे, हम अ...