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मैं यायावरी गीत लिखूँ
मैं यायावरी गीत लिखूं और बंध-मुक्त हो जाऊँ।
मैं तितली बन फिरूँ बाग में,
कलियों का जी न दुखाऊं।
गुंजन करुँ लता-द्रुमों पर,
उनको कभी ना झुकाऊँ।
मैं करुँ मधु - संचय और मधु-रिक्त हो जाऊँ।
मैं यायावरी गीत लिखूं और बंध-मुक्त हो जाऊँ।
मैं नदी, सर्पिल पथ से
इठलाती-सी बही जा रही।
इतने बल कमर में कैसे
कहाँ- कहाँ से लोच ला रही?
मैं उफनाती, तोड़ किनारे को उन्मुक्त हो जाउँ।
मैं यायावरी गीत लिखूं और बंध-मुक्त हो जाउँ।
मेरे गीत उड़े अम्बर में,
जहां पतंगें उड़ती जाती।
जहां मेघ सन्देश जा रहा,
यक्ष - प्रेम में जो मदमाती।
उसके आंगन में बरसूं और जल-रिक्त हो जाऊँ।
मैं यायावरी गीत लिखूं और बंध-मुक्त हो जाउँ।
गीत तरंगें चली लहरों पर
कभी डूबती, कभी उतराती।
कभी बांसुरी की धुन सुनने
यमुना तट पर दौड़ी जाती।
मैं नाचूं गोपियों संग और स्नेह-रिक्त हो जाउँ।
मैं यायावरी गीत लिखूं और बंध-मुक्त हो जाउँ।
मैं जाउँ संगम - तट पर
धार समेटूं आँचल में ।
मैं चांदनी की लहरों पर
गीत लिखूं, हर कल कल में।
मैं झांकूँ निराला निलय में, छंद मुक्त हो जाऊँ।
मैं यायावरी गीत लिखूं और बंध-मुक्त हो जाउँ।
मैं घूमूं काशी की गलियां,
पूछूं तुलसी औ' कबीर से।
बहती गंगा से बीनो तुम
शब्द शब्द शीतल समीर से।
उनके छंदों को दुहराउँ, शोध-युक्त हो जाउँ।
मैं यायावरी गीत लिखूं और बंध-मुक्त हो जाउँ।
उड़ती रहे धूल मिट्टी की,
शहनाई पर हो नेह राग।
गीत लिखूं औ' तुम टेरो
अंतर के उर्मिल अनुराग!
अणु-वीणा के सुर गूंजे और बोध युक्त हो जाऊँ।
मैं यायावरी गीत लिखूं और बंध-मुक्त हो जाउँ।
©ब्रजेन्द्रनाथ
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