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Tuesday, December 22, 2020

छिन्न - संशय (कविता)

 #BnmRachnaWorld

#futility of war









यह कविता मैंने 6 दिसंबर 20 को मारुति सत्संग पुणे के वेबिनार में सुनाई जिसका यूट्यूब लिंक इसप्रकार है:

https://youtu.be/jF0XsqjvAaY

छिन्न – संशय

यह कौन बैठा नदी की तीर पर,
निश्चेष्ट, निश्चल देखता जल - प्रवाह।
टूटना, बिला जाना, तट से मृतिका - कणों का,
और डूब जाना पत्थरों का अतल - जल में।


पत्थर बने जो करते अलंकृत 
स्वयं को मिथ्या अहमन्यता से।
वे ही कहीं तो डूबते नहीं
प्रवाहमान जल के अतल - तल में?

परन्तु अपने उस अभिमान में 
हिंसा का तांडव किया करते हैं वे।
उससे विगलित समाज के तन्तु को,
किस तरह, झकझोर, तोड़ फेंकते अनल में।

ऐसे तत्व भी, (या) ही, इतिहास में स्थान पाते,
झोंक जन को और जग को।
एक भीषण युद्ध की विभीषिका में,
मानवता जहां मृत्यु – शवों को ढूढती विकल हो।


हिंसा का प्रत्युत्तर न दे,
चुपचाप रहकर सहे जाना।
उदारता, सदाशयता का ओढ़ आवरण,
क्लैब्य-दोष-मण्डित कर लेना नहीं तो और क्या है?


फिर क्या हिंसा का प्रत्युत्तर
प्रतिहिंसा के अग्नि-दहन में,
लाशों की अगणित बोटियाँ,
जब बिखर जाएँ धरा - गगन में?

तभी शूरता नियत करती रही है
मुकुट-मणि स्थान जन-जन में?
तभी नर-पुंगव पूजित हुआ है,
उच्च सिंहासन अवस्थित इस भुवन में?


तो क्या शांति हिंसा का ही
एक उप - उत्पाद हमेशा से रहा है?
मरघट पर जलती चिताओं की
आत्माएं विकल नहीं होती विजन में?

युद्ध बाहर का और अंतर का,
मांगता है लाशें रण-चण्डी बना।
सिन्दूर-पुंछी बहनों का भाल
और उनका क्रन्दन करुणा से सना।

या कि समय देना और सहते रहना
उदासीनता, विवशता अपनाना।
आँखें बंद, मुंह मोड़ खड़ा रहना,
चुपचाप ही हालाहल पीते जाना।

इससे नहीं कोई नीलकंठ कहलाता
क्लैब्य ही उसको आ घेरता है।
तांडव कर सकता नहीं, वह काल पर,
आसुरी शक्ति को जीत नहीं सकता है।

इन्हीं प्रश्नों में उलझा हुआ वह,
खड़ा है नदी - तीर पर प्रश्तर बना।
अपने में अनल - दाह पीते हुए
कृत्य गुरु-जनों का नश्तर - सा चुभा।

क्या चाणक्य ने अखण्ड-
भारत-स्थापन के लिए,
हिंसा का सहारा नहीं लिया,
विद्रोह-दमन के लिए?

या कृष्ण ने नहीं दी सीख
छल का प्रतिउत्तर दो छल से,
अगर साध्य है, दुर्भेद्य करना 
राष्ट्र को अरि से, खल से।

विजय का सूर्य अम्बर में
अगर होता देदीप्यमान है।
संत्रास से, अरि अनय से,
दिलाता जन को त्राण है।

तो अरि मर्दन करना
शांति स्थापन हेतु सुकर्म है।
धरा को दिलाकर मुक्ति,
लोकनीति - स्थापन हेतु सद्धर्म है।

प्रलय के बादलों से दिला
अवनि को त्राण है।
नींव रखेगा वह साम्राज्य का, जहां
जन - जन को मिलता मान है।

ब्यथित मन क्षुब्ध है,
गाँठ पड़ी, उलझ गयीं।
बुद्धि स्थिर है मगर,
गुत्थियाँ सुलझ गयीं।

ब्यक्ति कोई अगर शत्रु बना, स्वघोषित
न्याय - दण्ड - निर्धारक बनकर करता कुकर्म है।
उसका मस्तक - भंजन करना
शांति - स्थापन हेतु न्याय - धर्म है।

©ब्रजेंद्रनाथ




Monday, December 7, 2020

मित्रता (कविता) #friendship

 #BnmRachnaWorld

#friendship











मित्रता
मित्र बनाने के पहले विचारना
जरूरी है।
द्रोण और द्रुपद की गुरुकुल में मित्रता
कहाँ निभ पाई थी?
जब द्रोण गए थे,
माँगने सहायता राजा द्रुपद से।
द्रोण की गरीबी का
उड़ाया था मजाक।
इसी ने बो दी थी,
आपसी रंजिश के बीज।
महाभारत में वर्णित कुरुक्षेत्र के युद्ध में
निकली थी सारी खीज।
इसलिए दोस्त को पहचानना जरूरी है।
दोस्त बनाने के पहले विचारना जरूरी है।
----

मित्रता के मिलेंगे वैसे भी उदाहरण
जिन्होंने निभाये दिए हुए वचन।

राम सुग्रीव की मित्रता दृढ़ हुई
सुग्रीव ने सीता की खोज में
सभी दिशाओं में वानर भेजवाये।
राम सुग्रीव की मित्रता में
दृढ़ता थी आयी।
सीता की खोज की थी
सुग्रीव के मंत्री हनुमान ने,
ध्वस्त किये दुर्ग और लंका जलायी।

कृष्ण सुदामा की मित्रता
की दी जाती है मिशाल।
गरीब, दीन-दुखी सुदामा से
द्वारिकाधीश कृष्ण ने मित्रता निभायी।
दे दिए सबकुछ दो मुठ्ठी
चिउड़े के बदले में भाई।

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मित्रता होती नही है कोई अनुबंध।

अर्जुन के साथ धनुर्विद्या के
कौशल दिखाने को ।
जुटे थे कौरव और पांडव कुमार।
उसमें कर्ण ने किया प्रवेश,
जिसे भीष्म ने किया था अस्वीकार।
कर्ण को देकर अंग देश का राज्य,
दुर्योधन ने कर्ण को अपनी ओर किया था।
यह मित्रता नहीं थी, था स्वार्थ-संबंध।
मित्रता होती नहीं है कोई अनुबंध।

इसलिए मित्र बनाने से पहले
मित्रता निभाने की सोचिए।
बार-बार त्याग और तप
की लौ पर तप्त कीजिये।
फिर मित्र बनाने पर विचारिये।
एक बार मित्र बन जाने पर,
मित्रता निभाने की सोचिए।
©ब्रजेन्द्रनाथ

Saturday, November 14, 2020

झारखंड की मिट्टी में रवानी है (कविता)

 #BnmRachnaWorld

#Jharkhandparkavita









15 नवंबर को,

झारखंड दिवस पर झारखंड राज्य के प्रति कुछ उदगार

झारखंड की मिट्टी में रवानी है

स्वर्णरेखा, खरकई, दामोदर,
बराकर, कोयल, संख ,ब्राह्मणि।
नदियों का नित्य प्रवाहित जल
दलमा पहाड़ सा मुकुट मणि।

वसुंधरा की इसपर मेहरबानी है।
झारखंड की मिट्टी में रवानी है।

देवघर में बाबा  बैजनाथ,
बुंडू में  रहती माता देउली।
रजरप्पा में छिन्नमस्तिका
पारसनाथ में जैन तपस्थली।

कण - कण में  माँ तेरी कहानी है।
झारखंड की मिट्टी में रवानी है।

बिरसा मुंडा, सिद्धू-कान्हो,
नील-पीताम्बर, मांझी तिलका ।
वीर बाँकुरों  की धरती यह,
तलवार तीर उनका चमका।

फूलो -झानो का कोई नहीं  सानी है।
झारखंड की मिट्टी में रवानी है।।

कोयला, बॉक्साइट, ताम्र,
युरोनियम और लौह अयस्क।
अपार खनिज संपदा  यहाँ,
कुपोषित फिर भी  बच्चे - वयस्क।

समृद्धि है दूर, क्यों छायी वीरानी है?
झारखंड की मिट्टी में कहाँ रवानी है?

धोनी धुरंधर, कप्तान जयपाल,
इम्तियाज, महादेवन, अंजना।
कामिल बुल्के, सलिल सरीखे,
प्रबुद्धजनों से है यह  बना।

अल्बर्ट एक्का जैसा बलिदानी है।
झारखंड की मिट्टी में रवानी है।

आज मचा है भ्रष्टाचार,
नही प्रेम और सदाचार।
राजनेता  है स्वार्थ- लिप्त,
फैल रहा है मिथ्याचार।

हर राज्य की कमो बेस यही कहानी है।
यहां के  मिट्टी की सूख गयी रवानी है।

समृद्धि आएगी हर घर में,
फिर से होगा यहाँ विकास।
धरा गगन गूंजेगा जन गण
जनता का  यही विश्वास।

झारखंड हमारी अस्मिता की निशानी है।
यहाँ की मिट्टी में फिर आयी रवानी है।।
©ब्रजेन्द्रनाथ




Monday, November 2, 2020

अयोध्या में राम के रावण वध कर लौटने पर दिवाली(कहानी)


 #BnmRachnaWorld

#Ayodhyamendipawali




अयोध्या में दीपावली
शत्रुघ्न असमंजस में है। आज भैया राम आनेवाले हैं, भाभी सीता और भैया लक्ष्मण भी आने वाले है। सभी माएँ खुश हैं। प्रजा में उत्साह का समुद्र उमड़ पड़ा है। फिर भैया भरत ने नंदी ग्राम में अपनी कुटिया के सामने चिता क्यों सजाने का आदेश दिया है?
इस असमंजस का उत्तर तो भैया भरत ही दे सकते हैं। उनसे पूछूं तो कैसे? वह तो उनके आदेश का ही पालन करते रहै हैं। जबसे राम भैया की पादुका लेकर भैया भरत चित्रकूट से लौटे है, अयोध्या के महल से दूर, नंदीग्राम की इसी कुटिया में चरण पादुका को स्थापित कर स्वयं पादुका के सतह के सामने बने, नीचे के गड्ढे में सोते रहे हैं। मैं ही अयोध्या और नंदीग्राम के बीच दौड़ लगाता रहा हूँ। अब क्या किया जाय?
सूर्य का गोला पूर्व क्षितिज से धीरे-धीरे ऊपर उठ रहा था। उसकी रश्मियाँ कुटिया में प्रवेश कर रही थी। कुटिया का कोना-कोना आलोकित हो उठा था। इस समय अपने कुलदेव सूर्य को अर्घ्य अर्पित करने के लिए भरत भैया आसन से उठते थे। शत्रुघ्न सोच रहे थे, यही समय सबसे उपयुक्त होगा। यही सोचते हुए वह कुटिया के बाहर इसतरह खड़े हुए थे कि उसकी परछाईं कुटिया में दिख जाए। परछाईं देखकर ही भरत समझ गए थे कि बाहर शत्रुघ्न खड़ा है। कुटिया की सफाई भरत स्वयं करते थे। सफाई करने के पश्चात उन्होंने कुटिया के द्वार के तरफ देखा था। अभी भी वह प्रतिच्छाया वैसी ही स्थिर थी। वे बाहर निकले तो उन्होंने देखा, शत्रुघ्न खड़ा है।
"भैया शत्रुघ्न इतनी देर से यहाँ खड़े किसका इंतजार कर रहे हों?"
"भैया बहुत असमंजस में हूँ। मैं आपसे कुछ पूछने की धृष्टता कैसे कर सकता हूँ? परन्तु अगर नहीं पूछूँ, तो आज के उत्सव के लिए आपके द्वारा दिये गए दिशा निर्देशों का पालन उतने उत्साह से नहीं कर सकूँगा।"
"शत्रुघ्न, उत्साह में कोई कमी नहीं आनी चाहिए। तुम्हारे उत्साह और जोश को कायम रखने के लिए मैं कुछ भी कर सकता हूँ। आज भैया राम आनेवाले हैं। लेकिन अभी तक इसकी कोई सूचना क्यों नहीं आयी?"
भरत व्यथित थे। उनका हृदय इतना बिलख रहा था कि करुणा के अश्रु- जलों से विशाल सागर का निर्माण हो चुका था। एक बार पहले भी उनका हृदय रोया था, जब उन्होंने राम के वन गमन का समाचार अयोध्या आने पर अपनी माँ कैकेयी से सुना था। तब भी वे चिंता की चिता की जलती लपटों के बीच में घिर गए थे। अपनी माता का त्याग कर  उन्होंने चित्रकूट जाने का निर्णय लिया था। उससमय भरत के चारों ओर फैली व्यथा, लोकोपवाद और आत्मग्लानि की भीषण ज्वाला की लपटों से राम ने बचा लिया था। उन्होंने ही अपनी चरण पादुका देकर भरत के जीवन को राममय बना दिया था। पादुकाएं उनके लिए राम का एक प्रतीक- मात्र नहीं है। वह उसमें अपने आराध्य का प्रतिदिन साक्षात्कार करते हैं। उन्होंने सत्ता से अलग रहते हुए, सत्ता के प्रति उत्तरदायित्वों का वहन किया, जिसका उदाहरण दुनिया के किसी भी कथानक और इतिहास में नहीं मिलता है।
शत्रुघ्न का असमंजस दूर नहीं हुआ था।
भरत ने शत्रुघ्न की ओर अपने अवसादग्रस्त हृदय की भावनाओं को छुपाते हुए, उसके असमंजस के कारणों को जानते हुए भी पूछा था, "पूछो, तुम्हारे मन में किस कारण असमंजस की स्थिति उत्पन्न हुई है?"
शत्रुघ्न ने संकोच करते हुए पूछा था, "भैया, इस उत्सव के समय आपने चिता सजाने का आदेश क्यों दिया?"
"मैं जानता था, तुम्हारे मन के असमंजस की स्थिति। बस थोड़ी देर और। तुम्हें इसका समाधान मिल जाएगा।"
राम को भी अवध और भरत की सुधी कभी नहीं विस्मृत हुयी थी। भरत के प्रति अपने प्रेम की प्रतीति राम एक क्षण भी नहीं भूले:
बीते अवध जाऊँ जौं, जियत न पावउँ बीर।
सुमिरत अनुज प्रीति प्रभु पुनि पुनि पुलक शरीर।।
भरत मन में विचार कर रहे हैं, "राम के आने की कोई सूचना नहीं मिल रही है। प्रभु ने मुझे कपटी और कुटिल समझा, तभी अपने साथ वन को नहीं ले गए। लक्षमण कितना बड़भागी है, जो राम के चरणारविन्द से कभी अलग नहीं हुए। अगर भैया राम समय पर नहीं आते हैं, तो भरत इसी चिता में समाकर अपना अग्निसंस्कार कर लेगा।"
इसीलिए भरत ने चिता सजाने का भी आदेश दे दिया था।
उधर राम , सीता, लक्षमण विभीषण, सुग्रीव, अंगद और हनुमान सहित प्रयागराज पहुंचते हैं। बाल्मीकि रामायण के अनुसार राम जी हनुमान को निर्देश देते हैं, " तुम भरत को जाकर देखो। उनका मन यदि अयोध्या के राज्य में रम गया हो, तो तुम लौट आना। ऐसी स्थिति में मैं अयोध्या लौटकर नहीं जाऊँगा। भरत ही वहाँ राज्य करें।"
श्री भरत के संदर्भ में यह सत्य नहीं था। तुलसी के राम में क्षण भर के लिए भी संशय नहीं होता कि भरत राज्य पाकर उसमें आसक्त हो गए होंगें। बाल्मीकि जो कहते हैं वह मनुष्य - जाति के अनगिनत अनुभवों का ही परिणाम था। श्री भरत इससे अनभिज्ञ नहीं थे। सिंहासन पर पादुकाओं की प्रतिष्ठा और नंदीग्राम से राज्य का संचालन दोनों ही इस सजगता के परिणाम हैं। वे सत्ता और भोग के दोनों केंद्रों से दूर रहने का निश्चय कर चुके थे।
सत्ता का संबंध मन से है और भोगों का संबंध शरीर से है। मन और शरीर दोनों ही एक दूसरे के प्रति आसक्त हैं। एक का प्रभाव दूसरे पर पड़ता ही है। एक बार मन सत्ता की सुरा का अभ्यस्त होते ही भोग के अन्य उपकरणों की मांग करता है । और यदि शरीर एक बार भोगों का अभ्यस्त हो जाय तो इन भोगों की स्थिरता के लिए उसे सत्ता की आवश्यकता का अनुभव होता है। इस तरह शरीर और मन दोनों मिलकर ऐसा षड्यंत्र करते हैं कि विवेक खड़ा - खड़ा देखता रह जाता है। प्रारंभ में वह चेतावनी देता है, किंतु बाद में वह भी मौन हो जाता है और अंत में वह समर्थन की स्थिति में भी उतर सकता है। देखते ही देखतेे व्यक्ति इतना बदल नाता है कि विश्वास ही नहीं होता कि कभी यही व्यक्ति धर्मात्मा, सदाचारी और शीलवान था। यह इतिहास इतनी बार दुहराया गया है कि इसे सृष्टि का अकाट्य सत्य मान लिया गया-
नहीं कोउ अस जनमा जग माही, प्रभुता पाइ जाहि मद नाही।।
इससे बचने के लिए केवल विवेक ही यथेष्ट नहीं हैं। शरीर और मन पर नियंत्रण रखना आवश्यक है। यह नियंत्रण वाह्य और आंतरिक दोनों ही रूपों में आवश्यक है। कोई भी व्यक्ति कितना भी महान क्यों न हो अपने मन पर अत्यधिक विश्वास करने का धोखा खाये बिना नहीं रहता है।
राम - वियोग के सागर में भरत का मन डूब रहा है। उसी समय हनुमान जी ब्राह्मण का रूप धरकर इस प्रकार आ गए मानों उस अथाह सागर में उन्हें डूबने से बचाने के लिए कोई पतवार सहित नाव आ गयी हो।
राम विरह सागर मँह भरत मगन मन होत।
विप्र रूप धरि पवनसुत आई गयउ जनु पोत।।
भारत के त्याग, तप, तितिक्षा, तपस्वी का तेज और राम -विरह में बहती अश्रु धारा को देखकर हनुमान जी का सारा संशय दूर हो गया । उन्हें समाचार सुनाने में कोई संकोच नही हुआ,
"रिपु रन जीति सुजस सुर गावत। सीता सहित अनुज प्रभु आवत।"
भरत के यह पूछने पर कि हे,तात तुम कहाँ से आये हो और इतना परम प्रिय वचन सुनाए हो, हनुमान जी अपने स्वरूप में आ जाते हैं ।भरत ने भाव विह्वल होकर उनसे कहा था,
"कपि तव दरस सकल दुख बीते। मिले आजु मोहि राम पिरीते।।"

शत्रुघ्न के सारे संशय दूर हो जाते है।
राम के आने का सुसमाचार सारी अयोध्या में मीठी सुगंध की तरह व्याप्त हो जाती है।
-----★★★★----
आसमान में पुष्पक विमान दिख रहा है। सरयू के किनारे विशाल मैदान में गुरु वशिष्ठ सहित सभी ऋषि मुनि, भरत, शत्रुघ्न, माताएँ, बहुएँ, अयोध्या के वृद्ध पुरूष-स्त्रियाँ, युवा - युवतियाँ, किशोर - किशोरियाँ सबों का विशाल समूह प्रभु राम की प्रतीक्षा में अधीर हो रहे हैं।
विमान धरती पर उतरता है। राम गुरु के चरणों में शीश नवाकर, सबसे पहले माता कैकेयी से मिलते हैं।
"पग धरि कीन्ह प्रबोध बहोरी। काल कर्म विधि सिर धरि खोरी।।"
राम अपने इस व्यवहार से माता कैकेयी को ग्लानि मुक्त करने का प्रयास करते हैं। इसके लिए उन्होंने काल-कर्म के दार्शनिक सिद्धांत का आश्रय लिया। राम अपने स्वरूप का विस्तार कर सारी प्रजा से एक साथ मिलते है।
मिलते हुए उन्हें इतना आंनद आ रहा है, जैसे सरयू में आनंद की लहरें उठ रही हों। उन्हें अचानक एक बात मन में खटकती है। वे भरत से पूछते हैं,
"भैया भरत, अयोध्या की सारी प्रजा दिख रही है। किशोर और किशोरियाँ भी दिख रही है। क्या तुमने गोद के बालकों सहित माताओं को बाहर निकलकर आने से मना कर रखा है?"
भरत भाव -विह्वल हो प्रजा की ओर इंगित करते हुए कहते है, 
"भैया, आप के वन - गमन के पश्चात अयोध्या में कोई भी उत्सव  नहीं मनाया गया।  सभी अयोध्यावासी तपश्चर्या में लीन थे, किसी भी क्षण आपकी छवि अपने सामने से नहीं हटने देते थे। पुरुषों और स्त्रियों के बीच कभी संपर्क हुआ ही नहीं। सभी  इन चौदह वर्षों तक अखंड ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हुए राक्षसों के साथ आपके रण में जीतने के लिए तप, त्याग, यज्ञ, दान में लीन रहे। भैया, इसीलिए आप अयोध्या की प्रजा के बीच चौदह वर्ष से कम आयु के किसी भी बालक -बालिका को नहीं देख पा रहे हैं।"
भरत का वक्तव्य समाप्त होते ही राम ने अयोध्यावासियों को संबोधित करते हुए कहा, "मेरे सर्व प्रिय अयोध्यावासी, अभी मुझे प्रतीत हो रहा है कि रावण और उसकी सेना से लड़ते हुए मुझे इतनी शक्ति, इतनी ऊर्जा कहाँ से मिल रही थी। वह सारी ऊर्जा मुझे आपके तप, त्याग, तितिक्षा से मिल रही थी। वहाँ दिख तो रहा था कि एक राम लड़ रहा है। वस्तुतः मैं आप सबों के अंदर बसे राम की ऊर्जा के साथ लड़ रहा था। रावण से राम नहीं, पूरी अयोध्या लड़ रही थी। जब पूरी अयोध्या किसी से लड़ेगी तो उसे कौन हरा सकता है। मैंने राक्षसों का नाश नहीं किया है, आपने उन्हें समूल, सपरिवार यमपुर पहुंचाया है। आपके इस तप से निकले तेज को नमन करता हूँ और गुरुजनों तथा भाई भरत की सम्मति से यह घोषणा करता हूँ, पूरी अयोध्या की हर वीथी, चौराहों, खेतों, खलिहानों, कुओ, तालाबों को दीपक के समूहों से और प्रकाश स्तंभों से आलोकित कर दिया जाय। ऐसी दीपावली मनायी जाय, जैसी पहले कभी नहीं मनाई गई हो।"
सारी प्रजा में उत्साह और उमंग की तरंग उठती रही।
©ब्रजेन्द्रनाथ






Monday, October 26, 2020

विजयादशमी राम को आना होगा (कविता)

 #BnmRachnaWrld

#vijayadashamipoem

25 अक्टूबर, विजयादशमी के दिन आ अवधेश कुमार सिंह जी, वैशाली, दिल्ली एन सी आर, द्वारा संचालित "पेड़ों की छाँव तले रचना पाठ" के अंतर्गत आयोजित 68 वीं गोष्ठी में वेबिनार के माध्यम से भाग लेने का सुअवसर प्राप्त हुआ। उसी समय ली गयी तस्वीरों के साथ सभी सहभागियों की रचनाओं का अंश सुनते हुए अंत में मेरी रचना का ऑडियो आप सुनेंगें। तो आइये तस्वीरों के माध्यम से उस दिन के गूगल मीट की साहित्यिक यात्रा पर चलते हैं , मेरे यूट्यूब चैनल "marmagya net " के साथ : इस चैनल को अवश्य सब्सक्राइब करें, यह बिलकुल फ्री है। सादर !

यूट्यूब लिंक: https://youtu.be/UA_npwoGaG0












विजयादशमी पर राम का आह्वान
🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩
जब -जब रावण की शक्ति बढ़ेगी,
राम को आना होगा।
आकाश के नक्षत्रों को मिलकर
विषम - काल सुलझाना होगा।

जब पाप और अनाचार का
राक्षस निर्बाध यूँ धूमेगा।
जब - जब ताकत के मद
में पागल हाथी - सा झूमेगा।

गांडीव उठा, कर संधान
जग को त्राण दिलाना होगा।
राम को आना होगा--2

जब - जब नारी सन्देहों
में घिर शापित होती रहेगी।
जब - जब मूक शिला बनकर
निरानंदित जीती रहेगी।

अपने चरणों के रजकण से
उनका उद्धार कराना होगा।
राम को आना होगा-2

जब - जब संस्कृति के पोषक
का अस्थि - समूह बन जायेगा।
जब - जब सभ्यता कराहेगी,
मानव असहाय बन जायेगा।

तब भुजा उठा प्रण कर
अरि- व्यूहों को ढहाना होगा।
राम को आना होगा, --2

राम इस धरा पर कभी
मानव का रूप नहीं लेंगें।
राम अब दसरथ नंदन बन,
कभी भी लीला नहीं करेंगें।

अब राम - भक्तों को जुटकर,
अंदर का राम जगाना होगा
हृदय में बस जाना होगा। 2

रावण तभी जलेगा , जब
हमारा अहंकार मिट जाएगा।
रावण तभी मिटेगा जब,
लोभ और मोह नहीं सताएगा।

राम भक्त बनने के लिए
मन शुद्ध बुद्ध बनाना होगा।
अंतर का राम जगाना होगा
राम को आना होगा--2

©ब्रजेन्द्रनाथ



Monday, October 19, 2020

प्यार ऐसे क्यों आता है? (कहानी) #laghukatha

 #BnmRachnaWorld

#लचुकथा #laghukatha










प्यार ऐसे क्यों आता है जिंदगी में?

प्रणव अनु का पड़ोसी था। वह गणित, पी जी का विद्यार्थी था। अनु कभी - कभी उससे अर्थशास्त्र में सांख्यिकी (स्टेटिस्टिक्स) के सवालों को हल करने में मदद लिया करती थी। प्रणव उसे इसतरह समझाता था कि अनु को सांख्यिकी से सम्बंधित सवाल बिलकुल आसान लगने लगे थे।  शायद प्रणव की सांख्यिकी की समझ और समझाने के ढंग दोनों  ही अनु को प्रभावित कर रहे थे। कभी - कभी अनु अपने मन की सीमा रेखा के पार कोई अनकही, अपरिभाषित  आकर्षण भी महसूस  करने लगी  थी। परन्तु प्रणव ने अनु के सफ़ेद लिबाश की  असलियत  जाने बिना अपने मन को किसी उलझन में नहीं डालने का मन बना लिया था। 

एक दिन उसने अनु से पूछ दिया, "तुम सफ़ेद सलवार सूट में अच्छी  तो लगती हो, लेकिन क्या  रंगीन शेड के कपड़े तुझे पसंद नहीं?"

अनु ने हंसकर जवाब दिया था,
"मैं चाहती तो नहीं कि कोई आग सुलग जाए,  
गर सादगी मेरी जलाये, तो मैं क्या करूँ?"
और यह चर्चा इसी तरह टल गई थी या टाल दी गई थी।
●●●
अनु के पिताजी का स्थानांतरण दूसरे दूर के शहर में हो गया था। अनु भी कॉलेज में अर्थशास्त्र आनर्स के फाइनल के परीक्षाफल में अब्बल रही थी। अब उसके आगे की पढ़ाई दूर के ही शहर में होगी। आज अनु आख़िरी बार प्रणव से मिलने आई थी। उसी ने प्रणव का हाथ पकड़कर कहा था, "प्रणव, मेरी शादी छह महीने पहले ही हो गई थी जब मैं हैदराबाद में थी। मेरे पति आई पी एस अफसर थे। उन्हें एक दिन कमिश्नर से फोन आया, 'आप नक्सल प्रभावित क्षेत्र में जवानों की एक टुकड़ी लेकर रेड करें। वहाँ खूखार जोनल कमांडर के होने की पक्की सूचना मिली है। वे रात में ही निकल गए। जब वे एक दिन के बाद लौटे तो तिरंगा में लिपटे हुए थे। यही है मेरी सफ़ेद लिबाश का राज, प्रणव।"

वह प्रणव का हाथ अपने हाथ में लिए आंसुओं से तर करती रही, और प्रणव सोचता रहा, "क्या प्यार ऐसे आता है, जिंदगी में? अगर प्यार ऐसे आता है, तो प्यार क्यों आता है जिंदगी में?"
©ब्रजेन्द्रनाथ मिश्र

Thursday, October 8, 2020

फेसबुक पर टैगाने की आत्मविभोरता (हास्य व्यंग्य)

 #BnmRachnaWorld

#hasyavyangya#हास्य व्यंग्य











टैगाने की आत्मविभोरता
आजकल अंतर्जाल में फेसबुक नामक सामयिक साइट पर डाला जाने वाला पोस्ट अपने दोस्तों और करीबियों से अनदेखा न रह जाय, इसके लिए उससे उन दोस्तों और करीबियों के नाम टैग यानि संलग्नित करने का चलन बहुत जोरों पर है।
इसके आशीत, आशातीत और अप्रत्याशित परिणाम देखने को मिलते रहे हैं। यह सुखदायी भी हो रहा है, और दुखदायी भी।
आपने इस रचना के शीर्षक में एक शब्द पढ़ा होगा , "टैगाना"। इसका अर्थ अगर नहीं समझ पाए तो अनर्थ भी हो सकता है।इसीलिये इसे समझना जरूरी है।
अगर किसी कन्या या महिला ने अपने पोस्ट से आपको टैग किया है, तो आप अपने को भाग्यशाली समझने लगते हैं। आप अपने को साधारण से असाधारण, या अगर विशिष्ट समझते हैं तो अतिविशिष्ट समझने का वहम पालने लगते हैं। वैसे भी आप इतनी कवितायें, कहानियां सोशल साइट पर डालते रहते है, कि लोग अजीज आकर लाइक वगैरह डाल देते हैं, तो आप अपने को विशिष्ट समझ लें, इसमें आपका दोष भी नहीं है। जमाना ही ऐसा है। वैसे भी लेखक और वह भी हिंदी के लेखक नामक प्राणी को कोई घास तो डालता नहीं, पढ़ने की तो बात ही दीगर है। हिन्दी में पाठकों का अकाल पड़ गया है या आप का लिखा ही इतना घटिया है कि लोग पढना तो दूर झांकना भी पसंद नहीं करते हैं। ऐसे में अगर कोई कन्या या महिला आपको अपने लेखकीय कर्तृत्व के साथ टैग कर देती है तो आपकी बांछे खिलनी ही चाहिए। अगर नहीं खिलती हैं, तो यह सोचने पर विवश होना पड़ेगा कि आप किस श्रेणी में आएंगे। बिना खुश हुए तो गदहा भी नहीं रहता होगा।
हमलोग "टैगाना" शब्द पर चर्चा कर रहे थे। टैगाना शब्द मूलतः टैग धातु से आया है। टैग धातु वह धातु है जो धातु नहीं होते हुए भी धातु है। यह आँग्ल भाषा में अंतर्जाल के फेसबुक नामक सामाजिक कर्तृत्व किये जाने वाले स्थल पर अक्सर प्रयोग किया जाने लगा है। यह एक साथ सकर्मक और अकर्मक दोनों ही क्रिया रूपों में प्रयुक्त होता है। इसको अकर्मक क्रिया रूप में प्रयोग किया जाय तो उसे "टैगना" कहा जाएगा। टैगना यानि फेसबुकीय मित्रमंडलीय विस्तार में स्त्रीलिंगीय या पुलिंगीय या दोनों लिंगीय या अलिंगीय प्राणी को टैग यानि संलग्नित किये जाने से संबंध रखता है।
जैसे: माला ने श्रीमाली को फेसबुक पर डाले गए पोस्ट से टैग कर दिया।
इसी वाक्य पर अगर यह प्रश्न उठाया जाए, जो जमाने से उठाया जाता रहा है कि माला ने श्रीमाली को ही क्यों टैग किया?
या श्रीमाली ने माला से ही क्यों टैगाया? तो यह टैगना क्रिया का सकर्मक रूप कहा जाएगा।
इसका सकारात्मक पहलू यह हो सकता है कि माला ने श्रीमाली को ही टैगने के लिये पसंद किया?
क्या माला और श्रीमाली के बीच " कुछ-कुछ होने जैसा" अरसे से हो रहा है?
या श्रीमाली ही ऐसा था जिसने माला से "टैगाने" के लिए अपने को प्रस्तुत किया?
यह विश्लेषण यहां पर इसलिए बेमानी हो जाता है क्योंकि फेसबुक में श्रीमाली जैसे कई मित्रों और मित्राणियों का फेस उभर आता है, जिसमें से माला जैसियाँ किसी को भी टैग कर सकती हैं। वहाँ न खाप पंचायतों का डर है और न टैगाने से कोई भाग सकता है।
तो इससे यह स्पष्ट होता है कि टैगने और टैगाने के लिए यहाँ हर कोई स्वतंत्र है। परंतु यहां पर एक भयंकर और दारुण लोचा उत्पन्न हो रहा है जिसकी चर्चा मैं उदहारण के साथ करूँगा। आप जरा ध्यान दीजियेगा।
मैंने हाल ही में फेसबुक पर एक महिला का एलान देखा, "अगर किसी ने मुझे टैगने की कोशिश की, तो मैं उसे अमित्र या अन्फ़्रेंड कर दूंगी।"
टैगमुक्ति के लिए वैसे उनका यह ऐलान काबिलेतारीफ है, लेकिन इसमें इसकी भी संभावना बन सकती है कि वे अगर खुद भी किसी को टैग करना चाहें तो प्रतिक्रिया स्वरुप उन्हें भी अमित्र किया जा सकता है। टैगमुक्ति का यह तरीका प्रभावी होते हुए भी विपरीत परिणाम उत्पन्न करने वाला हो सकता है। अतः टैग किये जाने पर टैगाने का सुख प्राप्त करना इस कलियुग में परमसुख की तरह है। हाँ , इसके लिए अगर टैगने वाला या वाली आकर्षक ब्यक्तित्व का हो और उनकी पोस्ट भी आपकी रुचि का हो, तो टैगाने का सुख और आनंद कई गुना बढ़ जाता है। इसलिए इस सुख का लाभ लेना चाहिए। हाँ, आपके अनुसार अगर आपको किसी आपत्तिजनक पोस्ट के साथ टैग किया गया हो, तो आप पोस्ट की गुणवत्ता के बारे में रिपोर्ट कर सकते है और उन जनाब का अकाउंट ही गोल करवा सकते है। यह एक वैधानिक चेतावनी भी है और वैसे पोस्ट से साइट के लिए स्वच्छता अभियान का आगाज़ भी कर सकते हैं।
आजकल फेसबुक पर अक्सर यह चेतावनी पोस्ट करते हुए लोग टैग करने वालों को विभिन्न उपाधियां जैसे "टैगासुर" या "टैगादैत्य" से नवाज़ने लगे हैं। आप अगर स्वच्छता अभियान में लग जायेंगे तो आप को इन उपाधियों से कभी नहीं अलंकृत किया जाएगा। इसकी पूरी गारंटी है। हाँ, भविष्य में आपको "टैगश्री", "टैगभूषण", "टैगविभूषण" या "टैगरत्न" आदि पुरस्कारों से सम्मानित किया जा सकता है।

पहले आप अनगिनत लोगों को टैग कर सकते थे। परंतु अभी मार्क जुकरबर्ग को लगा होगा कि एक ही ब्यक्ति या ब्याक्तिन इतने लोगों को एक साथ टैग कर दे, यह बिलकुल नाइंसाफी है, इसलिए उसकी अधिकतम संख्या की सीमा निर्धारित कर दी गयी है। इस सीमा में आप आ जाते हैं, यह फख्र की बात है। इसलिए टैगने का यह परम पुनीत कार्य सभी मित्रों और मित्राणियों द्वारा जारी रहे यही मेरी हार्दिक इच्छा है।
टैग शब्द के हिंदी शब्द कोष में प्रवेश ने एक तहलका मचा दिया है। कुछ नयी शब्दावलियों पर ब्याख्यासाहित गौर फरमाएं:
टैगना और टैगाना क्रिया रूप है, इससे कुछ अन्य शब्द विस्तार इस तरह दिए जा सकते हैं:
टैगाहट: टैगने के अकुलाहट को टैगाहट कहा जाता है- उसने टैगाहट पूर्ण नज़रों से हमें देखा। विशेष अर्थ- उसकी नज़रें मुझे टैगने को ब्याकुल थी।
टैगात्मक : टैग किये जाने लायक, इसके जैसे शब्द हैं, रचनात्मक। हम सबों को उनके टैगात्मक विचारों से लाभान्वित होना चाहिए।
टैगाभास: यानि दो टैग किये जाने वाले पोस्टों के बीच का विचारांतर। वाक्य - रमेश और रानी के पोस्टों में टैगाभास परिलक्षित होता है।
वैसे कई सामासिक शब्द भी बनाये जा सकते है या आगे जिनके बनाये जाने की संभावना है।
टैगाभ्यास: टैग करने के लिए आवश्यक प्रैक्टिस या पूर्वाभ्यास।
टैगाचार और टैगाचरण: टैग किये जाने के कृत्य को टैगाचार और आचरण को टैगाचरण कहा जायेगा। इस टैगाचार या टैगाचरण शब्द का प्रयोग सकारात्मक या नकारात्मक सन्दर्भ में किया जाए, यह उस पोस्ट के गुणात्मक अर्थ पर निर्भर करेगा।
उदाहरणस्वरूप एक वाक्य देखें: उस कन्या या उस महिला ने अपने बॉस के टैगाचार अथवा टैगाचरण से तंग आकर इसकी शिकायत थाने में कर दी। अब थानेदार को यह सोचना पड़ेगा कि शिकायत को किस धारा के अंतर्गत दर्ज किया जाय।
माएँ और पिताएँ अपने बच्चों की फेसबुकीय प्रतिभा का भविष्यालोकन करते हुए उनका नाम भी इसप्रकार रख सकते है:
टैगेश, टैगेंद्र, टैगेश्वर, टैगाग्र, टैगागार, टैग शरण, टैगचरण, टैगनंदन, टैगुद्दीन, टैगलक, टैगार्डिन, टैगार्क, टैगीन, टैगानंद, टैगलीन आदि।
अगर यह शब्द आज से 20-25 साल पहले चलन में आया होता तो फ़िल्मी संगीत में एक तहलका मच गया होता:
दीदी तेरा देवर दीवाना, चाहे कुड़ियों को टैगाना।
-------------
मेरे जीवन साथी टैग किये जा, .जवानी दीवानी खूबसूरत..जिद्दी पड़ोसन, टैग किये जा।
--------------
तब तो हद ही हो जाएगी, जब गाने के बोल "गोली मार भेजे में...." बदलकर, " टैग कर फेसबुक में..."
हो जाएगा।

प्रिय पाठकों जब भी मुझे फेसबुक में टैग किया जाता है तो मैं "टैगाने की आत्ममुग्धता" में कई दिनों तक विभोर रहता हूँ। उस विभोरपने से अपने को निकालने में बड़ी दिक्कत होती है। आप भी टैगाने पर अपने चरमानंद की स्थिति को अवश्य जाहिर करें।
©ब्रजेन्द्र नाथ मिश्र

Monday, October 5, 2020

गाँधी और शास्त्री जी की याद में (कविता)

 #BnmRachnaWorld

#gandhipoem #shastrijipoem

परम स्नेही साहित्यान्वेषी ब्लॉग से जुड़े परिजनों,

अभिवादन! अभिनन्दन!💐!

कृपया यह संदेश अवश्य पढ़ें:

 २ अक्टूबर को अखिल भारतीय साहित्य परिषद् की जमशेदपुर इकाई की ऑनलाइन काव्य गोष्टी गूगल मीट के माध्यम से संपन्न हुई।  उस गोष्ठी की तस्वीरों, और भाग  लेने वाले कलमकारों के द्वारा सुनाई  गयी कविताओं की पूरी  रिपोर्ट पर आधारित यह वीडियो अवश्य देखें और अपने विचारों से अवगत कराएं।आपके विचार बहुमूल्य हैं। इसमें मेरे द्वारा कविता पाठ का ऑडीयो भी है। 

--ब्रजेन्द्रनाथ

Link: https://youtu.be/9t2DOtKfyEQ








गाँधी जी और शास्त्री जी की याद में

गाँधी की आँधी चली,
उड़ गया इंगलिस्तान।
शास्त्री जी के ब्रह्मास्त्र से,
उखड़ा पाकिस्तान।

गाँधी जी की अहिंसा,
नहीं कायरों की भाषा।
मौका देता है अरि को,
सुधरने कीअभिलाषा।

नहीं सुधरे तो शास्त्री जी
का शस्त्र झेलना होगा,
विषधर को क्यों दूध पिलाना,
अस्त्र बेधना होगा।

आज भी गाँधी प्रासंगिक है,
समरस समाज बनाना है।
भेद भाव, रंग भेद, युद्ध
का उन्माद मिटाना है।

सत्य ही है ईश्वर
गांधी ने था सिखलाया।
प्रेम का परिचय सबसे गहरा,
सबको था बतलाया।

गाँधी बोले थे देश का,
होगा मेरे शव पर विभाजन।
भारत अखंड है, रहेगा
मंजूर नहीं विखंडन।

परन्तु जिन्ना की शर्तों पर,
देश हुआ विभाजित ।
जब नेता मना रहा थे,
जश्ने आजादी दिल्ली में,
गाँधी थे नोआखाली में,
देश हुआ रक्त रंजित।

गाँधी के मूल्यों को कांग्रेस,
आजादी मिलते मोड़ चुकी,
गाँधी बापू को तस्वीरों में,
दीवालों पर छोड़ चुकी।

गाँधी के सपनो का भारत ,
आज बिलखता है।
गांधी के सपनों का भारत
कहीं नहीं दिखता है।

जनपथ को संघर्षों में आज,
कौन सुलगाता है?
लोगों का सुखभाग वह,
कहाँ छुपाता है?

भारत को आत्मनिर्भर बना,
उन्नत करना है स्वाभिमान को।
लोकल को वोकल करना है
ताकत देना है जवान और किसान को।
©ब्रजेन्द्रनाथ

Thursday, October 1, 2020

मैं क्यों आयी हूँ ये बता दे साथी (कविता)

 #BnmRachnaWorld

#poemromantic#mystery











मैं क्यों आयी हूँ, ये बता दे साथी

मैं ही दर्द हूँ, मैं ही जलन हूँ
मैं ही नींद हूँ मैं ही सपन हूँ।
मैं ही जिश्म हूँ, मैं ही हूँ तड़पन,
मैं ही जान हूँ, मैं ही चुभन हूँ ।

इस दर्द की कोई दवा  दे साथी।
मैं क्यो आयी हूँ, ये  बता दे साथी।

मैं ही बिस्तर हूँ, मैं ही निंदिया हूँ।।
मैं ही सूरत हूँ, मैं ही बिंदिया हूँ।
मैं बह ना सकी अपने गुमान में
मैं निश्चल, ठहरी हुई एक नदिया हूँ।

इस नदिया को फिर से बहा दे साथी।
मैं क्यों आयी हूँ, ये  बता दे साथी।

मैं ही आँगन हूँ, मैं ही धूल हूँ।
मैं ही डाली भी हूँ, मैं ही फूल हूँ।
मैं ही हूँ हरियाली, पत्तियों की
मैं ही रास्ते में पड़ी हुई शूल हूँ।

इस शूल को समूल मिटा दे साथी।
मैं क्यों आयी हूँ ये बता दे साथी।

मैं ही ईंट हूँ, मैं ही मकान हूँ।
मैं हवा भी हूँ, मैं ही तूफान हूँ।
मैं ही हूँ पतंग की डोर थामे हुए
अजनबी के लिए इक पहचान हूँ।

इस पहचान को गहरा बना दे साथी।
मैं क्यों आयी हूँ, ये बता दे साथी।


मैं ही स्वर हूँ, मैं ही गीत हूँ।
मैं ही तार हूँ, मैं ही संगीत हूँ।
मैं न खींची गयी हूँ हद से ज्यादा
इसलिए मैं ही, बन गयी प्रीत हूँ।


इस प्रीत की रीत निभा दे साथी।
मैं क्यों आयी हूँ ये बता दे साथी।


गान ज्यों मिल रहे हैं महागान से।
ज्ञान ज्यों मिल रहे हैं महाज्ञान से।
ब्यक्ति भी मिल रहा है महासमष्टि से
जैसे प्राण मिल रहे हों महाप्राण से।


यही है जीवन का सच जान ले साथी।
ये  बताने आयी हूँ,   जान ले साथी।


मैं क्यों आयी हूँ, ये जान  ले साथी।
मैं क्यों आयी हूं, ये जान ले  साथी।

©ब्रजेन्द्रनाथ

यह कविता मेरे कविता संग्रह "कौंध" से ली गयी है।



Saturday, September 26, 2020

एक रुपया सुनाता सफर अपना (कविता)

 #BnmRachnaWorld

#journeyofonerupeecoin











 सिक्के के सफर की कहानी

सुनो सुनता हूँ मैं अपने
सफर की एक कहानी।

पिघल-पिघल कर मैंने पायी
गोल मटोल - सी सुंदर काया।
टकसाल मेरा है जन्मस्थान,
चमक से जग सारा भरमाया।

मैं आते ही पड़ा एक दूल्हे के
वैवाहिक रस्म की थाल में ।
बुद्धि गणेश पर मुझे चढ़ाया,
प्रभु चरणों की संभाल में।

अब मैं सुगंध में लिपटा हूँ,
दुल्हन के आँचल की।
ऐसे ही रुन - झुन सुनूँ
दुल्हन के पायल की।

ऐसे कहाँ भाग्य है मेरे
यहाँ से करुणा भरी कहानी।
सुनो सुनाता हूँ मैं अपने
सफर की एक कहानी।

मैं चला गया सेठ की
नई बनी अलमारी में।
उसने जैसे बंद किया हो,
जेल की चार दिवारी में।

मेरा दम घुटता रहा
हवा नहीं, नहीं पानी।
सुनो सुनता हूँ मैं अपने
सफर की एक कहानी।

वहाँ से किसी तरह निकल
पनवाड़ी की गद्दी के नीचे।
मेरा चेहरा बिगड़ चला,
अब हूँ कबाड़ी के रद्दी के नीचे।

रद्दी के साथ रोज रोज
मैं तौला जाता हूँ।
हर रोज मैं रोता हूँ,
हर रोज धकेला जाता हूँ।

हर सिक्के की अलग-अलग
ढंग से बीती जवानी ।
सुनों सुनाता हूँ मैं अपने
सफर की एक कहानी।

मेरी भी है आश किसी दिन
जा पड़ूँ नन्ही सी मुठ्ठी में।
जैसे कोई रंग - बिरंगी
तितली बंद हो नन्ही मुट्ठी में।

मेरा भी रिश्ता हो जाये
किसी से थोड़ी सी रूहानी।
सुनों सुनाता हूँ मैं अपने
सफर की एक कहानी।
©ब्रजेन्द्रनाथ

Monday, September 21, 2020

मन में तेरा ही नाम रहे (कविता) #bhakti

#BnmRachnaWorld

#shyambhakti


परम स्नेही मित्रों, 

पिच्छले २९ सितम्बर को डॉ राधानंदन सिंह जी के आमंत्रण पर मैं मारुती सत्संग मंडल पुणे के वेबिनार से जुड़ा।  डॉ राधा बाबू के कर्मफल सिद्धांत पर दिए गए प्रेरक वक्तव्य के बाद मैंने अपनी दो भक्तिपूर्ण रचनाएँ प्रस्तुत की।  एक योगेश्वर श्री कृष्ण पर और दूसरी भगवान राम के वन गमन पर। इसी का यूट्यूब वीडियो  लिंक मैं दे रहा हूँ। आपके बहुमूल्य विचारों का स्वागत है। सादर:

--ब्रजेंद्र नाथ

यूट्यूब लिंक: https://youtu.be/fJES-jIN7cw












मन में तेरा ही नाम रहे

श्याम मेरे, घनश्याम मेरे,
मन में तेरा ही नाम रहे।

प्रेम की बाती जलती रहे,
नेह की बूंदे गिरती रहें।
तन मेरा तू सींचित कर दो,
मोहपाश को सीमित कर दो।

मनमोहक तेरी ही छवि,
नयनों में आठो याम रहे।
मन में तेरा ही नाम रहे।

मन में झूठे अहंकार का
पौधा एक पनप रहा है।
काम, क्रोध, लोभ, मत्सर का
विषय - व्याल लिपट रहा है।

मानस में तेरा ही चिंतन
सुबह, दोपहर शाम रहे।
मन में तेरा ही नाम रहे।

भक्ति तेरी मैं पाऊँ कैसे?
चरणों से जुड़ जाऊँ कैसे?
भँवर समर के घेर रहे हैं,
इनको जीत मैं आऊँ कैसे?


संकल्पों में शक्ति भर दो,
ओठों पर गोकुलधाम रहे।
मन में तेरा ही नाम रहे।

©ब्रजेन्द्रनाथ

Thursday, September 17, 2020

ब्रह्मांड शिल्पी और भारत शिल्पी (नरेंद्र मोदी) दोनों को नमन (कविता)

 #BnmRachnaWorld

#Vishwakarmapujapoem

#narendramodibirthday











विश्वकर्मा भगवान का वंदन

सृष्टि के प्रथम शिल्पी का करते हैं अभिनन्दन।
हाथ जोड़ विश्वकर्मा भगवान का करते हैं वंदन।

आपने शिल्प कर्म को कौशल की आभा दी है,
श्रमवीरों को स्वाभिमान से जीने की श्लाघा दी है।

इस जगत में सर्वत्र व्याप्त, आपकी सुंदर संरचना,
निर्माण हुआ या हो रहा, सब आपकी ही प्रेरणा।

ब्रह्मांड सारा आपसे गतिमान है पथ पर अपना,
आपसे ही जीवों का पूरा हो रहा घर का सपना।

धर्म पथ पर बढ़ चलें हम, शुद्ध हो मेरे आचरण,
गमन पथ प्रशस्त करना, बढ़ते चले मेरे चरण।

ब्रह्माण्ड में तेरा ही राज, भक्तों की रखना तू लाज,
भाव मैं अर्पित करूँ, झुके नहीं कभी सच का ताज।

हम अभिमानी, मूर्ख, पूजा विधि से अनजान हैं।
अपनी शरण में ले लो प्रभु, हम तेरी ही संतान हैं।

©ब्रजेन्द्रनाथ








प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के जन्मदिन पर मेरे उदगार:

आज ब्रह्मांड के शिल्पी विश्वकर्मा जी
का करते हैं वंदन,
साथ साथ भारत शिल्पी नरेंद्र जी को
जन्मदिन का अभिनन्दन!

मौन उसे देखकर
भूल मत कोई कर ।
दहाड़ेगा सिंह बन
नियति को तोलकर ।
शक्ति संचयन में लगा हुआ साधक,
टूटेगा मृगराज - सा, अभी
वन - वन डोलता है ।
शान्त पड़ी ज्वाला में भी
अनल - कण होता है ।

स्यारों की हुआ - हुआ
कुकुरों का कुकुरहाव ।
कौओं का  
काँव - काँव,
चापलूसों का हावभाव ।
इन सबसे निरपेक्ष
अपनी  धुन में मग्न ।
एक पथ, एक लक्ष्य
देश - सेवा का एक प्रण।
दुश्मनों की छाती तोड़ेगा, भीम बन
अभी बाजुओं का बल
मन - ही - मन तोलता है ।
शांत पड़ी ज्वाला में भी
अनल - कण होता है ।

©ब्रजेन्द्र नाथ मिश्र

Monday, September 14, 2020

हिंदी दिवस पर कविता (कविता)

 #BnmRachnaWorld

#HindiDiwas

यह कविता यूट्यूब पर मेरे चैनल "marmagya net" के नीचे दिए गए लिंक पर मेरी आवाज में सुनें और कमेंट बॉक्स में अपने बहुमूल्य विचारों से अवगत कराएं! सादर!

Link: https://youtu.be/-o0y4UoaCu0


















हिंदी दिवस पर: बारह छंद

हिंदी भूषण के छन्द हैं,
सवैये हैं चंद वरदाई के।
हिंदी है तीर पृथ्वीराज का
भेदती छाती गोरी आतताई के।

हिंदी है सूर तुलसी की भक्ति,
उलटबासियाँ संत कबीर की,
हिंदी है दोहे रहीम रसखान के
और शायरी ग़ालिब मीर की।

हिंदी मीरा के गीतों में है
छंदों में भक्त रैदास के।
हिंदी रमानंद की कुटिया,
गायन में स्वामी हरिदास के।

भारतेंदु हरिश्चन्द्र ने किया
खड़ी बोली का अनुसंधान।
हिंदी की सरिता बनी गंगा,
बह चली सर्वत्र वेगवान।

हिंदी राणा के भालों में
मेवाड़ की पावन माटी में।
हिंदी है श्यामनारायण की,
रक्त - सरोवर हल्दीघाटी में।


हिंदी है झाँसी की धरती
और लक्ष्मीबाई की तलवार।
सुभद्रा कुमारी चौहान के,
छंदों से गूंजी थी ललकार।

प्रेम के लिए प्रेम की भाषा,
अरि के लिए अंगार है, हिंदी
सियारों की हुआ हुआ का,
उत्तर सिंहनाद हुंकार है, हिंदी।

हिंदी कोमल पंत और
करुणा महादेवी की।
जयशंकर की कामायनी,
निराला की जूही की कली।

हिंदी है फक्कड़ नागार्जुन सी
और दिनकर की हुंकार भरी।
हिंदी मैथिली शरण गुप्त की,
साकेत, पंचवटी सी संस्कार भरी।

हिंदी नीरज के गीतों में,
बच्चन के रुबाइयों की मधुशाला।
माखन, अटल का देशराग,
जानकी बल्लभ की राधा बाला।

अन्य भाषाओं के मनके से
बनती है हिन्दी की माला।
भारतीयता का साकार रूप
हिंदी में लक्षित माँ वाला।

माँ आँचल की छाँव देकर
होती रही विभोर है।
भारतीय भाषाओं का विकास हो,
स्नेह का नहीं ओर छोर है।
©ब्रजेन्द्रनाथ
यूट्यूब लिंक :


https://youtu.be/-WloLq4wW4A?si=CmMG0fsjHost_jrv


Monday, September 7, 2020

सीमा पर सजग जवान हैं (कविता)

 #BnmRachnaWorld

#patrioticpoem


यह कविता शुद्ध साहित्यिक रचनाओं के मेरे यूट्यूब चैनल marmagya net के नीचे दिए गए लिंक पर जाकर सुनें, चैनल को सब्सक्राइब करें, यह बिल्कुल फ्री है।

Link: 

https://youtu.be/jPpIzovZ5oA










सीमा पर सजग जवान हैं


आँखें नहीं दिखा सकता
सीमा पर सजग जवान हैं।

आँधी हो, बादल गरजे
या बारिश तूफान हो।
बर्फीली बह रही हवाएं,
टूटता हिम - चट्टान हो।

सांसें अर्पित हैं मेरी माँ
तेरे लिए ही जान है।
आँखें नहीं दिखा सकता
सीमा पर सजग जवान हैं।

कदम बढ़ाऊंगा मैं आगे,
उबल रहा है उष्ण खून,
गंध मधुर अब रोक नहीं,
काँटों में बोने चला प्रसून।

फर्ज पुकार रहा माँ का
मुट्ठी में सारा जहान है।
आँखें नहीं दिखा सकता
सीमा पर सजग जवान हैं।

रेतीले ऊँचे टीले हों, या
आँधी में हो भरी धूल।
दूर तलक है नजर हमारी,
वैरी विनष्ट होगा समूल।

दुश्मन की हर चाल से
नहीं कभी अनजान हैं।
आँखें नहीं दिखा सकता
सीमा पर सजग जवान हैं।

देश के नेताओं से कह दो,
लोकतंत्र में है विश्वास।
तो राष्ट्रहित की बात करें,
जनता में फैले उल्लास।

जयचंदों को पकड़, बता दे,
उनकी जगह श्मशान हैं।
आँखें नहीं दिखा सकता
सीमा पर सजग जवान हैं।

©ब्रजेन्द्रनाथ

गुरु के महत्व पर दोहे (कविता)

 #BnmRachnaWorkd

#poemtoteachers










गुरु के महत्व पर दोहे

1
गुरु - चरणों की धूल हैैं, नयन - अंजन समान।
आँखें रोग मुक्त रहे, दोष रहित हो ज्ञान।।

2
गुरु कृपा हो जाय जहाँ, मिटे विवेक - विकार।
लोभ, मोह, मत्सर धुलें, , निर्मल बनें विचार।।

3
जीवन में आगे बढ़ें, ईश कृपा है साथ।
ईश्वर की शक्ति मिले, सिर पर गुरु का हाथ।।

4
मिट जाते अज्ञान सब, फैले ज्ञान - प्रकाश।
गुरु की कृपा रहे सदा, भीतर भरे उजास।।

©ब्रजेन्द्रनाथ √

Friday, September 4, 2020

शिक्षक दिवस पर, नेतरहाट स्कूल की स्मृतियाँ (लेख)

#BnmRachnaWorld

#teachersdayspecial 










आज    शिक्षक   दिवस  है
आज मुझे वे शिक्षक याद आ रहे हैं जो ,  देश को आज़ादी   मिलने  के बाद अपनी योग्यता और विद्वत्ता के    बल पर बड़ी - बड़ी  नौकरियां  हासिल  कर सकते थे।  लेकिन उन्होंने शिक्षक का जीवन अपनाया और शिक्षण को  अपना   जीवन - धर्म बनाया ।  उनमें   से  कई  लोगों ने दूर - दराज़  के अपने गावं में ही   विद्यालय  खड़ा  किया और पूरी जिंदगी अपने जीवन जीने के ढंग से विद्याथियों के जीवन को बदलने का कार्य किया । 
पहले  के  बिहार और  अब  झारखण्ड प्रदेश  के पलामू  जिले  में  बीच जंगल में   नेतरहाट नामक जगह  में  एक आवासीय विद्यालय  दसवें तक की पढ़ाई के लिया बनाया गया था । वह विद्यालय पूरी तरह गांधी जी  के आश्रम   की  ब्यवस्था से   मिलता - जुलता जीवन  पद्धति  पर आधारित था।  वहां के शिक्षकों से लेकर विद्यार्थियों तक को सारा  काम  खुद     करना  पड़ता था ।  वहीं  के  कुछ पूर्ववर्ती  छात्रों   से वहां  के शिक्षकों से  जुड़े  कुछ   प्रेरक  प्रसंगों  के  बारे  में रूबरू  करवा रहा हूँ । 

एक पूर्ववर्ती छात्र राजवंश सिंह अनुभव सुनाते हैं। श्री सिंह बिहार सरकार के संयुक्त सचिव पद से रिटायर हो चुके हैं।  
यह उन दिनों की बात है जब नेतरहाट विद्यालय के प्रिंसिपल  डॉ    जीवननाथ दर थे। आपादमस्तक  गांधीवादी।
स्कूल की परंपरा थी कि हर छात्र को, हर काम करना होगा। बरतन धोने से लेकर लैटरिन साफ़ करने तक। राजवंश सिंह ने कहा, मैंने    अपने स्कूल के श्रीमान (वार्डेन) से कहा, मैं लैटरिन साफ़ नहीं   करूंगा। कोई फ़ादर थे। धैर्य से सुना। प्राचार्य डॉ दर को बताया। डॉ दर ने बुलाया, पूछा क्यों नहीं करोगे? 11 वर्षीय राजवंश सिंह ने कहा, मैं राजपूत हूं। 
डॉ दर ने सुना, कहा,  "ठीक है। पूछा, इस काम की जगह उस दिन कौन सा काम करोगे?"
  छात्र राजवंश ने कहा, "फ़लां काम।" 
उन्होंने कहा, "ठीक है, करो।"
 उस दिन   राजवंश सिंह ने देखा, कि उनकी जगह खुद लैटरिन साफ़ करने का काम डॉ दर कर रहे थे। राजवंश जी के लिए यह मानसिक आघात था। वे लिखते हैं, "मेरी जगह लैटरिन साफ़ करने का काम खुद प्राचार्य जी कर रहे थे, मैं यह देख कर अवाक व स्तब्ध था।"       
फ़िर अगली घटना हुई। एक दिन भोजनालय में उन्होंने देखा। दर    साहब जूठी चीजों को एकत्र करनेवाले टब से साबूत रोटी, सलाद नींबू चुन रहे थे।  चुन कर दो खाने के प्लेटों में रखा गया। 
मकसद था, बच्चों को बताना कि वे बिन खाये अच्छी चीजों को बरबाद कर रहे हैं। दर साहब गांधीवादी थे। उनकी आदत थी, एक-एक चीज की उपयोगिता बताना। यह भी कहना कि देश में कितने  लोग भूखे रहते हैं? कितने गरीबों के घर चूल्हे नहीं जलते? फ़िर छात्रों को समझाते कि वे कैसे एक एक चीज का सदुपयोग करें? उस दिन भी वह यही कर रहे थे। किसी छात्र ने मजाक में राजवंश सिंह को कह दिया कि यह जूठा तुम्हें खाना पड़ेगा।  
11 वर्षीय राजवंश सिंह चुपचाप स्कूल से निकल भागे। स्कूल में जाते ही पैसे वगैरह जमा करा लिये जाते थे। इसलिए महज हाफ़ पैंट और स्वेटर (स्कूल ड्रेस) पहने वह जंगल के एकमात्र शार्टकट से बनारी   गांव पहुंचे, भाग कर। लगभग 21 किमी दूर।  शायद ही ऐसी दूसरी घटना स्कूल में हुई हो।  बनारी में वीएलडब्ल्यू (Village Level Worker, यह पंचायतों के सचिव के रूप में काम करने वाला सरकारी व्यक्ति होता था।)  ने देख लिया। वह मामला   समझ गया। पूछा, "कहां जाना है? "
बालक राजवंश ने उत्तर दिया, "300 मील दूर भागलपुर।" 
 वह प्रेम से उन्हें अपने घर ले गया। यह कह कर कि मैं भी भागलपुर का हूँ।  भागलपुर पहुंचा दूंगा। तब तक स्कूल में  हाहाकार मच गया।पाँच- छः तेज  दौड़ाक (छात्र) दौड़े, उन्होंने ढूंढ़ लिया। फ़िर राजवंश सिंह स्कूल लाये गये। वह भयभीत थे कि आज पिटाई होगी। प्राचार्य डॉ दर के पास ले जाये गये। उन्होंने पूछा कि अभी तुम्हारा कौन सा क्लास चल रहा होगा? पता चला, भूगोल का। सीधे कक्षा में भेज दिया। एक शब्द नहीं पूछा. न कुछ कहा, न डांटा-फ़टकारा ।
 माता जी (प्राचार्य की पत्नी) ने सिर्फ़ कहा, बिना खाये हो? खाना खा लो। उधर, पकड़े जाने के बाद से ही राजवंशजी को धुकधुकी लगी थी कि आज खूब पिटाई होग। लेकिन वे आश्चर्यचकित थे कि उन्हें कोई दंड नही दिया गया।    

इन घटनाओं ने राजवंश सिंह का जीवन बदल दिया। वही राजवंश सिंह स्कूल में सब काम करने लगे। कैसे अध्यापक थे, उस युग के? चरित्र निर्माण, मन-मस्तिष्क बदलनेवाले अपने आचरण, जीवन और कर्म के उदाहरण से। अनगढ़ इंसान को ‘मनुष्य‘ बना देनेवाले. कितनी ऊंचाई और गहराई थी, उस अध्यापकत्व में? खुरदरे पत्थरों और कोयलों (छात्रों)  के बीच से हीरा तलाशनेवाले। बचपन से ही छात्रों को स्वावलंबी, ज्ञान पिपासु, नैतिक और चरित्रवान बनने की शिक्षा. महज नॉलेज देना या शिक्षित करना उद्देश्य नहीं था। वह भी हिंदी माध्यम से। ऐसे शिक्षक और ऐसी संस्थाएं ही समाज-देश को ऊंचाई पर पहुंचाते हैं।    

डॉ दर के अनेक किस्से हैं। जाने-माने सर्जन, डॉक्टर और लोगों के मददगार अजय जी (पटना) सुना रहे थे,
"मैं इंग्लैंड से डॉक्टर बन कर लौटा। मेरी ख्वाहिश थी कि एक बार ‘श्रीमान’ और माता जी को पटना बुलाऊं। मैंने पत्र लिखा। वह रिटायर होकर देहरादून में रह रहे थे। उनकी सहमति मिली। हमने आदरवश फ़र्स्ट क्लास के दो टिकट भेजे। लौटती डाक से टिकट वापस। उन्होंने मुङो पत्र लिखा कि हम सेकेंड क्लास में यात्रा कर सकते हैं, तो यह फ़िजूलखर्ची क्यों? दरअसल वह राष्ट्र निर्माण का मानस था, जिसमें तिनका-तिनका जोड़ कर देश बनाने का यज्ञ चल रहा था,  राजनीति से शिक्षा तक, हर मोरचे पर। तब कोई प्रधानमंत्री एक शाम भूखा रह कर ‘जय जवान, जय किसान’ की बात कर रहा था। 
काश, भारत में ऐसे 500-600 स्कूल खुले होते। जिले-जिले, तो भारत आज भिन्न होता ।

--ब्रजेंद्र  नाथ   मिश्र

Monday, August 31, 2020

एनिमल फॉर्म नामक नावेल के बारे में(लेख)

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एनिमल फार्म नामक नावेल के बारे में
एनिमल फार्म (Animal Farm) अंग्रेज उपन्‍यासकार जॉर्ज ऑरवेल की कालजयी रचना है। बीसवीं सदी के महान अंग्रेज उपन्‍यासकार जॉर्ज ऑरवेल ने अपनी इस कालजयी कृति में सुअरों को केन्‍द्रीय चरित्र बनाकर बोलशेविक क्रांति की विफलता पर करारा व्‍यंग्‍य किया था। अपने आकार के लिहाज से लघु उपन्‍यास की श्रेणी में आनेवाली यह रचना पाठकों के लिए आज भी उतनी ही असरदार है।
जॉर्ज ऑरवेल (1903-1950) के संबंध में खास बात यह है कि उनका जन्‍म भारत में ही बिहार के मोतिहारी नामक स्‍थान पर हुआ था। उनके पिता ब्रिटिश राज की भारतीय सिविल सेवा के अधिकारी थे। ऑरवेल का मूल नाम 'एरिक आर्थर ब्‍लेयर' था। उनके जन्‍म के साल भर बाद ही उनकी मां उन्‍हें लेकर इंग्‍लैण्‍ड चलीं गयीं थीं, जहां से‍वानिवृत्ति के बाद उनके पिता भी चले गए। वहीं पर उनकी शिक्षा हुई।
एनीमल फॉर्म 1944 ई. में लिखा गया। प्रकाशन 1945 में इंग्लैंड में हुआ जिसे तब नॉवेला (लघु उपन्यास) कहा गया, यद्यपि इसकी मूल संरचना एक लंबी कहानी की है। इसके अनुवाद प्रकाशित हुए- फ्रांसीसी भाषा में तो कई-कई!! प्रसिद्ध टाइम मैगजीन ने वर्ष 2005 में एक सर्वेक्षण में 1923-2005 ई. की कालावधि में प्रकाशित 100 सर्वाधिक प्रसिद्ध उपन्यासों में इस उपन्यास की गिनती की और साथ ही 20 वीं शती की माडर्न लाइब्रेरी लिस्ट ऑफ बेस्ट 100 नॉवल्स में इसे 31 वां स्थान दिया।
एनीमल फॉर्म उपन्यास साम्यवादी क्रांति आन्दोलन के इतिहास को दिखाता है। आंदोलन के नेतृत्व में प्रवेश कर गयी स्वार्थपरता, लोभ-मोह तथा बहुत-सी अच्छी बातों से किनारा कर किस प्रकार आदर्शो के स्वप्न-राज्य (यूटोपिया) को खंडित कर सारे सपनों को बिखेर देती है, इसे पशुओं के बाड़े में निवास कर रहे पशुओं के माध्यम से दिखाया गया है। मुक्ति आंदोलन जिस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए किया गया था, सर्वहारा वर्ग को सत्ता हस्तांतरित करने के लिए, उस उद्देश्य से भटक कर वह बहुत त्रासदायी बन जाता है। पशुओं के बाडे का पशुवाद (एनीमलिज्म) वस्तुत: सोवियत रूस के 1910 से 1940 की स्थितियों का फिक्शनल प्रतीकीकरण (सिम्बोलिस्म) है।
कहानी:
मेनर फार्म के जानवर अपने मालिक मि जोंस के खिलाफ बगावत कर देते हैं और शासन अपने हाथ में ले लेते हैं। जानवरों में सूअर सबसे चालाक हैं और इसलिए वे ही इनका नेतृत्‍व करते हैं। स्नो बॉल नामक सुअर जानवरों की सभा में सुशासन के कुछ नियम तय करते हैं। पंरतु बाद में एक नैपोलियन नाम का जंगली सुअर स्वयं नेतृत्व करना चाहता है। उसे जानवर नहीं चाहते है। वह जंगली कुत्तों को बुलवाता है और स्नोबॉल को भगा देता है। एक विण्ड मिल बनाने का निर्णय स्नोबॉल ने ही लिया था और बनवाया भी था। इसमें बॉक्सर नामक घोड़ा ने बहुत मेहनत किया था। एक बार आँधी में विंड मिल गिर जाता है। नैपोलियन नामक सुअर आदमी का ही रंग-ढंग अपना लेते हैं और अपने फायदे व ऐश के लिए दूसरे जानवरों का शोषण करने लगते हैं। इस क्रम में वे नियमों में मनमाने ढंग से तोड़-मरोड़ भी करते हैं। मसलन नियम था – ALL ANIMALS ARE EQUAL (सभी बराबर हैं) लेकिन उसमें हेराफेरी कर उसे बना दिया जाता है:-ALL ANIMALS ARE EQUAL, BUT SOME ANIMALS ARE MORE EQUAL THAN OTHERS. (सभी जानवर बराबर हैं किन्तु कुछ जानवर अन्य जानवरों से अधिक बराबर हैं) । फ्रेडरिक नामक किसान फार्म को खरीदना चाहता है । वहाँ से वह जानवरों को भगा देना चाहता है। खूब लड़ाई होती है। बॉक्सर नामक घोड़ा घायल हो जाता है। लड़ाई में जानवर जीत जाते हैं। लेकिन फॉर्म की स्थिति जर्जर है। नेपोलियन बॉक्सर को एक कबाड़ी के यहाँ बेच देता है।
निष्कर्ष यह कि सामंतवाद हो या साम्यवाद जानवरों की स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं होने वाला है।
©ब्रजेन्द्रनाथ

माता हमको वर दे (कविता)

 #BnmRachnaWorld #Durgamakavita #दुर्गामाँकविता माता हमको वर दे   माता हमको वर दे । नयी ऊर्जा से भर दे ।   हम हैं बालक शरण तुम्हारे, हम अ...