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तुम आ गए मीता
04 मार्च को जब हम फणीश्वर नाथ रेणु को उनके 101 वें जन्मदिन पर याद करते हैं, तब उनकी कहानी "मारे गए गुलफाम" का अंतिम दृश्य अभी तक मर्मान्तक पीड़ा से अश्रुविगलित कर जाता है। क्या है वह दृश्य, एक बार उसे पुनर्जीवित करने का प्रयास कर रहा हूँ। सादर!
हीराबाई वापस जा रही है। स्टेशन पर जनाना मोसाफिरखाने के फाटक पर हाथ - मुँह ढँककर उसी का इंतजार कर रही थी। लालमोहर से हिरामन को खबर मिलती है, वह अपने तेज धड़कते दिल को थामे हुए मुसाफिर खाने की ओर जाता है कि फाटक पर ही उसे हीराबाई मिल जाती है। हीराबाई तमाम दर्द की तड़प को अपनी ओढ़नी से जज्ब किये हुए कहने का प्रयत्न करती है, " लो! हे भगवान, तुम आ गए मीता! मैं तो उम्मीद छोड़ चुकी थी। तुमसे भेंट हो गई। अब भेंट नहीं हो सकेगी। मैं जा रही हूँ, गुरुजी!"
उसने उसके रुपयों की थैली अपने कुर्ते के अंदर से निकाल कर उसकी ओर बढ़ाते हुए यही कहा था। "उसकी थैली चिड़िया के देह की तरह गर्म है। " यही लिखा है रेणु जी ने। इसमें कई संकेत छिपे है। हीराबाई ने अपने चिरई के जैसी धड़कन को उसमें अनुस्यूत कर दिया है। दूसरा संकेत उसकी बेबसी की ओर है। चिड़िया की क्या बिसात, पिंजरे में बंद, उन्मुक्तता को तरसता , कमजोर - पंख में उड़ान की ताकत भी कहाँ होती है।
हिरामन थैली की गर्माहट से हीराबाई के दिल के करीब पहुंचने की कल्पना में खो जाता है। बक्सा ढोने वाला आज कोट पैंट पहनकर बाबू बना हुआ सबों को आदेश दे रहा है।
'गाड़ी आ रही है'
हीराबाई की चंचलता बढ़ गयी है।
वह हिरामन को अंदर बुलाती है, "हिरामन इधर आओ, मैं फिर जा रही हूँ, अपने देश की कंपनी मथुरा मोहन में...बनैली मेला आओगे न!"
इसबार हीराबाई ने हिरामन के दाहिने कंधे पर हाथ रखा, और अपनी थैली से पैसा निकलते हुए बोली, "ये लो गरम चादर खरीद लेना।"
अब हिरामन के सब्र का बांध टूट गया, "इस्स! हमेशा रुपये पैसे के बात! रखिये रुपया, क्या करेंगे चादर?"
हिरामन के पूरे अस्तित्व पर छा गए क्षोभ , संताप, वेदना, यंत्रणा, को हीराबाई ने अपने अंतर में उतरते हुए और उबलते हुए , चुभते हुए महसूस किया था, "तुम्हारा जी बहुत छोटा हो गया, क्या मीता? महुआ घटवारिन को सौदागर ने जो खरीद लिया है, गुरुजी!"
हीराबाई का गला रुँध गया, गाड़ी आ गयी थी, हिरामन बाहर आ गया, गाड़ी ने सीटी दी और उसी के साथ उसके अंदर की कोई आवाज उसी के साथ ऊपर की ओर चली गयी... कु - ऊ - ऊ - ऊ...
रेणु जी की ध्वन्यात्मक अभिव्यक्ति ने इस कहानी को चारमोत्कर्ष की ओर ले जाने की घोषणा कर दी है।
"महुआ घटवारिन को सौदागर ने खरीद लिया है, गुरु जी!"
कितनी बेबसी है, इस वक्तव्य में। बाजार सजा है, खरीददार जिगर भी खरीद रहे है और जिगर के अंदर की भावनाओं को भी इंजन से भाप के साथ निकलती सीटी की तरह उड़ा दे रहे हैं। किसका क्या चिथड़े - चिथड़े बिखर रहा है, किसकी चिन्दियाँ कहां उड़ रही हैं, किसके तीर किसके जिगर के पार हो रहे हैं, किसका वार किसको लहुलुहान कर रहा है, इससे उसे क्या मतलब?
शायद प्रेम की परिणति यही है कि वह अधूरा रह जाय, उसका अधूरापन ही उसकी पूर्णता है, उसके अधूरेपन से उत्पन्न दर्द की छटपटाहट ही इसकी गहराई है। लहरों का उठना, तरंगों में तब्दील होना और किनारे जाकर टूटकर लौट जाना ही उसकी पूर्णता है।
ब्रजेंद्रनाथ