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#दिवालीपरकविता
पहले अंतस का तमस मिटा लूँ
तब बाहर दीपक जलाने चलूँ.
गम का अंधेरा घिरा जा रहा हैं,
काली अँधेरी निशा क्यों है आती.
कोई दीपक ऐसा ढूढ़ लाओ कहीं से
नेह के तेल में जिसकी डूबी हो बाती.
अंतस में प्रेम की कोई बूंद डालूँ
तब बाहर का दरिया बहाने चलूँ.
पहले अंतस का तमस मिटा लूँ,
तब बाहर का दरिया बहाने चलूँ.
इस दिवाली कोई घर ऐसा न हो,
जहाँ ना कोई दिया टिममटिमाये.
इस दिवाली कोई दिल ऐसा न हो,
जहाँ दर्द का कोई कण टिक पाये.
अंतर्वेदना से विगलित हुओं के,
आंसू की मोती छिपाने चलूँ.
पहले अंतस का तमस मिटा लूँ,
तब बाहर का दीपक जलाने चलूँ.
क्यों नम हैं आँखें, घिर आते हैं आंसू,
वातावरण में क्यों छाई उदासी?
घर में अन्न का एक दाना नहीं हैं,
क्यों गिलहरी लौट जाती है प्यासी?
अंत में जो पड़ा है, उसको जगाकर,
उठा लूँ, गले से लगाने चलूँ.
पहले अंतस का तमस मिटा लूँ,
तब बाहर का दीपक जलाने चलूँ.
तिरंगे में लिपटा आया जो सेनानी,
शोणित में जिसके दिखती हो लाली.
दुश्मन से लड़ा कर गया प्राण अर्पण
देश में जश्न हो, सब मनायें दिवाली.
सीमा में घुसकर, अंदर तक वार करके,
दुश्मन को लगाकर ठिकाने चलूँ.
पहले अंतस का तमस मिटा लूँ,
तब बाहर का दीपक जलाने चलूँ.
धुआं उठ रहा हैं, अम्बर में छाया,
तमस लील जाए, ना ये हरियाली.
कम हो आतिशें, सिर्फ दीपक जलाएं,
प्रदूषण मुक्त हो, मनायें दिवाली.
स्वच्छता, शुचिता, वात्सल्य ममता
को दिल में गहरे बसाने चलूँ.
पहले अंतस का तमस मिटा लूँ,
तब बाहर का दीपक जलाने चलूँ.
सनातन हमारी है शाश्वत धारा
युगों से इसे ऋषियों ने संवारा.
इसकी ध्वजा गगन में उठाएं.
यही आज का है कर्तव्य हमारा.
दुश्मन जो, आ जाये मग में
उसको धरा से मिटाने चलूँ.
पहले अंतस का तमस मिटा लूँ,
तब बाहर का दीपक जलाने चलूँ.
©ब्रजेन्द्र नाथ