Followers

Sunday, October 24, 2021

अलिखित रिश्ता (कहानी) लघु कहानी

 #BnmRachnaWorld

#alikhit#rishta

#laghukahani









अलिखित रिश्ता
कृष्णचन्द्र वैसे कवि नहीं था। परंतु दोस्तों के बीच वह तुकबंदी कर कुछ - कुछ सुना दिया करता था। लोग भी इतने बेवकूफ थे या वह उन्हें आसानी से बेवकूफ बनाने में सफल हो गया था कि वे उसे कवि समझने लगे थे। लोगों को क्या मालूम कि कविता मात्र तुकबंदी नहीं होती है। जब भावों के घनीभूत बादल शब्दों के जलकण के रूप में बरसते हैं, तभी कविता की अजस्र सरिता प्रवाहित होती है। उसके  मित्र इन सभी स्थापनाओं से अनभिज्ञ होते हुए भी कृष्णचन्द्र को कवि मान बैठे थे। इसीलिए उन्होंने उसका नाम कृष्णचन्द्र से बदलकर कविकृष्ण कर दिया था।
कविकृष्ण की रुचि कविताएँ पढ़ने में थी। उसे गद्य लिखना अच्छा लगता था। उसे कथा - साहित्य का फलक अधिक पसन्द था। इसीलिए उसने कथा - साहित्य के विभिन्न आयामों को समझने के लिए हिंदी पाठकों के बहुचर्चित वेबसाइट पर  "पाठकों से संवाद" धारावाहिक के द्वारा स्वातंत्र्योत्तर भारत में कथा - साहित्य के विकास और ग्रामीण पृष्ठभूमि पर लिखी प्रेमचन्द की कहानियों और रेणु की आंचलिकता पर अपने दृष्टिकोण को रख रहा था। इस संवाद के क्रम को काफी पाठकों द्वारा सराहना मिल रही थी।
एक पाठक या कहें पाठिका की  टिप्पणी कविकृष्ण के  "पाठकों के संवाद" के पिछले 50 (पचास) सप्ताहों से लिखे जा रहे धारावाहिक लेख पर तुरंत आ जाया करती थी। इस बार उसकी टिप्पणी जब इस सप्ताह के प्रकाशित भाग के तीसरे दिन दिन भी नहीं आयी, तो कविकृष्ण का मन विचलित हो उठा। कई आशंकाएं मन में घिरने लगी। क्या हो सकता है? कहीं उसकी तबियत तो खराब नहीं हो गयी? वह कितनी अच्छी समीक्षा लिखती थी, उसके लेखों पर।
पिछले अप्रील में जब कोविड संक्रमण के हल्के लक्षण से ग्रस्त होने के कारण दो सप्ताह तक वह अपने "पाठकों से संवाद" के क्रम को जारी नहीं रख सका था, तब  उसके कितने मैसेज आ गए थे-
"आपका लेख क्यों नहीं आ रहा है? आपके लेख से मैं ऊर्जा प्राप्त कर पूरे सप्ताह मनोयोगपूर्वक अपने कार्य सम्पन्न करती हूँ। लग रहा है, कहीं कुछ दरक रहा है, जिंदगी में...कहीं अधूरेपन की आशंका घेर रही है...कहीं कुछ अदृश्य - सा, अनकहा - सा रह जा रहा है...कुछ तंतु चटक रहे हैं...बहुत खाली - खाली - सा लग रहा है...और भी बहुत सारे मैसेज कविकृष्ण ने देखे थे, जब वह स्वस्थ होकर लिखने और पढ़ने की स्थिति में आ गया था।
कविकृष्ण ने अपनी अस्वस्थता के बारे में सीधे और सहज ढंग से अपने संदेश में लिख डाला था।
उसपर उसके उत्तर से वह हतप्रभ रह गया था, "आपको पता है कि आपकी लेखनी से निकले शब्दों को जबतक मैं अंतरतम में उतार नहीं लेती, तबतक मेरा सारा अध्ययन अधूरा लगता है। आपने नए शब्दों से मेरा परिचय कराया है। मैं साहित्य में रुचि नहीं रखती थी, आपने रुचि जगा दी है। उस रुचि के अंकुर को आपने पोषण दिया है। आप इसतरह 'लेखनी का मौन' नहीं धारण कर सकते। आपको लिखना होगा...लिखते रहना होगा...जबतक मेरा लेखन परिपक्व नहीं हो जाता..."
कविकृष्ण ने  लिखते रहने का निश्चय किया। उसे मैसेज कर दिया था, "मेरी लेखनी नहीं रुकेगी... "पाठकों से संवाद" का यह क्रम तबतक आगे  बढ़ता रहेगा जबतक मेरी लेखनी चलती रहेगी..."
इस सप्ताह उसी की टिप्पणी नहीं आयी।
कविकृष्ण की लेखनी में थरथराहट सी होने लगी...कुछ भी आगे लिखने का मन नहीं कर रहा था...वही आशंकाएं घेरने लगी थी...अनावश्यक अनहोनी के अनकहे आख्यान अनायास मन के आकाश में मंडराने लगे थे...इनमें सबसे अधिक तबियत खराब होना, यह भी उतना बड़ा कारण नहीं लगा था...तबियत इतना खराब हो जाना कि लिखने की ऊर्जा भी नहीं बची हो...मोबाइल पर भी टंकण की स्थिति न हो...इससे उसका मन अधिक विचलित हो गया था।
कविकृष्ण ने भी दृढ़ निश्चय कर लिया था कि पिछले भाग पर जबतक उसकी कोई टिप्पणी नहीं आती है, वह आगे का भाग प्रकाशित नहीं करेगा... भले  ही "पाठकों  से संवाद" के इस क्रम को यहीं विराम देना पड़ जाय।
"पाठकों से संवाद" धारावाहिक में कितनी अच्छी चर्चा चल रही थी। कविकृष्ण आँचलिकता पर अपने विचार लिख रहे थे।
फणीश्वरनाथ रेणु जी की कहानी "मारे गए गुलफाम" (जिसपर सन 1966 में 'तीसरी कसम' नामक फ़िल्म भी बन चुकी थी) के परिदृश्यों पर संवाद के क्रम का यह सिलसिला आगे बढ़ रहा था। हीराबाई और हिरामन के बीच पनपता अलिखित प्रेम कितना जीवंत हो उठा था...हिरामन की पीठ में उठती गुदगुदी से आरंभ होती कहानी...हीराबाई का मीता कहने का आग्रह और हिरामन के मुँह से एक शब्द निकलना ...'इस्स'...आँचलिकता पर यह विवेचन रेणु के "मैला आँचल" उपन्यास तक पहुँचने ही वाला था कि उसकी टिप्पणी के नहीं आने से "संवाद की धारा" अवरुद्ध होती - सी लगी थी...
इस सप्ताह के भाग के प्रकाशन के चौथे दिन उसका मेसेज आया था,
"मेरा मोबाइल हैंग हो गया था...मैं न कुछ पढ़ पा रही थी, न लिख पा रही थी...उसके बाद मोबाइल डिस्चार्ज हो गया...रिपेयर के लिए देना पड़ा...उसका चार्जिंग पोर्ट खराब हो गया था...अभी ठीक है...मैंने आज ही आपके लेख पर टिप्पणी लिखी है...
आप आँचलिकता पर अपनी विवेचना जारी रखें...मैं ऊर्जस्वित हूँ...हर्षित हूँ...सादर!"
कविकृष्ण के अंतर्मन में उठ रहीं सारी आशंकाओं की विपरीत दिशाओं पर विराम लग गया था।
कविकृष्ण  "पाठकों से संवाद" के आगे के क्रम को बढ़ाने के पहले अपनी उद्विग्नता के बारे में सोचने लगा...कोई बंधन या अनुबंध तो है नहीं, फिर मात्र टिप्पणी नहीं आने से वह चिंतित क्यों हो गया?...कुछ तो रेशे हैं जो अदृश्य होते हुए भी बाँधने लगते हैं...
उसे जब कुछ नहीं लिखने का मन होता है तो वह एफ एम के रेडियो चैनल पर गाने सुनने लगता है...उसने एफ एम रेडियो चालू कर लिया था...एक गीत आ रहा था..
"हमने देखी है इन आँखों की महकती खुशबू,
हाथ से छू के इसे रिश्तों का इल्जाम न दो।
सिर्फ अहसास है ये, रूह से महसूस करो,
प्यार को प्यार ही रहने दो कोई नाम न दो।"
कविकृष्ण ने लिखना शुरू किया 'पाठकों से संवाद' लेकिन लिख गया...
"अलिखित रिश्ते को अघोषित ही रहने दो..."
©ब्रजेंद्रनाथ

Sunday, October 17, 2021

टिप्पणी (कहानी)

 #BnmRachnaWorld

#tippani#laghukahani



टिप्पणी
" अरे भाई साहब, कोई ट्रेन छूट रही थी क्या जो कहानी को एकदम से पूरा कर दिया। क्या यार पता ही नहीं चला।"
हिंदी पाठकों द्वारा सबसे अधिक पढ़े जाने वाले वेबसाइट 'प्रतिलिपि' पर प्रकाशित मेरी कहानी "मुस्कान को घिरने दो" पर आई इस टिप्पणी को पढ़कर पहले मुझे बहुत गुस्सा आया। अभी तक किसी पाठक ने मेरी इस कहानी पर इस तरह की टिप्पणी नहीं दी थी। मुझे बहुत गुस्सा आया। कुछ पलों बाद मैं संयत हुआ।
वैसे भी मेरी यह आदत है, जब बहुत गुस्सा आ रहा हो,  तो न मैं मौखिक रूप से किसी को जवाब देता हूँ और न ही  लिखित रूप में। कुछ पलों बाद मैं संयत हुआ और मैने उसका प्रतिउत्तर लिखना शुरू किया:


आदरणीय ........ जी, आपकी टिप्पणी के लिए आपका हार्दिक आभार! आपकी असंयत, अशिष्ट, असाहित्यिक और अनैतिक टिप्पणी से लगता है कि आपने हिंदी के लब्धप्रतिष्ठ लेखकों को नहीं पढ़ा है। यह कहानी है, कोई उपन्यास या धारावाहिक सीरियल या वेबसीरिज नहीं है, कि वह रबर की तरह खिंचती जाएगी। कोई भी टिप्पणी करने के लिए आप निर्मल वर्मा, हिमांशु जोशी, नरेंद्र कोहली, आदि कहानीकारों को जरा पढ़ा कीजिये। मैं इन कहानीकारों के करीब भी नहीं हूँ। लेकिन उस ओर मार्ग पर चलने के लिए प्रयत्नशील हूँ। टाइम पास के लिए अगर कहानियाँ पढ़नी हो तो, और भी कई लेखक है। मैंने अपनी कहानी के अंत में नोट में लिख दिया है, कि आपके संयत, शालीन, शिष्ट, नैतिक और साहित्यिक प्रतिक्रियाओं का स्वागत है। उसमें किसी भी मानक पर आपकी प्रतिक्रिया सही नहीं उतरती। इसलिए। प्रतिक्रिया सोच समझकर दिया कीजिये। सादर!
--ब्रजेंद्रनाथ
इस टिप्पणी को लिखते हुए मेरे मन में कई विचार उठ रहे थे। मैं या मेरे जैसे अन्य सज्जन और सकारात्मक विचार रखने वाले लेखक इसे अनदेखा या नजरअंदाज कर सकते थे। परंतु इससे उन पाठक महोदय को इसका ज्ञान कैसे होता कि जब आप कोई साहित्यिक रचना पढ़ रहे हों, तो आपकी ग्रहणशीलता का भी एक स्तर होना चाहिए, जिससे आप रचनाकार की रचना के विभिन्न बिंदुओं को इंगित करते हुए रचना पर अपनी समीक्षा दे सकते हैं। इसके लिए आप रचना की मौलिकता, कथा-शिल्प, प्रस्तुति, भाव- भूमि, संदेश आदि पर लेखक से अपने  संवाद कायम करते हुए, अपने विचार संयत, शालीन और शिष्ट भाषा में रख सकते थे। कविवर मैथिली शरण गुप्त ने अपने काव्य जयद्रथ वध में लिखा है:
अधिकार खो कर बैठ रहना, यह महा दुष्कर्म है
न्यायार्थ अपने बन्धु को भी दण्ड देना धर्म है ।।

न्याय के अर्थ को सुदृढ करना आवश्यक था, इसीलिए इसकी चर्चा आवश्यक थी। परंतु अगर लेखक की सज्जनता और
संतत्व पर विचार किया जाय तो गोस्वामी तुलसी दास की यह चौपाई याद आती है,
"काटहिं परसु मलय सुनु भाई।
निज गुण देही सुगंध बसाई।।"
संत ऐसे होते हैं जैसे चंदन को काटने वाली कुल्हाड़ी में भी  चंदन जैसा अपना सुगंध बसा देते हैं। इसके आगे तो यह भी प्रश्न शेष रह जाता है कि क्या कुल्हाड़ी उस गंध को अपने में समाकर रख पाता है? अगर ऐसा होता तो कोई भी कुल्हाड़ी फिर किसी चंदन के तने या डाल पर नहीं चलती। चंदन को कुल्हाड़ियों से अपनी रक्षा स्वयं करनी होगी, आज के समय का यही युगधर्म है। संत को भी अगर अपने संतत्व को संभालना है, अपने स्वभाव के प्रभाव को सुस्थिर रखते हुए निरंतरता प्रदान करनी है तो राम की तरह पहले अनुनय-विनय और फिर महाप्रलय की तरह टूटना पड़ेगा:
विनय न माने जलधि जड़, गए तीन दिन बीत।
बोले राम सकोप तब  भय बिनु होहि न प्रीत।
आगे गोस्वामी तुलसीदास जी ने लिखा है:
शठ सन विनय कुटिल सन प्रीति।
सहज कृपण सन सुंदर नीति।।
ममता रत सन ज्ञान कहानी।
अति लोभी सन विरति बखानी
कामिहि क्रोधिहि सम हरिकथा।
ऊसर बीज बाए फल यथा।।
यही समय सापेक्ष युगधर्म है।
मैं ऐसे विचारों को धारण कर दृढ़ करते हुए उस टिप्पणी को पटल पर पोस्ट करने ही जा रहा था कि मेरे एक वरिष्ट लेखक मित्र का कॉल आया। वे कह रहे थे कि आजकल आपकी कहानियाँ कितनी भी सरल क्यों न हों पाठक का आपकी कहानियों को पढ़ना और पसंद करना आजकल के ट्रेंड पर निर्भर करता है। इसलिए कभी - कभी किसी  पाठक की प्रतिक्रिया असंयत भी हो सकती है। इससे हम लेखकों को किंचित भी विचलित नहीं होना चाहिए।  हमें पाठकों की रुचि के परिष्कार की भी जिम्मेवारी है। उन्हें समझाना भी हमारी जिम्मेवारी है। उनकी बातों ने लेखकों की जिम्मेवारियों का भी अहसास हमें करवाया। आज हम रचनाकार दोहरे उत्तरदायित्व - बोध से गुजर रहे हैं। हमें पाठकों की वृत्ति और प्रकृति को भी परिष्कृत और प्रक्षालित करते हुए आगे बढ़ना होगा। इस भाव के आते
ही मैंने पूर्व लिखित टिप्पणी डिलीट कर दी, हटा दी।
©ब्रजेंद्रनाथ 

Saturday, October 9, 2021

पश्चाताप का ताप (कहानी) लघुकथा

 #BnmRacbnaWorld

#hindikahani#laghukatha








पश्चाताप का ताप


यह कहानी अमेरिका की पृष्ठभूमि पर है, लेकिन सार्वदेशिक और सर्वकालिक कही जा सकती है।
इस शहर में मॉल संस्कृति है, परंतु बहु मंजिला मॉल  नहीं के बराबर हैं। हाँ, मॉल जितने क्षेत्र में फैला होता है, उससे दुगने अधिक क्षेत्र में वाहनों को पार्क करने की व्यवस्था है। यहाँ जो भी ग्राहक आते हैं, उनके पास एक वाहन अवश्य होता है, जिसमें वे आवश्यकता की खरीदी हुई सारी सामग्रियों को रखकर अपने निर्दिष्ट स्थान तक ले जा सकें।
ऐसे ही एक मॉल से सामानों को खरीदकर एक ट्रॉली में भरकर मेरा लड़का बिलिंग काउंटर की पंक्ति में लगा हुआ था। मैं बाहर उसका इंतजार कर रहा था। उसी पंक्ति में उसके पीछे एक बुजुर्ग महिला अपनी सामानों से भरी ट्रॉली लिए हुए बिलिंग कॉउंटर तक पहुंचने की अपनी बारी का इंतजार कर रही थी।
पंक्तिबद्ध होकर सभी धीरे - धीरे अपनी ट्रॉली के साथ आगे बढ़ रहे थे। मेरे लड़के ने आगे कदम बढ़ाया ही था कि पीछे से उस बुजुर्ग महिला की ट्रॉली से उसके पैर में हल्का सा स्पर्श हुआ। मेरे लड़के ने पीछे मुड़कर उस महिला को सिर्फ देखा भर था, कि उस महिला ने, अंग्रेजी में उसे "आई एम वेरी वेरी सॉरी" कई बार बोली। मेरे लड़के ने "इट इस ओके" कहा और यह समझते हुए कि बात आई - गई हो गयी, वह पंक्ति में आगे बढ़ गया। उसने जब अपना बिलिंग करा लिया और आगे बढ़कर वह सारे सामान को ठीक से व्यवस्थित कर लिया, वह बुजुर्ग महिला अपनी ट्रॉली से भरा समान लिए हुए उसकी तरफ आयी और उसने मेरे लड़के का हाथ पकड़ लिया।
वह आश्चतचकित था। "अब क्या हो गया इन्हें?" वह सोच ही रहा था कि वह महिला अंग्रेजी में बोलने लगी, "मैं आपके पीछे पंक्ति में खड़ी थी। उससमय मैं कुछ विचारों में खोई थी कि आपके पाँव को मैंने ट्रॉली से चोट पहुंचाई। मेरी त्रुटि क्षम्य नहीं है। फिर भी आप जबतक माफ नहीं करेंगें, मुझे संतोष नहीं होगा।" वह उसका हाथ पकड़े रही। उसकी आँखों में आँसू थे। वह अपनी आंसुओं से अपने पश्चाताप के ताप को स्निग्ध करती रही।
मेरे लड़के ने उनसे कहा कि मैम आप दुखी नही हों। मैंने आपको माफ कर दिया।
तब उन्होंने मेरे लड़के का हाथ छोड़ा। शायद अब वह स्वयं को अपराधमुक्त महसूस कर रही थी।
ब्रजेंद्रनाथ

(ध्यातव्य: इस लघुकथा को सिंहभूम हिंदी साहित्य सम्मेलन के तत्वावधान में तुलसी भवन, जमशेदपुर में 26  सिंतबर को आयोजित मासिक कथा गोष्ठी के कार्यक्रम "कथा मंजरी " में मैंने सुनायी , जिसका यूटुब लिंक इसप्रकार है:

https://youtu.be/QZ85iZiBvnU



माता हमको वर दे (कविता)

 #BnmRachnaWorld #Durgamakavita #दुर्गामाँकविता माता हमको वर दे   माता हमको वर दे । नयी ऊर्जा से भर दे ।   हम हैं बालक शरण तुम्हारे, हम अ...