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Friday, December 24, 2021

अटल जी और मालवीय जी पर कविता (कविता)

 #BnmRachnaWorld

#atalji #malwiyaji











परम स्नेही मित्रों,

कल यानि 25 दिसंबर को दो भारतरत्नों  का *अवतरण दिवस है। महामना मदनमोहन मालवीय और अटल विहारी बाजपेयी जी* । दोनों ने भारतीयता और भारतीय राजनीति को दलनीति से ऊपर उठाकर नई दिशा दी। आप उनके बारे में व्यक्त मेरे उदगार मेरी लिखी कविता में सुनें, मेरे यूट्यूब चैनल "marmagya net" के इस लिंक पर:

https://youtu.be/_JBxeqzU3NU


कविता की कुछ पंक्तियाँ इसप्रकार हैं:

भारत रत्न मदन मोहन मालवीय पर चार पांक्तियाँ: 


याद करते आज तुझको श्रद्धावनत हो

तेरा निर्माण पथ पर अडिग अभियान रचना।

खड़ा कर एक अद्भुत शिक्षा का विशाल केन्द्र

सामान्य जन को दिया विद्या-दान, हे महामना। 


आपकी कीर्ति पताका आज भी लहरा रही है।

कर्मपथ के योगियों को आगे बढ़ो बतला रही है।

आपके चरणों में श्रद्धा सुमन अर्पित हैं मेरे,

आग अन्दर में जलती रहे,  हमें यह समझा रही है। 


---------- 


अटल जी पर मेरी कविता 


मैं अटल हूँ, मैं अटल हूँ 


मैं अग्निशिखा की मशाल हूँ 

मैं सिन्धु के जल का उबाल हूँ 

मैं हूँ केसर की क्यारियों का रंग केसरिया

मैं धरा को तौलता एक भूचाल हूँ। 

बंद करो घुसपैठ की जंग तुम अगर

मैं सहज, सीधा सादा सरल हूँ। 

मैं अटल हूँ, मैं अटल हूँ। 


मैं तेज हूँ बजरंग बली का,

मैं तप हूँ सावरकर का,

मैं तीक्ष्णता हूँ भीष्म के वाणों का,

मैं दाह हूँ दिनकर का।

मैं दोस्तों के लिए दोस्त हूँ,

अरियों के लिए काल हूँ,

मैं प्रहरी सा प्रखर, प्रचंड,

मैं तोपो की दहानों सा विकराल हूँ।

मैं अखंड भारत के सपने लिए

गगन -  नक्षत्र - सा, स्थिर  अचल हूँ।

मैं अटल हूँ, में अटल हूँ। 


मैं भारत वासियों की भावनाओं पर

बेबस हो जाता हूँ।

कन्धार विमान अपहरण पर

आतंकियों को छोड़ने पर विवश हो जाता हूँ।

कारगिल  मे 

घुस आए दुश्मनों के लिए  हूँ

अग्नि -दाह - गोला हूँ।

मैं सर्जक हूँ, शब्द -अंगारों का

नव दधीचियों की खोज में

निकला अकेला हूँ।

मैं मृत्यु में जीवन को खोजता 

पल पल हूँ।

मैं अटल हूँ, मैं अटल हूँ। 


मैं खोज रहा अपना परिचय

रग - रग हिन्दू हूँ, क्या विस्मय?

मैं नाद - स्वर - घंटों में गुंजित

मेरे क्रोधानल में बसा प्रलय।

मैं उदधि - सा शांत, 

मैं जल की उत्ताल तरंग।

मैं नाचता काल- खंड पर,

मैं ही राष्ट्र - रागिनी की उमंग।

मैं जलती बाती की ज्योति

निष्कंप,  निश्चल हूँ।

में अटल हूँ, मैं अटल हूँ। 


मैं नेताओं जैसी लफ्फाजी में नहीं

राजनीति की जीती हुयी बाजी में भी नहीं।

मैं अक्षरों में, शब्दों में,

वाक्यों में, गीतों में।

मैं हार में, व्यवहार में,

अरियों में, मीतों में।

मैं सुधीजनों की सुधियों में

तैरता तरल हूँ।

मैं अटल हूँ, मैं अटल हूँ। 


मैं राजनीति के शिखर में नहीं,

मैं कूटनीति के स्वर मे नहीं।

मैं बन्चितों की चीख में,

मैं भिखुओं की भीख में हूँ।

मै कतार में खड़े हर उस

अन्तिम आदमी की भूख में हूँ।

मिटाने को दारिद्रय-दुख दोष

रहता सदा विह्वल हूँ।

मैं अटल हूँ, मैं अटल हूँ।

©ब्रजेंद्रनाथ

Friday, December 17, 2021

खुद की ही जलधार बनो तुम (कविता)

 #BnmRachnaWorld

#motivational










खुद की ही जलधार बनों तुम

बून्द नहीं तुम बनो किसीकी
खुद की ही जलधार बनों तुम।

तुमने जीवन पथ में कितने
चट्टानों को पार किया  है।
तुमने कर्म तीरथ में कितने
तूफानों को पार किया है।

अब तो बन जा साथी अपना
मन - वीणा की झंकार बनो तुम।

लोग कहते है, जीवन क्रम में
सुख दुख की है एक कहानी।
जितनी बहती नदिया उतनी
साफ किनारा  बहता पानी।

तुमने कितनों को पार किया है
खुद की भी पतवार  बनो तुम।

बाहर का  शोर बढ़ रहा
ध्वनित तरंग गौण हो गया?
साधना के पथ पर चलकर
मुखरित मन मौन हो गया।

आत्मतत्व से मधुर मिलन कर
जीवन का संस्कार करो तुम।

अनहद को सुनने को आतुर
प्राण - प्राण जब विकल हो उठे।
अमृत आनंद का हो संचरण
हिय गह्वर में कमल खिल उठे।

अंतरतम जब डूब गया हो
अखंड ब्रह्मण्ड विस्तार बनो तुम।
बून्द नहीं तुम बनो किसीकी
खुद की ही जलधार बनों तुम।
©ब्रजेंद्रनाथ

Thursday, December 9, 2021

विपिन रावत सी डी एस की दुर्घटना में मृत्यु पर(कविता)

 #BnmRachnaWorld

#Bipin Rawat












परम स्नेही मित्रों,
नमस्कार!👏
सी डी एस विपिन रावत  जी के दुर्भाग्यपूर्ण दुर्घटना में आकस्मिक निधन से हम सब आहत हैं, स्तब्ध हैं। मैं अपने उदगार  इन पंक्तियों में व्यक्त करना चाहता हूँ।  आपके मन में भी कुछ ऐसे ही भाव उठ रहे होंगे। शायद मेरे इन शब्दों में आप भी अपने भावों की अभिव्यक्ति की अनुगूंज सुन सकें...

वह जहाँ निकल जाता था,
वहसी ब्याघ्र विवर्ण हो जाते थे।
वह जिधर था पाँव बढ़ाता,
गिद्धों के गर्व  चूर्ण हो जाते थे।

सिंह के कंधे सा सुपुष्ट 
वज्र- सा था कबंध  उसका।
भारत माता की रक्षा का
एक ही था अनुबंध उसका।

युद्ध में नेतृत्व जिधर किया
मारा अरि को कीट - पतंगे सा।
भूभागों की  रक्षा की उसने,
गगन रंगीन हो उठा तिरंगे - सा।

जबसे वह  तीनों सेनाओं
का  बना मुख्य सैन्य अधिकारी।
अंतर सैन्य सहयोग बढ़ा,
अजेय सेना बन गयी हमारी।

आदेश दिया,उसने दुश्मन के
खेमे में घुसकर वार करो।
आतंकियों के सारे ठिकाने को
ध्वस्त करो, संहार करो।

दुश्मन देशों के सैन्य बल
काँपते थे उसके उद्घोष से।
सेनाओं में खलबली मची ,
मारक राफेल - ब्रह्मोस् से।

हम उस सेनानी के निधन से
आहत है,  पर आंसू नहीं बहाएंगे।
शपथ  लेते हैं आज हम
उस जैसा हर सेनानी को बनाएंगे।
©ब्रजेंद्रनाथ √√

मेरे यूट्यूब चैनल marmagya net के इस लिंक पर ऊपर दी गयी कविता को अवश्य सुनें...सादर आभार!
https://youtu.be/LB5hxz1kOx0


Monday, November 1, 2021

रिश्तों की रसधार (कहानी) लघुकथा

 #BnmRachnaWorld

#laghukatha

#rishtonkirasdhar









रिश्तों की रसधार
आनंद और रीमा दोनों आई टी कम्पनी के अपने ऑफिस के लिए सुबह ही निकलते थे। रीमा पहले निकलती थी और आनंद उसके आधा घंटे बाद।
"रीमा, तूने नाश्ता नहीं लिया।"
सुबह - सुबह ऑफिस के लिए तैयार हो रही रीमा से आनंद ने पूछा था।
"आनंद, नाश्ते के डब्बा सिंक के पास रखा  हैं,  मुझे देर हो रही है, मैं निकल रही हूँ।" रीमा ने तैयार होते हुए ही कहा था।
"ठहरो, उसे धोकर, मैं उसमें तुम्हारा नाश्ता पैक कर देता हूँ।"
आनंद ने अनुरोध किया था।
" रहने दो आनंद, देर हो जाएगी।"
" सिर्फ दो मिनट रुको,  दो मिनट में कोई देर नहीं हो जाएगी।"
आनंद ने सिंक के पास रखे नाश्ते के डिब्बे को खोला था।
"क्या रीमा, तुम भी न। ये बची हुई सब्जियाँ इसी में पड़ी हैं। वहाँ से डिब्बा थोड़ा साफ ही कर लिया करो, इसमें कोई ज्यादा समय और मेहनत तो लगती नहीं।"
आनंद के इस तरह बात करने से रीमा का मन कसैला हो गया था। अनमने भाव से ही आनंद के द्वारा पैक किये गए नाश्ते को उसने लिया था और पैर पटकते हुए ऑफिस के लिए निकल गयी थी।
आनंद रीमा के बाद ऑफिस जाता था। ऑफिस से वह रात को ही लौटता था।
उस दिन रीमा शाम को थोड़ा पहले ही ऑफिस से आ गयी थी।
आनंद के ऑफिस से आते ही रीमा ने उसके बैकपैक से उसके नाश्ते के डिब्बा निकाला था।  सिंक के पास जाकर उसने डिब्बे को खोला था।
उससे बोले बिना रहा नही गया, "क्या आनंद, डिब्बे में सारी बची हुई सब्जियाँ पड़ी हैं। इसे ऑफिस से धोकर या खंगालकर नहीं ला सकते?"
आनंद समझ गया था, यह रीमा का प्रतिउत्तर था, सुबह के उसके व्यवहार के लिए। आनंद चुप ही रहा।
जब हिसाब बराबर कर दोनों बेड पर गए, तो आनंद के पिता जी का फोन आया था,
"बेटे, मैं, तुम्हारी माँ, और तुम्हारी दीदी तुमसे मिलने आ रहे हैं।"
आनंद को कोई जवाब नही सूझ रहा था। वह क्या कहे? उसने कहा था, "पिताजी,  बहुत दिक्कत हो जाएगी।"
पिताजी बोले, "हमें, काहे को कोई दिक्कत होगी।"
"पिताजी, आपको नहीं, हमें दिक्कत हो जाएगी।"
"अच्छा बेटे, हमलोग नहीं आएंगे।"
आनंद और रीमा बेड के दो किनारे सो गए थे, नदी के दो किनारे ही गए थे।
सुबह रीमा पहले उठी। उठने के बाद उसने पहला काम किया, आनंद के पिताजी को कॉल किया था, "प्रणाम पिताजी, मैं रीमा बोल रही हूँ। आपलोगों ने यहाँ आने का प्रोग्राम बनाया है, उसे कैंसिल मत कीजिए। आपलोग जरूर आइए। शादी के बाद आपलोगों के साथ ज्यादा दिन नहीं रह सकी। माँ और दीदी को लेकर यहाँ आएंगे तो मुझे बहुत अच्छा लगेगा।"
आनंद ये सारी बातें सुन रहा था।
उसकी आँखों के कोर भींग गए। उसने पीछे से आकर रीमा को बाहों में भर लिया।
"रीमा, हमलोगों के बीच प्रेम की धारा कभी नहीं सूखेगी। मेरा ये वादा रहा।"
और  नदी के दोनों किनारों के बीच रसधार  बहती रही...।
©ब्रजेंद्रनाथ

Sunday, October 24, 2021

अलिखित रिश्ता (कहानी) लघु कहानी

 #BnmRachnaWorld

#alikhit#rishta

#laghukahani









अलिखित रिश्ता
कृष्णचन्द्र वैसे कवि नहीं था। परंतु दोस्तों के बीच वह तुकबंदी कर कुछ - कुछ सुना दिया करता था। लोग भी इतने बेवकूफ थे या वह उन्हें आसानी से बेवकूफ बनाने में सफल हो गया था कि वे उसे कवि समझने लगे थे। लोगों को क्या मालूम कि कविता मात्र तुकबंदी नहीं होती है। जब भावों के घनीभूत बादल शब्दों के जलकण के रूप में बरसते हैं, तभी कविता की अजस्र सरिता प्रवाहित होती है। उसके  मित्र इन सभी स्थापनाओं से अनभिज्ञ होते हुए भी कृष्णचन्द्र को कवि मान बैठे थे। इसीलिए उन्होंने उसका नाम कृष्णचन्द्र से बदलकर कविकृष्ण कर दिया था।
कविकृष्ण की रुचि कविताएँ पढ़ने में थी। उसे गद्य लिखना अच्छा लगता था। उसे कथा - साहित्य का फलक अधिक पसन्द था। इसीलिए उसने कथा - साहित्य के विभिन्न आयामों को समझने के लिए हिंदी पाठकों के बहुचर्चित वेबसाइट पर  "पाठकों से संवाद" धारावाहिक के द्वारा स्वातंत्र्योत्तर भारत में कथा - साहित्य के विकास और ग्रामीण पृष्ठभूमि पर लिखी प्रेमचन्द की कहानियों और रेणु की आंचलिकता पर अपने दृष्टिकोण को रख रहा था। इस संवाद के क्रम को काफी पाठकों द्वारा सराहना मिल रही थी।
एक पाठक या कहें पाठिका की  टिप्पणी कविकृष्ण के  "पाठकों के संवाद" के पिछले 50 (पचास) सप्ताहों से लिखे जा रहे धारावाहिक लेख पर तुरंत आ जाया करती थी। इस बार उसकी टिप्पणी जब इस सप्ताह के प्रकाशित भाग के तीसरे दिन दिन भी नहीं आयी, तो कविकृष्ण का मन विचलित हो उठा। कई आशंकाएं मन में घिरने लगी। क्या हो सकता है? कहीं उसकी तबियत तो खराब नहीं हो गयी? वह कितनी अच्छी समीक्षा लिखती थी, उसके लेखों पर।
पिछले अप्रील में जब कोविड संक्रमण के हल्के लक्षण से ग्रस्त होने के कारण दो सप्ताह तक वह अपने "पाठकों से संवाद" के क्रम को जारी नहीं रख सका था, तब  उसके कितने मैसेज आ गए थे-
"आपका लेख क्यों नहीं आ रहा है? आपके लेख से मैं ऊर्जा प्राप्त कर पूरे सप्ताह मनोयोगपूर्वक अपने कार्य सम्पन्न करती हूँ। लग रहा है, कहीं कुछ दरक रहा है, जिंदगी में...कहीं अधूरेपन की आशंका घेर रही है...कहीं कुछ अदृश्य - सा, अनकहा - सा रह जा रहा है...कुछ तंतु चटक रहे हैं...बहुत खाली - खाली - सा लग रहा है...और भी बहुत सारे मैसेज कविकृष्ण ने देखे थे, जब वह स्वस्थ होकर लिखने और पढ़ने की स्थिति में आ गया था।
कविकृष्ण ने अपनी अस्वस्थता के बारे में सीधे और सहज ढंग से अपने संदेश में लिख डाला था।
उसपर उसके उत्तर से वह हतप्रभ रह गया था, "आपको पता है कि आपकी लेखनी से निकले शब्दों को जबतक मैं अंतरतम में उतार नहीं लेती, तबतक मेरा सारा अध्ययन अधूरा लगता है। आपने नए शब्दों से मेरा परिचय कराया है। मैं साहित्य में रुचि नहीं रखती थी, आपने रुचि जगा दी है। उस रुचि के अंकुर को आपने पोषण दिया है। आप इसतरह 'लेखनी का मौन' नहीं धारण कर सकते। आपको लिखना होगा...लिखते रहना होगा...जबतक मेरा लेखन परिपक्व नहीं हो जाता..."
कविकृष्ण ने  लिखते रहने का निश्चय किया। उसे मैसेज कर दिया था, "मेरी लेखनी नहीं रुकेगी... "पाठकों से संवाद" का यह क्रम तबतक आगे  बढ़ता रहेगा जबतक मेरी लेखनी चलती रहेगी..."
इस सप्ताह उसी की टिप्पणी नहीं आयी।
कविकृष्ण की लेखनी में थरथराहट सी होने लगी...कुछ भी आगे लिखने का मन नहीं कर रहा था...वही आशंकाएं घेरने लगी थी...अनावश्यक अनहोनी के अनकहे आख्यान अनायास मन के आकाश में मंडराने लगे थे...इनमें सबसे अधिक तबियत खराब होना, यह भी उतना बड़ा कारण नहीं लगा था...तबियत इतना खराब हो जाना कि लिखने की ऊर्जा भी नहीं बची हो...मोबाइल पर भी टंकण की स्थिति न हो...इससे उसका मन अधिक विचलित हो गया था।
कविकृष्ण ने भी दृढ़ निश्चय कर लिया था कि पिछले भाग पर जबतक उसकी कोई टिप्पणी नहीं आती है, वह आगे का भाग प्रकाशित नहीं करेगा... भले  ही "पाठकों  से संवाद" के इस क्रम को यहीं विराम देना पड़ जाय।
"पाठकों से संवाद" धारावाहिक में कितनी अच्छी चर्चा चल रही थी। कविकृष्ण आँचलिकता पर अपने विचार लिख रहे थे।
फणीश्वरनाथ रेणु जी की कहानी "मारे गए गुलफाम" (जिसपर सन 1966 में 'तीसरी कसम' नामक फ़िल्म भी बन चुकी थी) के परिदृश्यों पर संवाद के क्रम का यह सिलसिला आगे बढ़ रहा था। हीराबाई और हिरामन के बीच पनपता अलिखित प्रेम कितना जीवंत हो उठा था...हिरामन की पीठ में उठती गुदगुदी से आरंभ होती कहानी...हीराबाई का मीता कहने का आग्रह और हिरामन के मुँह से एक शब्द निकलना ...'इस्स'...आँचलिकता पर यह विवेचन रेणु के "मैला आँचल" उपन्यास तक पहुँचने ही वाला था कि उसकी टिप्पणी के नहीं आने से "संवाद की धारा" अवरुद्ध होती - सी लगी थी...
इस सप्ताह के भाग के प्रकाशन के चौथे दिन उसका मेसेज आया था,
"मेरा मोबाइल हैंग हो गया था...मैं न कुछ पढ़ पा रही थी, न लिख पा रही थी...उसके बाद मोबाइल डिस्चार्ज हो गया...रिपेयर के लिए देना पड़ा...उसका चार्जिंग पोर्ट खराब हो गया था...अभी ठीक है...मैंने आज ही आपके लेख पर टिप्पणी लिखी है...
आप आँचलिकता पर अपनी विवेचना जारी रखें...मैं ऊर्जस्वित हूँ...हर्षित हूँ...सादर!"
कविकृष्ण के अंतर्मन में उठ रहीं सारी आशंकाओं की विपरीत दिशाओं पर विराम लग गया था।
कविकृष्ण  "पाठकों से संवाद" के आगे के क्रम को बढ़ाने के पहले अपनी उद्विग्नता के बारे में सोचने लगा...कोई बंधन या अनुबंध तो है नहीं, फिर मात्र टिप्पणी नहीं आने से वह चिंतित क्यों हो गया?...कुछ तो रेशे हैं जो अदृश्य होते हुए भी बाँधने लगते हैं...
उसे जब कुछ नहीं लिखने का मन होता है तो वह एफ एम के रेडियो चैनल पर गाने सुनने लगता है...उसने एफ एम रेडियो चालू कर लिया था...एक गीत आ रहा था..
"हमने देखी है इन आँखों की महकती खुशबू,
हाथ से छू के इसे रिश्तों का इल्जाम न दो।
सिर्फ अहसास है ये, रूह से महसूस करो,
प्यार को प्यार ही रहने दो कोई नाम न दो।"
कविकृष्ण ने लिखना शुरू किया 'पाठकों से संवाद' लेकिन लिख गया...
"अलिखित रिश्ते को अघोषित ही रहने दो..."
©ब्रजेंद्रनाथ

Sunday, October 17, 2021

टिप्पणी (कहानी)

 #BnmRachnaWorld

#tippani#laghukahani



टिप्पणी
" अरे भाई साहब, कोई ट्रेन छूट रही थी क्या जो कहानी को एकदम से पूरा कर दिया। क्या यार पता ही नहीं चला।"
हिंदी पाठकों द्वारा सबसे अधिक पढ़े जाने वाले वेबसाइट 'प्रतिलिपि' पर प्रकाशित मेरी कहानी "मुस्कान को घिरने दो" पर आई इस टिप्पणी को पढ़कर पहले मुझे बहुत गुस्सा आया। अभी तक किसी पाठक ने मेरी इस कहानी पर इस तरह की टिप्पणी नहीं दी थी। मुझे बहुत गुस्सा आया। कुछ पलों बाद मैं संयत हुआ।
वैसे भी मेरी यह आदत है, जब बहुत गुस्सा आ रहा हो,  तो न मैं मौखिक रूप से किसी को जवाब देता हूँ और न ही  लिखित रूप में। कुछ पलों बाद मैं संयत हुआ और मैने उसका प्रतिउत्तर लिखना शुरू किया:


आदरणीय ........ जी, आपकी टिप्पणी के लिए आपका हार्दिक आभार! आपकी असंयत, अशिष्ट, असाहित्यिक और अनैतिक टिप्पणी से लगता है कि आपने हिंदी के लब्धप्रतिष्ठ लेखकों को नहीं पढ़ा है। यह कहानी है, कोई उपन्यास या धारावाहिक सीरियल या वेबसीरिज नहीं है, कि वह रबर की तरह खिंचती जाएगी। कोई भी टिप्पणी करने के लिए आप निर्मल वर्मा, हिमांशु जोशी, नरेंद्र कोहली, आदि कहानीकारों को जरा पढ़ा कीजिये। मैं इन कहानीकारों के करीब भी नहीं हूँ। लेकिन उस ओर मार्ग पर चलने के लिए प्रयत्नशील हूँ। टाइम पास के लिए अगर कहानियाँ पढ़नी हो तो, और भी कई लेखक है। मैंने अपनी कहानी के अंत में नोट में लिख दिया है, कि आपके संयत, शालीन, शिष्ट, नैतिक और साहित्यिक प्रतिक्रियाओं का स्वागत है। उसमें किसी भी मानक पर आपकी प्रतिक्रिया सही नहीं उतरती। इसलिए। प्रतिक्रिया सोच समझकर दिया कीजिये। सादर!
--ब्रजेंद्रनाथ
इस टिप्पणी को लिखते हुए मेरे मन में कई विचार उठ रहे थे। मैं या मेरे जैसे अन्य सज्जन और सकारात्मक विचार रखने वाले लेखक इसे अनदेखा या नजरअंदाज कर सकते थे। परंतु इससे उन पाठक महोदय को इसका ज्ञान कैसे होता कि जब आप कोई साहित्यिक रचना पढ़ रहे हों, तो आपकी ग्रहणशीलता का भी एक स्तर होना चाहिए, जिससे आप रचनाकार की रचना के विभिन्न बिंदुओं को इंगित करते हुए रचना पर अपनी समीक्षा दे सकते हैं। इसके लिए आप रचना की मौलिकता, कथा-शिल्प, प्रस्तुति, भाव- भूमि, संदेश आदि पर लेखक से अपने  संवाद कायम करते हुए, अपने विचार संयत, शालीन और शिष्ट भाषा में रख सकते थे। कविवर मैथिली शरण गुप्त ने अपने काव्य जयद्रथ वध में लिखा है:
अधिकार खो कर बैठ रहना, यह महा दुष्कर्म है
न्यायार्थ अपने बन्धु को भी दण्ड देना धर्म है ।।

न्याय के अर्थ को सुदृढ करना आवश्यक था, इसीलिए इसकी चर्चा आवश्यक थी। परंतु अगर लेखक की सज्जनता और
संतत्व पर विचार किया जाय तो गोस्वामी तुलसी दास की यह चौपाई याद आती है,
"काटहिं परसु मलय सुनु भाई।
निज गुण देही सुगंध बसाई।।"
संत ऐसे होते हैं जैसे चंदन को काटने वाली कुल्हाड़ी में भी  चंदन जैसा अपना सुगंध बसा देते हैं। इसके आगे तो यह भी प्रश्न शेष रह जाता है कि क्या कुल्हाड़ी उस गंध को अपने में समाकर रख पाता है? अगर ऐसा होता तो कोई भी कुल्हाड़ी फिर किसी चंदन के तने या डाल पर नहीं चलती। चंदन को कुल्हाड़ियों से अपनी रक्षा स्वयं करनी होगी, आज के समय का यही युगधर्म है। संत को भी अगर अपने संतत्व को संभालना है, अपने स्वभाव के प्रभाव को सुस्थिर रखते हुए निरंतरता प्रदान करनी है तो राम की तरह पहले अनुनय-विनय और फिर महाप्रलय की तरह टूटना पड़ेगा:
विनय न माने जलधि जड़, गए तीन दिन बीत।
बोले राम सकोप तब  भय बिनु होहि न प्रीत।
आगे गोस्वामी तुलसीदास जी ने लिखा है:
शठ सन विनय कुटिल सन प्रीति।
सहज कृपण सन सुंदर नीति।।
ममता रत सन ज्ञान कहानी।
अति लोभी सन विरति बखानी
कामिहि क्रोधिहि सम हरिकथा।
ऊसर बीज बाए फल यथा।।
यही समय सापेक्ष युगधर्म है।
मैं ऐसे विचारों को धारण कर दृढ़ करते हुए उस टिप्पणी को पटल पर पोस्ट करने ही जा रहा था कि मेरे एक वरिष्ट लेखक मित्र का कॉल आया। वे कह रहे थे कि आजकल आपकी कहानियाँ कितनी भी सरल क्यों न हों पाठक का आपकी कहानियों को पढ़ना और पसंद करना आजकल के ट्रेंड पर निर्भर करता है। इसलिए कभी - कभी किसी  पाठक की प्रतिक्रिया असंयत भी हो सकती है। इससे हम लेखकों को किंचित भी विचलित नहीं होना चाहिए।  हमें पाठकों की रुचि के परिष्कार की भी जिम्मेवारी है। उन्हें समझाना भी हमारी जिम्मेवारी है। उनकी बातों ने लेखकों की जिम्मेवारियों का भी अहसास हमें करवाया। आज हम रचनाकार दोहरे उत्तरदायित्व - बोध से गुजर रहे हैं। हमें पाठकों की वृत्ति और प्रकृति को भी परिष्कृत और प्रक्षालित करते हुए आगे बढ़ना होगा। इस भाव के आते
ही मैंने पूर्व लिखित टिप्पणी डिलीट कर दी, हटा दी।
©ब्रजेंद्रनाथ 

Saturday, October 9, 2021

पश्चाताप का ताप (कहानी) लघुकथा

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#hindikahani#laghukatha








पश्चाताप का ताप


यह कहानी अमेरिका की पृष्ठभूमि पर है, लेकिन सार्वदेशिक और सर्वकालिक कही जा सकती है।
इस शहर में मॉल संस्कृति है, परंतु बहु मंजिला मॉल  नहीं के बराबर हैं। हाँ, मॉल जितने क्षेत्र में फैला होता है, उससे दुगने अधिक क्षेत्र में वाहनों को पार्क करने की व्यवस्था है। यहाँ जो भी ग्राहक आते हैं, उनके पास एक वाहन अवश्य होता है, जिसमें वे आवश्यकता की खरीदी हुई सारी सामग्रियों को रखकर अपने निर्दिष्ट स्थान तक ले जा सकें।
ऐसे ही एक मॉल से सामानों को खरीदकर एक ट्रॉली में भरकर मेरा लड़का बिलिंग काउंटर की पंक्ति में लगा हुआ था। मैं बाहर उसका इंतजार कर रहा था। उसी पंक्ति में उसके पीछे एक बुजुर्ग महिला अपनी सामानों से भरी ट्रॉली लिए हुए बिलिंग कॉउंटर तक पहुंचने की अपनी बारी का इंतजार कर रही थी।
पंक्तिबद्ध होकर सभी धीरे - धीरे अपनी ट्रॉली के साथ आगे बढ़ रहे थे। मेरे लड़के ने आगे कदम बढ़ाया ही था कि पीछे से उस बुजुर्ग महिला की ट्रॉली से उसके पैर में हल्का सा स्पर्श हुआ। मेरे लड़के ने पीछे मुड़कर उस महिला को सिर्फ देखा भर था, कि उस महिला ने, अंग्रेजी में उसे "आई एम वेरी वेरी सॉरी" कई बार बोली। मेरे लड़के ने "इट इस ओके" कहा और यह समझते हुए कि बात आई - गई हो गयी, वह पंक्ति में आगे बढ़ गया। उसने जब अपना बिलिंग करा लिया और आगे बढ़कर वह सारे सामान को ठीक से व्यवस्थित कर लिया, वह बुजुर्ग महिला अपनी ट्रॉली से भरा समान लिए हुए उसकी तरफ आयी और उसने मेरे लड़के का हाथ पकड़ लिया।
वह आश्चतचकित था। "अब क्या हो गया इन्हें?" वह सोच ही रहा था कि वह महिला अंग्रेजी में बोलने लगी, "मैं आपके पीछे पंक्ति में खड़ी थी। उससमय मैं कुछ विचारों में खोई थी कि आपके पाँव को मैंने ट्रॉली से चोट पहुंचाई। मेरी त्रुटि क्षम्य नहीं है। फिर भी आप जबतक माफ नहीं करेंगें, मुझे संतोष नहीं होगा।" वह उसका हाथ पकड़े रही। उसकी आँखों में आँसू थे। वह अपनी आंसुओं से अपने पश्चाताप के ताप को स्निग्ध करती रही।
मेरे लड़के ने उनसे कहा कि मैम आप दुखी नही हों। मैंने आपको माफ कर दिया।
तब उन्होंने मेरे लड़के का हाथ छोड़ा। शायद अब वह स्वयं को अपराधमुक्त महसूस कर रही थी।
ब्रजेंद्रनाथ

(ध्यातव्य: इस लघुकथा को सिंहभूम हिंदी साहित्य सम्मेलन के तत्वावधान में तुलसी भवन, जमशेदपुर में 26  सिंतबर को आयोजित मासिक कथा गोष्ठी के कार्यक्रम "कथा मंजरी " में मैंने सुनायी , जिसका यूटुब लिंक इसप्रकार है:

https://youtu.be/QZ85iZiBvnU



Sunday, August 22, 2021

पाठकों से मन की बात भाग 8 (लेख):

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#pathakonsemankibat








पाठकों से मन की बात भाग 8:
परमस्नेही प्रबुद्ध पाठक और कलमकार मित्रों,
पिछले सप्ताह के अंक में मैंने लिखा था कि हर कहानी के किरदारों के साथ एक और किरदार,  उसका पाठक साथ- साथ चलता  है, दृश्य या अदृश्य रुप में। इसे कोई भी कहानीकार नजरअंदाज नहीं कर सकता। इसपर आ उषा वर्मा जी की बहुत सुंदर टिप्पणी आयी है। आपने सही कहा है कि लेखक का यह दायित्व बनता है कि जो पाठक उसके सामने है उसकी मानसिकता को समझे और उसे परिमार्जित करने का प्रयास करे। पाठक भी अपने मन की बात को सामने रखे, तो यह बहुत बढ़िया संवाद होगा और लेखन की दिशा में आगे बढ़ने का मार्ग भी बनेगा।
आ सरोज सिंह जी का कथन कि पाठक के बिना लेखक का अस्तित्व नहीं है।  अपने प्रभावशाली लेखन से पाठक की रुचि को बदला जा सकता है। आ प्रीतिमा भदौरिया जी ने मेरे कथ्यों को पाठक की नजर से परखा, इसके लिए हृदय तल से आभार! किसी भी रचना को पढ़कर मन मस्तिष्क प्रफुल्लित होने के साथ- साथ परिमार्जित भी हो। आपका कथन शत-प्रतिशत सच है।
आ उषा वर्मा जी के कथन की उन पांक्तियाँ को याद करना चाहता हूँ, जिसमें आवणे कहा है कि पाठक भी अपने मन की बात को सामने रखे, तो एक अच्छा संवाद बन सकता है। आपके इसी कथन के आलोक में मैनें "प्रतिलिपि" के टीम को एक पत्र लिखा जिसे उद्धृत करना चाहता हूँ:

M/S प्रतिलिपि,
आपके साइट पर लेखकों और पाठकों के  बढ़ते विजिट आपकी बढ़ती लोकप्रियता का प्रमाण है। आपने साइट को इंटरैक्टिव बनाया है, इसमें कोई शक नहीं है। इसके बारे में मेरे कुछ सुझाव हैं। शायद यह इसे और भी उत्तरदायी और सार्थक बना सकेगा।
अक्सर यहाँ देखा जा रहा है कि जो पाठक प्रतिलिपि में अपनी एक भी रचना नहीं लिख सके हैं वे, पिछले कई वर्षों से प्रतिलिपि से सम्बद्ध लेखकों (व्यूज 50 हजार से भी अधिक)  की रचनाओं पर रेटिंग के रुप में ★ या ★★ देकर खानापूर्ति करते हैं और लेखक के ओवरऑल रेटिंग को खराब करते हैं। आश्चर्य तो तब होता है जब वे रचना के बारे में nice या good लिखकर ★ या ★★  रेटिंग दे देते हैं। मेरा सुझाव इस प्रकार है:
जैसे ही कोई पाठक ★ या ★★ या ★★★ रेटिंग दे, उससे एक डायलाग बॉक्स पॉप अप के बाद यह सवाल पूछा जाए:

1) आपकी कितनी रचनाएँ प्रकाशित हुई हैं? 

2) आपने इस रचना को कम रेटिंग क्यों दिया? कृपया इनमें से किसी एक को टिक करें..

A) क्या रचना में भाषायी अशुद्धता है? उदाहरण के रूप में वाक्य को उदधृत करें।

B) क्या यह रचना मौलिक नही है। प्रमाण के रूप  में लिखें।

C) रचना का कौन सा भाग आपको स्तरीय नहीं लगा? उद्धरण स्वरुप रचना का वाक्य लिखें। 

यदि इन सारे प्रश्नों का वे उत्तर देते हैं, तभी उनकी रेटिंग स्वीकृत की जाय। 

मैं उदाहरणस्वरूप एक स्क्रीन शॉट संलग्न कर रहा हूँ।
सादर! ब्रजेन्द्रनाथ
--------------------------------------//--------------------
प्रतिलिपि की टीम का जवाब यह था

जी, आपके सुझावों के लिए शुक्रिया :)
सादर,
मानवी 
भाषा व कम्युनिटी : टीम प्रतिलिपि, बैंगलोर

इसपर आप सभी अपने विचार प्रकट करें। इसपर विशेष चर्चा अगले अंक में,अगले शुक्रवार को।
सादर! 
© ब्रजेन्द्रनाथ


Thursday, August 12, 2021

पाठकों से मन की बात भाग 7 (लेख)

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#पाठकों से मन की बात

#pathakonsemankibat








पाठकों से मन की बात भाग 7:
परमस्नेही प्रबुद्ध पाठक और कलमकार मित्रों,
पिछले मन की बात में मैंने रचनाकारों की रचनाओं पर पाठकों की अनुकूल प्रतिक्रिया नहीं आने पर, उनकी क्या प्रतिक्रिया हो, कैसे प्रतिक्रिया दें, इसके बारे में चर्चा की थी।
इसपर आ दामिनी जी की विस्तृत समीक्षा आयी। आपने सही लिखा है कि जब भी कोई कहानीकार कहानी लिखता है तो वह पाठकों को ध्यान में रखकर नहीं लिखता, उससमय जो विचार उठते हैं, उन्हें ही वह पन्नों पर उतारता चला जाता है। पाठक कभी - कभी कहानी के मोड़ को या अंत को बदलने का आग्रह करते हैं। यह सब सुनने को मिलता है। आ उषा जी ने सही कहा है कि अपनी सृजनशीलता पर विश्वास रखिये। यही सबसे बड़ी बात है। आ सरोज सिंह, आ समता परमेश्वर, आ प्रीतिमा भदौरिया और आ कृष्णा खड़का, आ संतोष साहू जी ने भी अपनी सराहनीय प्रतिक्रिया व्यक्त की है, जो इस लेख की सार्थकता की ओर संकेत देती है।
अपने कथ्य को आगे बढ़ाता हूँ। कोई भी रचनाकार इसे कैसे भूल सकता है कि पाठक हमेशा साथ चलते हैं। यहाँ पर हिंदी - पंजाबी की  सुप्रसिद्ध लेखिका अमृता प्रीतम की वह बात उद्धृत करना चाहता हूँ, जो उन्होंने अपनी चुनींदा कहानियों के संग्रह " मेरी प्रिय कहानियाँ" की भूमिका में लिखी थी,  ‘हर कहानी का एक मुख्य पात्र होता है और जो कोई उसको मुख्य पात्र बनाने का कारण बनता है, चाहे वह उसका महबूब हो और चाहे उसका माहौल, वह उस कहानी का दूसरा पात्र होता है पर मैं सोचती हूं, हर कहानी का एक तीसरा पात्र भी होता है। कहानी का तीसरा पात्र उसका पाठक होता है जो उस कहानी को पहली बार लफ्ज़ों में से उभरते हुए देखता है और उसके वजूद की गवाही देता है।’
कहानी के इस तीसरे पात्र की अनदेखी कोई भी लेखक नहीं कर सकता। जब हम उस तीसरे पात्र को अपनी कथा यात्रा में साथ लेकर चलते हैं, तो उसकी रुचि, और उसके स्वास्थ्य दोनों का ख्याल रखना पड़ता है। उसकी रुचि का ख्याल रखते हुए भी हम उसे वही सबकुछ नहीं परोस सकते जो उसे अच्छा लगे। हमें उसे वही सामग्री देनी होगी जो उसके मानसिक स्वास्थ्य के लिए लाभकारी हो। अर्थात उसकी रुचि का परिष्कार करते हुए उसे मानसिक रूप में सक्षम और संवेदनशील बनाना भी लेखक का दायित्व होता है।
मैं अब अगले अंक में इसपर अपने विचार देना चाहूँगा,  पाठक को, अगर किसी रचना को पढ़ने के बाद लगे कि यह स्तरहीन है, तो उसकी प्रतिक्रिया कैसी होनी चाहिए?
अपना और अपनों का ख्याल रखें, सुरक्षित रहें।
©ब्रजेन्द्रनाथ

Friday, July 30, 2021

पाठकों से मन की बात भाग 6 (लेख):

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#पाठकों से मन की बात

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पाठकों से मन की बात भाग 6:
परमस्नेही प्रबुद्ध पाठक और कलमकार मित्रों,
पिछले "पाठकों से मन की बात" में मैने कहानी लेखकों को अच्छे साहित्यकारों की कहानियों को पढ़ने का आग्रह किया था, जिसका अनुमोदन आ दामिनी, आ गरिमा मिश्रा और आ सरोज सिंह जी ने भी किया था। आ ब्रजमोहन पाण्डेय जी और आ संतोष जी की भी सकारात्मक प्रतिक्रिया प्राप्त हुई। लेखक सारी मेहनत और शोध कर अपनी रचना प्रस्तुत करता हो, और उसे पाठक से नकारात्मक प्रतिक्रिया मिलती हो तो लेखक क्या करे? लेखक कुछ नहीं कर सकता। नाराजात्मक और नकारात्मक प्रतिक्रिया तक तो ठीक है, लेकिन प्रतिक्रियाएं जब शालीनता और संयमशीलता की हद पार करती हुई लगे तो आप क्या करें? 
हम समझ सकते हैं कि हर पाठक की रुचि साहित्य में नहीं होती, तो वह ★ या  ★★ रेटिंग देकर छोड़ देंगे। यह भी आप बर्दास्त कर लेते हैं। अगर आप अपनी रचनाओं में साहित्य का समावेश करते हैं, और पाठक अगर उसे नहीं समझ पाता है तो उसकी प्रतिक्रियाएं क्या होंगी?  कुछ उदाहरण:
"आप कहानी को बहुत तल रहे हैं , सर" , "समय बर्बाद किया है, प्रतिलिपि में आप जैसों को क्यों लिखने दिया जाता है?" " बहुत ही घटिया लिखा है , आपने।" आदि, इत्यादि।
आपने सचमुच मेहनत कर, आधी रातों को शांत वातावरण में जागकर, पात्रों के स्वरूप और घटनाओं में खुद को ढालकर, उनकी  भावनाओं में डूबकर प्रस्तुत किया है, तो आपको कितना गुस्सा आएगा, आपकी धमनियों में  रक्त का दबाव अवश्य बढ़ जाएगा।  इसपर मेरी  दो राय है: एक :लेखक के रुप में आप तुरंत अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं करें।
दो: आप अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए इतना ही लिखें कि आपकी शिकायत सही हो सकती है। आप मेरे मेल आई डी पर अपनी शिकायत विस्तार से लिख भेजें, मैं आपकी शिकायत दूर करने की कोशिश करूंगा। शायद उनकी शिकायत कभी नहीं आएगी। ऐसी प्रतिक्रियाएं वे ही पाठक देते है, जिन्होंने कभी न अच्छा साहित्य पढ़ा होता है और न लिखा होता है।
एक बात और : हर लेखक अपनी रचना के अंत में अवश्य लिखें: " पाठकों की  शालीन और साहित्यिक भाषा में संयमित प्रतिक्रिया का हृदय से स्वागत है। आप अपने बहुमूल्य विचारों से अवश्य अवगत कराएं।"
अगले अंक में: पाठक को, अगर किसी रचना को पढ़ने के बाद लगे कि यह स्तरहीन है, तो उसकी प्रतिक्रिया कैसी होनी चाहिए?
अपना और अपनों का ख्याल रखें, सुरक्षित रहें।

©ब्रजेन्द्रनाथ

Saturday, July 24, 2021

पाठकों से मन की बात भाग 5 (लेख)

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पाठकों से मन की बात भाग 5:

परमप्रिय स्नेही प्रबुद्ध पाठक और कलमकार मित्रों,
पिछले "पाठकों से मन की बात" में मैंने पाठकों से नीर क्षीर विवेकी होकर सत्साहित्य के चयन का उत्तरदायित्व निभाने की बात कही थी। इसपर आ उषा वर्मा जी, आ दामिनी जी, आ गरिमा मिश्रा जी , आ प्रीतिमा भदौरिया जी, और आ संतोष साहू "संतो" जी की जीवंत और सारगार्भित प्रतिक्रिया प्राप्त हुई। आ उषा वर्मा जी ने सही लिखा है कि  लेखकों से यही अपेक्षा है कि वे उत्तरोत्तर लेखन के कथ्य और शिल्प की सूक्ष्मता को परखें और स्तरीय सामग्री देने का प्रयास करें।
कथा शिल्प सिर्फ घटनाओं का विवरण और उसका रिपोर्ट जैसा नहीं होता है। कथा शिल्प में हर सम्वाद के पीछे उस पात्र की और सामने जिससे वह संवाद रत है, उसकी मनोभावनाओं की भी अभिव्यक्ति की अपेक्षा होती है। इसमें लेखक की अपनी परोक्ष टिप्पणी भी साथ - साथ चलती है। लेखक संवेदना को प्रभावी बनाने के लिए वातावरण का भी सहारा लेता है। उदाहरण के लिए अगर पात्र या पात्रों के मन में उल्लास होगा, तो उसे का उन्हें सुबह का सूर्य विहंसता हुआ अपने चेहरे पर फैली लालिमा को क्षितिज पर बिखेर कर उसे लाल करता दिखाई देगा।
अगर पात्रों के मन में उदासी होगी तो लगेगा कि सूरज रात भर जागा है, उसकी आंखें लाल है, वही लालिमा क्षितिज पर फैल रही है। इस तरह की उपमाएं कहानी को नई ऊँचाई प्रदान कर सकते हैं। इसके लिए लेखकों को साहित्य जगत के प्रसिद्ध कथाकारों, जैसे अज्ञेय, निर्मल वर्मा, हिमांशु जोशी, नरेंद्र कोहली को पढ़ना चाहिए।
पाठकों को भी अपनी रुचि को वैसी कहानियों और कथाकारों की रचनाओं से  जोड़ना चाहिए।
एक और संवाद के साथ जुड़ते है, अगले शुक्रवार को:
©ब्रजेन्द्रनाथ

Saturday, July 17, 2021

पाठकों से मन की बात भाग 4 (लेख)

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पाठकों से मन की बात भाग 4:
परम प्रिय प्रबुद्ध पाठकगण,
मैंने अपने पिछले वक्तव्य में "व्यूज और लाइक्स में फंसा सद्साहित्य" शीर्षक से अपने विचार व्यक्त किये थे। इसपर परम स्नेही आ सरोज सिंह जी, प्रीतिमा भदौरिया, गरिमा मिश्रा और रितेश कुमार बरनवाल "आर्य" जी की प्रतिक्रिया प्राप्त हुई। मुझे खुशी हुई कि मेरे इस लेख ने इस युग में तुरत सफलता पाने की लक्ष्य पूर्ति के लिए कृत्रिम रूप से वाहवाही प्राप्त करने के सोशल मीडिया के तिलस्म से सावधान रहने की जरूरत का आपने भी समर्थन किया है। इस युग में जब बाजार हावी है, उसके प्रभाव को स्वीकार करते हुए और झेलते हुए , पाठकों को नीर - क्षीर को विलग करने की विवेकशीलता के प्रति और भी उत्तरदायी बनाता है। उसी तरह लेखक का भी कर्तव्य होता है कि वह प्रचलित कंटेंट से अधिक परिष्कार युक्त कंटेंट प्रस्तुत करने पर ध्यान दे। इसके लिए हो सकता है कि उसे अधिक शोध करना पड़े, अधिक रातों को जागते हुए बिताना पड़े, अधिक साहित्य का अध्ययन करना पड़े, उसे जिसे अंग्रेजी में कहते हैं न "एक्स्ट्रा माइल" , चलना पड़े।
प्रतिलिपि का अधिकांश पाठक वर्ग प्रबुद्ध है, इसीलिए कोई भी लेखक को इससे जुड़ने पर गर्व महसूस होता है। जब आप किसी भी कंटेंट पर अच्छा कमेंट लिखकर भी ★ या ★★ स्टार देते हैं, तो बात समझ में नहीं आती। आप लेखक की रचना के किस भाग को और बेहतर देखना चाहते है, उसे अवश्य अंकित करें। यह एक स्वस्थ संवाद की प्रक्रिया है, जिसे लेखकों को भी स्वीकार करना चाहिए। लेखकों को अपनी अभिव्यक्ति में शब्द साधना के स्तर को उत्तरोत्तर उत्कर्ष की ओर ले जाना चाहिए। पटल पर डालने के पहले उसे अच्छी तरह संशोधित कर लें ताकि टंकण की अशुद्धियाँ नहीं हो। अगर कोई पाठक इन अशुद्धियों की चर्चा करते हैं, तो उन्हें सकारात्मक रूप में लेना चाहिए और उन अशुद्धियों को संशोधित भी कर लेना चाहिए। इसकी व्यवस्था प्रतिलिपि के सॉफ्टवेयर प्रोग्राम में अन्तरविद्ध (embedded) है। आज के लिए इतना ही।
फिर मिलते है, अगले शुक्रवार को एक ज्वलंत मुद्दे पर चर्चा के साथ...
क्रमशः...
©ब्रजेन्द्रनाथ

Saturday, July 10, 2021

पाठकों से मन की बात भाग 3 (लेख)

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#पाठकों से #मन की बात

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पाठकों से मन की बात भाग 3:
व्यूज और लाइक्स के मकड़जाल में फंसा सद्साहित्य
गायक आदित्य सिंह उर्फ बादशाह की स्वीकृति ने कि उसने सोशल मीडिया पर अपने गाने "पागल है" के व्यूज बढ़ाने के लिए 72 लाख दिए, सोशल मीडिया के फेक व्यूज और लाइक्स के बनावटीपन को उजागर कर दिया है। फेक व्यूज बनाने वाली कंपनियां कितना पैसा बनाती है, आप सोच सकते है।
अब सामान्य पाठकों और लेखकों के सामने पढ़ने के लिए कुछ भी चयनित करने के पहले उसके कंटेंट को जाँचना परखना जरूरी है। क्या सामान्य पाठक के पास इतना समय होता है कि वह हर कहानी के कंटेंट को पढ़ने के बाद परखे? शायद नहीं। तो उसके पास क्या विकल्प राह जाता है। बस वह व्यूज और लाइक्स देखकर पढ़ना या देखना आरंभ कर देता है। जो भी थोड़ा - सा वक्त उसके पास होता है, उसमें वह अरुचिकर कहानियाँ पढ़ता रहता है। ये कहानियाँ न उसकी रुचि का परिष्कार करती हैं, न उसकी कल्पनाशीलता को विस्तार देती हैं।
इस बाजार और विज्ञापन के जमाने में सही कंटेंट अपने सही पाठकों की तलाश में कहीं खो जा रहा है। मैंने प्रतिलिपि पर ही कई लेखकों की कहानियाँ और कविताएँ पढ़ी हैं, जिनका स्तर बहुत ऊंचा है, लेकिन व्यूज और लाइक्स की संख्या दौड़ में कहीं पीछे रह गए हैं। यह वैसा ही है जैसे कोई लेखक अपनी प्रकाशित पुस्तक का विज्ञापन सबसे अधिक सर्कुलेशन वाले अखबार के मुख्य पृष्ठ पर पूरे पेज का देता है। उसे ही हम बेस्टसेलर समझकर अपने बुक शेल्फ में सजाने में शान समझते हैं।
क्या यह सोच बदलनी नहीं चाहिए?
प्रेमचंद और जैनेंद्र के समय में भी चलताऊ लेखक थे लेकिन पाठकों के हर वर्ग ने उन्हें पढ़ना बंद नहीं किया था।
ऐसी ही एक विचारोत्तेजक मुद्दे पर चर्चा के साथ जुड़ते हैं, अगले शुक्रवार को।
©ब्रजेन्द्रनाथ

Friday, July 2, 2021

पाठकों से मन की बात भाग 2

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पाठकों से मन की बात भाग 2:

अश्लीलता या इंटरटेनमेंट वैल्यू : भाग 2
मैं कथा साहित्य के बारे में चर्चा कर रहा हूँ।
पिछले लेख में मैंने एंटरटेनमेंट वैल्यू के नाम पर परोसी जाने वाली अश्लीलता का उल्लेख किया था। मैंने यह भी लिखा था कि पाठक या दर्शक जो भी चाहता है, उसे ही लिखा जाए क्या? इस दिशा में लेखकों की कोई जिम्मेवारी होती है या नहीं?
उसी बात को आगे बढ़ाते हुए, मैं प्रतिलिपि से जुड़े प्रबुद्ध पाठकों के बारे में और लेखकों के बारे में भी बात करूँगा।
हिंदी पढ़ने वाले पाठक सामान्यतः तीन वर्गों में विभाजित किये जा सकते हैं:
1) पहले खाने में वे पाठक हैं जो सीधी सीधी सरल भाषा में लिखी रचना पसंद करते है। कहानी बढ़ती रहे। हर पंक्ति में कहानी एक दिशा में प्रवाहमान रहे।
2) दूसरे खाने में वे पाठक आते हैं जो कहानी में रोमांच चाहते हैं। हर पल कहानी मोड़ लेती रहे।
3) तीसरे खाने में वे पाठक आते हैं जो कहानी के साथ, उसे कहने का अंदाज, उसमें शिल्प के साथ प्रवाहमयता का निर्वहण और सार्थक संदेश भी ढूढते है।
पहली कैटेगोरी में पाठकों की संख्या सबसे अधिक यानि 50- 60 प्रतिशत होगी । दूसरी में 20-30 प्रतिशत और तीसरी में 19-20 प्रतिशत।
लेखकों के सामने यह चुनौती है कि वे अपनी रचना के कथ्य में शिल्प का ध्यान रखते हुए, कथा में रोमांच के क्षणों को डालते हुए , प्रवाहमयी शैली में पहली कैटेगिरी के पाठकों के स्तर के उत्कर्ष का निरंतर प्रयास करते रहें।
हिंदी के पाठक हैं तो आपसे भी अनुरोध है कि लेखकीय उत्कृष्टता की प्रशंसा अवश्य करें, इससे रचनाकार अनिर्वचनीय उत्साह से भर उठता है। आप अगर प्रेमचंद को पढ़ते हैं, तो उनकी रचनाओं पर ★★ या ★★★ तो नहीं दें। अगर आप ऐसा करते है, तो आपकी अध्ययनशीलता और ग्रहणशीलता पर ही सवाल उठेंगे।
उसी तरह चलताऊ टिप्पणी न देकर सारगार्भित और संजीदा टिप्पणी दें, जो लेखक का भी मार्गदर्शन कर सके।
सादर आभार!
फिर मिलते है, अगले शुक्रवार को एक नई चर्चा के साथ!
©ब्रजेन्द्रनाथ

Thursday, June 17, 2021

पाठकों से मन की बात भाग 1 (लेख)

 #BnmRachnaWorld

#pathakonse #mankibaat










"पाठकों से मन की बात" का यह सीरीज मैंने "प्रतिलिपि" हिंदी वेबसाइट पर पिछले 31 जुलाई 2020 से लिखना आरंभ किया था।

उसे  आज से मैं अपने ब्लॉग पर डालना शुरू कर रहा हूँ। आपके विचारों का इंतज़ार रहेगा:

पाठकों से मन की बात भाग 1:

अश्लीलता या एंटरटेनमेंट वैल्यू:
 प्रबुद्ध पाठकों,
सहृदय नमस्कार!
आज हिंदी के प्रसिद्ध कहानीकार, उपन्यासकार प्रेमचन्द जी की जयंती है। मैंने आज का दिन ही आपसे अपने मन की बात की शुरुआत के लिए चुना। मैं आपसे हर सप्ताह इसी दिन यानि शुक्रवार को जुड़ा करूँगा। हमलोग अपने लेखन को मुंशी प्रेमचंद के दर्पण को सामने रखकर देखने की कोशिश करेंगे। अपना प्रतिबिम्ब उसमें कैसा नजर आता है?
पहले प्रेमचंद जी के बारे में कुछ बात करते हैं। मुंशी प्रेमचंद जी की कहानियों, उपन्यासों में पात्रों, उससमय के परिवेश, आर्थिक सामाजिक विषमता, सामान्य जन की विवशता, नारी पात्रों के अंतर्मन का चित्रण या लेखिकीय स्पष्टता और पाठकों की रुचि के परिष्कार की प्रतिबद्धता के बारे में जो मानक उन्होंने स्थापित किये थे, क्या अभी का साहित्य लेखन से जुड़ा समाज और पाठक वर्ग उसका निर्वहण कर रहा है? यह विचारणीय विषय है।
प्रेमचंद जी घाटा सहकर भी "हंस" पत्रिका को प्रकाशित करते रहे। उसी घाटा की पाटने के लिए, जयशंकर प्रसाद के मना किये जाने के बावजूद भी उन्होंने सन 1934 में बम्बई (आज का मुम्बई) का रुख किया था। वहां के बारे में जैनेंद्र कुमार को लिखे एक पत्र में बताया था, " मैं जिन इरादों से आया था, उनमें एक भी पूरा होते नजर नहीं आते...वल्गरिटी को यह लोग एंटरटेनमेंट वैल्यू कहते हैं...मैंने सामाजिक कहानियाँ लिखी हैं, जिसे शिक्षित समाज भी देखना चाहे।"
एक लेखक के रूप में प्रेमचंद जी अपने दायित्व को समझते थे। वे सस्ते मनोरंजन के लिए नहीं लिखते थे। वे बिकने के लिए नहीं लिखते थे। समाज के परिदृश्य के चित्रण के द्वारा वे समाज में स्थापित गलत मूल्यों को चुनौती देते थे। उसके समाधान ढूढने की तड़प उनकी रचनाओं में साफ दिखती है। उन्होंने अपने मानकों और मूल्यों के साथ कभी समझौता नहीं किया। इसलिए उनका रचना संसार लेखकीय ईमानदारी का जीता जागता दर्पण है।
अगर पाठक या दर्शक अपनी रुचि को दूषित करना चाहता है, तो लेखक क्या उसे वैसे ही साहित्य परोस देगा? लेखक को सच्चाइयों के चित्रण के साथ समाज को दिशा देने का भी काम करना होता है, पाठकों की रुचि का परिष्कार भी करना होता है। इस दायित्व को जो पूरा नहीं करता है, जैसी धारा बह रही है, उसीमें बहता चला जाता है, तो वह लेखक की पात्रता रखता है या नहीं इसमें संदेह है।
आजकल एंटरटेनमेंट वैल्यू के नाम पर सिनेमा, शार्ट फ़िल्म और वेबसीरिज में सेक्स और अपराध के घालमेल को उघाड़कर प्रस्तुत करने की जो होड़ चल पड़ी है, वह हमारे चारित्रिक गिरावट को किस सीमा तक ले जाएगा, यह तो आने वाला समय ही बतलायेगा।
अभी तो कहानियों, उपन्यासों और वेबसीरीज़ों के भी नाम ऐसे रखे जा रहे हैं, जैसे पहले मस्तराम सीरीज में रखे जाते थे। हिंदी में अश्लील नामों को नहीं लिखकर उसका अंग्रेजी नाम लिख देने से अश्लीलता का मुलम्मा उतर नहीं जाता है। तर्क यह दिया जा सकता है कि क्या करें पाठक और दर्शक यहीं पसन्द करते हैं। आपके पड़ोसी तो आपके बेडरूम सीन में रुचि रखता है, तो क्या आप उसे सबकुछ देखने के लिए अपने बेडरूम की खिड़कियों के पर्दे हटा देंगे? ...और पड़ोसी का क्या कर्तव्य है ? वह दूसरे के बेड रूम में झांकता फिरे। इसपर आप विचार करें।
इन्हीं विचारों के प्रकाश में हमलोग प्रतिलिपि से जुड़े लेखकों के लेखन और पाठकों की प्रतिक्रियाओं का भी विश्लेषण करेंगें...इसी दिन अगले सप्ताह।
क्रमशः...



Saturday, June 5, 2021

रमजीता पीपर (कहानी) #पर्यावरण पर

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#storyonenvironment




रमजीता पीपर (कहानी):

रमजीता पीपर से गाँव की पहचान है या गाँव से इस पीपर के पेड़ की इसके बारे में दद्दा से ही पता लग सकता है। जब दद्दा से पूछते है कि यह रामजीता पीपल जिसका नाम थोड़ा बदलते हुए रमजीता पीपर पड़ गया है, कितना पुराना है, तो वे यादों में खो जाते हैं। वैसे दद्दा की उम्र बहुत अधिक नही है, यही 65-70 के लगभग, पर लोग उन्हें दद्दा कहने लगे हैं, शायद उनके दादानुमा कहानियों और बातों के कारण हो, या गाँव में जिसका नाम जो पड़ जाता है, उसे बूढ़े होने पर भी लोग उसी उपनाम से पुकारते चले जाते हैं। बचपन में अगर कोई बबुआ जी कहलाये तो बूढ़े हो जाने पर भी वे बबुआ ही कहलायेंगे। मुझे याद है कि गाँव में एक दामाद आकर बस गए थे। अब बड़े बूढ़े दामाद जी के पिता जी को मजाक के तौर पर फेटवाला चाप बुलाये होंगे। अब उनका भी पुकारु नाम फेटवाला चाप या छाप हो गया। और इसका वे बुरा भी नहीं मानते हैं।
दद्दा, दद्दा कबसे हो गए, यह किसी को नहीं मालूम। पर दद्दा जब 1971 की लड़ाई के बाद पूर्वी बॉर्डर से सही सलामत लौट आये थे, तो लोगों ने उनका जोरदार स्वागत किया था, जैसे वे बंगलादेश में पाकिस्तान के पूर्वी कमांड के सेना प्रमुख नियाज़ी को सरेंडर कराकर लौटे हों। गाँव के लोगों का अपार स्नेह देखकर वे भी फौज से सेवा निवृत्त होने के बाद अपने परिवार के साथ गाँव में ही रहने लगे।
रमजीता पीपर और गाँव के बीच में पइन है, जो बड़ी नहर से जुड़ा है, इसलिए उसमें हमेशा पानी रहता है। रमजीता पीपर के सामने बड़ा सा घास का मैदान है, जिसमें गाँव के जानवर दिनभर घास चरते हैं। घास के मैदान के पश्चिमी छोर पर देवी स्थान है। कहते हैं कि रमजीता पीपर की जड़ देवीस्थान तक पहुँच चुका है। वहाँ पर कोई पीपल का वृक्ष तो है नहीं, सिर्फ नीम का पेड़ है, इसलिए इसी पीपल की जड़ होगी जो देवी मंडप बनाये जाने में नींव खनन के समय मिली थी। अब दद्दा अनुमान लगाते हैं, कि पाँच सौ वर्ष पुराना तो होना ही चाहिए। हो सकता है कि इस पीपल को जब राम जी का रावण पर विजय प्राप्त हुआ था, यानि विजयादशमी के दिन इसे लगाया गया होगा, इसीलिए इसका नाम रामजीता पीपल पड़ा होगा, जो बाद में रमजीता पीपर हो गया। दद्दा के इस अनुमान में दम है, अतएव सभी लोग इसपर सहमत हो गए कि रमजीता पीपर पाँच सहस्त्र वर्ष पुराना अवश्य है। ऐसी विद्वत चर्चाएं इस पीपल वृक्ष के नीचे बने चबूतरे पर होती रहती थी। इन्हीं चर्चाओं में इसपर भी बात होती थी कि गाँव में किसका लड़का पढ़कर विदेश गया, और वहीं घर लेकर रहने की सोच रहा है। जब मोंट्रियल या सन जोसे में भी किसी को घर खरीदना होता था तो वहाँ से भी वह दद्दा से ही पूछता था कि दद्दा, घर का दरवाजा किस ओर खुलना चाहिए, उत्तर की ओर या पूरब की ओर। दद्दा का वास्तु ज्ञान भी सात समंदर पार तक प्रकाश बिखेर रहा होता था।
दद्दा हर दिन सवेरे पाँच बजे ही पीपर के सामने वाले मैदान पर आ जाते। गाँव के जो लड़के ज्यादा पढ़ाकू किस्म के नहीं थे पर शारीरिक गठन और डिल डौल ठीक था, उन्हें इस मैदान में वह दौड़ लगवाते और वे सारा प्रशिक्षण देते जो सेना में भर्ती के लिए जरूरी होता है। इसके परिणामस्वरूप गाँव के कई नवयुवक सेना और अर्ध सैनिक बलों में चयनित होकर अपनी सेवाएँ दे रहे थे।

अब तो गाँव भी सड़क मार्ग से शहर से जुड़ गया है। शहर के पाँव लंबे होते जा रहे हैं। गाँव सिकुड़ता जा रहा है। सड़क मार्ग से जब शहर गाँव के नजदीक आता है, तो वह अपने साथ शहर की सड़ांध भी लाता है। अब पइन के साफ पानी में शहर का कचरा भी घुलेगा और गाँव के रहवासियों के बीच रहस्यमय बीमारियाँ फ़ैलेगीं। गाँव का बाहरी वातावरण ही विषाक्त नहीं होगा, गाँव के लोगों के बीच का खुलापन भी एक अमूर्त, रहस्यमय चुप्पी में बदलने लगेगा। शहर अनाप - शनाप सूचनाओं का भंडार भी साथ लाता है। उनमें कौन सी सूचना कौन ग्रहण करता है, उस सूचना से अपना मस्तिष्क जागृत करता है या विकृत करता है, यह उसके विवेक पर निर्भर होता है।
उस दिन रमजीता पीपर के चबूतरे पर गाँव के लोग जुटे हुए थे। शिवपूरण के पास ऐसी-ऐसी सूचनाओं का पुलिंदा होता था कि लोग सुनकर दंग रह जाते थे। कहाँ से ऐसे समाचार लाता है। यह तो टी वी और समाचार पत्रों में भी नहीं है। उस दिन भी वह एक ऐसी ही सूचना लाया था। जब भी कोई बात यह कहेगा, तो बात की सच्चाई और अच्छाई को उसमें से चुनना पड़ता है।
नन्हकू बोला था, "देख रहे हैं ना दद्दा, शिवपूरणवा अभी बस से उतरकर इधर ही आ रहा है। जरुर कोई उल्टी- सीधी उटपटांग खबर लेकर आ रहा है।"
सबलोग सशंकित हो उठे थे।
दद्दा को संबोधित करते हुए और अन्य लोगों को सुनाने के लिए उसने कहा था,
"जानते हैं, दद्दा, यह रमजीता पीपर और सारा मैदान सहित सड़क तक की पूरी जमीन का बंदोबस्त सरकार एक भवन निर्माण के कार्य में संलग्न व्यवसायी के नाम करने जा रही है।"
"ये शिवपूरण, ऐसी मनहूस खबर तुम्हीं क्यों लाते हो? तुमने इन खबरों को फैलाने की एजेंसी ले रखी है, क्या?" घनश्याम ने व्यंग्यपूर्ण अंदाज में पूछा, तो शिवपूरण अकचका गया।
"दद्दा, देखिए हमारे बारे में क्या कह रहा है? हम गाँव की भलाई के लिए कुछ कहना चाहते है, तो इसे कुछ और समझा जा रहा है।"
इस बार धनेसर ने कहा था, "ए शिवपूरण भाई, अब गाँव की भलाई के लिए कुछ कहने का नहीं, करने का समय आ गया है। बोलो हमारे साथ मिलकर करने के लिए तैयार हो?"
"हाँ, हाँ तुम लोग योजना की रूपरेखा तैयार करो। हम भला पीछे रहने वाले हैं?" इतना कहते हुए शिवपूरण ने वहाँ से खिसकने में ही अपनी भलाई समझी।
"तुम पीछे ही नहीं रहने वाले हो, पीछे से खिसक जाने वाले हो।" जोर से सुनाते हुए रोहन ने कहा था, ताकि उसके कानों में यह आवाज जरूर पहुँचे।
दद्दा ने सबको संबोधित करते हुए कहना शुरु किया, "देखो भाइयों, ईश्वर करें, शिवपूरण की इस खबर में कोई सत्यता नहीं हो। या किसी ने शिवपूरण को ऐसी खबर फैलाकर गाँव वालों की प्रतिक्रिया जाननी और समझनी चाही हो।"
"जी दद्दा, हमें इसपर विश्वास तो नहीं हो रहा, पर हमें सतर्क तो हो ही जाना चाहिए।" धनेसर ने भी सामुहिक कार्ययोजना बनाने की पहल पर अपनी मुहर लगाई थी।
दद्दा बोले, "कल सुबह आपमें से जितने लोग समय निकाल पाते हों, इसी पीपल वृक्ष के नीचे जमा हों और हमलोग सामुहिक एकजुटता के लिए क्या कर सकते हैं, इसकी योजना बनाएंगे।
सभी लोग अपने-अपने घरों को तो चले, पर दद्दा आज सचमुच व्यथित मन से लौट रहे थे।
◆◆◆◆◆
दद्दा को रात भर नींद नहीं आई थी। वे गाँव के वातावरण के लिए चिंतित थे। गाँव में शहर के उत्पादित विष के घुलने के प्रति आशंकित थे।
सुबह चार बजे ही वे रमजीता पीपर के पास पहुँच गए थे। वे चबूतरे पर चढ़ गए। उन्होंने दोनों हाथों को फैलाकर पीपल के मुख्य तने को अपनी छाती से लगा लिया। जोर-जोर से चिल्लाए, चिल्लाते रहे परंतु वहाँ सुनने वाला कोई नहीं था। जब उनकी चिल्लाहट पूरे वातावरण में गूंज रही थी। इसके बाद वे फफककर रो पड़े। वे नहीं चाहते थे कि कोई उनकी व्यथा को देखे, उनके अरण्य रोदन को सुने, इसीलिए वे इतना सवेरे आ गए और अपने पूर्वज पीपल से बाते करते हुए रोते रहे।
पूर्व क्षितिज अरुणाभ होना ही चाहता था। पीपल वृक्ष पर पक्षियों का कलरव आरम्भ हो गया था। निशा का अवसान निकट था। पीपल के चिकने पत्तों की सरसराहट और पाखियों के समवेत ध्वनि में प्रकृति के आनंद - कण बिखर रहे थे। सूर्य रश्मियों के धरा पर अवतरण का समय हो रहा था। लोगों का रमजीता पीपर की ओर आना शुरू हो चुका था। नौजवान लोग, जो हर दिन दौड़ लगाकर अपनी ऊर्जा बढ़ाने के साथ-साथ पुलिस और सुरक्षा बलों में प्रतियोगिता की तैयारी कर रहे थे, वे भी आ चुके थे।
सभी के आ चुकने के बाद दद्दा ने ही पहला संबोधन शुरू किया, "भाइयों एवं नौजवान साथियों, आप लोगों को तो मालूम होगा कि हमलोग यहाँ किसलिए एकत्रित हुए हैं?"
सबों ने समवेत स्वर में कहा, "हमें मालूम है, पर आप एक बार फिर विस्तार से बताइए।"
"तो आप सुनिए: हमारा गाँव शहर के विस्तारीकरण की चपेट में शीघ्र आने वाला है। हमें शहर के विस्तार से कोई आपत्ति नहीं है। किसी को क्या आपत्ति हो सकती है? लेकिन हर शहर अभी स्वयं असंतुलित विकास के दुष्परिणामों का दंश झेल रहा है। शहर के कचरे का कहाँ निष्पादन हो रहा है? शहर की नालियों से बहती गंदगी बड़े नालों में जमा होती हैं और उन्हें कहाँ छोड़ दिया जाता है, हम सब जानते हैं? कहाँ मिला दिया जाता है?"
सबों ने जवाब दिया, "नदियों या पास के नहरों में!"
"हम सबों को मालूम है। शहर का कचरा हमारे हरे - भरे मैदानों और खेतों में डंप कर दिया जाएगा। हमारे नहरों में शहर के नालों को छोड़ा जाएगा। आप बताएँ, क्या आप अपने गाँवों को शहर का मल-विसर्जन स्थल बनायेंगें।"
समवेत स्वर में आवाज आई, "कभी नहीं!"
"तो इसके लिए हमें जागरूकता अभियान चलाना होगा। क्या आप इसके लिए तैयार हैं?"
नौजवानों ने एक साथ कहा, "हम तैयार हैं।"
"चार नौजवानों के साथ एक बुजुर्ग या प्रौढ़ मिलकर के टोलियाँ बनायेंगें। ऐसे पर्यावरण संरक्षक दूतों की टोलियाँ शहर के चारों तरफ के हर गाँव में जाएगी। गाँव के निवासियों को जागरूक करेगी। शहर के फैलाव को हम रोकेंगे। इसतरह हम गाँव को शहर का डंपिंग ग्राउंड नहीं बनने देंगें।"
किसी नौजवान ने प्रश्न किया था, "क्या इससे विकास के गति धीमी नहीं हो जाएगी?"
"सही प्रश्न किया है, आपने। हमें विकास होने या विकास को गति देने से कोई डर नहीं है। हमें असंतुलित और अंधाधुंध विकास से डर है, जिससे समस्याएँ बढ़ती चली जाँय। सिर्फ कुछ लोगों की जेबें भरने के लिए क्या हम पूरे पर्यावरण को दूषित करना चाहेंगे?"
प्रश्न सारे नौजवानों की तरफ से ही आ रहे थे, "दद्दा, आखिर यह अभियान कबतक चलाएंगे?"
"आपका प्रश्न सही है, आखिर कबतक? हम यह अभियान तबतक चलाएंगे जबतक शहरों में समुचित कचरा प्रबंधन और निष्पादन की विधि विकसित नहीं होती, जबतक शहर के नाले के पानी का परिष्करण कर उसे शुद्धि की गुणवत्ता के मानकों पर सही नहीं पाया जाता। क्या आपलोग तैयार हैं?"
सभी लोग जोर से बोले, "हम सब तैयार हैं!"
"तो आइए हम सब इस पीपल के तने से लिपटकर यह शपथ लें कि शहरों का पर्यावरणीय संतुलन जबतक ठीक नहीं हो जाता, तबतक उसका गाँव की ओर विकास हम रोकेंगे।"
सभी लोग चबूतरे पर चढ़ गए और दोनों हाथों को फैलाकर पीपल के तने से लिपटकर यह सपथ ली।
यह समाचार तेजी से आग की तरह फैल गया। रमजीता पीपर की शपथ लेकर लोगों ने शहरों का गाँवों की ओर विकास होने की गति पर विराम लगाने की सपथ ली है।
व्यवसायी, जो सरकारी अधिकारियों के साथ मिलकर गाँव में कम भाव में जमीन खरीदकर उसपर गगनचुम्बी इमारतें बनाकर बेचने के सपने देख रहे थे, इस अभियान के कारण सकते में आ गए थे। अब क्या होगा?
उधर गाँव से पर्यावरण संरक्षण दूत दूसरे गाँव में जाकर जागरूकता फैलाने का काम करने लगे। गाँव के लोग पेड़ों के तने से लिपटकर गाँव में पर्यावरण को संरक्षित करते हुए, शहरों को गाँवों की ओर नहीं फैलने देने की शपथ लेने लगे।
भ्रष्ट तंत्र और व्यवसायियों के होश उड़े हुए थे। रमजीता पीपर के सामने के मैदान में मल्टीस्टोरी काम्प्लेक्स खड़े करने की योजना फलीभूत होती नजर नहीं आ रही थी।
उनमें से एक युवा व्यवसायी के प्रस्ताव रखा कि क्यों नहीं मैदान को छोड़कर गाँव के लोगों की जमीन ही खरीद ले जाय। कुछ दिनों के बाद उसका विकास किया जाएगा।
यह विचार बहुत अच्छा लगा। वे लोग इसी कार्ययोजना पर काम करने लगे।
इसके लिए एक ऐसे एजेंट की जरूरत थी जो लोगों के एक वर्ग को पैसे का लालच देकर लाये और उनका जमीन बेचवाये । जैसे-जैसे लोग आते जायेंगें, और अपनी जमीन की बिक्री करते जायेंगें, उस एजेंट का कमीशन भी बढ़ता जाएगा। इसके लिए इस गाँव का शिवपूरण सबसे उपयुक्त व्यक्ति हो सकता है। उससे संपर्क किया गया। पैसे का तो लालची तो वह था ही। वह झट तैयार हो गया।
कुछ दिनों बाद शिवपूरण अपने प्रयास में सफल होने लगा। पहली बिक्री एक छोटे किसान ने की थी, अपनी लड़की की शादी के लिए उसे रुपयों की तत्काल जरूरत थी। जमीन बेचने वाले लोगों की संख्या बढ़ने लगी। यह समाचार दद्दा के पास भी पहुँचा। दद्दा ने कुछ नौजवानों को किसानों से मिलकर जमीन नहीं बेचने की सलाह भी दिलवाई। पर जमीन खरीदने के लिए इतनी अधिक रकम दी जा रही थी कि लोग उसके प्रभाव में आते चले गए।
अंतिम कड़ी उस दिन टूट गयी, जब दद्दा के भाई ने ही अपनी जमीन व्यवसायी के हाथों बेच दी।
दद्दा का हिम्मत टूटने की कगार पर आ चुका था। जब अपने ही घर के लोग बात नहीं समझेंगे तो बाहरी लोग क्या समझेंगें?
जनवरी की कड़ाके की ठंढ पड़ रही थी। कुछ दूरी पर भी इस घने कोहरे में कुछ भी नहीं दिखता था। रात भींगती रही थी। दद्दा का दर्द बढ़ चुका था। सूरज उदास उगता था। उसकी किरणें बीमारी से ग्रस्त हो गयी थी। वे पेड़ - पौधों में भी कोई हलचल पैदा करने में असमर्थ थीं। पक्षियों का कलरव अब रमजीता पीपर पर देर से होता था। पत्ते अब चमकते नहीं थे। पीले होकर जल्दी गिर जाते थे। पत्तों का डालों से बिछड़ना एक शास्वत सत्य था, पर इस सत्य को अनदेखा करना मनुष्य की मति में बैठ चुका था।
ऐसा ही एक दिन था। दिन चढ़ चुका था पर सभी पेड़-पौधे, पशु-पक्षी, ताल-तलैया अलसाये हुए थे। मनुष्य इससे अलग कैसे रह सकता था। घनश्याम परेशान - सा धनेसर से पूछता है, "अरे दद्दा को देखा क्या?"
"दद्दा सुबह-सुबह रमजीता पीपर के तरफ गए होंगे। चलो-चलो देखते है।"
रास्ते में रोहन और मदन भी मिल गए। उन्हें दूर से ही धुंध में कुछ दिखा था। वे निकट चले गए। जब चबूतरे के पास पहुँचे, तो उन्होंने पीपल के पेड़ के तने से एक कंबल लिपटा देखा था।
देखो किसी ने कम्बल यहाँ पसार दिया है और भूल गया है। चलो कम्बल को ले चलते हैं और जिसका होगा उसे दे देंगे। घनश्याम चबूतरे पर चढ़ गया। रोहन भी चढ़ा। जब दोनों ने मिलकर कम्बल हटायी, तो दद्दा को तने से लिपटा हुआ पाया। घनश्याम दद्दा को कंधे पर पकड़कर जैसे ही दद्दा से कहा, "दद्दा, दद्दा यहाँ अभी तक यहॉं क्या कर रहे हैं?" वैसे ही दद्दा का शरीर पीठ के बल गिरने लगा, तब रोहन ने भी दौड़ कर पकड़ा।
दद्दा का शरीर ठंढा हो चुका था। दद्दा ने रमजीता पीपर और मैदान को तो बचा लिया, परंतु गाँव को नहीं बचा सके!
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©ब्रजेंद्रनाथ



Sunday, May 30, 2021

कहानी लेखक का अंतर्द्वन्द्व और सृजनशीलता (लेख)

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#author's conflict











कहानी लेखक का अन्तर्द्वन्द्व और सृजनशीलता

एक सफल रचनाकार अपनी चेतना के विविध स्तरों को जीते हुए, उन्हें अनुभव करते हुए  अपने भीतर के साहित्यकार  के समक्ष पूरी तरह से समर्पित, अहंकार-शून्य सिर्फ़ जब उसे भीतर-भीतर गुनता है तब स्वयं से निकली हुई उसकी रचनाएँ अब उसकी स्वयं की नहीं रह जातीं बल्कि पूरी मानवता की धड़कनें बन जाती हैं ।
साहित्यिक गोष्ठियों में उठती करतल ध्वनियों की अनुगूँज से बेखबर, आज के समय में लाइक्स और शेयर की भूलभुलैया से दूर अपने ही रचना-संसार में जीने की धुरी तलाशता रचनाकार भीड़ से दूर अपनी ही कहानियों, कविताओं से निकलती आवाजों को सुन सके जो उसके ही दिल की आवाजें हैं। ऐसे रचनाकार आज के समय में अपवाद ही कहे जाएंगे।
कभी - कहानीकार अपने पूर्व निर्धारित प्लाट को लेकर आगे बढ़ता है, कहानी से मिलती - जुलती उसके अपने जीवन का भोगा हुआ यथार्थ या अपने आसपास की स्थितियों और परिस्थितियों से बिखरती संवेदनाएं उसे घेर लेती हैं। वह जो कुछ लिखना चाहता था, उससे अलग वह खुद की कहानी गढ़ने लग जाता है।
कभी-कभी कहानी भी पहेली बन जाती है जबतक कलमकार होश में आता है तबतक उसके भोगे हुए पल बहुत पीड़ादायक बन जाते हैं और विडम्बना यह कि उसकी तमाम व्यथा अपरिभाषित रहकर भी अभिव्यक्ति की तड़प, छटपटाहट से भरी हुई अपने अस्तित्व का आकार ढूढने लग जाती है। इसी अपरिभाषित पीड़ा को कहानियों में अभिव्यक्त करने वाले कलमकार जिन्होंने बिम्बों, प्रतीकों का सहारा लेने की कोशिश की है वही  पूरे कथ्य के सत्य के प्रति एक कलकमकार की  व्यथा, उसकी अपनी तड़प, उसकी अपनी तलाश हमारी और आपकी तड़प और तलाश बन जाती है। कलमकार वहाँ सफल हो जाता है।
जो कहानी सहज रूप से आगे बढ़ रही थी, उसमें संवेदनाओं की आँच से उबाल आने लग जाता है। कहानी में अगर संवेदना नहीं हुई और उसका चित्रण नहीं हुआ, तो कहानी मात्र एक रिपोर्ट बनकर रह जाती है।
इसीलिए  कहानियाँ घटनाओं को जोड़ - तोड़कर, सिर्फ मनोरंजन के लिए न पढ़ी जानी चाहिए, न लिखी जानी चाहिए। पाठकों का ध्यान रखा जाना लेखक के मष्तिष्क में अवश्य होना चाहिए, लेकिन इससे लेखक को अगर अपनी उड़ान में बेड़ियाँ जैसा लगे, तो उसे उन बेड़ियों को तोड़ देना चाहिए। लेखक को अपने मन की करने और कहने की छूट होनी ही चाहिए। यह छूट लेखक को उनकी कल्पना के उड़ान के लिए पंख भी देते हैं और पंखों में ताकत भी। लेखक या कलमकार अगर अपने को शर्तों में आबद्ध कर लेता है, तो उसकी रचनाधर्मिता उसी समय मर जाती है। उसके सृजन का प्रवाह अवरुद्ध हो जाता है। और जब भी कोई प्रवहमान जलराशि अवरुद्ध ही जाती है, तो उसमें सड़ांध पैदा होने लगती है, जो वैसे लेखकों की रचनाओं में दिखने लगता है। 

©ब्रजेंद्रनाथ

Saturday, May 8, 2021

कोरोना कनेक्शन, चीन के वुहान शहर पर आधारित उपन्यास(लेख)

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#Corona connection #Hindinovelbrajendranath











कोरोना कनेक्शन (उपन्यास)

चीन के वुहान शहर की पृष्ठभूमि पर आधारित वर्तमान परिस्थितियों को रेखांकित करता, संभवतः यह हिंदी में पहला उपन्यास है। इस उपन्यास के पात्रों के नाम तिब्बती और चीनी हैं। मैं उन नामों का परिचय अपने इस आत्मनिवेदन के अंत में दे रहा हूँ। इस उपन्यास की कहानी तीन पीढ़ियों की कहानी है।
तिब्बत को चीन द्वारा अधिकृत कर लेने के बाद एक पीढ़ी अपनी पहचान को बचाये हुए चीन में जीने की मजबूरी से गुजर रही है। दूसरी पीढ़ी चीन में प्रतिष्ठित नौकरी करते हुए भी कई ऐसी परिस्थितियों को झेलती है, जहाँ हरसमय भय और अपमान के भंवर में खोते जाने का खतरा है। तीसरी पीढ़ी कोरोना के संक्रमण काल में जैसे ही जीना शुरू करती है, चीनी सरकार के वैश्विक महामारी फैलाने के षड्यंत्रों का पता चलता है। चीन के वुहान शहर से फैले कोरोना संक्रमण के बीच पनपती प्रेम कहानी, कोविड 19 के संक्रमण, जिसकी शुरुआत 2003 में ही चीन में हो गयी थी, उसके 2020 में वैश्विक विस्तार की कहानी के बीच पनपती प्रेम कहानी के अन्तर्द्वन्द्व के बीच तिब्बत को चीन के अतिक्रमण से मुक्त कराने के लिए पनपता विद्रोह, चीन के विस्तारवादी नीतियों के परोक्ष विरोध के रूप में भी परिलक्षित होता है। उसके बाद क्या होता है...? अवश्य पढ़ें और अपने बहुमूल्य विचारों से अवगत कराएं...
पात्र:
★जिग्मे फेंग दोर्जी ( fear not Vajra) - -लड़का
वायरोलॉजी इंस्टीट्यूट में साइंटिस्ट
★ डॉ चेंग उआँग (the morning glory) - जिग्मे फेंग की प्रेमिका- अस्पताल की एक लेडी डॉक्टर।
★डॉ फैंगसुक दोर्जी - पिता, वुहान के एक अस्पताल में डॉक्टर,
★ ली जुआन (beautiful and soft) -- डॉ फैंगसुक की पत्नी और जिग्मे फेंग की माँ।
★डॉ जिग्मे फेंग - दादा , तिब्बती मूल, दलाई लामा के स्वास्थ्य सलाहकार रह चुके थे।
★डॉ शी जिंगली- विरोलॉजी इंस्टिट्यूट की डाइरेक्टर

इस उपन्यास के साथ अपकी साहित्यिक यात्रा की शुभकामनाओं के साथ:
आपका शुभेक्षु
ब्रजेन्द्रनाथ
मेरा यह उपन्यास अमेज़ॉन किंडल के दिये गए लिंक से डाउनलोड कर पढ़ा जा सकता है। आप अपने डिजिटल लाइब्रेरी में इसका संग्रह कर अवश्य पढ़ें। सैंपल डाऊनलोड कर आप देख सकते हैं। यह बिल्कुल फ्री है।
संतुष्ट होने पर इस लिंक पर जाकर पूरी पुस्तक (387 पृष्ठ) डाउनलोड कर पढ़ें और अपने बहुमूल्य विचारों से अवगत कराएं। सादर!
ब्रजेंद्रनाथ

लिंक: https://www.amazon.in/dp/B08Y64BNCQ/ref=cm_sw_r_wa_apa_8JHMVF56K296R4AJG41G
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इसी उपन्यास का अंश...

डॉ शी ने आगे कहना जारी रखा, "जिग्में, मैं जब तुमसे यह सुना रही हूँ, तो मेरा शरीर कंपित हो रहा है, मेरा गात्र  अनिर्वचनीय आंनद और दर्द की अनुभूति से भर रहा है। 

मैंने अपने लंच बॉक्स से स्लाइस्ड ब्रेड और योगर्ट के साथ एक निवाला बनाया और उसके मुँह में रखा था। वह भूखों की तरह निवाला गटकता जा रहा था। वह बोल भी रहा था, 'तुम भी खाओ। मैंने इतना स्वादिष्ट भोजन आजतक नहीं खाया। तुम्हारे हाथों से होकर मेरे हृदय और आत्मा तक उतरता जा रहा है।'

वह आंखें मूंदे हुए भोजन के हर कण का आनंद ले रहा था।

मैंने कहा था, 'बॉक्स में वही सारी खाद्य सामग्री है, जो रहा करती है। तुम्हें इतनी जोरों की भूख लगी है कि इस भोजन का हर कण तुझे स्वादिष्ट लग रहा है। इसके प्रिपरेशन में कोई खास तकनीक का इश्तेमाल नहीं किया गया है।"

'परंतु इसमें खिलाने वाले के हाथों की सुगन्ध जो घुली है। इसीलिए इसका आनंद चिरस्थाई, शाश्वत हो गया है।'

"इसका अर्थ मैं बिल्कुल नहीं समझ पायी।" मेरी इस टिप्पणी पर वह हँसा था। उसकी यह हँसी मैं पहली बार देख रही थी। मैंने जब भी उसे देखा, गंभीरता ओढ़े हुए ही देखा था। 

लड़कियों की बेवकूफी भरी टिप्पणी पर लड़कों को हँसना अच्छा लगता है। उसने मुझे बुद्धू समझते हुए समझाना शुरू किया था, “इसका सीधा अर्थ यही है कि भोजन का स्वाद तुम्हारे हाथों की सुगंध के साथ मिलकर बढ़ गया है, और मैं अगर सच कहूँ तो तुम्हारे द्वारा दिए गए हर निवाले के साथ बढ़ता चला गया है।”

“तो स्वाद भोजन सामग्री में नहीं, मेरे हाथों की सुगंध में है। फिर तो मेरे ओठों के स्वाद का आनंद और भी…  तुमने अभी क्या कहा था .. ?”

“शाश्वत और चिरस्थायी।”

“हाँ, वही होगा।”

यह सुनते ही उसका चेहरा लाल हो गया था। उसका चेहरा दमकने लगा था। वैसी दीप्ति मैंने उसके चहरे पर नहीं देखी थी। 

उसने थोड़ा संयत होते हुए कहा था, “जिस गंध का स्वाद तुम्हारे ओठों में है, क्या वह शरीर की आसक्ति नहीं है?”

मैंने तर्क दिया था, “शरीर या कहें ठोस और सूक्ष्म प्रकृति की आसक्ति के खेल से यह सारा जगत भरा है। क्या नदी, अम्बुधि की ओर मिलनातुर हो वेगवान प्रवाहित नहीं हो रही है? क्या पादपों की फुनगियाँ हवा के झोंके से झूमते हुए एक - दूसरे का स्पर्श नहीं करते हैं, एक - दूसरे को चूमते नहीं हैं? क्या उन्मत्त बादल पहाड़ों की चोटियों के उभारों पर घिर नहीं जाते हैं? क्या उन्हें अपने आगोश में लेकर रस - सिंचन नहीं करते हैं? जिसे हम जड़ प्रकृति कहते हैं, जब वही प्रेमातुर हैं, तो हम चेतन जीवों की रसास्वादन वृत्ति तो और भी अधिक है। क्या हमें उस ओर नहीं बढ़ना चाहिए?”

मेरे इस तर्क पर  वह निरुत्तर हो गया था। परन्तु वह अभी भी संतुष्ट नहीं हुआ था। वह कायल नहीं हुआ था। मैंने कुछ और तर्क जोड़ने शुरू किये, “इस जगत में जो कुछ सुन्दर है, उसका नयनों से रसपान वर्जित नहीं है। तुम भी सुन्दर पुष्पों को, रंग - बिरंगी तितलियों को फूलों पर मंडराते हुए, इंद्रधनुष के रूप में क्यूपिड (कामदेव) की खिंची हुई प्रत्यंचा को देख सकते हो। यह सब प्रेम - निमंत्रण नहीं तो और क्या है? 

उसने अपने अंदर पड़े संस्कारों को अपने विचारों में पिरोते  हुए कहा था, “जो नेत्रों से दृष्टिगत होता है, वह रक्त के आवेग का सिंचन नहीं है, रूप की अर्चना का मार्ग आलिंगन नहीं है।”

मैं उसकी दार्शनिक विवेचना के आगे मौन होती जा रही थी। उसकी वाणी में सम्मोहन था और उसके विचारों में जीवन के नए अर्थ को उद्घाटित करता हुआ दर्शन था। इसी उम्र में इतनी परिपक्वता उसने कहाँ से प्राप्त कर ली थी?

उसने एक और विचार प्रस्तुत किया, “तन के मांसल आवरण को हटाकर, जैसे ही रूप के सागर में कोई उतरना  चाहता है, उसके सारे उद्देश्य उस भ्रमर की भांति निष्फल हो जाते हैं। भ्रमर मधु - संचयन के लिए पुष्पों की कोमल पंखुड़ियों पर डेरा जमाता है। जब मधु उसके पंखों में भर जाते हैं, वह उड़ान भरना चाहता है। 

उसके  मधु - सिक्त पंख खुल नहीं पाते हैं, और अगर खुल भी जाते हैं, तो पूरी शक्ति लगाकर वह उड़ान भरता है, परंतु मधुवन का आकर्षण उसे पुनः नीचे खींच लेता है। वह इसी सांसारिक कृत्य में बंधा रह जाता है और जीवन का पाथेय विस्मृत हो जाता है।”
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आगे और भी है....



माता हमको वर दे (कविता)

 #BnmRachnaWorld #Durgamakavita #दुर्गामाँकविता माता हमको वर दे   माता हमको वर दे । नयी ऊर्जा से भर दे ।   हम हैं बालक शरण तुम्हारे, हम अ...