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अलिखित रिश्ता
कृष्णचन्द्र वैसे कवि नहीं था। परंतु दोस्तों के बीच वह तुकबंदी कर कुछ - कुछ सुना दिया करता था। लोग भी इतने बेवकूफ थे या वह उन्हें आसानी से बेवकूफ बनाने में सफल हो गया था कि वे उसे कवि समझने लगे थे। लोगों को क्या मालूम कि कविता मात्र तुकबंदी नहीं होती है। जब भावों के घनीभूत बादल शब्दों के जलकण के रूप में बरसते हैं, तभी कविता की अजस्र सरिता प्रवाहित होती है। उसके मित्र इन सभी स्थापनाओं से अनभिज्ञ होते हुए भी कृष्णचन्द्र को कवि मान बैठे थे। इसीलिए उन्होंने उसका नाम कृष्णचन्द्र से बदलकर कविकृष्ण कर दिया था।
कविकृष्ण की रुचि कविताएँ पढ़ने में थी। उसे गद्य लिखना अच्छा लगता था। उसे कथा - साहित्य का फलक अधिक पसन्द था। इसीलिए उसने कथा - साहित्य के विभिन्न आयामों को समझने के लिए हिंदी पाठकों के बहुचर्चित वेबसाइट पर "पाठकों से संवाद" धारावाहिक के द्वारा स्वातंत्र्योत्तर भारत में कथा - साहित्य के विकास और ग्रामीण पृष्ठभूमि पर लिखी प्रेमचन्द की कहानियों और रेणु की आंचलिकता पर अपने दृष्टिकोण को रख रहा था। इस संवाद के क्रम को काफी पाठकों द्वारा सराहना मिल रही थी।
एक पाठक या कहें पाठिका की टिप्पणी कविकृष्ण के "पाठकों के संवाद" के पिछले 50 (पचास) सप्ताहों से लिखे जा रहे धारावाहिक लेख पर तुरंत आ जाया करती थी। इस बार उसकी टिप्पणी जब इस सप्ताह के प्रकाशित भाग के तीसरे दिन दिन भी नहीं आयी, तो कविकृष्ण का मन विचलित हो उठा। कई आशंकाएं मन में घिरने लगी। क्या हो सकता है? कहीं उसकी तबियत तो खराब नहीं हो गयी? वह कितनी अच्छी समीक्षा लिखती थी, उसके लेखों पर।
पिछले अप्रील में जब कोविड संक्रमण के हल्के लक्षण से ग्रस्त होने के कारण दो सप्ताह तक वह अपने "पाठकों से संवाद" के क्रम को जारी नहीं रख सका था, तब उसके कितने मैसेज आ गए थे-
"आपका लेख क्यों नहीं आ रहा है? आपके लेख से मैं ऊर्जा प्राप्त कर पूरे सप्ताह मनोयोगपूर्वक अपने कार्य सम्पन्न करती हूँ। लग रहा है, कहीं कुछ दरक रहा है, जिंदगी में...कहीं अधूरेपन की आशंका घेर रही है...कहीं कुछ अदृश्य - सा, अनकहा - सा रह जा रहा है...कुछ तंतु चटक रहे हैं...बहुत खाली - खाली - सा लग रहा है...और भी बहुत सारे मैसेज कविकृष्ण ने देखे थे, जब वह स्वस्थ होकर लिखने और पढ़ने की स्थिति में आ गया था।
कविकृष्ण ने अपनी अस्वस्थता के बारे में सीधे और सहज ढंग से अपने संदेश में लिख डाला था।
उसपर उसके उत्तर से वह हतप्रभ रह गया था, "आपको पता है कि आपकी लेखनी से निकले शब्दों को जबतक मैं अंतरतम में उतार नहीं लेती, तबतक मेरा सारा अध्ययन अधूरा लगता है। आपने नए शब्दों से मेरा परिचय कराया है। मैं साहित्य में रुचि नहीं रखती थी, आपने रुचि जगा दी है। उस रुचि के अंकुर को आपने पोषण दिया है। आप इसतरह 'लेखनी का मौन' नहीं धारण कर सकते। आपको लिखना होगा...लिखते रहना होगा...जबतक मेरा लेखन परिपक्व नहीं हो जाता..."
कविकृष्ण ने लिखते रहने का निश्चय किया। उसे मैसेज कर दिया था, "मेरी लेखनी नहीं रुकेगी... "पाठकों से संवाद" का यह क्रम तबतक आगे बढ़ता रहेगा जबतक मेरी लेखनी चलती रहेगी..."
इस सप्ताह उसी की टिप्पणी नहीं आयी।
कविकृष्ण की लेखनी में थरथराहट सी होने लगी...कुछ भी आगे लिखने का मन नहीं कर रहा था...वही आशंकाएं घेरने लगी थी...अनावश्यक अनहोनी के अनकहे आख्यान अनायास मन के आकाश में मंडराने लगे थे...इनमें सबसे अधिक तबियत खराब होना, यह भी उतना बड़ा कारण नहीं लगा था...तबियत इतना खराब हो जाना कि लिखने की ऊर्जा भी नहीं बची हो...मोबाइल पर भी टंकण की स्थिति न हो...इससे उसका मन अधिक विचलित हो गया था।
कविकृष्ण ने भी दृढ़ निश्चय कर लिया था कि पिछले भाग पर जबतक उसकी कोई टिप्पणी नहीं आती है, वह आगे का भाग प्रकाशित नहीं करेगा... भले ही "पाठकों से संवाद" के इस क्रम को यहीं विराम देना पड़ जाय।
"पाठकों से संवाद" धारावाहिक में कितनी अच्छी चर्चा चल रही थी। कविकृष्ण आँचलिकता पर अपने विचार लिख रहे थे।
फणीश्वरनाथ रेणु जी की कहानी "मारे गए गुलफाम" (जिसपर सन 1966 में 'तीसरी कसम' नामक फ़िल्म भी बन चुकी थी) के परिदृश्यों पर संवाद के क्रम का यह सिलसिला आगे बढ़ रहा था। हीराबाई और हिरामन के बीच पनपता अलिखित प्रेम कितना जीवंत हो उठा था...हिरामन की पीठ में उठती गुदगुदी से आरंभ होती कहानी...हीराबाई का मीता कहने का आग्रह और हिरामन के मुँह से एक शब्द निकलना ...'इस्स'...आँचलिकता पर यह विवेचन रेणु के "मैला आँचल" उपन्यास तक पहुँचने ही वाला था कि उसकी टिप्पणी के नहीं आने से "संवाद की धारा" अवरुद्ध होती - सी लगी थी...
इस सप्ताह के भाग के प्रकाशन के चौथे दिन उसका मेसेज आया था,
"मेरा मोबाइल हैंग हो गया था...मैं न कुछ पढ़ पा रही थी, न लिख पा रही थी...उसके बाद मोबाइल डिस्चार्ज हो गया...रिपेयर के लिए देना पड़ा...उसका चार्जिंग पोर्ट खराब हो गया था...अभी ठीक है...मैंने आज ही आपके लेख पर टिप्पणी लिखी है...
आप आँचलिकता पर अपनी विवेचना जारी रखें...मैं ऊर्जस्वित हूँ...हर्षित हूँ...सादर!"
कविकृष्ण के अंतर्मन में उठ रहीं सारी आशंकाओं की विपरीत दिशाओं पर विराम लग गया था।
कविकृष्ण "पाठकों से संवाद" के आगे के क्रम को बढ़ाने के पहले अपनी उद्विग्नता के बारे में सोचने लगा...कोई बंधन या अनुबंध तो है नहीं, फिर मात्र टिप्पणी नहीं आने से वह चिंतित क्यों हो गया?...कुछ तो रेशे हैं जो अदृश्य होते हुए भी बाँधने लगते हैं...
उसे जब कुछ नहीं लिखने का मन होता है तो वह एफ एम के रेडियो चैनल पर गाने सुनने लगता है...उसने एफ एम रेडियो चालू कर लिया था...एक गीत आ रहा था..
"हमने देखी है इन आँखों की महकती खुशबू,
हाथ से छू के इसे रिश्तों का इल्जाम न दो।
सिर्फ अहसास है ये, रूह से महसूस करो,
प्यार को प्यार ही रहने दो कोई नाम न दो।"
कविकृष्ण ने लिखना शुरू किया 'पाठकों से संवाद' लेकिन लिख गया...
"अलिखित रिश्ते को अघोषित ही रहने दो..."
©ब्रजेंद्रनाथ
10 comments:
बहुत सुंदर भाव व्यक्त करती लघुकथा। कुछ रिश्ते बेनामी और अलिखित ही होते है।
प्रिय रवींद्र जी, आपने मेरी इस रचना को चर्चा मंच में सम्मिलित किया है, इसके लिए आपक आभार व्यक्त करता हूँ। सादर!--ब्रजेंद्रनाथ
आदरणीया ज्योति जी,नमस्ते👏! आपकी सराहना के शब्द मुझे सृजन के लिए प्रेरित करते रहेंगे। सादर आभार!--ब्रजेंद्रनाथ
बहुत सुंदर
आदरणीय ओंकार जी, आपके सराहना के शब्दों से अभिभूत हूँ। हृदय तल से आभार!--ब्रजेंद्रनाथ
सुन्दर लेखन
आदरणीय सुशील कुमार जोशी जी, 👏नमस्ते! आपके सकारात्मक अनुमोदन से अभिभूत हूँ। हार्दिक आभार!--ब्रजेंद्रनाथ
मानव का मन कल्पनाओं के जाल बुनने में दक्ष है, फिर स्वयं ही उसमें फँस जाता है
आदरणीया अनिता जी, आपकी टिप्पणी में मेरी रचना में मानव मन की स्थितियों के बारे में विवेचना के बारे में कथन सहज और सार्थक है। आपका हॄदय तल से आभार!--ब्रजेंद्रनाथ
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