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दवाई
हालाँकि बारिश की रफ़्तार थोड़ी कम हो गयी थी, इसीलिये मैंने बूढ़े बाबा को मेन. रोड से अपनी कार मोड़ने के पहले उतार कर कहा था, "बाबा ठीक से घर तो पहुँच जाओगे,…" ,
'हाँ बाबू, तूने इस बारिश में मेरे लिए इतना कर दिया यही काफी है। अब ये दवाई मेरी पोती की जान जरूर बचा लेगी ।"
मैं घर पहुंच कर भी थोड़ा अन्यमन्यस्क सा था। पत्नी ने देखते ही समझ लिया था कि जरूर कोई गंभीर समस्या से परेशान हो रहे हैं। पतियों के चेहरे के भाव पढ़कर ही पत्नियां अक्सर उनकी परेशानियों से खुद को परेशान करने लगती हैं। मेरे साथ अक्सर ऐसा होता है।
इस परेशानी की ज्यादा बात नहीं करते हुए मैंने कहा , “अरे भई , वारिश में आया हूँ , गरमा- गरम चाय का तलबगार हूँ, और आप पूछ भी नहीं रही हैं." मैंने हंसकर कहा तो पत्नी मान गयी और चाय की तैयारी में लग गयी. लेकिन मैं बड़ी सफाई से अपनी परेशानी को छुपाने में सफल रहा था।
मैंने जैसे - तैसे चाय ख़त्म की. कार बाहर ही खड़ी थी। कार को मोड़कर मैं फिर मेन रोड के तरफ चल पड़ा जहाँ पर आते समय मैंने बूढ़े बाबा को छोड़ा था ।
ड्राइव करते हुए आज की सारी घटनाएँ घूम रही थी।
मुझे कारखाने से निकलते - निकलते रात के नौ बज गए थे। पिछले दो दिनों की लगातार वारिश के कारण कारखाने में जगह - जगह जल जमाव को ठीक करना जरूरी था ताकि उसके कारण कररखाने में कच्चे माल की सप्लाई में कोई बाधा न हो। साथ ही रात भर बिना ब्रेकडाउन के कारखाना चलता रहे और मैं आज की रात अच्छी नींद ले सकूँ।
बारिश के दिनों में पहाड़ियों से घिरे इस शहर का सौंदर्य दुगना हो जाता है। हरियाली की चादर ओढ़े पहाड़ और उसपर झुके हुए बादल जैसे किसी नयी - नवेली दुल्हन को आगोश में लिए हुए हों। प्रकृति का यह संवरा - निखरा रूप किसी भी प्रकृति प्रेमी को भाव - विह्वल किये बिना नहीं रह सकता । किन्तु जब यही बारिश लगातार कई दिनों तक होती रहे तो पहाड़ काल से प्रतीत होते हैं।
आज भी ऐसा ही हुआ। रात की नौ बजे मैं जैसे ही कारखाने के गेट से बाहर निकला कि काले बादलों से आकाश भर उठा था। जोर की बारिश के संकेत आने लगे थे। जैसे - जैसे मैं घर के तरफ बढ़ने लगा, अचानक तेज बौछारें शुरू हो गयी, तेज हवाएँ भी साथ आ रही थी, तूफानी मंजर था, पेड़ झूम रहे थे और कार पर लगातार पड़ती तेज बूंदों को वाइपर से किसी तरह काटते हुए हेड - लाइट के प्रकाश में मैं धीरे - धीरे बढ़ रहा था।
मैं एक दो किलोमीटर ही आगे बढ़ा था कि मैंने देखा सारी दुकाने बंद हो चुकी थी। कुछ दवा की दुकाने खुली थी। उनकी अपनी प्रकाश व्यवस्था के कारण प्रकाश नजर आ रहा था। इतने में अचानक बीच सड़क पर हेड लाइट के प्रकाश में एक व्यक्ति दिखाई दिया। कार के नजदीक पहुचने पर मैंने देखा कि वह अपनी धोती आधी ऊपर उठाये, टूटे हुए छाते जिसकी कमानी लगता है इस आँधी तूफ़ान में टेढ़ी हो गयी थी और उसपर चढ़ा कपड़ा तार - तार हो गया था, किसी तरह बाहों और छाती के बीच समेटे बीच सड़क पर चला जा रहा था। मैं बिलकुल नजदीक साइड में कार करके अचानक कार रोकी, शीशे को थोड़ा नीचे करके जोर से आवाज दी, " बीच सड़क पर क्यों चल रहे हो ? इस तेज बरसात में किसी गाड़ी से कुचलकर जान देने का इरादा है क्या?"
उस व्यक्ति ने मेरी आवाज सुनकर जब अपनी गर्दन घुमाई तो मैंने देखा कि सत्तर वर्ष के आसपास का एक बूढा आदमी अपने चश्मे पर पड़ी बूंदो को, उन्हें पहने हुए ही हाथ से साफकर बोला, "माफ़ करना बाबू ! पानी चारो तरफ इतना भरा है कि सड़क का कहीं पता ही नहीं चल रहा है।
फिर वह मन - ही - मन बुदबुदाने लगा, " नहीं बचेगी, लगता है नहीं बचेगी। ……"
मैंने फिर शीशा नीचे किया और पूछा, "क्या हुआ? क्या बुदबुदा रहे हो बाबा ?"
" बाबू यह दवा नहीं मिली तो वह नहीं बचेगी.."
फिर पता नहीं क्यों मेरे भीतर से एक आवाज आई और उसे मैंने कार के अंदर आ जाने को कहा, कार की सीट पर मैंने आफिस के पुराने कुछ पेपर और पुराने अख़बार के टुकड़े बिछा दिए ताकि सीट अधिक गीला न हो जाय ," बाबा कार के अंदर आ जाओ। "
कुछ झिझकते हुए बूढ़े बाबा अंदर आ गए। वारिश अभी भी उसी गति से लगातार जारी थी। सड़क पर घुटना भर पानी जमा हो गया था। इस स्थिति में कार ड्राइव करना मुश्किल हो रहा था।
चार या पांच मीटर से आगे कुछ नजर नहीं आ रहा था। पहाड़ो पर लगातार वारिश की विकरालता का सिर्फ अनुमान लगाया जा सकता था। बौछारों का जोर और कार के शीशे पर पड़ने वाली बूंदों का शोर दोनों ही इस तूफानी रात का साथ दे रहे थे।
"बाबा क्या हुआ ? आप बुदबुदा रहे थे..., नहीं बचेगी , नहीं बचेगी। " मैंने अपनी उत्सुकता जताई थी ।
"बाबू क्या आप मेरी मदद करोगे? " उसके सवाल में अनुरोध और निराशा - मिश्रित जवाब की तैयारी दोनों ही दिखाई दे रहे थे।
"जरूर , आप बोलो तो सही... ।" मैं उसकी कातर नेत्रों से झांकते मदद के लिए मौन निमंत्रण को ठुकरा नहीं सका।
"मैं अपनी पोती के लिए दवा लेने निकला था। शाम को डाक्टर को दिखाया था। उसने कहा था कि क़फ़ बहुत ज्यादा है। जल्दी से यह दवा लेकर दीजिये नहीं तो रात में अगर साँस लेने में दिक्कत बढ़ गयी तो जान भी जा सकती है।" बाबा एक ही साँस में बोल गए थे।
मैंने पूछा " कोई दूकान में दवा नहीं मिली क्या? "
"बहुत सारी दुकानें बंद मिली। अब मैं कहाँ से दवा लाऊँ ?" उनकी आवाज थरथरा रही थी।
मेरा मन द्रवित हुए बिना नहीं रहा। मैंने ठान लिया कि कम – से - कम दवा खरीदने में तो इनकी जरूर मदद करूंगा।
मैंने कार मोड़ दी। मैं जानता था कि ऐसे मौसम में दो ही जगह दवा मिल सकती थी. एक गुरु नानक देव क्लिनिक के दवा काउंटर पर और दूसरे स्माइल लाइन मेडिकल में। क्लीनिक नजदीक होने के कारण मै उसी तरफ कार मोड़ कर बढ़ता गया।
" कहाँ रहते हो बाबा?" मैंने बाबा के अंदर चल रहे विचारों की हलचल के मौन को तोड़ते हुए पूछा था।
" बस 'नीहारिका' टावर कैंपस के बगल से जो रोड नीचे के तरफ बस्ती में गयी है उसी में रहता हूँ। "
बाबा ने कहा था।
"घर में और कौन - कौन है?"
मेरे यह पूछने पर जब बाबा ने कहा कि चार वर्ष पहले ठेका मजदूर के रूप में काम करते हुए दुर्घटना में उसके बेटे की मौत हो गयी और पिछले साल कोरोना में उसकी पत्नी भी चल बसी, तो इस सवाल के पूछने पर मुझे खुद को कोसने का मन कर रहा था.
फिर बाबा चुप हो गए। उनके अंदर की और बाहर की बारिश दोनों में थोड़ा ठहराव जैसा लग रहा था। क्लीनिक नजदीक आ गया था। मैंने वहीं पर गाड़ी रोकी। बाबा के साथ जाकर काउंटर पर दवा ली। सारी दवाईयां और डाक्टर का लिखा पुर्जा एक गुलाबी रंग की पॉलिथीन की थैली में डालकर बाबा के साथ आकर गाड़ी में बैठ गया।
चलो बाबा मैं भी 'नीहारिका' टावर कैंपस के तरफ ही जा रहा हूँ। आगे तक छोड़ देता हूँ।
" बाबा आपकी पोती बिलकुल ठीक हो जाएगी, आप निश्चिंत हो जाईये , बहादुर बच्ची है। ठीक हो जाएगी। "
मैंने उन्हें ढाढ़स बंधाते हुए कहा था।
वारिश की रफ़्तार थोड़ी कम होने के कारण मैं गाड़ी तेजी से चला रहा था। निहारिका टावर से एक मोड़ पहले मैंने कार रोक दी। यहाँ से मुड़कर मैं अपने घर की ओर जल्दी पहुँचना चाह रहा था।
"बाबा, यहाँ से तो चले जाओगे न।"
"हाँ बाबू यहाँ से तो बिलकुल नजदीक है, अब मेरी पोती को कुछ नहीं होगा। वह बच जायेगी।"
बाबा के आँखों में विश्वास देखकर मुझे भी उनके उतर कर जाने के अनुरोध को बेमन से ही स्वीकार करना पड़ा।
" बाबा, सुबह मैं आऊंगा पूछने कि बिटिया कैसी है ?"
"बाबू मैं मोड़पर वाली चाय की दूकान पर ही सुबह मिल जाऊंगा। वहीं मैं आपको खबर दे दूंगा।"
बाबा आगे बढ़ गए। तब मैं अपनी कार मोड़कर घर की ओर चल दिया था।
घर पर पहुँच कर जब मुझे चाय पीने के बाद भी अच्छा नहीं लगा तो मैं कार लेकर फिर उसी जगह पर पंहुचा जहाँ मैंने बाबा को छोड़ा था। रात के करीब साढ़े दस बज रहे थे सड़क सुनसान थी। मैंने कार जैसे ही आगे बढ़ायी कार के हेडलाइट की रोशनी में एक पिंक कलर का पॉलिथीन गिरा हुआ दिखाई दिया। मेरा मन अनिष्ट आशंका से काँप उठा। कार की हेडलाइट मैंने ऑन कर रखी थी। कार वहीं रोककर पैदल आगे बढ़ा तो सामने गटर का ढक्कन खुला था। गटर के बगल में एक चप्पल पडी थी। और सामने वही पिंक कलर का पॉलिथीन पड़ा था जिसमें अभी - अभी बाबा के साथ जाकर मैंने दवाईयां दिलवायी थी।
मैंने कांपते हाथों से पालीथीन उठाया था और बाबा के बताये हुए बस्ती की गली में उनके मकान को याद करने लगा। जल्दी से गाड़ी स्टार्ट की और गली के मोड़ पर टीम - टीम लाइट की गुमटी की और बढ़ कर बाबा, पूर्णो बाबा हाँ, यही नाम था उनका, मकान पूछा था।
"यहाँ से तीसरा मकान जो खपड़ैल का है, वही है उनका मकान, अभी तो थोड़ी देर पहले दवा लाने निकले हैं, लगता है लौटे भी नहीं हैं।"
बस्ती में हर आदमी को हर आदमी की खबर होती है, खासकर जब कोई बच्चा या बच्ची बीमार हो तो अवश्य होती है।
मैंने तीसरे खपड़ैल के मकान में कुण्डी खटखटाई। दरवाजा एक वृद्धा ने खोला था। अपने कांपते हांथों से "दवाई है " कहकर दवा देते ही जल्दी से वहां से लौट गया, अपने को लगभग बचाते हुए ताकि कोई यह न पूछ दे कि बाबा कहाँ रह गए? इस सवाल का मैं क्या जवाब देता?
मैं घर पहुंच कर रात में सोते हुए भी जागते रहा। लोकल न्यूज़ चैनल में खबर आ रही थी, " सुरेखा नदी में जलस्तर बढ़ जाने के कारण नदी के किनारे के रिहायसी क्षेत्रों में बाढ़ जैसी स्थिति पैदा हो गयी है। नदी का जलस्तर स्लूस गेट से ऊपर आ जाने के कारण इसे बंद कर दिया गया है। स्लूस गेट बंद किये जाने से शहर के नाले का पानी भी नहीं निकल रहा है...... इसीलिये शहर के निचले इलाके में भी जल जमाव बढ़ गया है।"
दूसरे दिन शाम को खबर आई की जलस्तर कम हो रहा है और बाढ़ का खतरा टल गया है। इसमें वारिश के थम जाने से अधिक प्रशासन की मुस्तैदी का हाथ था।
तीसरे दिन सुबह के अखबार के तीसरे पन्ने पर जिसमें शहर की सारी अप्रमुख और महत्वहीन खबरे होती हैं ... लिखा था, " निचले इलाके में नाले के मुहाने पर वाले स्लूस गेट के खोलने पर एक सड़ी हुयी लाश मिली है। लगता है दो दिन पहले नीचे के इलाके में पानी घुसने के कारण यह मौत हुयी होगी।“
यह खबर फिर कहीं दब गयी कि खुला हुआ गटर एक और जान लील गया।
©ब्रजेन्द्र नाथ
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12 comments:
बहुत प्रभावशाली अभिव्यक्ति मान्यवर!!!!
मार्मिक कहानी
आदरणीय ओंकार जी, नमस्ते 🙏❗️आपने जिन शब्दों में इस कहानी की सराहना की है, वैसा बहुत कम लोग कर पाते हैं. आपका ह्रदय तल से आभार!
आदरणीय अनीता जी, नमस्ते 🙏! मेरी इस कहानी पर उत्साहवर्धक उदगार व्यक्त करने के लिए ह्रदय तल से आभार! सादर!
जी नमस्ते ,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा आज शनिवार(०९-०७ -२०२२ ) को "ग़ज़ल लिखने के सलीके" (चर्चा-अंक-४४८५) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
आदरणीया अनीता सैनी जी,नमस्ते 🙏❗️ मेरी इस रचना को शनिवार 09/07के चर्चा अंक में शामिल करने के लिए हार्दिक आभार!--ब्रजेन्द्र नाथ
बेहतरीन कहानी
आदरणीया रंजू भाटिया जी, नमस्ते 🙏❗️ मेरी कहानी की सराहना में व्यक्त आपके शब्द मेरे लिए पुरस्कार की तरह हैं. ह्रदय तल से आभार!
सादर नमस्कार सर।
कहानी पढ़ते-पढ़ते आँखें नम हो गई। क्या कहूँ मार्मिक, हृदयस्पर्श बस मेरा कर्तव्य पूर्ण हुआ। एक जीवन कोई महत्व नहीं रखता हमारे भारत में और अगर बह गरीब है तो बिलकुल भी नहीं।
सच कहा आपने हल्की बरसात हुई नहीं कि पानी सड़को पर उतर आता है नाले टूट जाते हैं। प्रशासन कुछ समय के लिए आँखें खोलता है फिर बंद कर लेता है एक व्यक्ति कमाए कि आवाज़ उठाये। नम विचलित हो गया न जाने कितनी ज़िंदगियाँ अभावो से जूझती हैं।
हार्दिक आभार आप एक वृद्ध की आवाज़ बने।
सराहनीय।
सादर
आदरणीया अनीता जी, नमस्ते 🙏❗️मेरी इस कहानी पर आपकी संवेदनात्मक समीक्षा से अभिभूत हूँ. यह कहानी सत्य घटना से प्रेरित है.गटर का मैनहोल खुला रहने से न जाने कितनी जाने गईं है.इसे इस कहानी में रेखांकित करने की कोशिश की गयी है.आपका सहृदय आभार!
अच्छी जानकारी !! आपकी अगली पोस्ट का इंतजार नहीं कर सकता!
greetings from malaysia
let's be friend
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