माँ याद बहुत आती हो
मैं छोटा था,
सुबह सवेरे नींद में
लेटा रहता था,
तू तभी उठ
जाती थी,
मुझे भी जगाती
थी,
गहरी नींद से
उठाती थी,
माँ, तब मुझको
नहीं सुहाती थी.
मुझे स्कूल भेजकर
,
खुद काम में
लग जाती थी,
घर की साफ
- सफाई कर ,
खाना तैयार कर,
मेरे इंतज़ार में लग
जाती थी।
मैं स्कूल से आता
था ,
लाख हिदायतें देती तुम,
पर मैं कुछ
नहीं सुन पाता
था,
जूते कहीं, मौजे कहीं,
पैंट - शर्ट कहीं
और बैग कहीं
फेंकता जाता था।
पर तभी मुझे
खिलाने को
नयी - ताजी सब्जियां,
दही और दाल
भात
स्वाद से भरे
नए - नए
ब्यंजन पकाती थी,
मुझे खिलाती थी
बिजली पंखा ऊपर
चलता रहता था,
फिर भी आँचल
से हवा किये
तुम जाती थी
तू, मुझे बहुत
ही भाती थी।
मैं जब बड़ा
हुआ,
दूसरे शहर के कॉलेज
में
हुआ एडमिशन मेरा,
पहली बार गया दूसरे बड़े शहर
में।
तू स्टेशन तक मुझे
छोड़ने आयी थी,
आँख तेरी भर
आयी थी,
तू आंसुओं को छुपाये ,
देती रही मुझे
हिदायतें,
नए शहर में,
रहने के बारे
में,
गाड़ी में बैठ
गया मैं,
फिर भी तेरी
हिदायतों की फेहरिश्त
लम्बी होती जाती
थी।
तब तू बिलकुल
नहीं भायी थी।
गाड़ी छूटी , हाथ तेरे
हवा में लहराये
थे
काफी देर तक
गाड़ी के जाने के
बाद भी
हाथ तेरे हवा
में लहराते ही
जाते थे।
तू खाली हो
चली , अनमनी सी,
घर को सूना
पायी थी
तुझसे ये सब
सुनकर,
आँख मेरी भर
आई थी,
माँ, तू
याद बहुत आयी
थी,
माँ , तू कितना
मुझे भायी थी।
एक दिन भी
मेरा फ़ोन नहीं
आने से,
तू कितनी अशान्त हो
जाती थी ,
तू कितने अरमान लिए,
अपने सपनो को
कुर्बान किये,
मुझमें अपने ख्वाबों
को संवरा देखना,
अपने
रीते जीवन का भरा - भरा सा देखना,
मैं
तब समझ नहीं पाया था,
मैं उन भावों
में बह नहीं
पाया था।
मैं तो पढता
रहा,
संवेगो को तर्कों
पर गढ़ता रहा,
तुझे मैं तबतक
समझ नहीं पाया।
कैरियर बनाने की आपा
- धापी में,
ऊंची शिक्षा के उड़ान
में,
जीवन के उस
तेज दौड़ में,
सपने जगाये मन - प्राण
में.
तुझे मैं समझ
नहीं पाया,
पेशेवर शिक्षा के तेज
प्रकाश में
भाव सभी खाली
पाया।
जीवन के उसी
दौर में ,
जीने के अंतर्द्वंदों
में,
कब मिली मुझे
वो, कुछ याद
नहीं,
लगा अपना जीवन
पा गया,
उद्वेलित,
उत्कंठित प्रवाह में
थाह पा गया।
सब कुछ इतना
तेज घटा,
माँ को कुछ
बतला न सका,
उन्हें कुछ भी
जतला न सका।
एक अंतराल - सा खींच
गया।
माँ के फ़ोन का भी
कभी - कभी जवाब नहीं दे पाता था।
या फिर छोटे
हाँ - ना में
,
फ़ोन पर बातें
होने लगी थी।
कुछ था ऐसा
जो निःशब्द हो
चला,
मेरे और माँ के बीच,
रिश्तों का मौन
रहा अब खिंचा - खिंचा।
यह मौन नहीं
सह पायी वह,
जीवन नहीं जी
पायी वह।
एक दिन अचानक
मौन मुखर हो
गया,
माँ का शरीर
प्रकाश एक प्रखर
हो गया।
पड़ोस की आंटी से
जब पता चला
'बेटे, तेरे माँ
के आँचल का कोर
हमेशा नम रहता था,
तेरे बचपन में जिसमे
दूध भरा रहता था,
उसमें अब खारापन
अधिक,
मिठास तो कम रहता
था।
तूने उसके जीवन
को ब्यथित कर दिया,
जीवन जिसने जिया
तेरे लिए,
उसे उल्लास से रहित
कर दिया।'
माँ तूने अपनी
विवशताओं को विराम
दे दिया ,
पर मेरा जीवन अवसाद
के बादल सा ,
उठता - गिरता रहता
मानो पागल - सा।
तू अभी शक्ल ले
एक फरीस्ते का ,
हाथ उठाये दुआ देती
ही रहती है,
तेरी उन्ही दुआओं
का स्पर्श लिए
जिए जा रहा हूँ,
सीने से लगाये अपने
नौनिहाल को,
आंसू का खारापन
पिए जा रहा हूँ।
तू बहती है
मेरी सांसों में
,
तू बसती है
मेरी आसों में
,
तू यहीं कहीं
है दुआ लिए,
मेरी नाव क़ी
पतवार थाम,
झंझावातों
से निकाल कर
हांथो में मेरे
कमान तुम थमा
दिए।
मेरे दिल में,
मन में,
तन में, जीवन
में
तू प्रेम- सुधा बरसाती
हो,
वात्सल्य
तेरा करता है,
जीवन मेरा ओत
- प्रोत,
तू शिराओं में स्नेह
- अमृत बहाती हो,
माँ , याद बहुत
आती हो,
माँ , अब
और मुझे भाती
हो,
माँ , और मुझे
भाती हो।
--ब्रजेंद्र नाथ मिश्र
जमशेदपुर
--ब्रजेंद्र नाथ मिश्र
जमशेदपुर
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