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Thursday, October 26, 2017

डिवाईडर पर कॉलेज जंक्शन (उपन्यास की कहानी की एक झलक)

#novel#youth
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मेरी प्रकाशनाधीन पुस्तक " डिवाईडर पर कॉलेज जंक्शन" की प्रस्तावना के कुछ अंश प्रस्तुत हैं:


मनस्वीनुमा मनसाईन बतियाँ

  यह उपन्यास चौबीस अध्यायों में अपना फैलाव लिए हुए है। जिंदगी भी तो हर रोज चौबीस घंटों में पल - पल सिमटती हुई, क्षण - क्षण में खनकती हुई सुगन्धित, पुष्पित, फलित होती है। कोई इसे छककर काटता है और किसी से काटे नहीं कटती।
वैसे पूरी कथा एक डिग्री कॉलेज से सम्बन्ध रखती है। पृष्ठभूमि में 70 का दशक, कहानी का कालखण्ड है लेकिन रैंडम मेमोरी पर आज की ही रची बसी, गुँथी, सुलझी, उलझी तंतुओं में गढ़ी लगती है। इसका नायक पुष्प शायद संशयग्रत हो सोच रहा है:

यह कौन बैठा नदी की तीर पर,
निश्चेष्ट, निश्चल देखता जल - प्रवाह।
टूटना, बिला जाना, तट से मृतिका - कणों का,
और डूब जाना पत्थरों का अतल - जल में।

पत्थर बने जो करते अलंकृत
स्वयं को मिथ्या अहमन्यता से।
वे ही कहीं तो डूबते नहीं
प्रवाहमान जल के अतल - तल में?

परन्तु अपने उस अभिमान में
हिंसा का तांडव किया करते हैं वे।
उससे विगलित समाज के तन्तु को,
किस तरह, झकझोर, तोड़ फेंकते अनल में।

ऐसे तत्व भी (या) ही इतिहास में स्थान पाते,
झोंक जन को और जग को।
एक भीषण युद्ध की विभीषिका में,
मानवता जहां मृत्यु – शवों को ढूढती विकल हो।

हिंसा का प्रत्युत्तर न दे,
चुपचाप रहकर सहे जाना।
उदारता, सदाशयता का ओढ़ आवरण,
क्लैब्य-दोष-मण्डित कर लेना नहीं तो और क्या है?

इन्हीं सवालों का जवाब ढूढने को मजबूर करता यह कथानक पुस्तक रूप में पाठकों के सामने खुला पड़ा है। कथ्य में हास्य - ब्यंग्य का पुट भी है। इसलिए ऊपर दी गई, सोचने को विवश करती पक्तियों को मस्तिष्क के पिछले हिस्से में रखकर पढ़े और कथा प्रवाह का आनंद लें।
                                     
                                                      --ब्रजेंद्र नाथ मिश्र
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POSTED ON FB GROUP "FRIENDS WHO LIKE HIND YUGM PUBLICATION " ON 01-11-2017
आज फिर मैं अपने प्रकाशनाधीन उपन्यास "डिवाईडर पर कॉलेज जंक्शन" में उल्लिखित एक प्रसंग से आप सबों को रुबरु कर रहा हूं:

हिन्दी विभाग के विभागाध्यक्ष थे, सीताराम प्रभाष । प्रभाष उनका तखल्लुस या उपनाम था।  वे जब भी किसी वर्ग में  ब्याख्यान देने जाते तो विद्यर्थियों की उपस्थिति  लेने के बाद अपनी कोई ताजी या पुरानी कविता जरूर सुनाते। लोग कहते थे कि प्रभाष जी अच्छे कवि थे।  इतने अच्छे कवि थे कि  उनकी कविता बहुत कम लोगों को समझ में आती थी।  उन्हें कवि सम्मेलनों के आयोजक बुलाना चाहते थे।  कोई - कोई आयोजकों ने उन्हें बुलाया भी।  लेकिन जब वे कविता सुनाने लगते तो श्रोताओं की समझ से ऊपर - ऊपर गुजर जाने के कारण वे हूट कर दिए  जाते। इसके बाद आयोजन में आये अन्य कवियों की कविताएँ सुनने का श्रोताओं का  मूड खराब हो जाता।  इसलिए आयोजक  कवि - सम्मलेन की सफलता सुनिश्चित करने के लिए प्रभाष जी को बुलाने  से  परहेज करने लगे।  अगर किसी आयोजक को प्रभाष जी को बुलाना आयोजन के लिए मजबूरी होती तो उन्हें बोलने का और कविता - पाठ करने का  अवसर अंत में दिया जाता ताकि उनके हूट हो जाने पर अन्य कवियों की प्रस्तुति  प्रभावित न हों।  जाहिर है, अंत में टेंट और लाइट या पेट्रोमैक्स वाले ही उनकी गूढ़ विषयों पर लिखी गई रहस्यवादी  कविताओं का रसास्वादन के लिए बचे रहते थे।

             यही हाल उनकी कविताओं के प्रकाशन के सम्बन्ध में भी कही जा सकती है।  बहुत से प्रकाशकों को उनकी कविताएँ समझ में नहीं आती थी।  इसलिए वे उनकी रचनाओं को खेद सहित वापस कर दिया करते थे।  एक ही जगह से उनकी कविताएँ कभी वापस नहीं हुईं।  वो जगह थी कॉलेज मैगज़ीन।  हर वर्ष कॉलेज मैगज़ीन जिसका नाम "अभियान" था, छपती थी। इसके संपादक तो बाल्मीकि प्रसाद जी थे, लेकिन संपादक मंडल में  प्रभाष जी थे, इसीलिये उनकी कविताएँ छापने की मजबूरी थी।
            लेकिन इसी मजबूरी  से बाल्मीकि प्रसाद अपना काम निकालने में अक्सर प्रभाष जी का इस्तेमाल करते थे। बाल्मीकि प्रसाद लेट - फेट भी कॉलेज आते या बिना सूचना के अनुपस्थित रहते तो प्रभाष जी कोई अनुशासनात्मक कार्रवाई करने  से हिचकते। उन्हें मैगज़ीन में अपनी कविताएँ जो छपवानी थी।  वे तो चाहते थे साल में जो अंक कॉलेज मैगज़ीन का निकलता था उसमें सिर्फ उनकी अप्रकाशित कविताओं का विशेषांक ही निकले।  परन्तु कॉलेज की प्रशासनात्मक सभा के पत्रिका निकालने के कुछ दिशा - निर्देश दिए गए थे जिनका पालन आवश्यक था।  इसलिए प्रभाष जी की एक या दो कविताओं को ही उसमें स्थान मिलता था।
            अब ऐसे कवि को जिसे न कवि - सम्मेलनों के आयोजक कविताएँ सुनाने के लिए बुलाते और न कोई प्रकाशक ही प्रकाशन के लायक समझता,  उसके लिए विद्यर्थियों के ब्याख्यान लेने के समय अपनी कविता सुनाने के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं बचा था। विद्यार्थियों को हिन्दी विषय के बर्ग की ब्याख्यान माला में उपस्थिति का न्यूनतम प्रतिशत अनिवार्य था।  इसलिए  वे सभी  प्रभाष जी की दुरूह, अबोधगम्य  और सर के ऊपर से निकल जाने वाली कविताओं को सुनने के लिए मजबूर थे।

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2 comments:

citra said...

आप बहुत अच्छा लिखते हैं। मैं तो थोड़ा बहुत लिख पाती हूँ।

Lalita Mishra said...

Is upanyaas ki kahani jaise badhati deekh rahi hai, usase lagta hai ki upanyaas rochak aur pathaneey hoga.

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