#BnmRachnaWorld
#Corona connection #Hindinovelbrajendranath
कोरोना कनेक्शन (उपन्यास)
चीन के वुहान शहर की  पृष्ठभूमि पर आधारित वर्तमान परिस्थितियों को रेखांकित करता, संभवतः यह हिंदी में पहला उपन्यास है। इस उपन्यास के पात्रों के नाम तिब्बती और चीनी हैं। मैं उन नामों का परिचय अपने इस आत्मनिवेदन के अंत में दे रहा हूँ। इस उपन्यास की कहानी तीन पीढ़ियों की कहानी है।
 तिब्बत को चीन द्वारा अधिकृत कर लेने के बाद एक पीढ़ी अपनी पहचान को बचाये हुए चीन में जीने की मजबूरी से गुजर रही  है। दूसरी पीढ़ी चीन में प्रतिष्ठित नौकरी करते हुए भी कई ऐसी परिस्थितियों को झेलती है, जहाँ हरसमय भय और अपमान के भंवर में खोते जाने का खतरा है। तीसरी पीढ़ी कोरोना के संक्रमण काल में जैसे ही जीना शुरू करती है, चीनी सरकार के वैश्विक महामारी फैलाने के षड्यंत्रों का पता चलता है। चीन के वुहान शहर से फैले कोरोना संक्रमण के बीच पनपती प्रेम कहानी, कोविड 19 के संक्रमण, जिसकी शुरुआत 2003 में ही चीन में हो गयी थी, उसके 2020 में वैश्विक विस्तार की कहानी के बीच पनपती प्रेम कहानी के अन्तर्द्वन्द्व के बीच तिब्बत को चीन के अतिक्रमण से मुक्त कराने के लिए पनपता विद्रोह, चीन के विस्तारवादी नीतियों के परोक्ष विरोध के रूप में भी परिलक्षित होता है। उसके बाद क्या होता है...? अवश्य पढ़ें और अपने बहुमूल्य विचारों से अवगत कराएं...
पात्र: 
★जिग्मे फेंग दोर्जी ( fear not Vajra) - -लड़का
वायरोलॉजी इंस्टीट्यूट में साइंटिस्ट
★ डॉ चेंग उआँग (the morning glory) - जिग्मे फेंग  की प्रेमिका- अस्पताल की एक  लेडी डॉक्टर।
★डॉ फैंगसुक दोर्जी - पिता, वुहान के एक अस्पताल में डॉक्टर,
★ ली जुआन (beautiful and soft) -- डॉ फैंगसुक की पत्नी और जिग्मे फेंग की माँ।
★डॉ जिग्मे फेंग - दादा , तिब्बती मूल, दलाई लामा के स्वास्थ्य सलाहकार रह चुके थे।
★डॉ शी जिंगली- विरोलॉजी इंस्टिट्यूट की डाइरेक्टर
इस उपन्यास के साथ अपकी साहित्यिक यात्रा की शुभकामनाओं के साथ:
आपका शुभेक्षु
ब्रजेन्द्रनाथ
मेरा यह उपन्यास अमेज़ॉन किंडल के दिये गए लिंक से डाउनलोड कर पढ़ा जा सकता है। आप अपने डिजिटल लाइब्रेरी में इसका संग्रह कर अवश्य पढ़ें। सैंपल डाऊनलोड कर आप देख सकते हैं। यह बिल्कुल फ्री है। 
संतुष्ट होने पर इस लिंक पर जाकर पूरी पुस्तक (387 पृष्ठ) डाउनलोड कर पढ़ें और अपने बहुमूल्य विचारों से अवगत कराएं। सादर!
ब्रजेंद्रनाथ
लिंक: https://www.amazon.in/dp/B08Y64BNCQ/ref=cm_sw_r_wa_apa_8JHMVF56K296R4AJG41G
या: 
Sortened link: amzn.to/3bXev3S
इसी उपन्यास का अंश...
डॉ शी ने आगे कहना जारी रखा, "जिग्में, मैं जब तुमसे यह सुना रही हूँ, तो मेरा शरीर कंपित हो रहा है, मेरा गात्र  अनिर्वचनीय आंनद और दर्द की अनुभूति से भर रहा है। 
मैंने अपने लंच बॉक्स से स्लाइस्ड ब्रेड और योगर्ट के साथ एक निवाला बनाया और उसके मुँह में रखा था। वह भूखों की तरह निवाला गटकता जा रहा था। वह बोल भी रहा था, 'तुम भी खाओ। मैंने इतना स्वादिष्ट भोजन आजतक नहीं खाया। तुम्हारे हाथों से होकर मेरे हृदय और आत्मा तक उतरता जा रहा है।'
वह आंखें मूंदे हुए भोजन के हर कण का आनंद ले रहा था।
मैंने कहा था, 'बॉक्स में वही सारी खाद्य सामग्री है, जो रहा करती है। तुम्हें इतनी जोरों की भूख लगी है कि इस भोजन का हर कण तुझे स्वादिष्ट लग रहा है। इसके प्रिपरेशन में कोई खास तकनीक का इश्तेमाल नहीं किया गया है।"
'परंतु इसमें खिलाने वाले के हाथों की सुगन्ध जो घुली है। इसीलिए इसका आनंद चिरस्थाई, शाश्वत हो गया है।'
"इसका अर्थ मैं बिल्कुल नहीं समझ पायी।" मेरी इस टिप्पणी पर वह हँसा था। उसकी यह हँसी मैं पहली बार देख रही थी। मैंने जब भी उसे देखा, गंभीरता ओढ़े हुए ही देखा था। 
लड़कियों की बेवकूफी भरी टिप्पणी पर लड़कों को हँसना अच्छा लगता है। उसने मुझे बुद्धू समझते हुए समझाना शुरू किया था, “इसका सीधा अर्थ यही है कि भोजन का स्वाद तुम्हारे हाथों की सुगंध के साथ मिलकर बढ़ गया है, और मैं अगर सच कहूँ तो तुम्हारे द्वारा दिए गए हर निवाले के साथ बढ़ता चला गया है।”
“तो स्वाद भोजन सामग्री में नहीं, मेरे हाथों की सुगंध में है। फिर तो मेरे ओठों के स्वाद का आनंद और भी…  तुमने अभी क्या कहा था .. ?”
“शाश्वत और चिरस्थायी।”
“हाँ, वही होगा।”
यह सुनते ही उसका चेहरा लाल हो गया था। उसका चेहरा दमकने लगा था। वैसी दीप्ति मैंने उसके चहरे पर नहीं देखी थी। 
उसने थोड़ा संयत होते हुए कहा था, “जिस गंध का स्वाद तुम्हारे ओठों में है, क्या वह शरीर की आसक्ति नहीं है?”
मैंने तर्क दिया था, “शरीर या कहें ठोस और सूक्ष्म प्रकृति की आसक्ति के खेल से यह सारा जगत भरा है। क्या नदी, अम्बुधि की ओर मिलनातुर हो वेगवान प्रवाहित नहीं हो रही है? क्या पादपों की फुनगियाँ हवा के झोंके से झूमते हुए एक - दूसरे का स्पर्श नहीं करते हैं, एक - दूसरे को चूमते नहीं हैं? क्या उन्मत्त बादल पहाड़ों की चोटियों के उभारों पर घिर नहीं जाते हैं? क्या उन्हें अपने आगोश में लेकर रस - सिंचन नहीं करते हैं? जिसे हम जड़ प्रकृति कहते हैं, जब वही प्रेमातुर हैं, तो हम चेतन जीवों की रसास्वादन वृत्ति तो और भी अधिक है। क्या हमें उस ओर नहीं बढ़ना चाहिए?”
मेरे इस तर्क पर  वह निरुत्तर हो गया था। परन्तु वह अभी भी संतुष्ट नहीं हुआ था। वह कायल नहीं हुआ था। मैंने कुछ और तर्क जोड़ने शुरू किये, “इस जगत में जो कुछ सुन्दर है, उसका नयनों से रसपान वर्जित नहीं है। तुम भी सुन्दर पुष्पों को, रंग - बिरंगी तितलियों को फूलों पर मंडराते हुए, इंद्रधनुष के रूप में क्यूपिड (कामदेव) की खिंची हुई प्रत्यंचा को देख सकते हो। यह सब प्रेम - निमंत्रण नहीं तो और क्या है? 
उसने अपने अंदर पड़े संस्कारों को अपने विचारों में पिरोते  हुए कहा था, “जो नेत्रों से दृष्टिगत होता है, वह रक्त के आवेग का सिंचन नहीं है, रूप की अर्चना का मार्ग आलिंगन नहीं है।”
मैं उसकी दार्शनिक विवेचना के आगे मौन होती जा रही थी। उसकी वाणी में सम्मोहन था और उसके विचारों में जीवन के नए अर्थ को उद्घाटित करता हुआ दर्शन था। इसी उम्र में इतनी परिपक्वता उसने कहाँ से प्राप्त कर ली थी?
उसने एक और विचार प्रस्तुत किया, “तन के मांसल आवरण को हटाकर, जैसे ही रूप के सागर में कोई उतरना  चाहता है, उसके सारे उद्देश्य उस भ्रमर की भांति निष्फल हो जाते हैं। भ्रमर मधु - संचयन के लिए पुष्पों की कोमल पंखुड़ियों पर डेरा जमाता है। जब मधु उसके पंखों में भर जाते हैं, वह उड़ान भरना चाहता है। 
उसके  मधु - सिक्त पंख खुल नहीं पाते हैं, और अगर खुल भी जाते हैं, तो पूरी शक्ति लगाकर वह उड़ान भरता है, परंतु मधुवन का आकर्षण उसे पुनः नीचे खींच लेता है। वह इसी सांसारिक कृत्य में बंधा रह जाता है और जीवन का पाथेय विस्मृत हो जाता है।”
------
आगे और भी है....