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Thursday, June 17, 2021

पाठकों से मन की बात भाग 1 (लेख)

 #BnmRachnaWorld

#pathakonse #mankibaat










"पाठकों से मन की बात" का यह सीरीज मैंने "प्रतिलिपि" हिंदी वेबसाइट पर पिछले 31 जुलाई 2020 से लिखना आरंभ किया था।

उसे  आज से मैं अपने ब्लॉग पर डालना शुरू कर रहा हूँ। आपके विचारों का इंतज़ार रहेगा:

पाठकों से मन की बात भाग 1:

अश्लीलता या एंटरटेनमेंट वैल्यू:
 प्रबुद्ध पाठकों,
सहृदय नमस्कार!
आज हिंदी के प्रसिद्ध कहानीकार, उपन्यासकार प्रेमचन्द जी की जयंती है। मैंने आज का दिन ही आपसे अपने मन की बात की शुरुआत के लिए चुना। मैं आपसे हर सप्ताह इसी दिन यानि शुक्रवार को जुड़ा करूँगा। हमलोग अपने लेखन को मुंशी प्रेमचंद के दर्पण को सामने रखकर देखने की कोशिश करेंगे। अपना प्रतिबिम्ब उसमें कैसा नजर आता है?
पहले प्रेमचंद जी के बारे में कुछ बात करते हैं। मुंशी प्रेमचंद जी की कहानियों, उपन्यासों में पात्रों, उससमय के परिवेश, आर्थिक सामाजिक विषमता, सामान्य जन की विवशता, नारी पात्रों के अंतर्मन का चित्रण या लेखिकीय स्पष्टता और पाठकों की रुचि के परिष्कार की प्रतिबद्धता के बारे में जो मानक उन्होंने स्थापित किये थे, क्या अभी का साहित्य लेखन से जुड़ा समाज और पाठक वर्ग उसका निर्वहण कर रहा है? यह विचारणीय विषय है।
प्रेमचंद जी घाटा सहकर भी "हंस" पत्रिका को प्रकाशित करते रहे। उसी घाटा की पाटने के लिए, जयशंकर प्रसाद के मना किये जाने के बावजूद भी उन्होंने सन 1934 में बम्बई (आज का मुम्बई) का रुख किया था। वहां के बारे में जैनेंद्र कुमार को लिखे एक पत्र में बताया था, " मैं जिन इरादों से आया था, उनमें एक भी पूरा होते नजर नहीं आते...वल्गरिटी को यह लोग एंटरटेनमेंट वैल्यू कहते हैं...मैंने सामाजिक कहानियाँ लिखी हैं, जिसे शिक्षित समाज भी देखना चाहे।"
एक लेखक के रूप में प्रेमचंद जी अपने दायित्व को समझते थे। वे सस्ते मनोरंजन के लिए नहीं लिखते थे। वे बिकने के लिए नहीं लिखते थे। समाज के परिदृश्य के चित्रण के द्वारा वे समाज में स्थापित गलत मूल्यों को चुनौती देते थे। उसके समाधान ढूढने की तड़प उनकी रचनाओं में साफ दिखती है। उन्होंने अपने मानकों और मूल्यों के साथ कभी समझौता नहीं किया। इसलिए उनका रचना संसार लेखकीय ईमानदारी का जीता जागता दर्पण है।
अगर पाठक या दर्शक अपनी रुचि को दूषित करना चाहता है, तो लेखक क्या उसे वैसे ही साहित्य परोस देगा? लेखक को सच्चाइयों के चित्रण के साथ समाज को दिशा देने का भी काम करना होता है, पाठकों की रुचि का परिष्कार भी करना होता है। इस दायित्व को जो पूरा नहीं करता है, जैसी धारा बह रही है, उसीमें बहता चला जाता है, तो वह लेखक की पात्रता रखता है या नहीं इसमें संदेह है।
आजकल एंटरटेनमेंट वैल्यू के नाम पर सिनेमा, शार्ट फ़िल्म और वेबसीरिज में सेक्स और अपराध के घालमेल को उघाड़कर प्रस्तुत करने की जो होड़ चल पड़ी है, वह हमारे चारित्रिक गिरावट को किस सीमा तक ले जाएगा, यह तो आने वाला समय ही बतलायेगा।
अभी तो कहानियों, उपन्यासों और वेबसीरीज़ों के भी नाम ऐसे रखे जा रहे हैं, जैसे पहले मस्तराम सीरीज में रखे जाते थे। हिंदी में अश्लील नामों को नहीं लिखकर उसका अंग्रेजी नाम लिख देने से अश्लीलता का मुलम्मा उतर नहीं जाता है। तर्क यह दिया जा सकता है कि क्या करें पाठक और दर्शक यहीं पसन्द करते हैं। आपके पड़ोसी तो आपके बेडरूम सीन में रुचि रखता है, तो क्या आप उसे सबकुछ देखने के लिए अपने बेडरूम की खिड़कियों के पर्दे हटा देंगे? ...और पड़ोसी का क्या कर्तव्य है ? वह दूसरे के बेड रूम में झांकता फिरे। इसपर आप विचार करें।
इन्हीं विचारों के प्रकाश में हमलोग प्रतिलिपि से जुड़े लेखकों के लेखन और पाठकों की प्रतिक्रियाओं का भी विश्लेषण करेंगें...इसी दिन अगले सप्ताह।
क्रमशः...



5 comments:

गगन शर्मा, कुछ अलग सा said...

सामयिक और चिंतनीय विषय ! अभिव्यक्ति की छूट की आड़ में सारी हदें पार की जा रही हैं !

Marmagya - know the inner self said...

आदरणीय गगन शर्मा जी, नमस्ते👏! आपके सराहना के शब्द मुझे सृजन के लिए प्रेरित करते रहेंगे। सादर आभार!--ब्रजेंद्रनाथ

MANOJ KAYAL said...

बहुत ही रोचक एवं सामयिक लेख

अनीता सैनी said...

बहुत ही सराहनीय पहल आपके विचारों ने बहुत प्रभावित किया।
हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएँ सर।
सादर

आलोक सिन्हा said...

आज अचानक आपके पास आ गया था |कल ८० साल का होने जा रहा हूँ | घुटने अधिक चलने की अनुमति नहीं देते | पर सातवी कड़ी पढ़ कर ही सारी थकन दूर हो गई और पाँव तब तक नहीं रुके जब तक प्रथम सीढी पर नहीं पहुँच गए |आपका एक एक शब्द मूल्यवान और लेखकों का सही मार्ग दर्शन करने वाला है | सोच नहीं पा रहा हूँ कि आपको धन्यवाद दूं या आभार प्रगट करूं |बहुत बहुत शुभ कामनाएं |

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