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रिश्तों की रसधार
आनंद और रीमा दोनों आई टी कम्पनी के अपने ऑफिस के लिए सुबह ही निकलते थे। रीमा पहले निकलती थी और आनंद उसके आधा घंटे बाद।"रीमा, तूने नाश्ता नहीं लिया।"
सुबह - सुबह ऑफिस के लिए तैयार हो रही रीमा से आनंद ने पूछा था।
"आनंद, नाश्ते के डब्बा सिंक के पास रखा हैं, मुझे देर हो रही है, मैं निकल रही हूँ।" रीमा ने तैयार होते हुए ही कहा था।
"ठहरो, उसे धोकर, मैं उसमें तुम्हारा नाश्ता पैक कर देता हूँ।"
आनंद ने अनुरोध किया था।
" रहने दो आनंद, देर हो जाएगी।"
" सिर्फ दो मिनट रुको, दो मिनट में कोई देर नहीं हो जाएगी।"
आनंद ने सिंक के पास रखे नाश्ते के डिब्बे को खोला था।
"क्या रीमा, तुम भी न। ये बची हुई सब्जियाँ इसी में पड़ी हैं। वहाँ से डिब्बा थोड़ा साफ ही कर लिया करो, इसमें कोई ज्यादा समय और मेहनत तो लगती नहीं।"
आनंद के इस तरह बात करने से रीमा का मन कसैला हो गया था। अनमने भाव से ही आनंद के द्वारा पैक किये गए नाश्ते को उसने लिया था और पैर पटकते हुए ऑफिस के लिए निकल गयी थी।
आनंद रीमा के बाद ऑफिस जाता था। ऑफिस से वह रात को ही लौटता था।
उस दिन रीमा शाम को थोड़ा पहले ही ऑफिस से आ गयी थी।
आनंद के ऑफिस से आते ही रीमा ने उसके बैकपैक से उसके नाश्ते के डिब्बा निकाला था। सिंक के पास जाकर उसने डिब्बे को खोला था।
उससे बोले बिना रहा नही गया, "क्या आनंद, डिब्बे में सारी बची हुई सब्जियाँ पड़ी हैं। इसे ऑफिस से धोकर या खंगालकर नहीं ला सकते?"
आनंद समझ गया था, यह रीमा का प्रतिउत्तर था, सुबह के उसके व्यवहार के लिए। आनंद चुप ही रहा।
जब हिसाब बराबर कर दोनों बेड पर गए, तो आनंद के पिता जी का फोन आया था,
"बेटे, मैं, तुम्हारी माँ, और तुम्हारी दीदी तुमसे मिलने आ रहे हैं।"
आनंद को कोई जवाब नही सूझ रहा था। वह क्या कहे? उसने कहा था, "पिताजी, बहुत दिक्कत हो जाएगी।"
पिताजी बोले, "हमें, काहे को कोई दिक्कत होगी।"
"पिताजी, आपको नहीं, हमें दिक्कत हो जाएगी।"
"अच्छा बेटे, हमलोग नहीं आएंगे।"
आनंद और रीमा बेड के दो किनारे सो गए थे, नदी के दो किनारे ही गए थे।
सुबह रीमा पहले उठी। उठने के बाद उसने पहला काम किया, आनंद के पिताजी को कॉल किया था, "प्रणाम पिताजी, मैं रीमा बोल रही हूँ। आपलोगों ने यहाँ आने का प्रोग्राम बनाया है, उसे कैंसिल मत कीजिए। आपलोग जरूर आइए। शादी के बाद आपलोगों के साथ ज्यादा दिन नहीं रह सकी। माँ और दीदी को लेकर यहाँ आएंगे तो मुझे बहुत अच्छा लगेगा।"
आनंद ये सारी बातें सुन रहा था।
उसकी आँखों के कोर भींग गए। उसने पीछे से आकर रीमा को बाहों में भर लिया।
"रीमा, हमलोगों के बीच प्रेम की धारा कभी नहीं सूखेगी। मेरा ये वादा रहा।"
और नदी के दोनों किनारों के बीच रसधार बहती रही...।
©ब्रजेंद्रनाथ
4 comments:
आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल बुधवार (03-11-2021) को चर्चा मंच "रूप चौदस-एक दीपक जल रहा" (चर्चा अंक-4236) पर भी होगी!
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सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार करचर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।
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दीपावली से जुड़े पंच पर्वों कीहार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आदरणीय डॉ रूप चंद्र शास्त्री मयंक जी, आपने मेरी इस रचना का चयन कल के चर्चा मंच के लिए किया है। मैं इसके लिए हॄदय से आभार व्यक्त करता हूँ। सादर!--ब्रजेंद्रनाथ
सुंदर लघु-कथा...
आदरणीय विकास जी, नमस्ते👏! मेरी इस रचना पर आपकी सराहना के शब्द मुझे सृजन के लिए प्रेरित करते रहेंगे। हृदय तल से आभार!--ब्रजेन्द्र नाथ
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