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Tuesday, May 1, 2018

कविता निकलकर आ रही है (कविता)

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#poemmotivational



कविता निकलकर आ रही है

कोई कविता निकल कर आ रही है।

प्रसव वेदना की पीर सी
चुभ रही है नुकीली तीर सी
बाहर निकलने को देखो तो
वह कितनी छटपटा रही है।
कोई कविता निकलकर आ रही है।

अंतरावेगों को संवारती सी,
वाह्य-आवेगों को विचारती सी।
बाहर निकलने को देखो तो,
वह कितनी अकुला रही है।
कोई कविता निकलकर आ रही है।

कहीं चुपके से झांकती सी,
उस पार की पीर को आन्कती सी।
गुमसुम सी हुई देखो तो
वह कितनी पिघलती जा रही है।
कोई कविता निकलकर आ रही है।

गौरैया की चोंच की नोक सी
कुन्जों में कोयल की कूक सी
कौऔं के कांव कांव के मध्य भी
कितनी चहकती जा रही है।
कोई कविता निकलकर गा रही है।

वह विशिख-दन्त-कराल-ब्याल सी
कुन्डली कसती जा रही महाकाल सी
दुश्मनों को झपटने दबोचने को
देखो अपना फ़न फैला रही है।
मेरी कविता निकल कर गा रही है।

वह रण मत्त हो विषवाण सी
रक्त-दन्त-रंजित विषपाण सी
सीमा पर अरि मर्दन करने को
शोणित थाल देखो सजा रही है।
मेरी कविता रण राग सुना रही है।
मेरी कविता निकलकर गा रही है।

-ब्रजेन्द्रनाथ।
कोलकता, भवानीपुर, निजाम पैलेस
ता: 24-03-2017,

नोट:  दिनांक 29-04-2018, दिन रविवार को अपराह्न 5 बहे से स्थानीय दिल्ली एन सी आर, वैशाली सेक्टर 4 स्थित हरे भरे मनोरम सेन्ट्रल पार्क में "पेड़ों की छाँव तले रचना पाठ" की 43वीं गोष्ठी में रचना पाठ का सुअवसर प्राप्त हुआ।
यह अनौपचारिक साहित्यिक गोष्ठी प्रिय अवधेश कुमार सिंह, असिस्टेंट जनरल मैनेजर बी एस एन एल, दिल्ली, जो ब्यवसाय से भले ही तकनीकी प्रबन्धन से जुड़े हों, पर हृदय से कवि हैं, के संयोजन में पिछले तीन वर्षों से अधिक से निरन्तर आयोजित किया जा रहा है। यह गोष्ठी संवेदनात्मक, कोमल, भावपूर्ण अनुभूति की अभिब्यक्ति को प्रस्तुत करने का वह नैसर्गिक, प्राकृतिक मंच है, जो आज अपने मासिक आयोजन के 43वें पायदान पर सभी नियमित रचनाकारों और श्रोता बंधुओं का एक पारिवारिक आयोजन सा लगने लगा है।
इस रचना का पाठ मैने इसी आयोजन में किया है।
इस गोष्ठी में मेरे द्वारा किये गये कविता पाठ के विडियो का यू टयूब लिन्क:
link: https://youtu.be/4NW4CME5XEw
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1 comment:

Lalita Mishra said...

एक कवि रचना कर्म में चिंतन के उच्च शिखर पर पहुंचकर कैसे कविता का सृजन करता है, उसकी मनोदशा का चित्रण इस रचना में बहुत सुन्दर बन पड़ा है। कवि को ह्रदय से साधुवाद!

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