#BnmRachnaWorld
#Bnmlecture#motivational
कविता, कल आज कल के लोकार्पण पर ता ९-१२-१८ को मुख्य वक्ता के रूप में मेरा वक्तब्य
सम्माननीय मंच पर मौजूद अध्यक्ष श्री श्यामल सुमन जी, मुख्य अतिथि विशिष्ट पत्रकार डी इस आनंद जी, आदरणीया मंजू ठाकुर जी, मंचस्थ विशिष्ट अतिथि आ ज्योत्सना अस्थाना जी, मंजू ठाकुर सम्मान से सम्मानित शिक्षाविद आ अनीता शर्मा जी, और मुख्य वक्ता के रूप में मैं, डा आशा गुप्ता, डा मनोज आजीज, आ सीता सिंह जी और मंच संचालिका आ कल्याणी कबीर जी, तथा इस होटल बुलेवर्ड के सभागार में उपस्थित साहित्यान्वेषी बन्धुगण और मातृशक्ति:
#Bnmlecture#motivational
कविता, कल आज कल के लोकार्पण पर ता ९-१२-१८ को मुख्य वक्ता के रूप में मेरा वक्तब्य
सम्माननीय मंच पर मौजूद अध्यक्ष श्री श्यामल सुमन जी, मुख्य अतिथि विशिष्ट पत्रकार डी इस आनंद जी, आदरणीया मंजू ठाकुर जी, मंचस्थ विशिष्ट अतिथि आ ज्योत्सना अस्थाना जी, मंजू ठाकुर सम्मान से सम्मानित शिक्षाविद आ अनीता शर्मा जी, और मुख्य वक्ता के रूप में मैं, डा आशा गुप्ता, डा मनोज आजीज, आ सीता सिंह जी और मंच संचालिका आ कल्याणी कबीर जी, तथा इस होटल बुलेवर्ड के सभागार में उपस्थित साहित्यान्वेषी बन्धुगण और मातृशक्ति:
तारिख 09-12-2018 को मुकेश रंजन जी के द्वारा सम्पादित
"कविता" पत्रिका के विमोचन और लोकार्पण में मुख्य वक्ता के रूप में मेरा
अभिभाषण:
स्थान: बुलेवर्ड
होटल, बिस्टुपुर, जमशेदपुर
सम्माननीय
मंचस्थ.............
प्रिय मुकेश जी
के भागीरथ प्रयत्न से "कविता" पत्रिका का महिला रचनाकारों पर यह विशेषांक
आपके हाथों में है| यह पत्रिका पिछले नौ वर्षों से कभी अर्धवार्षिक और अभी
वार्षिक रूप में प्रकाशित होकर अपना वजूद बनाये हुए है| किसी भी साहित्यिक पत्रिका की यह यात्रा, विभिन्न अवरोधों, मोड़ों और कुछ तीखे मोड़ों और ठहरावों से होती हुई
अपनी दमदार उपस्थिति दर्ज कर रही है, यह मुकेश के अनवरत परिश्रम और उनके सार्ह जुड़ी साहित्यकारों की सम्पादक मण्डल के द्वारा प्रदत्त मार्गदर्शन को जाता है।
मुझे यह पत्रिका
मुकेश जी ने एक सप्ताह पूर्व दी थी| मैंने इसके अतिसाधारण आवरण पृष्ठ को देखा| सहसा विशवास ही नहीं हुआ की यह पत्रिका है| मुझे तो यह लघु पुस्तिका जैसी लगी| आवरण की रूप सज्जा की यही सरलता इसे सहज और
विशिष्ट बनाती है| इसका पता मुझे
तब लगा जब मैंने इसके अंदर झांकने का क्रम
शुरू किया| अंदर भी कोई तामझाम नहीं, कोई रंगीन तस्वीर नहीं| परन्तु इसके शब्दों और पंक्तियों से गुजरने पर
जितने रंग उभरते हैं वो पन्नों के रंगीन बनाने से संभव नहीं थे| मुकेश जी ने अपने सम्पादकीय वक्तव्य में इसे इंद्रधनुष का आठवां रंग कहा है| विज्ञान के लोग इंद्रधनुष के आठवें रंग की खोज
करेंगें, पर साहित्य की विधा में आठवे रंग की अभिब्यक्ति तो हो ही
गयी है| अतिथि सम्पादक
आदरणीया कल्याणी जी ने सही कहा है कि इसके पीछे यानि इस पत्रिका के आठवे रंग को
उकेरने के पीछे खड़ा है, "मुकेश का बुलंद हौसला, साहित्य से जुड़े रहने की जिद और कुछ अलग करने की
ख्याहिश|"
मुझे गुरु नानक
जी के जीवन का एक प्रसंग याद आ रहा है:
एक बार गुरु
नानकदेव जी अपने कुछ शिष्यों के साथ किसी गाँव में गए| वहाँ उन्होंने उपदेश दिए| गाँव के लोगों ने उनकी खूब आवभगत की| उन्होंने उन्हें आशीर्वाद दिया कि तुम यहीं पर
खूब बढ़ो, तरक्की करो|
इसके बाद वे एक
दूसरे गाँव में गए| वहाँ के लोगों ने उनकी गुरुवाणी सुनी| उसे जीवन में उतारने का संकल्प लिया| वे उनकी और उनकी मंडली का उतना सत्कार नहीं कर सके जितना कि पिछले गाँव वालों
ने किया था| जब वे वहां से चलने लगे, तो उस गाँव वालों को उन्होंने आशीर्वाद दिया कि तुमलोग बिखर
जाओ| अब उनके शिष्यों
को चौंकने की बारी थी| उनके एक शिष्य ने उनसे पूछा, "गुरु जी, जिन गाँव वालों ने आपके उद्देश्यों को जीवन में
उतारने का संकल्प लिया उसे आपने बिखर जाने का आशीर्वाद दिया जबकि उन गाँव वालों को
जिन्होंने आपकी खूब आवभगत की और आपके उपदेशों पर अमल करने का संकल्प नहीं ब्यक्त किया, उसे आपने खूब बढ़ने का आशीर्वाद दिया| ऐसा क्यों, गुरूजी?"
गुरुनानक देव जी
ने जवाब दिया, "मैंने पहले गाँव वालों को जिन्होंने सिर्फ आवभगत में ही रूचि दिखलाई, उनको मेरे उपदेशों में कोई रूचि नहीं थी, उससे कोई मतलब नहीं था| उन्हें अपने गाँव में ही रहकर खूब बढ़ने का आशीर्वाद
दिया| ऐसे लोगों को एक
ही जगह पर सीमित रहना ज्यादा अच्छा है|
दूसरे गाँव
वालों को, जो हमारी आवभगत
उतनी नहीं कर सके जितनी पहली गाँव वाले ने की थी, परन्तु मेरे उपदेशों को आत्मसात किया और उन्हें
अपने जीवन में उतारने का संकल्प लिया, उन्हें
मैंने बिखर जाने का आशीर्वाद दिया, क्योंकि अगर वे मेरे उपदेशों को आचरण में
स्थापित करते हुए बिखर जायेंगें यानि फैलेंगे, तो वे मेरे उपदेशों को सारी दुनिया में फैलाएंगे|”
आप सभी रचनाकार
अपनी - अपनी सीमा रेखाओं से परे साहित्य
की सुगंध फैलाने के लिए यहां एकत्रित हुए हैं | यह बहुत बड़ी बात है| इसपर
अपनी लिखी कुछ पंक्तियों मैं उद्धृत करना चाहता हूँ:
लताओं पर कलियों
को लचकने तो दो,
शाखों पर
परिंदों को चहकने तो दो|
आज खुशबुओं को
कैद मत करो,
उसे फिजाओं में
फैलकर कर महकने तो दो|
कल की कल देखी
जाएगी दोस्तों,
आज इस शाम
चाहतों को मचलने तो दो|
आप सबों को इस कार्यक्रम के
धागे में पिरोकर "कविता"पत्रिका के माध्यम से एक मंच पर लाकर खड़ा किया
गया है|
इसका श्रेय मुकेश का पूर्वाग्रह होना और सम्पादक मंडल के
दिशा निर्देशन को जाता है | "कविता, कल आज कल" में आपका साक्षात्कार जमशेदपुर के सात महिला
रचनाकारों और जमशेदपुर के बाहर मुजफ्फरपुर की एक रचनाकार से होगा| इन रचनाकारों की समीक्षा हिंदी साहित्य के लब्धप्रतिष्ठ
सख्शियतों द्वारा की गयी है|
जैसे आ प्रेमलता ठाकुर के रचना
संसार पर माधुरी मिश्रा ने समीक्षा लिखी
है|
आ पद्मा मिश्रा के साहित्य संसार के बारे में डा मनोज "आजिज" ने विश्लेषण
किया है|
आ अनीता शर्मा जी की रचनाओं पर डा कल्याणी कबीर की समीक्षा
आयी है|
आ अनीता सिंह "रूबी" के बारे में प्र प्रसिद्ध साहित्यविद डा सी भास्कर राव ने लिखा है | आ उमा सिंह "किसलय" के बारे में वीणा पांडेय
"भारती" ने अपने उदगार ब्यक्त किये हैं| मुजफ्फरपुर की
आ मीनाक्षी मीनल और आ सोनी सुगंधा का परिचय प्रिय मुकेश रंजन ने करवाया है| आ सरिता सिंह के साहित्य संसार की समीक्षात्मक प्रस्तुति आ
ज्योत्सना अस्थाना ने की है| सारे महिला रचनाकारों की प्रतिनिधि कविताओं
को भी इसमें सम्मिलित किया गया है| आप अगर उन कविताओं को पढेंगें तो आपको कहीं रिश्तों की रिमझिम से, तो कहीं
रीतेपन से, समाज की विद्रूपताओं से
कहीं स्त्री विमर्श के लिए तैयार आगे बढ़ती नारी से, कहीं नए आकाश की और उड़ान भरने को आतुर
नारी से, तो कहीं अपने वजूद को पुन: परिभाषित करती नारी से परिचय पा सकेंगें| जैसे-जैसे आप इन कविताओं में रमते हैं, आप पाते हैं कि ''माँ,
मैं जीना चाहती हूँ" की पुकार लगाती नारी "देह, देहरी से बँधकर
दंश" झेलने को तैयार नहीं है, वह लक्ष्मी, इंदिरा, टेरेसा, तस्लीमा और
मलाला युसुफजाई बनकर आसमान छूना चाहती है| इसलिए
"जब ‘विद्या बालन' की देह
संभाल रही होती - 'डर्टी पिक्चर की
कमान'
और दर्शक सीटियाँ मारते नहीं,
सिसकियाँ भरते सिनेमाघरों से
बाहर निकलते हैं
तो पहली बार लगता है
औरत का मतलब 'एंटरटेनमेंट' नहीं होता |"
इन कविताओं में बरसाती नदी का
उफान नहीं है, एक नीरव बहती धार है| लेकिन इस धार के अंदर उष्मा है, धाह है, गर्मी है| मुझे याद आता है
"बंदिनी" और "आनंद" फ़िल्में देखकर खामोशी से, चुपचाप बाहर आते दर्शक| ये कवितायें भी उसी प्रकार की है| ये मंचीय कवितायें नहीं कही जा सकती, जहां कविताओं के शब्दों को तोड़ा और मोड़ा जाता है, ताकि तालियाँ बटोरी जा सके| इन कविताओं से गुजरने के बाद आप कुछ कुछ खामोश हो जाते हैं, अंतर्मुखी हो जाते है, चुपचाप सोचने पर मजबूर हो जाते हैं|
अब मैं इसमें कुछ स्वकथन को
जोड़ना चाहूँ तो कहूंगा:
'नहीं होता औरत माने 'बोल्ड और बेवाक' रूप में चित्रित या प्रस्तुत किया जाना | इसे सती - विमर्श से नहीं जोड़ा जा सकता| चली आ रही दस्तूरे, रवायतें, दकियानूसीपन ही नहीं होती | अब वह युग फिर आएगा जब हम इंटरनेट पर बिखरे पोर्न में सौंदर्य को न ढूँढ़कर 'कामायनी, उर्वशी और
अभिज्ञान शाकुंतलम' में श्रृंगार
ढूढ़ेंगें | इसका दायित्व समाज को दिशा
देने वाले हम साहित्यकारों पर आ जाता है| समाज की विद्रूपताओं को हमेशा आवरणहीनता से ही जोड़कर नहीं दिखाया जाना चाहिए| यह मशहूर हो जाने एक फार्मूला भले ही लगे, लेकिन यह साहित्य को दिशा देना नहीं कहा जा सकता|
धन्यवाद|
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