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#story#social#inspiring
कल 03-02-2019 को अपराह्न 4 बजे से कथा मंजरी कार्यक्रम का आयोजन डा नर्मदेश्वर पाण्डेय जी की अध्यक्षता और आदरणीय श्रीराम पाण्डेय भार्गव जी के संचालन में स्थानीय तुलसी भवन में संपन्न हुआ। उसके पहले दिन में 10 बजे से पूर्व आयोजित "उरी" फिल्म का देखना कतिपय तकनीकी कारणों से नहीं हो पाया। लेकिन चुड़ा दही का सामुहिक भोज का आयोजन शानदार रहा।
कथा मंजरी कार्यक्रम के प्रारम्भ के पूर्व प्रसिद्ध कथाकार श्री जैनेंद्र कमार की तस्वीर पर पुष्प अर्पण कर उपस्थित साहित्यकारों ने श्रद्धांजलि दी। मेरी कहानी ,,"और पर्स मिल गया" से ही कार्यक्रम की शुरुआत हुयी। कहानी का सन्क्षिप्तीकरण किया हुआ प्रतिरूप यहाँ प्रस्तुत है।
अगर पूरी कहानी पढ़नी हो तो इस लिन्क पर पढ़ें:
मैं यहाँ उससमय ली गयी तस्वीरें भी दे रहा हूँ।
और पर्स मिल गया
गाड़ी तेज गति से दक्षिण के तरफ भागी जा रही थी। उसी के साथ उसका विचार - क्रम भी तीव्र गति पकड़ रहा था। उसे अपने वे सारे दिन जो उसने स्कूल, कॉलेज, गाँव, गणपति पूजा में बिताये थे रह – रह कर याद आ रहे थे।अभी वह पूरी तरह प्रोफेशनल नहीं बना था इसीलिए उसके अंदर संवेदनाएं और विचारणाएँ हिलोरें मार रही थी। 'अगर मेरा शहर ही इतना विकसित होता तो मैं भी वहीं रहकर नौकरी करता। तब कितना अच्छा होता। गाँव से जुड़ाव रहता और शहर में नौकरी रहती। अभी तो बड़े - बड़े शहर विकसित हो रहे हैं और फ़ैल रहे हैं। छोटे शहरों का विकास तो हो नहीं पा रहा है। जो शहर विकास के न्यूक्लियस बनकर आसपास के गावों के विकास में सहायक बन सकते थे, वे अभी आसपास के गाँवों के शोषण - बिंदु बनते जा रहे हैं।'
वह अपने विचार - यात्रा के क्रम को इस रेल यात्रा में भी ढोये जा रहा था। उसकी सोच कभी - कभी विचित्र दिशा पकड़ लेती थी। और वह उनमें फंसकर रह जाता था।
फिलहाल वह उनसे निकलना चाह रहा था । वह स्कूल, कॉलेज, गाँव, गणपति के समय बिताये गये अनमोल पलों में खो जाना चाहता था।
नितिन ने एन आई टी, नागपुर से मैकेनिकल इंजीनियरिंग किया था । चौथे साल में ही उसका प्लेसमेंट देश की मुख्य तेल कंपनी भारत पेट्रोलियम में हो गया था। लेकिन उस समय ज्वाइनींग कहाँ दिया जाएगा इसके बारे में कुछ नहीं बताया गया था । कहा गया कि ऑफर लेटर मिलने के बाद इसके बारे में पता चल जायेगा। अंततः ऑफरलेटर भी मिल गया था। उसका पदस्थापन कोयंबटूर में हुआ था। उसकी खुशी का ठिकाना नहीं था। बहुत ही शांत और अच्छी जगह है, ऐसा लोगों ने कहा था। हालाँकि वह तो कहीं के लिए भी तैयार था।
वह बार बार अपने पीछे के पॉकेट में रखे पर्स को छूकर महसूस कर लेना चहता था, कि वह वहीं पर तो है। यह पर्स देविका से मुलाकात की पहली निशानी थी।
देविका उसे लगातार हो रही बरसात में बड़ी सी झील के आल पर मिली थी। वह रो रही थी क्योंकि उसका बैग हवा में उडकर झील में जा गिर था। तुरत उसने अपना वॉलेट और मोबाइल अपने रुमाल में लपेटकर लड़की के हाथ में थमाया था और कूद पडा था झील में। उसने तैरकर उस झील से उसका बैग लाकर उसे दे दिया था। तभी उस लड़की ने, उसके वालेट वापस करते हुए अपने बैग में से एक नया वालेट निकाल कर दिया था। और बैग लेकर तेजी से भागते हुए ही बोली थी, "मेरा नाम, देविका पाटणकर। …मैने आपको एक नया वॉलेट भी दिया है। …उसमे मेरी सारी डिटेल्स हैं। …"
…और वह लड़की भागती हुई आँखों से दूर होती गयी थी।
X X X X X
यह लड़की क्या थी, बिलकुल कोयंबटूर एक्सप्रेस थी। जब भी मिली, भागती हुयी ही मिली। वह वॉलेट और नयी वॉलेट तथा अपना स्मार्टफोन पुनः पाकर खुश था। अगले सोमवार ही कोयंबटूर में भारत पेट्रोलियम में ज्वाइनिंग थी।
एक दिन एक लड़की का फोन आया था, "दो दिन हो गए। आपका फोन नहीं आया। मन नहीं माना, इसलिए फोन कर रही हूँ।"
"आप कौन?"
"भूल गए इतनी जल्दी, वही लड़की जिसका बैग आपने झील में से तैर कर लाकर दिया था। आपका वॉलेट और मोबाइल फोन भी मै लौटाई थी।"
"अच्छा, देविका जी, सॉरी, मैं आपको फोन नहीं कर सका, यहाँ आकर इतना काम पेंडिंग था। उसी में उलझ गया था।"
"आप मुझे देविका ही कहें, अच्छा लगता है।"
"जैसी आपकी इच्छा, देविका जी।"
"देविका जी, नहीं देविका।"
"ओके, ओके। मुझे अगले सोमवार को कोयंबटूर में भारत पेट्रोलियम में ज्वाइन करना था, उसी की तैयारी चल रही थी। आप अपने बारे में कुछ बताइये।"
"उस बरसात के दिन आप जिस बस मन सफर कर रहे थे, मैं भी उसी बस में यवतमाल से चढ़ी थी। मैं एक इण्टर कॉलेज में लेक्चरर के लिए इंटरव्यू देकर आ रही थी। इसीलिये सारे ओरिजनल सर्टिफिकेट्स भी मेरे पास ही थे। उस आँधी - तूफान में कीचड़ से सने रास्ते में मैं सम्हलने में थोड़ी लड़खड़ा गयी थी। इतने में आंधी का तेज झोंका आया और मेरा बैग उड़कर झील में जा गिरा था।"
"....और उसके बाद आपकी कहानी में मेरी एंट्री हो जाती है।"
"आपका बहुत - बहुत शुक्रिया। आप तुरत एक्शन नहेीं लेते तो मेरे सारेओरिजिनल सर्टिफिकेट्स तो गए थे।"
देविका की हल्की हँसी की आवाज में घुली उसकी खुशी से छनकर सवाल आया था, "क्या आपको मेरी दी गई वॉलेट पसंद आयी। "
"अरे वह तो बहुत अच्छी है। मैने अपने सारे डेबिट-क्रेडिट कार्ड्स उसी में रखे हैं और वह हमेशा मेरे साथ रहता है।"
उस तूफानी बरसात की मुलाकात के बाद मोबाइल पर इतनी ही बातें हुई थी।
पैंट्री के वेटर की 'चाय - चाय' की आवाज से उसकी नींद खुली थी। स्टेशन आनेवाला था, लोग अपने सामानों को ठीक - ठाक, ब्यवस्थित करने में लग गए थे। वह भी उठ गया था। जाकर बेसिन में अपना चेहरा धोया था। ट्राली अटैची को बर्थ के नीचे से निकाला था। रेलवे के द्वारा दिए गए कम्बल , चादर को लपेटकर खिड़की के तरफ खिसका दिया था। सोने के पहले उसने वॉलेट को लैप टॉप वाले बैग में रख दिया था। उसी बैग से वॉलेट को निकाला था और पैंट के बैक पॉकेट में रखकर वह उतरने को तैयार हो गया था। कोयंबटूर स्टेशन पर ट्रेन रुकी थी।अटैची और बैग लेकर वह ट्रेन से नीचे उतर गया था। प्लेटफार्म पर जब वह थोड़ी दूर चल चुका था तो उसने अपने हाथ पैंट के पिछले पॉकेट में रखे वॉलेट को छूकर, महसूस कर देविका की यादों को भी एक तरह से छेड़ना चाहा था। ये लो,वॉलेट तो वहाँ था ही नहीं। क्या हुआ ? उसने तो पैंट के उसी पॉकेट में रखा था। वहाँ तो था ही नहीं। ट्रेन में ही छूट गया क्या? ट्रेन अभी तक रुकी हुई थी। वह जल्दी से भागकर जिस डिब्बे में वह सफर कर रहा था उसमें घुसा था। अपनी बर्थ पर उसने कम्बल, चादर सारा हटा कर अच्छी तरह खोजा था। ट्रेन लगभग खाली हो गयी थी। उसने बाकी बर्थ पर भी ढूढ़ा था। वह पागलों की तरह सारे कम्बल चादरों को उठाकर, फेंक कर अपने पर्स को ढूढ़ रहा था। लेकिन पर्स नहीं मिली थी।
उसके साथ ही हमेशा ऐसा क्यों होता रहता है? हालाँकि बहुत लोगों के साथ ऐसा होता होगा। उनके बारे में, उनके ऐसे दुखद प्रसंगों के बारे में वह थोड़े ही जानता है। लेकिन उसे लग रहा था कि उसके साथ ही ऐसा होता है। उसने तो बड़ी होशियारी से वॉलेट निकालकर अपने पैंट की पिछले पॉकेट में रखा था। वह बार- बार अपने पैंट के सारे जेब टटोल रहा था। कही दूसरी जेब में तो नहीं रख दिया और ढूढ़ रहा है दूसरी जेब में। वॉलेट तो इतनी छोटी चीज है नहीं कि उसे महसूस नहीं किया जा सके। पैंट के सारे पॉकेट में हाथ डालकर फिर चेक किया। वहाँ भी वॉलेट कहीं नहीं था। हताश , निराश मन से वह ट्रेन से फिर उतरा था।कोई उपाय भी नहीं था। ट्रेन अपने आगे के गंतब्य की ओर प्रस्थान करने के लिए खुल चुकी थी। वह प्लेटफार्म के बेंच पर ही बैठ गया था। फिर अपने भाग्य , देव , किस्मत सबको एक साथ कोसने की कोशिश में जुटने ही वाला था कि उसके अंदर से किसी ने ढाढ़स दिलाया था।
"क्या हुआ? इतनी सी घटना से विचलित हो गए? एक वॉलेट के जाने से इतने उदास क्यों हो गये? क्या तुम्हारे लिए दुनिया ख़त्म हो गयी? कुछ पैसे गए थे। कुछ पैसे उसने चोर पॉकेट में सुरक्षित रखे हुए थे। उससे काम चलाओ। सारे कार्ड्सब्लॉक करवा दो। उसके बाद दूसरा कार्ड आ जायेगा। चिंता क्यों? चित्त में उल्लास भरो। चलो खुशी -खुशी मन से जॉब ज्वाइन करो।"
वह मन को दृढ कर प्लेटफार्म की बेंच से उठा था। बाहर में कंपनी की गाड़ी आयी थी। उसे ढूढने में कोई दिक्कत नहीं हुई थी। उसी गाड़ी से कंपनी के गेस्ट हाउस पहुँच गया था। गेस्ट हाउस में 15 दिनों तक रहा जा सकता था। इसी बीच एकोमोडेशन ढूढ़ लेना होता है ताकि गेस्ट हाउस खाली कर दिया जाय ।
वह गेस्ट हाउस पहुंचकर फ्रेश हुआ। वहाँ से ऑफिस पहुँचा और अपने ज्वाइनिंग की सारी औपचारिकताएं पूरी की। उसका इंडक्शन प्रोग्राम दे दिया गया और ट्रेनिंग -कम - इंडक्शन शेडूल दे दी गयी। दिन भर तो ऑफिस में मन कहीं - न - कहीं लगा रहा। शाम में अगर देविका का फोन आया तो उसे क्या कहेगा? उसके द्वारा दिया गया वॉलेट उसकी अपनी लापरवाही के कारण कहीं खो गया। माना कि वह कुछ नहीं कहेगी। पारिस्थिति की गंभीरता को समझते हुए वह मुझे ही समझाने की कोशिश करेगी,"वॉलेट का क्या है फिर दूसरा लेकर दे दूंगी। आप बिलकुल चिंतित न हों। बस यही सबसे बड़ी बात है। " लेकिन उसके मन में तो एक कसक - सी कहीं - न - कहीं रह रहकर उठती ही रहेगी। इससे पार तो पाना ही होगा, सामान्य दीखने के लिए भी और सामान्य जीवन जीने के लिए भी। आई और बाबा से भी उसने बातें की। सब ठीक है,ऐसा ही कहा था उसने। फिर कल विस्तार से बात करने का वादा कर वह सो गया था।
दूसरे दिन फ्रेश होकर जब ऑफिस पहुँचा तो देखा कि लोग उसी का इंतजार कर रहे थे।ऐसा क्या हो गया कि लोगों की रूचि उसके आते ही उसमें बढ़ गयी थी।
"मिस्टर तलवारे एक ब्यक्ति आपका इन्तजार कर रहे हैं। वे बोल रहे हैं कि कल से ही उसे ढूढने में और फिर मिलने के लिए परेशान हैं।" ऑफिस के हेड क्लर्क ने उससे कहा था। नितिन खुद कल से परेशान था। वह तो यहाँ किसी को जानता भी नहेीं था। फिर उसे कोई क्यों ढूढ़ रहा है? वह अंदर गया। वे ब्यक्ति ऑफिस के लाउन्ज में उसका इंतज़ार कर रहे थे। वह अंदर घुसते ही बोला था, "मैं ही नितिन तलवारे हूँ। लेकिन क्या मैं आपको जानता हूँ?"
"आपने सही कहा - आप मुझे नहीं जानते हैं। मैं रामचंद्रन, मेरी कोयंबरुर में ज्वैलरी की दूकान है।"
"लेकिन मैं तो ज्वैलरी खरीदने में अभी बिलकुल ही इंटरेस्टेड नहीं हूँ।"
"नहीं, नहीं मैं ज्वैलरी की डील के लिए आपके पास नहीं आया हूँ। मैं आपकी एक खोयी हुयी चीज आपको देने आया हूँ।"
"मैं समझा नहीं।"
फिर उस ब्यक्ति ने अपने हैंड बैग से मेरा वॉलेट निकाला था।
"क्या यह आप का ही है?"
उसके आश्चर्य का ठिकाना नहीं था, "कहाँ मिली यह आपको?”
"उसके बारे में मैं बता रहा हूँ। पहले आप इसे सम्हालिए।" रामचंद्रन जी ने वॉलेट मेरे हाथ में थमा दिया था।
उसके बाद उसने कहना शुरू किया था, " कल आप जिस ट्रैन से उतरे मैं भी उसी ट्रैन से उतरा था। आप उतरे उसके ठीक पीछे - पीछे मैं भी उतर रहा था। मैंने देखा कि एक बर्थ पर यह वॉलेट पड़ा हुआ था। अगर मैं छोड़ देता तो किसी और हाथों में यह पड़ जाता। इसलिए मैंने इसे उठा लिया। कल से मैं इस वॉलेट के ओनर को लोकेट करने में परेशान था।"
उसने एक साँस ली और फिर कहना शुरू किया , " मैंने दूकान पहुँचकर वॉलेट खोला था। उसमें आपका नाम मिला था। लेकिन नाम मिलने से ही तो काम बनने वाला नहीं था। वॉलेट को देखने से लगा था, यह किसी पढ़े - लिखे ब्यक्ति का ही हो सकताहै। फिर मैंने दूकान का कंप्यूटर ओन किया था। इंटरनेट कनेक्ट किया। फसेबूक पर मेरा भी अकाउंट हैं। मैंने खोला और आपके नाम से सर्च करना शुरू किया। आपका नाम एन आई टी , नागपुर में एक स्टूडेंट के रूप में दिखा था। "
वे कुछ क्षण के लिए रुके थे।
मैंने कहा था, "हाँ, मैंने जॉब मिलने के बाद उसे अपडेट नहीं किया है। कल ही तो मैंने यह जॉब ज्वाइन की है।"
उन्होंने फिर कहना शुरू किया, "फिर मैंने एन आई टी, नागपुर के साइट पर जाकर ऑफिस का फोन नंबर जाना, फिर ऑफिस में फोन किया था। काफी देर के बाद कई बार इन्क्वारी करने पर उन्होंने बताया था कि नितिन का कोयंबटूर में भारत पट्रोलियम से जॉइनिंग आया था। कहाँ ज्वाइन किया है कह नहीं सकते। इतना इनफार्मेशन लेते- लेते कल शाम हो गयी थी। इसीलिये मैंने सुबह आने का तय किया और आज मैं यहाँ हूँ, आपके वॉलेट के साथ।" उन्होने हँसते हुए कहा था। मेरी तो आँखों में आंसू आ गए थे। एक आदमी दूसरे के लिए इतनी परेशानी उठा सकता है, मुझे तो विश्वास नहीं हो रहा था। हमलोग अभी जिस सम्वेदना विहीन दौर से गुजर रहे हैं उसमे मिस्टर रामचंद्रन जैसे लोग एक फरिस्ते की तरह ही हैं।
मैंने उनके हाथों को थाम लिया था। मैं उस फरिस्ते को छूकर उसकी गर्माहट को महसूस करना चाहता था। काफी देर तक मैंने उनका हाथ थामे रहा था।
"मिस्टर तलवारे अब हम चलें।" उनकी आवाज से ही मेरा विचार - क्रम विराम पाया था। मैंने उनके पैर छू लिए थे। वे मरे लिए पिता - तुल्य ही थे। उन्होंने कहाथा,"मेरे हाथ और पैरों के स्पर्श करने से कहीं अच्छा होगा अगर आप अपने मेंदूसरे के लिए थोड़ा स्पेस दें यानि थोड़ा कष्ट उठाने के इस स्पिरिट (जज्बे) कोबनाये रखे. "इतना कहकर वे लाउन्ज से बाहर निकल गए थे। एक फ़रिश्ते के साथ की यह मुलाकातमुझे जिंदगी भर याद रहेगी।…।और इस तरह मेरा पर्स फिर मेरे स्पर्श - क्षेत्र में आ गया था। मेरा पर्स(वॉलेट) मुझे मिल गया था जैसे मुझे मेरी देविका फिर मुझे मिल गयी हो …
पूरी कहानी 33 मिनट की है। इस लिन्क पर पढ़ा जा सकता है:
"और पर्स मिल गया", को प्रतिलिपि पर पढ़ें :
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कल 03-02-2019 को अपराह्न 4 बजे से कथा मंजरी कार्यक्रम का आयोजन डा नर्मदेश्वर पाण्डेय जी की अध्यक्षता और आदरणीय श्रीराम पाण्डेय भार्गव जी के संचालन में स्थानीय तुलसी भवन में संपन्न हुआ। उसके पहले दिन में 10 बजे से पूर्व आयोजित "उरी" फिल्म का देखना कतिपय तकनीकी कारणों से नहीं हो पाया। लेकिन चुड़ा दही का सामुहिक भोज का आयोजन शानदार रहा।
कथा मंजरी कार्यक्रम के प्रारम्भ के पूर्व प्रसिद्ध कथाकार श्री जैनेंद्र कमार की तस्वीर पर पुष्प अर्पण कर उपस्थित साहित्यकारों ने श्रद्धांजलि दी। मेरी कहानी ,,"और पर्स मिल गया" से ही कार्यक्रम की शुरुआत हुयी। कहानी का सन्क्षिप्तीकरण किया हुआ प्रतिरूप यहाँ प्रस्तुत है।
अगर पूरी कहानी पढ़नी हो तो इस लिन्क पर पढ़ें:
मैं यहाँ उससमय ली गयी तस्वीरें भी दे रहा हूँ।
और पर्स मिल गया
गाड़ी तेज गति से दक्षिण के तरफ भागी जा रही थी। उसी के साथ उसका विचार - क्रम भी तीव्र गति पकड़ रहा था। उसे अपने वे सारे दिन जो उसने स्कूल, कॉलेज, गाँव, गणपति पूजा में बिताये थे रह – रह कर याद आ रहे थे।अभी वह पूरी तरह प्रोफेशनल नहीं बना था इसीलिए उसके अंदर संवेदनाएं और विचारणाएँ हिलोरें मार रही थी। 'अगर मेरा शहर ही इतना विकसित होता तो मैं भी वहीं रहकर नौकरी करता। तब कितना अच्छा होता। गाँव से जुड़ाव रहता और शहर में नौकरी रहती। अभी तो बड़े - बड़े शहर विकसित हो रहे हैं और फ़ैल रहे हैं। छोटे शहरों का विकास तो हो नहीं पा रहा है। जो शहर विकास के न्यूक्लियस बनकर आसपास के गावों के विकास में सहायक बन सकते थे, वे अभी आसपास के गाँवों के शोषण - बिंदु बनते जा रहे हैं।'
वह अपने विचार - यात्रा के क्रम को इस रेल यात्रा में भी ढोये जा रहा था। उसकी सोच कभी - कभी विचित्र दिशा पकड़ लेती थी। और वह उनमें फंसकर रह जाता था।
फिलहाल वह उनसे निकलना चाह रहा था । वह स्कूल, कॉलेज, गाँव, गणपति के समय बिताये गये अनमोल पलों में खो जाना चाहता था।
नितिन ने एन आई टी, नागपुर से मैकेनिकल इंजीनियरिंग किया था । चौथे साल में ही उसका प्लेसमेंट देश की मुख्य तेल कंपनी भारत पेट्रोलियम में हो गया था। लेकिन उस समय ज्वाइनींग कहाँ दिया जाएगा इसके बारे में कुछ नहीं बताया गया था । कहा गया कि ऑफर लेटर मिलने के बाद इसके बारे में पता चल जायेगा। अंततः ऑफरलेटर भी मिल गया था। उसका पदस्थापन कोयंबटूर में हुआ था। उसकी खुशी का ठिकाना नहीं था। बहुत ही शांत और अच्छी जगह है, ऐसा लोगों ने कहा था। हालाँकि वह तो कहीं के लिए भी तैयार था।
वह बार बार अपने पीछे के पॉकेट में रखे पर्स को छूकर महसूस कर लेना चहता था, कि वह वहीं पर तो है। यह पर्स देविका से मुलाकात की पहली निशानी थी।
देविका उसे लगातार हो रही बरसात में बड़ी सी झील के आल पर मिली थी। वह रो रही थी क्योंकि उसका बैग हवा में उडकर झील में जा गिर था। तुरत उसने अपना वॉलेट और मोबाइल अपने रुमाल में लपेटकर लड़की के हाथ में थमाया था और कूद पडा था झील में। उसने तैरकर उस झील से उसका बैग लाकर उसे दे दिया था। तभी उस लड़की ने, उसके वालेट वापस करते हुए अपने बैग में से एक नया वालेट निकाल कर दिया था। और बैग लेकर तेजी से भागते हुए ही बोली थी, "मेरा नाम, देविका पाटणकर। …मैने आपको एक नया वॉलेट भी दिया है। …उसमे मेरी सारी डिटेल्स हैं। …"
…और वह लड़की भागती हुई आँखों से दूर होती गयी थी।
X X X X X
यह लड़की क्या थी, बिलकुल कोयंबटूर एक्सप्रेस थी। जब भी मिली, भागती हुयी ही मिली। वह वॉलेट और नयी वॉलेट तथा अपना स्मार्टफोन पुनः पाकर खुश था। अगले सोमवार ही कोयंबटूर में भारत पेट्रोलियम में ज्वाइनिंग थी।
एक दिन एक लड़की का फोन आया था, "दो दिन हो गए। आपका फोन नहीं आया। मन नहीं माना, इसलिए फोन कर रही हूँ।"
"आप कौन?"
"भूल गए इतनी जल्दी, वही लड़की जिसका बैग आपने झील में से तैर कर लाकर दिया था। आपका वॉलेट और मोबाइल फोन भी मै लौटाई थी।"
"अच्छा, देविका जी, सॉरी, मैं आपको फोन नहीं कर सका, यहाँ आकर इतना काम पेंडिंग था। उसी में उलझ गया था।"
"आप मुझे देविका ही कहें, अच्छा लगता है।"
"जैसी आपकी इच्छा, देविका जी।"
"देविका जी, नहीं देविका।"
"ओके, ओके। मुझे अगले सोमवार को कोयंबटूर में भारत पेट्रोलियम में ज्वाइन करना था, उसी की तैयारी चल रही थी। आप अपने बारे में कुछ बताइये।"
"उस बरसात के दिन आप जिस बस मन सफर कर रहे थे, मैं भी उसी बस में यवतमाल से चढ़ी थी। मैं एक इण्टर कॉलेज में लेक्चरर के लिए इंटरव्यू देकर आ रही थी। इसीलिये सारे ओरिजनल सर्टिफिकेट्स भी मेरे पास ही थे। उस आँधी - तूफान में कीचड़ से सने रास्ते में मैं सम्हलने में थोड़ी लड़खड़ा गयी थी। इतने में आंधी का तेज झोंका आया और मेरा बैग उड़कर झील में जा गिरा था।"
"....और उसके बाद आपकी कहानी में मेरी एंट्री हो जाती है।"
"आपका बहुत - बहुत शुक्रिया। आप तुरत एक्शन नहेीं लेते तो मेरे सारेओरिजिनल सर्टिफिकेट्स तो गए थे।"
देविका की हल्की हँसी की आवाज में घुली उसकी खुशी से छनकर सवाल आया था, "क्या आपको मेरी दी गई वॉलेट पसंद आयी। "
"अरे वह तो बहुत अच्छी है। मैने अपने सारे डेबिट-क्रेडिट कार्ड्स उसी में रखे हैं और वह हमेशा मेरे साथ रहता है।"
उस तूफानी बरसात की मुलाकात के बाद मोबाइल पर इतनी ही बातें हुई थी।
पैंट्री के वेटर की 'चाय - चाय' की आवाज से उसकी नींद खुली थी। स्टेशन आनेवाला था, लोग अपने सामानों को ठीक - ठाक, ब्यवस्थित करने में लग गए थे। वह भी उठ गया था। जाकर बेसिन में अपना चेहरा धोया था। ट्राली अटैची को बर्थ के नीचे से निकाला था। रेलवे के द्वारा दिए गए कम्बल , चादर को लपेटकर खिड़की के तरफ खिसका दिया था। सोने के पहले उसने वॉलेट को लैप टॉप वाले बैग में रख दिया था। उसी बैग से वॉलेट को निकाला था और पैंट के बैक पॉकेट में रखकर वह उतरने को तैयार हो गया था। कोयंबटूर स्टेशन पर ट्रेन रुकी थी।अटैची और बैग लेकर वह ट्रेन से नीचे उतर गया था। प्लेटफार्म पर जब वह थोड़ी दूर चल चुका था तो उसने अपने हाथ पैंट के पिछले पॉकेट में रखे वॉलेट को छूकर, महसूस कर देविका की यादों को भी एक तरह से छेड़ना चाहा था। ये लो,वॉलेट तो वहाँ था ही नहीं। क्या हुआ ? उसने तो पैंट के उसी पॉकेट में रखा था। वहाँ तो था ही नहीं। ट्रेन में ही छूट गया क्या? ट्रेन अभी तक रुकी हुई थी। वह जल्दी से भागकर जिस डिब्बे में वह सफर कर रहा था उसमें घुसा था। अपनी बर्थ पर उसने कम्बल, चादर सारा हटा कर अच्छी तरह खोजा था। ट्रेन लगभग खाली हो गयी थी। उसने बाकी बर्थ पर भी ढूढ़ा था। वह पागलों की तरह सारे कम्बल चादरों को उठाकर, फेंक कर अपने पर्स को ढूढ़ रहा था। लेकिन पर्स नहीं मिली थी।
उसके साथ ही हमेशा ऐसा क्यों होता रहता है? हालाँकि बहुत लोगों के साथ ऐसा होता होगा। उनके बारे में, उनके ऐसे दुखद प्रसंगों के बारे में वह थोड़े ही जानता है। लेकिन उसे लग रहा था कि उसके साथ ही ऐसा होता है। उसने तो बड़ी होशियारी से वॉलेट निकालकर अपने पैंट की पिछले पॉकेट में रखा था। वह बार- बार अपने पैंट के सारे जेब टटोल रहा था। कही दूसरी जेब में तो नहीं रख दिया और ढूढ़ रहा है दूसरी जेब में। वॉलेट तो इतनी छोटी चीज है नहीं कि उसे महसूस नहीं किया जा सके। पैंट के सारे पॉकेट में हाथ डालकर फिर चेक किया। वहाँ भी वॉलेट कहीं नहीं था। हताश , निराश मन से वह ट्रेन से फिर उतरा था।कोई उपाय भी नहीं था। ट्रेन अपने आगे के गंतब्य की ओर प्रस्थान करने के लिए खुल चुकी थी। वह प्लेटफार्म के बेंच पर ही बैठ गया था। फिर अपने भाग्य , देव , किस्मत सबको एक साथ कोसने की कोशिश में जुटने ही वाला था कि उसके अंदर से किसी ने ढाढ़स दिलाया था।
"क्या हुआ? इतनी सी घटना से विचलित हो गए? एक वॉलेट के जाने से इतने उदास क्यों हो गये? क्या तुम्हारे लिए दुनिया ख़त्म हो गयी? कुछ पैसे गए थे। कुछ पैसे उसने चोर पॉकेट में सुरक्षित रखे हुए थे। उससे काम चलाओ। सारे कार्ड्सब्लॉक करवा दो। उसके बाद दूसरा कार्ड आ जायेगा। चिंता क्यों? चित्त में उल्लास भरो। चलो खुशी -खुशी मन से जॉब ज्वाइन करो।"
वह मन को दृढ कर प्लेटफार्म की बेंच से उठा था। बाहर में कंपनी की गाड़ी आयी थी। उसे ढूढने में कोई दिक्कत नहीं हुई थी। उसी गाड़ी से कंपनी के गेस्ट हाउस पहुँच गया था। गेस्ट हाउस में 15 दिनों तक रहा जा सकता था। इसी बीच एकोमोडेशन ढूढ़ लेना होता है ताकि गेस्ट हाउस खाली कर दिया जाय ।
वह गेस्ट हाउस पहुंचकर फ्रेश हुआ। वहाँ से ऑफिस पहुँचा और अपने ज्वाइनिंग की सारी औपचारिकताएं पूरी की। उसका इंडक्शन प्रोग्राम दे दिया गया और ट्रेनिंग -कम - इंडक्शन शेडूल दे दी गयी। दिन भर तो ऑफिस में मन कहीं - न - कहीं लगा रहा। शाम में अगर देविका का फोन आया तो उसे क्या कहेगा? उसके द्वारा दिया गया वॉलेट उसकी अपनी लापरवाही के कारण कहीं खो गया। माना कि वह कुछ नहीं कहेगी। पारिस्थिति की गंभीरता को समझते हुए वह मुझे ही समझाने की कोशिश करेगी,"वॉलेट का क्या है फिर दूसरा लेकर दे दूंगी। आप बिलकुल चिंतित न हों। बस यही सबसे बड़ी बात है। " लेकिन उसके मन में तो एक कसक - सी कहीं - न - कहीं रह रहकर उठती ही रहेगी। इससे पार तो पाना ही होगा, सामान्य दीखने के लिए भी और सामान्य जीवन जीने के लिए भी। आई और बाबा से भी उसने बातें की। सब ठीक है,ऐसा ही कहा था उसने। फिर कल विस्तार से बात करने का वादा कर वह सो गया था।
दूसरे दिन फ्रेश होकर जब ऑफिस पहुँचा तो देखा कि लोग उसी का इंतजार कर रहे थे।ऐसा क्या हो गया कि लोगों की रूचि उसके आते ही उसमें बढ़ गयी थी।
"मिस्टर तलवारे एक ब्यक्ति आपका इन्तजार कर रहे हैं। वे बोल रहे हैं कि कल से ही उसे ढूढने में और फिर मिलने के लिए परेशान हैं।" ऑफिस के हेड क्लर्क ने उससे कहा था। नितिन खुद कल से परेशान था। वह तो यहाँ किसी को जानता भी नहेीं था। फिर उसे कोई क्यों ढूढ़ रहा है? वह अंदर गया। वे ब्यक्ति ऑफिस के लाउन्ज में उसका इंतज़ार कर रहे थे। वह अंदर घुसते ही बोला था, "मैं ही नितिन तलवारे हूँ। लेकिन क्या मैं आपको जानता हूँ?"
"आपने सही कहा - आप मुझे नहीं जानते हैं। मैं रामचंद्रन, मेरी कोयंबरुर में ज्वैलरी की दूकान है।"
"लेकिन मैं तो ज्वैलरी खरीदने में अभी बिलकुल ही इंटरेस्टेड नहीं हूँ।"
"नहीं, नहीं मैं ज्वैलरी की डील के लिए आपके पास नहीं आया हूँ। मैं आपकी एक खोयी हुयी चीज आपको देने आया हूँ।"
"मैं समझा नहीं।"
फिर उस ब्यक्ति ने अपने हैंड बैग से मेरा वॉलेट निकाला था।
"क्या यह आप का ही है?"
उसके आश्चर्य का ठिकाना नहीं था, "कहाँ मिली यह आपको?”
"उसके बारे में मैं बता रहा हूँ। पहले आप इसे सम्हालिए।" रामचंद्रन जी ने वॉलेट मेरे हाथ में थमा दिया था।
उसके बाद उसने कहना शुरू किया था, " कल आप जिस ट्रैन से उतरे मैं भी उसी ट्रैन से उतरा था। आप उतरे उसके ठीक पीछे - पीछे मैं भी उतर रहा था। मैंने देखा कि एक बर्थ पर यह वॉलेट पड़ा हुआ था। अगर मैं छोड़ देता तो किसी और हाथों में यह पड़ जाता। इसलिए मैंने इसे उठा लिया। कल से मैं इस वॉलेट के ओनर को लोकेट करने में परेशान था।"
उसने एक साँस ली और फिर कहना शुरू किया , " मैंने दूकान पहुँचकर वॉलेट खोला था। उसमें आपका नाम मिला था। लेकिन नाम मिलने से ही तो काम बनने वाला नहीं था। वॉलेट को देखने से लगा था, यह किसी पढ़े - लिखे ब्यक्ति का ही हो सकताहै। फिर मैंने दूकान का कंप्यूटर ओन किया था। इंटरनेट कनेक्ट किया। फसेबूक पर मेरा भी अकाउंट हैं। मैंने खोला और आपके नाम से सर्च करना शुरू किया। आपका नाम एन आई टी , नागपुर में एक स्टूडेंट के रूप में दिखा था। "
वे कुछ क्षण के लिए रुके थे।
मैंने कहा था, "हाँ, मैंने जॉब मिलने के बाद उसे अपडेट नहीं किया है। कल ही तो मैंने यह जॉब ज्वाइन की है।"
उन्होंने फिर कहना शुरू किया, "फिर मैंने एन आई टी, नागपुर के साइट पर जाकर ऑफिस का फोन नंबर जाना, फिर ऑफिस में फोन किया था। काफी देर के बाद कई बार इन्क्वारी करने पर उन्होंने बताया था कि नितिन का कोयंबटूर में भारत पट्रोलियम से जॉइनिंग आया था। कहाँ ज्वाइन किया है कह नहीं सकते। इतना इनफार्मेशन लेते- लेते कल शाम हो गयी थी। इसीलिये मैंने सुबह आने का तय किया और आज मैं यहाँ हूँ, आपके वॉलेट के साथ।" उन्होने हँसते हुए कहा था। मेरी तो आँखों में आंसू आ गए थे। एक आदमी दूसरे के लिए इतनी परेशानी उठा सकता है, मुझे तो विश्वास नहीं हो रहा था। हमलोग अभी जिस सम्वेदना विहीन दौर से गुजर रहे हैं उसमे मिस्टर रामचंद्रन जैसे लोग एक फरिस्ते की तरह ही हैं।
मैंने उनके हाथों को थाम लिया था। मैं उस फरिस्ते को छूकर उसकी गर्माहट को महसूस करना चाहता था। काफी देर तक मैंने उनका हाथ थामे रहा था।
"मिस्टर तलवारे अब हम चलें।" उनकी आवाज से ही मेरा विचार - क्रम विराम पाया था। मैंने उनके पैर छू लिए थे। वे मरे लिए पिता - तुल्य ही थे। उन्होंने कहाथा,"मेरे हाथ और पैरों के स्पर्श करने से कहीं अच्छा होगा अगर आप अपने मेंदूसरे के लिए थोड़ा स्पेस दें यानि थोड़ा कष्ट उठाने के इस स्पिरिट (जज्बे) कोबनाये रखे. "इतना कहकर वे लाउन्ज से बाहर निकल गए थे। एक फ़रिश्ते के साथ की यह मुलाकातमुझे जिंदगी भर याद रहेगी।…।और इस तरह मेरा पर्स फिर मेरे स्पर्श - क्षेत्र में आ गया था। मेरा पर्स(वॉलेट) मुझे मिल गया था जैसे मुझे मेरी देविका फिर मुझे मिल गयी हो …
पूरी कहानी 33 मिनट की है। इस लिन्क पर पढ़ा जा सकता है:
"और पर्स मिल गया", को प्रतिलिपि पर पढ़ें :
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