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Monday, November 2, 2020

अयोध्या में राम के रावण वध कर लौटने पर दिवाली(कहानी)


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#Ayodhyamendipawali




अयोध्या में दीपावली
शत्रुघ्न असमंजस में है। आज भैया राम आनेवाले हैं, भाभी सीता और भैया लक्ष्मण भी आने वाले है। सभी माएँ खुश हैं। प्रजा में उत्साह का समुद्र उमड़ पड़ा है। फिर भैया भरत ने नंदी ग्राम में अपनी कुटिया के सामने चिता क्यों सजाने का आदेश दिया है?
इस असमंजस का उत्तर तो भैया भरत ही दे सकते हैं। उनसे पूछूं तो कैसे? वह तो उनके आदेश का ही पालन करते रहै हैं। जबसे राम भैया की पादुका लेकर भैया भरत चित्रकूट से लौटे है, अयोध्या के महल से दूर, नंदीग्राम की इसी कुटिया में चरण पादुका को स्थापित कर स्वयं पादुका के सतह के सामने बने, नीचे के गड्ढे में सोते रहे हैं। मैं ही अयोध्या और नंदीग्राम के बीच दौड़ लगाता रहा हूँ। अब क्या किया जाय?
सूर्य का गोला पूर्व क्षितिज से धीरे-धीरे ऊपर उठ रहा था। उसकी रश्मियाँ कुटिया में प्रवेश कर रही थी। कुटिया का कोना-कोना आलोकित हो उठा था। इस समय अपने कुलदेव सूर्य को अर्घ्य अर्पित करने के लिए भरत भैया आसन से उठते थे। शत्रुघ्न सोच रहे थे, यही समय सबसे उपयुक्त होगा। यही सोचते हुए वह कुटिया के बाहर इसतरह खड़े हुए थे कि उसकी परछाईं कुटिया में दिख जाए। परछाईं देखकर ही भरत समझ गए थे कि बाहर शत्रुघ्न खड़ा है। कुटिया की सफाई भरत स्वयं करते थे। सफाई करने के पश्चात उन्होंने कुटिया के द्वार के तरफ देखा था। अभी भी वह प्रतिच्छाया वैसी ही स्थिर थी। वे बाहर निकले तो उन्होंने देखा, शत्रुघ्न खड़ा है।
"भैया शत्रुघ्न इतनी देर से यहाँ खड़े किसका इंतजार कर रहे हों?"
"भैया बहुत असमंजस में हूँ। मैं आपसे कुछ पूछने की धृष्टता कैसे कर सकता हूँ? परन्तु अगर नहीं पूछूँ, तो आज के उत्सव के लिए आपके द्वारा दिये गए दिशा निर्देशों का पालन उतने उत्साह से नहीं कर सकूँगा।"
"शत्रुघ्न, उत्साह में कोई कमी नहीं आनी चाहिए। तुम्हारे उत्साह और जोश को कायम रखने के लिए मैं कुछ भी कर सकता हूँ। आज भैया राम आनेवाले हैं। लेकिन अभी तक इसकी कोई सूचना क्यों नहीं आयी?"
भरत व्यथित थे। उनका हृदय इतना बिलख रहा था कि करुणा के अश्रु- जलों से विशाल सागर का निर्माण हो चुका था। एक बार पहले भी उनका हृदय रोया था, जब उन्होंने राम के वन गमन का समाचार अयोध्या आने पर अपनी माँ कैकेयी से सुना था। तब भी वे चिंता की चिता की जलती लपटों के बीच में घिर गए थे। अपनी माता का त्याग कर  उन्होंने चित्रकूट जाने का निर्णय लिया था। उससमय भरत के चारों ओर फैली व्यथा, लोकोपवाद और आत्मग्लानि की भीषण ज्वाला की लपटों से राम ने बचा लिया था। उन्होंने ही अपनी चरण पादुका देकर भरत के जीवन को राममय बना दिया था। पादुकाएं उनके लिए राम का एक प्रतीक- मात्र नहीं है। वह उसमें अपने आराध्य का प्रतिदिन साक्षात्कार करते हैं। उन्होंने सत्ता से अलग रहते हुए, सत्ता के प्रति उत्तरदायित्वों का वहन किया, जिसका उदाहरण दुनिया के किसी भी कथानक और इतिहास में नहीं मिलता है।
शत्रुघ्न का असमंजस दूर नहीं हुआ था।
भरत ने शत्रुघ्न की ओर अपने अवसादग्रस्त हृदय की भावनाओं को छुपाते हुए, उसके असमंजस के कारणों को जानते हुए भी पूछा था, "पूछो, तुम्हारे मन में किस कारण असमंजस की स्थिति उत्पन्न हुई है?"
शत्रुघ्न ने संकोच करते हुए पूछा था, "भैया, इस उत्सव के समय आपने चिता सजाने का आदेश क्यों दिया?"
"मैं जानता था, तुम्हारे मन के असमंजस की स्थिति। बस थोड़ी देर और। तुम्हें इसका समाधान मिल जाएगा।"
राम को भी अवध और भरत की सुधी कभी नहीं विस्मृत हुयी थी। भरत के प्रति अपने प्रेम की प्रतीति राम एक क्षण भी नहीं भूले:
बीते अवध जाऊँ जौं, जियत न पावउँ बीर।
सुमिरत अनुज प्रीति प्रभु पुनि पुनि पुलक शरीर।।
भरत मन में विचार कर रहे हैं, "राम के आने की कोई सूचना नहीं मिल रही है। प्रभु ने मुझे कपटी और कुटिल समझा, तभी अपने साथ वन को नहीं ले गए। लक्षमण कितना बड़भागी है, जो राम के चरणारविन्द से कभी अलग नहीं हुए। अगर भैया राम समय पर नहीं आते हैं, तो भरत इसी चिता में समाकर अपना अग्निसंस्कार कर लेगा।"
इसीलिए भरत ने चिता सजाने का भी आदेश दे दिया था।
उधर राम , सीता, लक्षमण विभीषण, सुग्रीव, अंगद और हनुमान सहित प्रयागराज पहुंचते हैं। बाल्मीकि रामायण के अनुसार राम जी हनुमान को निर्देश देते हैं, " तुम भरत को जाकर देखो। उनका मन यदि अयोध्या के राज्य में रम गया हो, तो तुम लौट आना। ऐसी स्थिति में मैं अयोध्या लौटकर नहीं जाऊँगा। भरत ही वहाँ राज्य करें।"
श्री भरत के संदर्भ में यह सत्य नहीं था। तुलसी के राम में क्षण भर के लिए भी संशय नहीं होता कि भरत राज्य पाकर उसमें आसक्त हो गए होंगें। बाल्मीकि जो कहते हैं वह मनुष्य - जाति के अनगिनत अनुभवों का ही परिणाम था। श्री भरत इससे अनभिज्ञ नहीं थे। सिंहासन पर पादुकाओं की प्रतिष्ठा और नंदीग्राम से राज्य का संचालन दोनों ही इस सजगता के परिणाम हैं। वे सत्ता और भोग के दोनों केंद्रों से दूर रहने का निश्चय कर चुके थे।
सत्ता का संबंध मन से है और भोगों का संबंध शरीर से है। मन और शरीर दोनों ही एक दूसरे के प्रति आसक्त हैं। एक का प्रभाव दूसरे पर पड़ता ही है। एक बार मन सत्ता की सुरा का अभ्यस्त होते ही भोग के अन्य उपकरणों की मांग करता है । और यदि शरीर एक बार भोगों का अभ्यस्त हो जाय तो इन भोगों की स्थिरता के लिए उसे सत्ता की आवश्यकता का अनुभव होता है। इस तरह शरीर और मन दोनों मिलकर ऐसा षड्यंत्र करते हैं कि विवेक खड़ा - खड़ा देखता रह जाता है। प्रारंभ में वह चेतावनी देता है, किंतु बाद में वह भी मौन हो जाता है और अंत में वह समर्थन की स्थिति में भी उतर सकता है। देखते ही देखतेे व्यक्ति इतना बदल नाता है कि विश्वास ही नहीं होता कि कभी यही व्यक्ति धर्मात्मा, सदाचारी और शीलवान था। यह इतिहास इतनी बार दुहराया गया है कि इसे सृष्टि का अकाट्य सत्य मान लिया गया-
नहीं कोउ अस जनमा जग माही, प्रभुता पाइ जाहि मद नाही।।
इससे बचने के लिए केवल विवेक ही यथेष्ट नहीं हैं। शरीर और मन पर नियंत्रण रखना आवश्यक है। यह नियंत्रण वाह्य और आंतरिक दोनों ही रूपों में आवश्यक है। कोई भी व्यक्ति कितना भी महान क्यों न हो अपने मन पर अत्यधिक विश्वास करने का धोखा खाये बिना नहीं रहता है।
राम - वियोग के सागर में भरत का मन डूब रहा है। उसी समय हनुमान जी ब्राह्मण का रूप धरकर इस प्रकार आ गए मानों उस अथाह सागर में उन्हें डूबने से बचाने के लिए कोई पतवार सहित नाव आ गयी हो।
राम विरह सागर मँह भरत मगन मन होत।
विप्र रूप धरि पवनसुत आई गयउ जनु पोत।।
भारत के त्याग, तप, तितिक्षा, तपस्वी का तेज और राम -विरह में बहती अश्रु धारा को देखकर हनुमान जी का सारा संशय दूर हो गया । उन्हें समाचार सुनाने में कोई संकोच नही हुआ,
"रिपु रन जीति सुजस सुर गावत। सीता सहित अनुज प्रभु आवत।"
भरत के यह पूछने पर कि हे,तात तुम कहाँ से आये हो और इतना परम प्रिय वचन सुनाए हो, हनुमान जी अपने स्वरूप में आ जाते हैं ।भरत ने भाव विह्वल होकर उनसे कहा था,
"कपि तव दरस सकल दुख बीते। मिले आजु मोहि राम पिरीते।।"

शत्रुघ्न के सारे संशय दूर हो जाते है।
राम के आने का सुसमाचार सारी अयोध्या में मीठी सुगंध की तरह व्याप्त हो जाती है।
-----★★★★----
आसमान में पुष्पक विमान दिख रहा है। सरयू के किनारे विशाल मैदान में गुरु वशिष्ठ सहित सभी ऋषि मुनि, भरत, शत्रुघ्न, माताएँ, बहुएँ, अयोध्या के वृद्ध पुरूष-स्त्रियाँ, युवा - युवतियाँ, किशोर - किशोरियाँ सबों का विशाल समूह प्रभु राम की प्रतीक्षा में अधीर हो रहे हैं।
विमान धरती पर उतरता है। राम गुरु के चरणों में शीश नवाकर, सबसे पहले माता कैकेयी से मिलते हैं।
"पग धरि कीन्ह प्रबोध बहोरी। काल कर्म विधि सिर धरि खोरी।।"
राम अपने इस व्यवहार से माता कैकेयी को ग्लानि मुक्त करने का प्रयास करते हैं। इसके लिए उन्होंने काल-कर्म के दार्शनिक सिद्धांत का आश्रय लिया। राम अपने स्वरूप का विस्तार कर सारी प्रजा से एक साथ मिलते है।
मिलते हुए उन्हें इतना आंनद आ रहा है, जैसे सरयू में आनंद की लहरें उठ रही हों। उन्हें अचानक एक बात मन में खटकती है। वे भरत से पूछते हैं,
"भैया भरत, अयोध्या की सारी प्रजा दिख रही है। किशोर और किशोरियाँ भी दिख रही है। क्या तुमने गोद के बालकों सहित माताओं को बाहर निकलकर आने से मना कर रखा है?"
भरत भाव -विह्वल हो प्रजा की ओर इंगित करते हुए कहते है, 
"भैया, आप के वन - गमन के पश्चात अयोध्या में कोई भी उत्सव  नहीं मनाया गया।  सभी अयोध्यावासी तपश्चर्या में लीन थे, किसी भी क्षण आपकी छवि अपने सामने से नहीं हटने देते थे। पुरुषों और स्त्रियों के बीच कभी संपर्क हुआ ही नहीं। सभी  इन चौदह वर्षों तक अखंड ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हुए राक्षसों के साथ आपके रण में जीतने के लिए तप, त्याग, यज्ञ, दान में लीन रहे। भैया, इसीलिए आप अयोध्या की प्रजा के बीच चौदह वर्ष से कम आयु के किसी भी बालक -बालिका को नहीं देख पा रहे हैं।"
भरत का वक्तव्य समाप्त होते ही राम ने अयोध्यावासियों को संबोधित करते हुए कहा, "मेरे सर्व प्रिय अयोध्यावासी, अभी मुझे प्रतीत हो रहा है कि रावण और उसकी सेना से लड़ते हुए मुझे इतनी शक्ति, इतनी ऊर्जा कहाँ से मिल रही थी। वह सारी ऊर्जा मुझे आपके तप, त्याग, तितिक्षा से मिल रही थी। वहाँ दिख तो रहा था कि एक राम लड़ रहा है। वस्तुतः मैं आप सबों के अंदर बसे राम की ऊर्जा के साथ लड़ रहा था। रावण से राम नहीं, पूरी अयोध्या लड़ रही थी। जब पूरी अयोध्या किसी से लड़ेगी तो उसे कौन हरा सकता है। मैंने राक्षसों का नाश नहीं किया है, आपने उन्हें समूल, सपरिवार यमपुर पहुंचाया है। आपके इस तप से निकले तेज को नमन करता हूँ और गुरुजनों तथा भाई भरत की सम्मति से यह घोषणा करता हूँ, पूरी अयोध्या की हर वीथी, चौराहों, खेतों, खलिहानों, कुओ, तालाबों को दीपक के समूहों से और प्रकाश स्तंभों से आलोकित कर दिया जाय। ऐसी दीपावली मनायी जाय, जैसी पहले कभी नहीं मनाई गई हो।"
सारी प्रजा में उत्साह और उमंग की तरंग उठती रही।
©ब्रजेन्द्रनाथ






7 comments:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (04-11-2020) को   "चाँद ! तुम सो रहे हो ? "  (चर्चा अंक- 3875)   पर भी होगी। 
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है। 
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सुहागिनों के पर्व करवाचौथ की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।  
सादर...! 
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' 
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Marmagya - know the inner self said...

आदरणीय डॉ रूपचंद्र शास्त्री मयंक सर, नमस्ते 🙏!
मेरी इस रचना को "चर्चा अंक-3875 में सम्मिलित करने के लिए आपका हृदय से आभार व्यक्त करता हूँ। सादर!--ब्रजेन्द्रनाथ

Anita said...

अति सुंदर शैली में कहा गया कथा प्रसंग

Marmagya - know the inner self said...

आदरणीया अनिता जी, नमस्ते👏! आपने मेरी रचना पर उतसाहवर्धक प्रतिक्रिया दी है। इसके लिए हार्दिक आभार!--ब्रजेन्द्रनाथ

Onkar said...

सुन्दर प्रस्तुति

Marmagya - know the inner self said...

आदरणीय ओंकार जी, नमस्ते👏! आपके सराहना के स्वर ऊर्जस्वित कर देते हैं। हार्दिक आभार!--ब्रजेन्द्रनाथ

दिगम्बर नासवा said...

राम काव्य की गाथा ... बाखूबी लिखी है आपने ...

माता हमको वर दे (कविता)

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