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#पाठकों से मन की बात# pathakon se man ki bat
पाठकों से मन की बात भाग 4:
परम प्रिय प्रबुद्ध पाठकगण,
मैंने अपने पिछले वक्तव्य में "व्यूज और लाइक्स में फंसा सद्साहित्य" शीर्षक से अपने विचार व्यक्त किये थे। इसपर परम स्नेही आ सरोज सिंह जी, प्रीतिमा भदौरिया, गरिमा मिश्रा और रितेश कुमार बरनवाल "आर्य" जी की प्रतिक्रिया प्राप्त हुई। मुझे खुशी हुई कि मेरे इस लेख ने इस युग में तुरत सफलता पाने की लक्ष्य पूर्ति के लिए कृत्रिम रूप से वाहवाही प्राप्त करने के सोशल मीडिया के तिलस्म से सावधान रहने की जरूरत का आपने भी समर्थन किया है। इस युग में जब बाजार हावी है, उसके प्रभाव को स्वीकार करते हुए और झेलते हुए , पाठकों को नीर - क्षीर को विलग करने की विवेकशीलता के प्रति और भी उत्तरदायी बनाता है। उसी तरह लेखक का भी कर्तव्य होता है कि वह प्रचलित कंटेंट से अधिक परिष्कार युक्त कंटेंट प्रस्तुत करने पर ध्यान दे। इसके लिए हो सकता है कि उसे अधिक शोध करना पड़े, अधिक रातों को जागते हुए बिताना पड़े, अधिक साहित्य का अध्ययन करना पड़े, उसे जिसे अंग्रेजी में कहते हैं न "एक्स्ट्रा माइल" , चलना पड़े।
प्रतिलिपि का अधिकांश पाठक वर्ग प्रबुद्ध है, इसीलिए कोई भी लेखक को इससे जुड़ने पर गर्व महसूस होता है। जब आप किसी भी कंटेंट पर अच्छा कमेंट लिखकर भी ★ या ★★ स्टार देते हैं, तो बात समझ में नहीं आती। आप लेखक की रचना के किस भाग को और बेहतर देखना चाहते है, उसे अवश्य अंकित करें। यह एक स्वस्थ संवाद की प्रक्रिया है, जिसे लेखकों को भी स्वीकार करना चाहिए। लेखकों को अपनी अभिव्यक्ति में शब्द साधना के स्तर को उत्तरोत्तर उत्कर्ष की ओर ले जाना चाहिए। पटल पर डालने के पहले उसे अच्छी तरह संशोधित कर लें ताकि टंकण की अशुद्धियाँ नहीं हो। अगर कोई पाठक इन अशुद्धियों की चर्चा करते हैं, तो उन्हें सकारात्मक रूप में लेना चाहिए और उन अशुद्धियों को संशोधित भी कर लेना चाहिए। इसकी व्यवस्था प्रतिलिपि के सॉफ्टवेयर प्रोग्राम में अन्तरविद्ध (embedded) है। आज के लिए इतना ही।
फिर मिलते है, अगले शुक्रवार को एक ज्वलंत मुद्दे पर चर्चा के साथ...
क्रमशः...
©ब्रजेन्द्रनाथ
1 comment:
बिलकुल सही , बहुत सुन्दर विचार
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