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Sunday, October 29, 2017

तवरीख के पंख पर क्रांतियाँ (कविता)

#poem#social
#BnmRachnaWorld

चूल्हे जलते नहीं यहाँ किसी भी घर में,
फिर भी बस्ती से उठता हुआ धुआं तो देख।
महलों के कंगूरे गगन को चूमते हैं, मगर
मिलता नहीं यहाँ किसी को आशियाँ तो देख.

ये हरियाली जो दीखती है दूर तलक,
नजरें उठा, दूसरे तरफ का फैलता रेगिस्तां तो देख.

फूटपाथ पर सोये हैं जो लोग सट - सट कर,
उनके ऊपर का खुला आशमां तो देख.

जला चुके थे तुम जिन्हें चुन - चुन कर,
उस राख से उठती हुई चिंगारियाँ तो देख.

अब लाशें भी उठकर खड़ी हो गयी हैं,
हवा में उनकी तनी हुयी मुठियाँ तो देख.

ढूह में बदल जायेंगें महल दर - बदर,
खँडहर कहेंगे इन सबों की दास्ताँ तो देख.

वे जो सोते हैं भूख से बिलबिलाकर,
तवारीख के पंख पर लिखेंगे क्रांतियां तो देख.आ

by Brajendra Nath Mishra

Friday, October 27, 2017

दर्द चेहरे पे उभर आये हैं (कविता)

#gazal#love
#BnmRachnaWorld

दर्द चेहरे पर उभर आये हैं

दर्द जो दिल में छुपा रखे थे,
आज चेहरे पे उभर आये हैं।

जिन्होंने देने को संभाले रखा था
ये सारे गम, उसी के कुछ बकाये हैं।

लोगों ने साधे इतने निशाने मुझपर,
 गिरता नहीं खूँ, इतने तीर खाये हैं।

कैसे कह दूं मैं हँसता ही रहूँगा
आंसू भी तो मेरी आँखों में समाये है।

कहीं भी  शबनम सी बिखर जाती हो
कभी झांको मेरे दिल में भी सरमाये हैं।

छुआ था कभी होठों से मेरे होठों को
हम आज भी उसी याद को चिपकाये हैं।

सरमाया - मूलधन, पूंजी।
©ब्रजेन्द्र नाथ मिश्र
  तिथि: 11-03-2017, वसई ईस्ट, मुम्बई।

रौशनी का गान सूरज (कविता)

#poem#nature
#BnmRachnaWorld

ओ बी ओ (open books online) साहित्य मर्मज्ञों द्वारा संचालित अन्तरजाल है, जो हर महीने ऑन लाईन उत्सव आयोजित कर्ता है। इस बार यह उत्सव 13-14 अक्टूबर को आयोजित किया गया था।

"ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-84
विषय - "सूर्य/सूरज"
आयोजन की अवधि- 13 अक्टूबर 2017, दिन शुक्रवार से 14 अक्टूबर 2017, दिन शनिवार की समाप्ति तक
(यानि, आयोजन की कुल अवधि दो दिन)

उपरोक्त उत्सव में मैने भी अपनी रचना भेजी थी। अभी आज सूर्योपासना का महान पर्व "छठ" का समापन हुआ है। "सूर्य/सूरज" विषय पर मैने अपनी रचना डाली थी उसे दे रहा हूँ।

रौशनी का गान सूरज

रौशनी का गान सूरज।
प्राणियों का प्राण सूरज।

सुबह की पसरी ओस,
किरण की एक डोर।
ठहरती उन बूंदों पर ,
बिखरती चहुँ  ओर।

सुनहरी मोतियों का
खड़ा करता मचान सूरज।
रौशनी का गान सूरज।
प्राणियों का प्राण सूरज।

पंछियों को, पादपों को,
मनुजों को, तलैया को।
किरणों  की बूंदें बरसाता,
नहाने को, गौरैया को।

समष्टि  का मान सूरज।
प्राणियों का प्राण सूरज।
रौशनी का गान सूरज।

सूर्य- रश्मियों में नहाई,
प्रकृति कैसे विचर रही!
झूम रहा कदम्ब-तरु भी,
तान- मुरली पसर रही।

डोलता बहती उर्मियों संग,
यमुना को देता सम्मान सूरज।
प्राणियों का प्राण सूरज।
रौशनी का गान सूरज।

दोपहर की धूप
जलाती है बदन।
सूखते ताल, नलकूप,
चैन देता, डोलता पवन।

सन्ध्या संग मिलन को
जाता वेगवान सूरज।
रौशनी का गान सूरज।
प्राणियों का प्राण सूरज।


@ब्रजेन्द्र नाथ मिश्र
 ता: 08-10-2017
 वैशाली, दिल्ली एन सी आर।

Thursday, October 26, 2017

डिवाईडर पर कॉलेज जंक्शन (उपन्यास की कहानी की एक झलक)

#novel#youth
#BnmRachnaWorld
#dividerparcollegejunction

मेरी प्रकाशनाधीन पुस्तक " डिवाईडर पर कॉलेज जंक्शन" की प्रस्तावना के कुछ अंश प्रस्तुत हैं:


मनस्वीनुमा मनसाईन बतियाँ

  यह उपन्यास चौबीस अध्यायों में अपना फैलाव लिए हुए है। जिंदगी भी तो हर रोज चौबीस घंटों में पल - पल सिमटती हुई, क्षण - क्षण में खनकती हुई सुगन्धित, पुष्पित, फलित होती है। कोई इसे छककर काटता है और किसी से काटे नहीं कटती।
वैसे पूरी कथा एक डिग्री कॉलेज से सम्बन्ध रखती है। पृष्ठभूमि में 70 का दशक, कहानी का कालखण्ड है लेकिन रैंडम मेमोरी पर आज की ही रची बसी, गुँथी, सुलझी, उलझी तंतुओं में गढ़ी लगती है। इसका नायक पुष्प शायद संशयग्रत हो सोच रहा है:

यह कौन बैठा नदी की तीर पर,
निश्चेष्ट, निश्चल देखता जल - प्रवाह।
टूटना, बिला जाना, तट से मृतिका - कणों का,
और डूब जाना पत्थरों का अतल - जल में।

पत्थर बने जो करते अलंकृत
स्वयं को मिथ्या अहमन्यता से।
वे ही कहीं तो डूबते नहीं
प्रवाहमान जल के अतल - तल में?

परन्तु अपने उस अभिमान में
हिंसा का तांडव किया करते हैं वे।
उससे विगलित समाज के तन्तु को,
किस तरह, झकझोर, तोड़ फेंकते अनल में।

ऐसे तत्व भी (या) ही इतिहास में स्थान पाते,
झोंक जन को और जग को।
एक भीषण युद्ध की विभीषिका में,
मानवता जहां मृत्यु – शवों को ढूढती विकल हो।

हिंसा का प्रत्युत्तर न दे,
चुपचाप रहकर सहे जाना।
उदारता, सदाशयता का ओढ़ आवरण,
क्लैब्य-दोष-मण्डित कर लेना नहीं तो और क्या है?

इन्हीं सवालों का जवाब ढूढने को मजबूर करता यह कथानक पुस्तक रूप में पाठकों के सामने खुला पड़ा है। कथ्य में हास्य - ब्यंग्य का पुट भी है। इसलिए ऊपर दी गई, सोचने को विवश करती पक्तियों को मस्तिष्क के पिछले हिस्से में रखकर पढ़े और कथा प्रवाह का आनंद लें।
                                     
                                                      --ब्रजेंद्र नाथ मिश्र
#dividerparcollegejunction
#BnmRachnaWorld
POSTED ON FB GROUP "FRIENDS WHO LIKE HIND YUGM PUBLICATION " ON 01-11-2017
आज फिर मैं अपने प्रकाशनाधीन उपन्यास "डिवाईडर पर कॉलेज जंक्शन" में उल्लिखित एक प्रसंग से आप सबों को रुबरु कर रहा हूं:

हिन्दी विभाग के विभागाध्यक्ष थे, सीताराम प्रभाष । प्रभाष उनका तखल्लुस या उपनाम था।  वे जब भी किसी वर्ग में  ब्याख्यान देने जाते तो विद्यर्थियों की उपस्थिति  लेने के बाद अपनी कोई ताजी या पुरानी कविता जरूर सुनाते। लोग कहते थे कि प्रभाष जी अच्छे कवि थे।  इतने अच्छे कवि थे कि  उनकी कविता बहुत कम लोगों को समझ में आती थी।  उन्हें कवि सम्मेलनों के आयोजक बुलाना चाहते थे।  कोई - कोई आयोजकों ने उन्हें बुलाया भी।  लेकिन जब वे कविता सुनाने लगते तो श्रोताओं की समझ से ऊपर - ऊपर गुजर जाने के कारण वे हूट कर दिए  जाते। इसके बाद आयोजन में आये अन्य कवियों की कविताएँ सुनने का श्रोताओं का  मूड खराब हो जाता।  इसलिए आयोजक  कवि - सम्मलेन की सफलता सुनिश्चित करने के लिए प्रभाष जी को बुलाने  से  परहेज करने लगे।  अगर किसी आयोजक को प्रभाष जी को बुलाना आयोजन के लिए मजबूरी होती तो उन्हें बोलने का और कविता - पाठ करने का  अवसर अंत में दिया जाता ताकि उनके हूट हो जाने पर अन्य कवियों की प्रस्तुति  प्रभावित न हों।  जाहिर है, अंत में टेंट और लाइट या पेट्रोमैक्स वाले ही उनकी गूढ़ विषयों पर लिखी गई रहस्यवादी  कविताओं का रसास्वादन के लिए बचे रहते थे।

             यही हाल उनकी कविताओं के प्रकाशन के सम्बन्ध में भी कही जा सकती है।  बहुत से प्रकाशकों को उनकी कविताएँ समझ में नहीं आती थी।  इसलिए वे उनकी रचनाओं को खेद सहित वापस कर दिया करते थे।  एक ही जगह से उनकी कविताएँ कभी वापस नहीं हुईं।  वो जगह थी कॉलेज मैगज़ीन।  हर वर्ष कॉलेज मैगज़ीन जिसका नाम "अभियान" था, छपती थी। इसके संपादक तो बाल्मीकि प्रसाद जी थे, लेकिन संपादक मंडल में  प्रभाष जी थे, इसीलिये उनकी कविताएँ छापने की मजबूरी थी।
            लेकिन इसी मजबूरी  से बाल्मीकि प्रसाद अपना काम निकालने में अक्सर प्रभाष जी का इस्तेमाल करते थे। बाल्मीकि प्रसाद लेट - फेट भी कॉलेज आते या बिना सूचना के अनुपस्थित रहते तो प्रभाष जी कोई अनुशासनात्मक कार्रवाई करने  से हिचकते। उन्हें मैगज़ीन में अपनी कविताएँ जो छपवानी थी।  वे तो चाहते थे साल में जो अंक कॉलेज मैगज़ीन का निकलता था उसमें सिर्फ उनकी अप्रकाशित कविताओं का विशेषांक ही निकले।  परन्तु कॉलेज की प्रशासनात्मक सभा के पत्रिका निकालने के कुछ दिशा - निर्देश दिए गए थे जिनका पालन आवश्यक था।  इसलिए प्रभाष जी की एक या दो कविताओं को ही उसमें स्थान मिलता था।
            अब ऐसे कवि को जिसे न कवि - सम्मेलनों के आयोजक कविताएँ सुनाने के लिए बुलाते और न कोई प्रकाशक ही प्रकाशन के लायक समझता,  उसके लिए विद्यर्थियों के ब्याख्यान लेने के समय अपनी कविता सुनाने के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं बचा था। विद्यार्थियों को हिन्दी विषय के बर्ग की ब्याख्यान माला में उपस्थिति का न्यूनतम प्रतिशत अनिवार्य था।  इसलिए  वे सभी  प्रभाष जी की दुरूह, अबोधगम्य  और सर के ऊपर से निकल जाने वाली कविताओं को सुनने के लिए मजबूर थे।

नोट: उपन्यास को अमेज़न पर ऑन लाइन खरीदें,
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Sunday, October 15, 2017

अन्तस का तमस मिटा लूं (दिवाली पर कविता)

#poetry#diwali
#BnmRachnaWorld

अन्तस का तमस मिटा लूं
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पहले अंतस का तमस मिटा लूँ,
तब बाहर का दीपक जलाने  चलूँ।

गम का अँधेरा घिरा आ रहा है,
काली अंधेरी निशा क्यों है आती?
कोई दीपक ऐसा ढूँढ लाओ कहीं से,
नेह के तेल में  जिसकी डूबी हो बाती।

अंतर में प्रेम की कोई बूँद डालूं,
तब बाहर का दरिया बहाने चलूँ।
पहले अंतस का तमस मिटा लूँ,
तब बाहर का दीपक जलाने  चलूँ।

इस दीवाली कोई घर ऐसा न हो,
जहां ना कोई दिया टिमटिमाये।
इस दीवाली कोई दिल ऐसा न हो,
जहाँ दर्द का कोई कण टिक पाये।

गले से लगा लूँ, शिकवे मिटा लूँ,
तब बाहर की दुश्मनी मिटाने चलूँ।
पहले अंतस का तमस मिटा लूँ,
तब बाहर का दीपक जलाने  चलूँ।

क्यों नम है आंखें, घिर आते हैं आँसू,
वातावरण में क्यों  छायी उदासी?
घर में एक भी अन्न का दाना नहीं है
क्यों गिलहरी लौट जाती है प्यासी?

अंत में जो पड़ा है, उसको जगाकर,
उठा लूँ,   गले  से लगाने चलूँ।
पहले अंतस का तमस मिटा लूँ
तब बाहर का दीपक जलाने  चलूँ।

तिरंगे में लिपटा आया  लाल जिसका
कि पुंछ गयी हो, सिन्दूर - लाली।
दुश्मन से लड़ा, कर गया प्राण अर्पण
घर में कैसे सब मनाएं दीवाली?

घर में घुसकर अंदर तक वार करके
दुश्मन को लगाकर ठिकाने चलूँ ।
पहले अंतस का तमस मिटा लूँ,
तब बाहर का दीपक जलाने  चलूँ।

धुंआ उठ रहा है, अम्बर में छाया,
तमस लील जाये न ये हरियाली।
बंद हो आतिशें, सिर्फ दीपक जलाओ,
प्रदूषण - मुक्त हो, मनाएं दीवाली।

स्वच्छता, शुचिता, वात्सल्य, ममता
को दिल में गहरे बसाने चलूँ।
पहले अंतस का तमस मिटा लूँ
तब बाहर का दीपक जलाने  चलूँ।

@ब्रजेन्द्र नाथ मिश्र
ता: 15-10-2017


Tuesday, October 10, 2017

कुछ गुनगुनाना चाहता हूँ (कविता)


#poetry #romantic
#BnmRachnaWorld

अपने अहसास, धीमें धीमें सुनाना चाहता हूं।
तुम अगर कह दो, तो कुछ गुनगुनाना चाहता हूँ।

सुर मेरे  टूटे हुए हैं, लय भी   रूठे हुए हैं।
फिर भी जिद है कि तराना बनाना चाहता हूँ।

नींद भी आई न थी कि सुबह दस्तक देने लगी,
तेरी जुल्फों के बादलों में भींग जाना चाहता हूं।

तेरी आँखों में एक समन्दर का फैलाव है
उसी में डूबकर अपनी थाह पाना चाहता हूँ।

वैसे तो जिंदगी में गमों की गिनती नहीं है,
उन्हीं में से हंसी के कुछ पल चुराना चाहता हूं।

तेरे हँसने से छा जाती है जर्रे जर्रे में खुशी
उन्हीं में से थोड़ी  हर ओर लुटाना चाहता हूं।

तेरे वज़ूद में  कशिश की किश्ती सी तैरती है
उसी में इस पार से उस पार जाना चाहता हूं।

मैने चाहा है, तुम भी चाहो ये जरूरी तो नहीं,
इस तरफ से उस तरफ तक पुल बनाना चाहता हूं।

@ब्रजेन्द्र नाथ मिश्र
  ता: 10-10-2017
  वैशाली, दिल्ली एन सी आर।




माता हमको वर दे (कविता)

 #BnmRachnaWorld #Durgamakavita #दुर्गामाँकविता माता हमको वर दे   माता हमको वर दे । नयी ऊर्जा से भर दे ।   हम हैं बालक शरण तुम्हारे, हम अ...