Followers

Friday, April 11, 2014

अनावृत जिस्म (कविता)

अनावृत जिस्म

अनावृत जिस्म कब  निढाल हो
सो जाता है , गर्दन झुकाये।
जैसे सच्चाई अनावृत हो,
किन्तु सो जाती है उसकी आवाज
बिन चिल्लाये।

शरीर निर्वसना हो,
कहीं सड़क किनारे या पार्क में पड़ा हो,
सभी राहगीरों की सायकिल
स्कूटर, मोटर साइकिल या कारें,
अक्सर वहीं होती ब्रेकडाउन हैं ,
जैसे आदमी का हर दम
डाउन होता ईमान है।

और वो जो पडी है वहां पर
निर्वसना कहाँ है वह,
ऊपर तो पड़ी  चमड़ी की चादर है।
उससे नीचे झांकने की
 नहीं किसी की ब्यग्रता है ,
क्योकि वहां सच पिघल - पिघल कर
हड्डियों के बोन मेरो में ढलता है।
इसलिए आंतें नहीं कुलबुलाती,
किडनी नहीं रक्त - शोधन करता है ,
हाँथ- पाँव सुन्न से हैं ,
सिर्फ जिगर धड़कता है।
और ऑंखें देखती हैं,
की कौन - कौन उसे देखता है,                               
और आगे बढ़ जाता है।


---ब्रजेंद्र नाथ मिश्र
   जमशेदपुर

No comments:

प्रतिलिपि क्रिएटर्स अवार्ड

  परमस्नेही मेरे वृहत परिवार के साहित्य मनीषियों, मुझे आपसे साझा करते हुए अत्यंत हर्ष हो रहा है कि कल 13 अगस्त 25 को भारतीय रजिस्टर्ड डाक द्...