#BnmRachnaWorld
#novelromantic
मैं अपने हाल ही में amazon kindle पर प्रकाशित अपने उपन्यास के कुछ अंश यहाँ दे रहा हूँ। आपको अच्छा लगे तो उस उपन्यास को इस लिंक से डाऊनलोड कर अवश्य पढ़ें और अपने विचारों से अवगत कराएँ। आपके विचार मेरे लिए बहुमूल्य हैं।
Link: Chhootata Chhor Antim Mod (Hindi Edition) https://www.amazon.in/dp/B08286BH1W/ref=cm_sw_r_cp_apa_i_mQs-Db2FSS5GS
#novelromantic
मैं अपने हाल ही में amazon kindle पर प्रकाशित अपने उपन्यास के कुछ अंश यहाँ दे रहा हूँ। आपको अच्छा लगे तो उस उपन्यास को इस लिंक से डाऊनलोड कर अवश्य पढ़ें और अपने विचारों से अवगत कराएँ। आपके विचार मेरे लिए बहुमूल्य हैं।
Link: Chhootata Chhor Antim Mod (Hindi Edition) https://www.amazon.in/dp/B08286BH1W/ref=cm_sw_r_cp_apa_i_mQs-Db2FSS5GS
छूटता छोर
अंतिम मोड़
(उपन्यास)
ब्रजेन्द्रनाथ मिश्र
प्रकाशक: Kindle Direct Publishing
पहला संस्करण: 2019
©कॉपीराईट: ब्रजेंद्रनाथ मिश्र
डिस्क्लेमर:
इस पुस्तक में वर्णित स्थान, पात्र और घटनाएं काल्पनिक हैं। इससे किसी तरह की समानता संयोग - मात्र हो सकता है। इससे लेखक या प्रकाशक का कोई लेना देना नहीं हैं। इस पुस्तक का किसी भी तरह से अनुकरण, मुद्रण या प्रकाशन का सर्वाधिकार लेखक के अधीन है।
ललिता को:
जिसने मेरे 45 से अधिक वसंतों को सुषमा, सुगंध और सुप्रसन्नता से परिपूर्ण रखा ताकि पतझड़ों के मौसम में भी मेरी सृजन-ऊर्जा स्थिर और गतिमान रहे !
आत्मकथ्य
इस उपन्यास का कथानक मुझे कहाँ मिला, पता नहीं। पर शायद मैं इसे लिखना शुरू कर चुका था, उसके बाद ही पारुल, मिसेज डे से मुलाकात हुई। पात्र मिलते गए, चरित्रों में आकार ग्रहण करते गए और कथानक में जुड़ते चले गए। कहानियाँ जो हमारे आसपास पड़ीं है, उनमें से कई ऐसी हैं, जो हमें गुदगुदाती हैं, हँसाती है, कुछ लोरी गाकर सुलाती हैं, तो कुछ रुलाती भी हैं। उन्हें ही पात्रों में गढ़ने की कोशिश कर एक सम्पूर्ण जीवन को शब्द देने के प्रयास में यह उपन्यास आपके समक्ष है।
इसमें सहज, सरल प्रसंगों की अभिव्यक्ति है, तो अन्तर्द्वन्दों से गुजरते पलों का प्रसरण भी है, आत्मस्वीकारोक्तियों की निश्छलता है, तो सच को छुपाने के अंतराल की अनिवार्यता का दीर्घकालिक हो जाने की विवशता भी है। परिस्थितियों के परवश हुआ प्राणी क्या कर बैठता है, कभी-कभी उसे खुद पता नहीं होता। इन्हीं सब अंतर्विरोधों से हर पात्र गुजरते हुए जब अंतिम मोड़ पर पहुँचता है, तो जो भी छोर उसे मिलता है, उसे जोरो से पकड़ लेता है, कहीं ये छोर भी छूट न जाय।
इस पुस्तक में मैंने कथानक को गति और कथ्य को सौंदर्य प्रदान करने के लिए कविता के छंदों का भी प्रयोग किया है। उम्मीद है पाठक मेरे इस प्रयोग को स्वीकार करेंगे। पाठकों ने जैसे मेरी दो पुस्तको "छाँव का सुख" (कहानी संग्रह) और "डिवाइडर पर कॉलेज जंक्शन" तथा मेरे अमेज़न किंडल पर हाल में प्रकाशित तीन प्रेम कहानियों की लघु पुस्तिका "आई लव योर लाइज" को प्यार दिया है, उससे अधिक प्यार इस पुस्तक के किंडल एडिशन को भी देंगें, इसका मुझे पूरा विस्वास है।
मैं अमेज़न किंडल सेलेक्ट प्लेटफार्म की भूरी - भूरी प्रसंशा करने से अपने को रोक नहीं पा रहा हूँ, जिन्होंने पुस्तकाकार रूप में अपनी कृतियों को प्रकाशित न कर पाने वाले लेखकों को डिजिटल प्लेटफार्म देकर उनकी रचनाओं को पाठकों के लिए सुलभ बना दिया है।
ब्रजेंद्रनाथ
प्रवाह - क्रम
उठती गिरती साँसों से एक छन्द लिखें
घटना का घटना
कोच या डिबौच: एक सपने का अंत
एक और अहसान
एक और अहसान तले: मिसेज डे से मुलाकात
पारुल से मुलाकात
पागल लड़की से मुलाकात
पागल लड़की से मुलाकात के बाद
अमल की स्वीकारोक्ति या कुछ और
निर्मोही कहीं का
अपराधिनी माँ
अब यहाँ से कहाँ
छूटता छोर जाएँ किस ओर
कामना छन्द
उठती गिरती साँसों से एक छंद लिखें
उसने अपनी उनींदीं पलकें खोली। अपने पूरे बेड पर नज़र डाली। बेड पर पड़ी सलवटें, कहीं - कहीं किनारे से बेडशीट के खींचाव से झांकता बेड का हिस्सा, रात में बेड पर मचे मस्तीसेशन की कहानी खुद कबूल कर रहे थे। उसे हँसी भी आई, थोड़ा शरमाई और आँखों को बंद कर पुनः उस मस्ती को अपने पूरे वजूद में सनसनाती हुई महसूस करने लगी। उसकी नाइटी के बंद खुले थे। उसे वह ऐसे ही रखना चाहती थी। उसके स्तन - भार को संभालने वाले स्तन - बंध कहाँ पड़े थे, उसे पता नहीं। वह तो उन उँगलियों को अपने बदन पर रेंगती हुई - सी देख रही थी, जिन्होंने उसके स्तनों को बंधन - मुक्त कर दिया था, जिन्होंने उसके बदन को भी आवरण - मुक्त कर दिया था।
उसने अंदर से उठती हँसी की हिलोर को ओठों पर लाकर, तकिये को अपने स्तनों और जांघों के बीच रखकर निचोड़ा ही था कि एक पन्ना फड़फड़ाकर उड़ा और उसकी गोद में आ गिरा। वह उस पन्ने पर उकेरे गए हर्फ़ों को पढने लगी:
उठती गिरती साँसों से एक छंद लिखें,
ओठों के मधु - रस से कोई बंद लिखें।
तेरी पलकों की नींदों से, उनींदे पलों को
नेह निमंत्रण देकर, एक निबंध लिखें।
तू उद्दीप्त यौवन का वेगवान प्रवाह,
ले चलूँ तुझे, शैवालिनी की धारा बन जाऊं।
उज्जवल, धवल, शुभ्र, फेनिल बूंदे बन
लिपटूं, तेरी बाहों में, किनारा बन जाऊं।
देह तेरी उल्लसित, उत्कण्ठित, आलोड़ित,
कम्पित है गात और मुदित हास आनन पर।
यामिनी है जाग रही, सो गए विहग सारे
आँखों में नींद नहीं, ओठों के कम्पन पर।
ओठों को रखने दो, घोलने दो अमृत-रस,
मन की पाखी उड़ी, थोड़ा तो बहकने दो।
बाहों में समेटने दो, खोल दो बाहों को,
रात की रानी को रातभर महकने दो।
तेरे उरोजों पर उग आये सावन को,
बारिश की बूंदों से इतना भींगो दूं।
जलप्लावन हो जाये सारी दिशाओं में,
तेरे कटिप्रदेश तक को उसी में डुबो दूं।
पत्तों पर बूँदें जैसे सरकती हैं,
उँगलियों को स्तनों पर वैसे ही फिसलने दो।
त्वचा का रोम - रोम, त्वचा से घर्षण कर,
चांदनी को बदन पर झिर् झिर् बरसने दो।
वह समझ गई, यह किसकी लिखावट है। उसे हिंदी पढ़नी भी आ गई थी और हिंदी बोलनी भी आ गई थी। इसे पढ़ने के बाद उसका तन मन गीला हो गया, वह भींग गई, बिना वारिश के। उसने तकिये को अपने स्तनों और जांघों के बीच जोड़ से भींचा, लगा कि उससे रूहानी रस निःसृत हो रहा है, उस रस को वह अपने बदन में लपेट ले रही है, उसी तरह वह काफी देर तक तकिये को समेटे हुए बैठी रही।
उसे खिड़कियों के पास जाने का मन हुआ। क्यों जाने का मन हुआ? यह भी कोई प्रश्न है। खिड़कियों के पास खड़े होकर उसे हवाओं को अपने चेहरे पर छूते हुए बिखर जाना अच्छा लगता है। और आज दिसंबर के अंतिम सप्ताह में सुबह की सर्द हवाएं जब उसके चेहरे को छू रही हैं तो उसे लग रहा है कि किसी की हथेलियाँ उसके चेहरे को अपने हाथों में लेकर सहला रही हैं। उसने पूरी खिड़की खोल दी है। खिड़की के सारे परदे भी हटा दिए हैं। बिल्डिंग के चौथे माले पर जिस फ्लैट में वह रह रही है, पूरी प्रावेसी है और सुरक्षा भी। इस शहर में फ्लैट का आसमान की ओर उठान चार पांच माले से अधिक नहीं होता। फ्लैट कल्चर तो अभी आया है, अन्यथा लोग जमीन पर ही घर बनाकर रहना अधिक पसंद करते हैं। फ्लैट में रहने से उस जैसी सिंगल लड़की को काफी सुरक्षा महसूस होती है।
उसने खिड़कियों के पार नीले आसमान के तरफ झाँका। कहीं - कहीं रुई के फाहों जैसे तैरते बादल के टुकड़े दीख रहे थे। कई तो दूर फ़ैली पर्वतमाला के शिखरों पर टिके हुए से लग रहे थे और कहीं बिजली के बड़े ऊँचें टॉवरों पर लटके हुए लग रहे थे। उन्हीं फाहों को वह खिड़की से अंदर लाना चाह रही थी। उसे लग रहा था कि उसमें अवश्य विद्युत आवेश का प्रवेश हो गया होगा। उसे वह अपने बदन पर मलते हुए उसके हलके आवेशित झटकों को महसूस करना चाह रही थी। उसने अपने नाइटी के खुले हुए बंद को और भी ढीला किया। नाइटी को अपने बदन से सरककर पावों पर गिरने दिया। अपनी उँगलियों से अपने रोम के हर हिस्से को स्पर्शित किया। अपने तन के रोमवालियों को रोमांच की हद तक उद्वेलित होने दिया। वह अपने हाथों को कप जैसा बनाकर अपने स्तन भार को संतुलित करते हुए पता नहीं आईने के सामने कब खड़ा हो गई, उसे खुद भी पता नहीं हुआ। कभी - कभी हमें पता नहीं होता है और जिंदगी में वह सब घटने लगता है या घट चुका होता है, जिसका न घटते हुए पता लगता है और न घटने पर पता लगता है।
कल रात वैसा ही हुआ। कोई योजना या प्री अरेंजमेंट जैसा नहीं था। जाड़े की छुट्टियों के लिए क्रिसमस से लेकर नववर्ष को लेते हुए यह इण्टर कॉलेज करीब पंद्रह दिनों के लिए बंद हो रहा था। उसका मन हुआ था कि आज विशाखा को फ्लैट के बाहर ही या फिर कॉलेज में ही छोड़कर माला बन जाऊं। उसका बचपन का नाम माला था। लेकिन वह बचपन में क्यों लौटना चाह रही थी? बचपन से तो उसे नफ़रत थी। यों कहें तो बचपन को वह भूलने की चेष्टा करती रहती थी। लेकिन यह बचपन की जो माला थी, वह उससे ऐसे चिपकी रहती जैसे छत से छिपकिली या चन्दन के छाल से केंचुल वाला सर्प।
वह अपने बदन को ठंडे स्पर्श से घेरकर रखना चाहती थी, और अतीत था कि उसे छालों से गर्म रखना चाहता था। इन्ही छालों से निजात पाने के लिए, इन्ही सर्पों को केंचुल सहित नोंच फेंकने के लिए, इसी छिपकिली को छत से क्षत विक्षत कर नोंचने के लिए आज उसने निश्चय कर लिया था कि माला को वह मुक्त करके रहेगी।
कैसे मुक्त होगी माला? माला तो अस्तित्वविहीन हो नहीं सकती। उसका वजूद तो मिट नहीं सकता। उसके अतीत को खरोंचकर उससे अलग करना होगा। क्या वह खुद इतनी सक्षम है कि वह सबकुछ अलग कर सके? यह प्रश्न बार - बार उसके सामने आकर खड़ा हो जाता है, जब भी वह अपने अतीत से लड़ती रहती है या लड़ना शुरू करती है। परंतु बिना अलग किये वह हँसती, खिलखिलाती, हवाओं से बातें करती, मस्ती फैलाती, खुशियाँ बिखेरती माला को कैसे पुनर्जीवित कर सकती है?
शायद इसीलिये, इस माला को पुनर्जीवित करने के लिए उसे जिस संघर्ष की जरूरत थी, उसने अमल को बुलाया था। अमल को भी उसने अमल के रूप में ही आने को कहा था। प्रद्युम्न को इण्टर कॉलेज में ही छोड़ कर आने को कहा था। प्रद्युम्न से लगता है कोई गंभीर ब्यक्तित्व या गंभीरता ओढ़े हुए ब्यक्ति से परिचय होने वाला है। उसने जब विशाखा के रूप में जिस दिन इण्टर कॉलेज ज्वाइन किया था, उसी दिन, हाँ, उसी दिन प्रद्युम्न तिवारी जी से इत्तेफाक से उसका सामना हुआ था। एक घटना जैसी ही घटी थी, उसके साथ...
क्रमशः
No comments:
Post a Comment