आज    शिक्षक   दिवस  है
आज मुझे वे शिक्षक याद आ रहे हैं जो ,  देश को आज़ादी   मिलने  के बाद अपनी योग्यता और विद्वत्ता के    बल पर बड़ी - बड़ी  नौकरियां  हासिल  कर सकते थे।  लेकिन उन्होंने शिक्षक का जीवन अपनाया और शिक्षण को  अपना   जीवन - धर्म बनाया ।  उनमें   से  कई  लोगों ने दूर - दराज़  के अपने गावं में ही   विद्यालय  खड़ा  किया और पूरी जिंदगी अपने जीवन जीने के ढंग से विद्याथियों के जीवन को बदलने का कार्य किया । 
पहले  के  बिहार और  अब  झारखण्ड प्रदेश  के पलामू  जिले  में  बीच जंगल में   नेतरहाट नामक जगह  में  एक आवासीय विद्यालय  दसवें तक की पढ़ाई के लिया बनाया गया था । वह विद्यालय पूरी तरह गांधी जी  के आश्रम   की  ब्यवस्था से   मिलता - जुलता जीवन  पद्धति  पर आधारित था।  वहां के शिक्षकों से लेकर विद्यार्थियों तक को सारा  काम  खुद     करना  पड़ता था ।  वहीं  के  कुछ पूर्ववर्ती  छात्रों   से वहां  के शिक्षकों से  जुड़े  कुछ   प्रेरक  प्रसंगों  के  बारे  में रूबरू  करवा रहा हूँ । 
एक पूर्ववर्ती छात्र राजवंश सिंह अनुभव सुनाते हैं। श्री सिंह बिहार सरकार के संयुक्त सचिव पद से रिटायर हो चुके हैं।  
यह उन दिनों की बात है जब नेतरहाट विद्यालय के प्रिंसिपल  डॉ    जीवननाथ दर थे। आपादमस्तक  गांधीवादी।
स्कूल की परंपरा थी कि हर छात्र को, हर काम करना होगा। बरतन धोने से लेकर लैटरिन साफ़ करने तक। राजवंश सिंह ने कहा, मैंने    अपने स्कूल के श्रीमान (वार्डेन) से कहा, मैं लैटरिन साफ़ नहीं   करूंगा। कोई फ़ादर थे। धैर्य से सुना। प्राचार्य डॉ दर को बताया। डॉ दर ने बुलाया, पूछा क्यों नहीं करोगे? 11 वर्षीय राजवंश सिंह ने कहा, मैं राजपूत हूं। 
डॉ दर ने सुना, कहा,  "ठीक है। पूछा, इस काम की जगह उस दिन कौन सा काम करोगे?"
  छात्र राजवंश ने कहा, "फ़लां काम।" 
उन्होंने कहा, "ठीक है, करो।"
 उस दिन   राजवंश सिंह ने देखा, कि उनकी जगह खुद लैटरिन साफ़ करने का काम डॉ दर कर रहे थे। राजवंश जी के लिए यह मानसिक आघात था। वे लिखते हैं, "मेरी जगह लैटरिन साफ़ करने का काम खुद प्राचार्य जी कर रहे थे, मैं यह देख कर अवाक व स्तब्ध था।"       
फ़िर अगली घटना हुई। एक दिन भोजनालय में उन्होंने देखा। दर    साहब जूठी चीजों को एकत्र करनेवाले टब से साबूत रोटी, सलाद नींबू चुन रहे थे।  चुन कर दो खाने के प्लेटों में रखा गया। 
मकसद था, बच्चों को बताना कि वे बिन खाये अच्छी चीजों को बरबाद कर रहे हैं। दर साहब गांधीवादी थे। उनकी आदत थी, एक-एक चीज की उपयोगिता बताना। यह भी कहना कि देश में कितने  लोग भूखे रहते हैं? कितने गरीबों के घर चूल्हे नहीं जलते? फ़िर छात्रों को समझाते कि वे कैसे एक एक चीज का सदुपयोग करें? उस दिन भी वह यही कर रहे थे। किसी छात्र ने मजाक में राजवंश सिंह को कह दिया कि यह जूठा तुम्हें खाना पड़ेगा।  
11 वर्षीय राजवंश सिंह चुपचाप स्कूल से निकल भागे। स्कूल में जाते ही पैसे वगैरह जमा करा लिये जाते थे। इसलिए महज हाफ़ पैंट और स्वेटर (स्कूल ड्रेस) पहने वह जंगल के एकमात्र शार्टकट से बनारी   गांव पहुंचे, भाग कर। लगभग 21 किमी दूर।  शायद ही ऐसी दूसरी घटना स्कूल में हुई हो।  बनारी में वीएलडब्ल्यू (Village Level Worker, यह पंचायतों के सचिव के रूप में काम करने वाला सरकारी व्यक्ति होता था।)  ने देख लिया। वह मामला   समझ गया। पूछा, "कहां जाना है? "
बालक राजवंश ने उत्तर दिया, "300 मील दूर भागलपुर।" 
 वह प्रेम से उन्हें अपने घर ले गया। यह कह कर कि मैं भी भागलपुर का हूँ।  भागलपुर पहुंचा दूंगा। तब तक स्कूल में  हाहाकार मच गया।पाँच- छः तेज  दौड़ाक (छात्र) दौड़े, उन्होंने ढूंढ़ लिया। फ़िर राजवंश सिंह स्कूल लाये गये। वह भयभीत थे कि आज पिटाई होगी। प्राचार्य डॉ दर के पास ले जाये गये। उन्होंने पूछा कि अभी तुम्हारा कौन सा क्लास चल रहा होगा? पता चला, भूगोल का। सीधे कक्षा में भेज दिया। एक शब्द नहीं पूछा. न कुछ कहा, न डांटा-फ़टकारा ।
 माता जी (प्राचार्य की पत्नी) ने सिर्फ़ कहा, बिना खाये हो? खाना खा लो। उधर, पकड़े जाने के बाद से ही राजवंशजी को धुकधुकी लगी थी कि आज खूब पिटाई होग। लेकिन वे आश्चर्यचकित थे कि उन्हें कोई दंड नही दिया गया।    
इन घटनाओं ने राजवंश सिंह का जीवन बदल दिया। वही राजवंश सिंह स्कूल में सब काम करने लगे। कैसे अध्यापक थे, उस युग के? चरित्र निर्माण, मन-मस्तिष्क बदलनेवाले अपने आचरण, जीवन और कर्म के उदाहरण से। अनगढ़ इंसान को ‘मनुष्य‘ बना देनेवाले. कितनी ऊंचाई और गहराई थी, उस अध्यापकत्व में? खुरदरे पत्थरों और कोयलों (छात्रों)  के बीच से हीरा तलाशनेवाले। बचपन से ही छात्रों को स्वावलंबी, ज्ञान पिपासु, नैतिक और चरित्रवान बनने की शिक्षा. महज नॉलेज देना या शिक्षित करना उद्देश्य नहीं था। वह भी हिंदी माध्यम से। ऐसे शिक्षक और ऐसी संस्थाएं ही समाज-देश को ऊंचाई पर पहुंचाते हैं।    
डॉ दर के अनेक किस्से हैं। जाने-माने सर्जन, डॉक्टर और लोगों के मददगार अजय जी (पटना) सुना रहे थे,
"मैं इंग्लैंड से डॉक्टर बन कर लौटा। मेरी ख्वाहिश थी कि एक बार ‘श्रीमान’ और माता जी को पटना बुलाऊं। मैंने पत्र लिखा। वह रिटायर होकर देहरादून में रह रहे थे। उनकी सहमति मिली। हमने आदरवश फ़र्स्ट क्लास के दो टिकट भेजे। लौटती डाक से टिकट वापस। उन्होंने मुङो पत्र लिखा कि हम सेकेंड क्लास में यात्रा कर सकते हैं, तो यह फ़िजूलखर्ची क्यों? दरअसल वह राष्ट्र निर्माण का मानस था, जिसमें तिनका-तिनका जोड़ कर देश बनाने का यज्ञ चल रहा था,  राजनीति से शिक्षा तक, हर मोरचे पर। तब कोई प्रधानमंत्री एक शाम भूखा रह कर ‘जय जवान, जय किसान’ की बात कर रहा था। 
काश, भारत में ऐसे 500-600 स्कूल खुले होते। जिले-जिले, तो भारत आज भिन्न होता ।
--ब्रजेंद्र  नाथ   मिश्र