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कहानी पर टिप्पणी
" अरे भाई साहब, कोई ट्रेन छूट रही थी क्या जो कहानी को एकदम से पूरा कर दिया। क्या यार पता ही नहीं चला।"
हिंदी पाठकों द्वारा सबसे अधिक पढ़े जाने वाले वेबसाइट 'प्रतिलिपि' पर प्रकाशित मेरी कहानी "मुस्कान को घिरने दो" पर आई इस टिप्पणी को पढ़कर पहले मुझे बहुत गुस्सा आया। अभी तक किसी पाठक ने मेरी इस कहानी पर इस तरह की टिप्पणी नहीं दी थी। कुछ पलों बाद मैं संयत हुआ।
वैसे भी मेरी यह आदत है, जब बहुत गुस्सा आ रहा हो, तो न मैं मौखिक रूप से किसी को जवाब देता हूँ और न ही लिखित रूप में। कुछ पलों बाद मैं संयत हुआ और मैने उसका प्रतिउत्तर लिखना शुरू किया:
आदरणीय ........ जी, आपकी टिप्पणी के लिए आपका हार्दिक आभार! आपकी असंयत, अशिष्ट, असाहित्यिक और अनैतिक टिप्पणी से लगता है कि आपने हिंदी के लब्धप्रतिष्ठ लेखकों को नहीं पढ़ा है। यह कहानी है, कोई उपन्यास या धारावाहिक सीरियल या वेबसीरिज नहीं है, कि वह रबर की तरह खिंचती जाएगी। कोई भी टिप्पणी करने के लिए आप निर्मल वर्मा, हिमांशु जोशी, नरेंद्र कोहली, आदि कहानीकारों को जरा पढ़ा कीजिये। मैं इन कहानीकारों के करीब भी नहीं हूँ। लेकिन उस ओर मार्ग पर चलने के लिए प्रयत्नशील हूँ। टाइम पास के लिए अगर कहानियाँ पढ़नी हो तो, और भी कई लेखक है। मैंने अपनी कहानी के अंत में नोट में लिख दिया है, कि आपके संयत, शालीन, शिष्ट, नैतिक और साहित्यिक प्रतिक्रियाओं का स्वागत है। उसमें किसी भी मानक पर आपकी प्रतिक्रिया सही नहीं उतरती। इसलिए प्रतिक्रिया सोच समझकर दिया कीजिये। सादर!
--ब्रजेंद्रनाथ
इस टिप्पणी को लिखते हुए मेरे मन में कई विचार उठ रहे थे। मैं या मेरे जैसे अन्य सज्जन और सकारात्मक विचार रखने वाले लेखक इसे अनदेखा या नजरअंदाज कर सकते थे। परंतु इससे उन पाठक महोदय को इसका ज्ञान कैसे होता कि जब आप कोई साहित्यिक रचना पढ़ रहे हों, तो आपकी ग्रहणशीलता का भी एक स्तर होना चाहिए, जिससे आप रचनाकार की रचना के विभिन्न बिंदुओं को इंगित करते हुए रचना पर अपनी समीक्षा दे सकेें। इसके लिए आप रचना की मौलिकता, कथा-शिल्प, प्रस्तुति, भाव- भूमि, संदेश आदि पर लेखक से अपने संवाद कायम करते हुए, अपने विचार संयत, शालीन और शिष्ट भाषा में रख सकते थे। कविवर मैथिली शरण गुप्त ने अपने काव्य जयद्रथ बद्व में लिखा है:
अधिकार खो कर बैठ रहना, यह महा दुष्कर्म है
न्यायार्थ अपने बन्धु को भी दण्ड देना धर्म है ।।
न्याय के अर्थ को सुदृढ करना आवश्यक था, इसीलिए इसकी चर्चा आवश्यक थी। परंतु अगर लेखक की सज्जनता और
संतत्व पर विचार किया जाय तो गोस्वामी तुलसी दास की यह चौपाई याद आती है,
"काटहिं परसु मलय सुनु भाई।
निज गुण देही सुगंध बसाई।।"
संत ऐसे होते हैं जैसे चंदन को काटने वाली कुल्हाड़ी में भी चंदन जैसा अपना सुगंध बसा देते हैं। इसके आगे तो यह भी प्रश्न शेष रह जाता है कि क्या कुल्हाड़ी उस गंध को अपने में समाकर रख पाता है? अगर ऐसा होता तो कोई भी कुल्हाड़ी फिर किसी चंदन के तने या डाल पर नहीं चलती। चंदन को कुल्हाड़ियों से अपनी रक्षा स्वयं करनी होगी, आज के समय का यही युगधर्म है। संत को भी अगर अपने संतत्व को संभालना है, अपने स्वभाव के प्रभाव को सुस्थिर रखते हुए निरंतरता प्रदान करनी है तो राम की तरह पहले अनुनय-विनय और फिर महाप्रलय की तरह टूटना पड़ेगा:
विनय न माने जलधि जड़, गए तीन दिन बीत।
बोले राम सकोप तब भय बिनु होहि न प्रीत।
आगे गोस्वामी तुलसीदास जी ने लिखा है:
शठ सन विनय कुटिल सन प्रीति।
सहज कृपण सन सुंदर नीति।।
ममता रत सन ज्ञान कहानी।
अति लोभी सन विरति बखानी
कामिहि क्रोधिहि सम हरिकथा।
ऊसर बीज बाए फल यथा।।
यही समय सापेक्ष युगधर्म है।
मैं ऐसे विचारों को धारण कर दृढ़ करते हुए उस टिप्पणी को पटल पर पोस्ट करने ही जा रहा था कि मेरे एक वरिष्ट लेखक मित्र का कॉल आया। वे कह रहे थे कि आजकल आपकी कहानियाँ कितनी भी सरल क्यों न हों पाठक का आपकी कहानियों को पढ़ना और पसंद करना आजकल के ट्रेंड पर निर्भर करता है। इसलिए कभी - कभी किसी पाठक की प्रतिक्रिया असंयत भी हो सकती है। इससे हम लेखकों को किंचित भी विचलित नहीं होना चाहिए। हमें पाठकों की रुचि के परिष्कार की भी जिम्मेवारी है। उन्हें समझाना भी हमारी जिम्मेवारी है। उनकी बातों ने लेखकों की जिम्मेवारियों का भी अहसास हमें करवाया। आज हम रचनाकार दोहरे उत्तरदायित्व - बोध से गुजर रहे हैं। हमें पाठकों की वृत्ति और प्रकृति को भी परिष्कृत और प्रक्षालित करते हुए आगे बढ़ना होगा। इस भाव के आते ही मैंने पूर्व लिखित टिप्पणी डिलीट कर दी, हटा दी।
©ब्रजेंद्रनाथ
नोट: मेरी उक्त कहानी "मुस्कान को घिरने दो" मेरे यूट्यूब चैनल marmagya net के इस् लिंक पर जाकर मेरी आवाज में सुन सकते हैं:
भाग 1 : https://youtu.be/AAcrg_7O724
भाग 2:
https://youtu.be/qYvMKDx5bW4
भाग 3:
https://youtu.be/ARNs-NVRrHI
8 comments:
अच्छा संस्मरण धन्यवाद आपका।
आदरणीय डॉ रूपचंद्र शास्त्री 'मयंक' सर, सादर नमस्ते👏! मेरी रचना पर आपका अनुमोदन मुझे नवीन सृजन के लिए ऊर्जस्वित कर देता है। आपका हृदय तल से आभार! सादर!--ब्रजेंद्रनाथ
रोचक और ज्ञानवर्धक प्रतिक्रिया
आदरणीया अनिता जी, उतसाहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार!--ब्रजेंद्रनाथ
बहुत बहुत रोचक व सही समालोचक जैसी प्रतिक्रिया
आदरणीय आलोक सिन्हा जी, इस रचना पर आपके सकारात्मक और उत्साहवर्धक विचारों से अभिभूत हूँ। आपका हॄदय तल से आभार!--ब्रजेंद्रनाथ
आदरणीय सर , आपका ये संस्मरण उसी दिन पढ़ लिया था पर समयाभाव के कारण टिप्पणी ना कर पायी | सच मेंसहिटी से जुड़कर पाठकों की कई श्रेणियों से बहुत खट्टे मीठे अनुभव हुए | आपकी कहानी पर ये टिप्पणी पाठक के थोड़ा अव्यवहारिक होने का संकेत तो देती है पर शायद उसके साहित्यिक ज्ञान और संवेदनाओं के अभाव का भी अनुमान होता है पर इसके साथ शायद वे पाठक महोदय कहानी का कोई और अंत या विस्तृत अंत देखना पसंद करने वाले हों | शायद उनमें पढने का हानर और धीरज आम पाठकों के बदले ज्यादा हो | मेरी एक कहानी पर एक पाठक ने बकवास और असलियत से परे लिख दिया तो एक शब्द दोहराने लायक नहीं | मैंने प्रतिलिपि मंच को मेल भी भेजा पर उन्होंने कोई कार्यवाही नहीं की | संक्षेप में यही निष्कर्ष निकलता है कोई पाठक कुछ भी लिखे हम रचनाकारों को उसे बड़े धैर्य से सुनना पडेगा और यदि पाठक का सुझाव प्रभावी है तो उसे मान लेने में भी कोई हर्ज नहीं |
आदरणीया रेणु जी, आपके सुझाव से मैं सहमत हूँ। आप भी अगर उस कहानी को पढेंगें तो लगेगा कि कहानी का इससे अच्छा अंत नहीं हो सकता। हो सकता है, उन पाठक के मन में कहानी को आगे बढ़ाने की इच्छा रही हो। मैने भी उन्हें लिखा था कि यह कहानी है, उपन्यास नहीं। उनकी कोई प्रतिक्तिया नहीं आयी।
और हाँ अगर प्रतिलिपि पर आपको कोई पाठक "बकवास" जैसी असंयत और अनैतिक टिप्पणी करता है तो उसे आप ब्लॉक करवा सकते हैं और उस टिप्पणी को हटवा सकते हैं। इसके लिए आप टिप्पणी की दायी ओर (¡) या इससे मिला जुला आइकॉन होगा। उसे क्लिक करने से एक बॉक्स खुलेगा। उसमें आप टिप्पणी के बारे में असंयत और अशालीन, अशिष्ट लिखे और इसे हटाने का अनुरोध करें। टिप्पणी अवश्य हटा दी जाएगी। मैंने कई ऐसी टिप्पणियाँ हटवाई हैं।
आप मेरा ब्लॉग पढ़ती है, यह जानकर बहुत खुसी हुई। आपका हृदय तल से आभार। जुड़े रहें। --ब्रजेंद्रनाथ
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