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वंचितों की दुनिया
वंचितों की दुनिया में जिंदगी सहमी हुई है।
नीम अंधेरों में जैसे कोई रोशनी ठहरी हुई है।
गले में तूफ़ान भर लो,चीखें सुनाने के लिए,
शोर में दब जाती है, गूंज भी गूंगी हुई है।
मगरमच्छ हैं पड़े हुए उस नदी में हर तरफ,
जो खुशियों के समन्दर तक पसरी हुई है।
आह उठती है यहाँ,और पत्थरों से बतियाती है।
लहरों से टकराते हुए,ये नाव जर्जर सी हुई है।
रेगिस्तां की आंधियों में इक दिया टिमटिमाता है,
लौ थी थरथराती हुई, अब जाकर स्थिर हुयी है।
खुशबुएँ सिमट कर, किसी कोने में नज़रबंद थीं,
उड़ेंगीं अब, हवाओ के पंख में हिम्मत भरी हुई है।
उम्मीदों के फ़लक पर आ गयी है जिंदगी,
सपनों के जहाँ की नींद भी सुनहरी हुयी है।
वंचितों की दुनिया भी अब है उजालों से भरी,
नीम अंधेरों में भी अब रोशनी पसरी हुई है।
©ब्रजेन्द्र नाथ मिश्र
जमशेदपुर।
नोट: मेरी हाल में लिखी यह कविता ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-78, आयोजन अवधि 14-15 अप्रैल 2017 में स्थान पाई है। Open Books Online प्रसिद्ध साहित्य सेवियों और अनुरागियों की एक वेबसाइट है, जो हर महीने कविता, छंद और लघुकथाओं का आयोजन करता है। इसबार "वंचित" शब्द को केंद्रीय भाव बनाकर कविता लिखनी थी। मैंने उसी को ध्यान में रखकर कविता लिखी है ।
1 comment:
Ek janvaadi krantikaari kavita...
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