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ओ बी ओ (open books online) साहित्य मर्मज्ञों द्वारा संचालित अन्तरजाल है, जो हर महीने ऑन लाईन उत्सव आयोजित कर्ता है। इस बार यह उत्सव 08-09 दिसंबर को आयोजित किया गया था।
दुनिया में भूखों की जामात अब बढ़ रही है,
अब इन्कलाब आयेगा, समझाकर सो गया।
विरासत की सियासत में भी भूखे रोल में होंगे,
मैं विदूषक, मंच पर सबको हँसाकर सो गया।
भूखे ही भूख से दिलाएंगे निजात भूखों को,
दिल ए शौक को दिलाशा दिलाकर सो गया।
(मौलिक व अप्रकाशित)
इसके बाद इस ग़ज़लनुमा कविता पर साहित्यानुरागियों और ग़ज़ल के सुधि जानकारों के बीच विमर्श का दौर चला| इसमें मैं खासकर जनाब तस्दीक अहमद खान साहब का नाम लेना चाहूंगा जिन्होंने पहले दो तीन शेरों को सुधारकर बताया कि यदि अन्य शेरों का भी सुधार इसीतरह कर लिया जाय तो यह मुकम्मल ग़ज़ल बन जाएगी | मैंने उसका प्रयास किया |उसका संशोधित संस्करण प्रस्तुत है:
फिक्र कल की मैं ने कल पर छोड़ दी।
भूख पर सबने बहस की और मैं
तख्तियां ले आ गए वे जगाने
हड्डियों ने ओढ़ ली चमड़ी की चादर,
बढ़ रही ज़मात भूखों की, अब
दिलाएंगे निजात, भूखे ही, भूख से,
#BnmRachnaWorld
ओ बी ओ (open books online) साहित्य मर्मज्ञों द्वारा संचालित अन्तरजाल है, जो हर महीने ऑन लाईन उत्सव आयोजित कर्ता है। इस बार यह उत्सव 08-09 दिसंबर को आयोजित किया गया था।
"ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-86
विषय - "भूख"
आयोजन की अवधि- 08 दिसंबर 2017, दिन शुक्रवार से 09 दिसंबर 2017, दिन शनिवार की समाप्ति तक
(यानि, आयोजन की कुल अवधि दो दिन)
मैंने भी इस आयोजन में भाग लिया | मैंने जो ग़ज़ल लिखी उसे मैं हु ब हु दे रहा हूँ | इस आयोजन में शिरकत करने वाले ग़ज़लकारों ने ग़ज़ल के ब्याकरण के अनुसार ग़ज़ल नहीं होने के कारण, इसके भाव को देखकर इसे ग़ज़ल न कहकर एक ग़ज़ल नुमा कविता कहा|
आप पहले इसे देखें:
भूख
(एक ग़ज़लनुमा कविता)
भूख को आँतों में छुपाकर सो गया।
उम्मीदों को फिर से जगाकर सो गया।
उम्मीदों को फिर से जगाकर सो गया।
कल की फिकर, मैने कल पर छोड़ दी
आज नारों में ही बहलाकर सो गया।
आज नारों में ही बहलाकर सो गया।
लोग बहस करते रहे भूख भगाने पर,
मै वह मंजर आंखों में बसाकर सो गया।
मै वह मंजर आंखों में बसाकर सो गया।
वे भूखों को जगाने, तख्तियां ले फिरते रहे,
मैं कूड़ेदान में पड़ी रोटियां सटाकर सो गया।
मैं कूड़ेदान में पड़ी रोटियां सटाकर सो गया।
मेरी हड्डियों ने चमड़ी की चादर
ओढ़ ली,
आंतें जग गयीं, और मैं कुलबुलाकर
सो गया ।
दुनिया में भूखों की जामात अब बढ़ रही है,
अब इन्कलाब आयेगा, समझाकर सो गया।
विरासत की सियासत में भी भूखे रोल में होंगे,
मैं विदूषक, मंच पर सबको हँसाकर सो गया।
भूखे ही भूख से दिलाएंगे निजात भूखों को,
दिल ए शौक को दिलाशा दिलाकर सो गया।
(मौलिक व अप्रकाशित)
©ब्रजेन्द्र नाथ मिश्र
तिथि : ०९-१२-२०१७
जमशेदपुर
इसके बाद इस ग़ज़लनुमा कविता पर साहित्यानुरागियों और ग़ज़ल के सुधि जानकारों के बीच विमर्श का दौर चला| इसमें मैं खासकर जनाब तस्दीक अहमद खान साहब का नाम लेना चाहूंगा जिन्होंने पहले दो तीन शेरों को सुधारकर बताया कि यदि अन्य शेरों का भी सुधार इसीतरह कर लिया जाय तो यह मुकम्मल ग़ज़ल बन जाएगी | मैंने उसका प्रयास किया |उसका संशोधित संस्करण प्रस्तुत है:
भूख
(एक ग़ज़ल)
भूख आंतों में छुपा कर सो गया ।
आस मैं फिर से जगाकर सो गया ।
फिक्र कल की मैं ने कल पर छोड़ दी।
आज मैं नारे लगा कर सो गया ।
भूख पर सबने बहस की और मैं
आंख में मंज़र बसा कर सो गया ।
तख्तियां ले आ गए वे जगाने
मैं चेहरे को छुपाकर सो गया |
हड्डियों ने ओढ़ ली चमड़ी की चादर,
आंतें जगीं, पर कुलबुलाकर सो
गया|
बढ़ रही ज़मात भूखों की, अब
इंकलाब आएगा, बताकर सो गया|
सियासत में भी भूखे रोल में होंगें,
मैं बिदूषक बन, हंसाकर सो गया|
दिलाएंगे निजात, भूखे ही, भूख से,
दिल को दिलाशा दिलाकर सो गया|
(मौलिक व अप्रकाशित)
©ब्रजेन्द्र नाथ मिश्र
तिथि : 14-12-2017
जमशेदपुर
1 comment:
बहुत सुन्दर ..ग़ज़लनुमा कविता ....!
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