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Sunday, January 21, 2018

माँ के सपूत (कविता)

#poem#patriotic
#BnmRachnaWorld

माँ के सपूत

भूल गए हम सारी रस्में,
चरखा, तकली चलाने की।
बंदूकों को सिरहाने रख,
और तलवार गलाने की।

काल नाचता यहाँ - वहाँ,
और भैरव तांडव करता है।
सीमा पर जब   सेनानी,
गोली खाकर मरता है।

रणभैरवी रणचंडी,
नर्तन करती यहां - वहाँ।
लाशें बिछा दूँ दुश्मन की,
शपथ तेरे चरणों की माँ।

वार किया तुमने पीछे से,
हिम्मत है तो सीधे लड़।
कायर तेरे माँ ने तुझको,
मानव बनाया या विषधर।

सात को मारा है तुमने,
सत लाख लाशें बिछा दूंगा।
सीमा रेखा बदलेगी,
नई रेखा खींचा दूंगा।

बहुत हो चुका मान-मनौअल,
अब वार्ता नहीं रण होगा।
आर-पार के इस समर में,
विकट आयुधों का वर्षण होगा।

बीत चुका वो युग जिसमें,
कपोत उड़ाए जाते थे।
तलवारें तो चमकेंगी अब,
कभी शान्ति गीत हम गाते थे।

हाथ मिलाना छोड़ चुके हम,
कफ़न बाँध कर निकले हैं।
धूल चटाया नहीं तुझे तो,
माँ के सपूत नहीं सच्चे हैं।

--ब्रजेंद्र नाथ मिश्र
  जमशेदपुर
  तिथि : 07-01-2016

नोट: यह कविता मैने पिछले वर्ष (2016 ) उरी में सेना की छावनी पर सोते हुए सैनिकों पर  पाकिस्तान के द्वारा भेजे गये आतंकियों द्वारा जब छुपकर वार किया गया था, उसी के बाद लिखी थी।

1 comment:

Unknown said...

सुन्दर भाव है....आपकी सोच विश्वसनीय है..

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