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Tuesday, May 14, 2019

प्रतिशोध का पुरस्कार (भाग 2) कहानी

#BnmRachnaWorld
#historicalfiction




प्रतिशोध का पुरस्कार भाग 2
मगध का राजप्रासाद का सभा कक्ष ! उच्चासनो पर विराजमान थे, सम्राट नरसिंहगुप्त बलादित्य, महामात्य, सेनापति, नालंदा महाविहार के कुलपति आचार्य शीलभद्र और मालवा के राजा के प्रतिनिधि।
एक सर्वोच्चासन रिक्त था। पूरा दरबार सामंतों और श्रेष्ठियों से भर चुका था। महाराज ने सभा के कार्यक्रम को आरम्भ करने की अनुमति दी।
उदघोषक ने घोषणा की "युद्धबंदी मिहिरकुल को सभा कक्ष में प्रस्तुत किया जाय।"
सैनिकों के द्वारा हूण शासक मिहिरकुल को सभा में उपस्थित किया गया। सम्राट ने सेनापति के कानों में कुछ कहा। सेनापति ने सैनिकों से मिहिरकुल के पीछे बंधे हाथों को खोल देने का संकेत दिया।
सम्राट ने आदेश दिया, "सभा की कार्यवाही आगे बढ़ाई जाए!"
न्याय मंत्री ने मिहिरकुल के विरुद्ध आरोप पत्र को पढ़ना शुरू किया: "हूण नृप मिहिरकुल के विरुद्ध आरोप हैं कि इसने आर्यावर्त्त में बौद्ध मठों और संघारामों और जैन मंदिरों को ध्वस्त किया। बौद्ध भिक्षुओं और जैन अनुयायियों की अकारण निर्मम हत्या की। क्या आप ये आरोप स्वीकार करते हैं?"
मिहिरकुल ने मस्तक उठाकर पहले पूरी सभा का निरीक्षण किया। उसने कहना शुरू किया, "भगवान स्थाणु की जय हो! मैंने बौद्ध मठों और स्तूपों का ध्वंश अकारण नहीं किया। उनके ध्वंशावशेष पर भगवान स्थाणु के मंदिरों की स्थापना की है। हूण शासकों का यही लक्ष्य रहा है, और मैं उसे पूरा कर रहा हूँ। जिन बौद्ध भिक्षुओं और अन्य मतावलंबियों ने भगवान स्थाणु की जय नहीं बोला उन्हें मृत्यु प्राप्त हुई। इसमें मेरा दोष कहाँ है? दोष तो उनका है।"
न्याय मंत्री, "क्या आपको यह नहीं लगता कि निरस्त्रों की हत्या मानवता के नियमों के विरुद्ध है।"
"जो आपकी बात कहने सुनने से नहीं मानता हो, उसके साथ यही व्यवहार होना चाहिए। यही तो शूरता है।
" यह शूरता नहीं, क्रूरता है, हूण नृप मिहिरकुल।आप भी अभी निरस्त्र है और हमारी बात नहीं मान रहे हैं। क्या आपके साथ वही न्याय किया जाय, जो आपने निरस्त्रों के विरुद्ध किया है?"
"......." मिहिरकुल चुप था।
इतने में राजमाता का सभागार में प्रवेश होता है। सभी खड़े होकर उनका सम्मान करते हैं।
राजमाता स्वयं कुछ कहना चाह रही है। इसी को देखते और समझते हुए सम्राट स्वयं उठ खड़े होते हैं। वे राजमाता का सभागार में स्वागत करते हुए अभी तक की हुई कार्यवाही का संक्षिप्त विवरण देते है। उनसे सभा को संबोधित करने का अनुरोध करते हैं।
राजमाता, "हूण नृप मिहिरकुल, यह इस सभागार में उपस्थित सभी जनों के संस्कार है जिसके कारण आपको हूण नृप कहा जा रहा है। आपकों हूण लुटेरा या विध्वंशक नहीं कहा जा रहा है। जबकि आपके द्वारा नालंदा महाविहार में भेजे गये संदेशवाहक ने हमारे आचार्य और कुलपति को "तुम" कहकर संबोधित भी किया था और उद्दंडता भी दिखाई थी। क्या आपको कुछ कहना है?"
मिहिरकुल सर झुकाए सुन रहा था। "रानामाता आपके हर वाक्य मेरे हृदय में उतर रहे हैं। आप बोलती जाँय।"
राजमाता ने आगे कहा, "मिहिरकुल, आप यहाँ अगर बौद्ध मठों के स्थापना का इतिहास जानोगे, तो तुम्हें समझ आएगा कि कोई भी मठ या स्तूप मंदिरों को ध्वस्त कर नहीं बनाये गए हैं। हमलोग वैष्णव है, फिर भी हमारे पूर्वज कुमारगुप्त ने बौद्ध मत पर शोध और उसके प्रचार प्रसार के लिए अन्तर्राष्ट्रीय महाविद्यालय की स्थापना की। आचार्य शीलभद्र उसके प्रतीक है। यहाँ वैष्णव और शिव मंदिर एक ही परिसर में आपको मिलेंगे। मत और पंथ ईश्वर प्राप्ति के मार्ग है, वे स्वयं ईश्वर नहीं हैं।"
वे कुछ विराम लेकर पुनः बोलने लगी, "आपकी माता ने आपको जन्म दिया है। हाँ या नही ? इसमें नहीं का पश्न ही नहीं उठता। वैसे ही हर प्राणी की उत्पत्ति माँ के गर्भ से ही होती है। आपको क्या अधिकार है, उस माँ की गोद सुनी करने का जिसका वह निशस्त्र, निरापराध भिक्षुक भी उम्मीद की किरण की तरह है। वह भिक्षुक परिवार और संसार इसलिए छोड़ आया है ताकि तथागत के संदेशों को विश्व के कोने-कोने तक पहुँचाये। एक ओर मानवता को कष्टों से मुक्ति दिलाने को संकल्पित वह भिक्षुक है और दूसरीओर मानवता को युद्धाग्नि में झोंकने वाले तुम। क्या तुम अपने पापों को प्रायश्चित करने की इच्छा रखते हो? "
मिहिरकुल वहीं सभागार में बैठ गया। उसकी आंखों से अविरल अश्रुधार बह रहा था। वह निःशब्द हो गया था।
"महाराज मेरा परामर्श है कि मिहिरकुल को प्रणदान देते हुए छोड़ दिया जाय। मेरे परामर्श से आचार्य शीलभद्र भी सहमत होंगें।"
महाराज ने निर्णय दिया, "मिहिरकुल ने ऐसे भीषण अपराध किये है, जिसका न्याय सिर्फ मृत्युदंड ही हो सकता है। परंतु राजमाता के परामर्श का सम्मान करते हुए मिहिरकुल को प्रणदान देने का निर्णय सुनाते है। साथ ही गुप्त साम्राज्य के सेनापति को आदेश देते हैं कि वे विश्वस्त सैनिकों की एक टुकड़ी की सुरक्षा में नृप मिहिरकुल को इनकी राजधानी साकल (स्यालकोट) तक छोड़ दिया जाय।"
इसके बाद सभा विसर्जित हो गयी।

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नालंदा महाविहार के मुख्य द्वार के समीप वाले विस्तृत हरित तृणाच्छादित मैदान में दो मंच तैयार किये गए थे। एक विशाल मंच महाविहार के मुख्य द्वार से सटे हुए ऊँचाई पर स्थित था। दूसरा मंच उसके ठीक बाईं तरफ उससे कम ऊँचाई का बनाया गया था। हेमंत ऋतु की गुनगुनी धूप ! भगवान भास्कर की किरणें महाविहार के मुख्य द्वार पर बनी कलाकृतियों पर पड़कर उसके सौंदर्य को द्विगुणित कर रही थीं। विस्तृत हरित प्रदेश पर धान के पौधों और पाकड़, तमाल, महुआ और आम आदि वृक्षों को पोषण करने वाली रश्मियाँ अम्बर से अवनि - तल तक विस्तार ले रही थी।
...और इस विस्तृत क्रीड़ा - क्षेत्रनुमा मैदान में विशाल जन समुदाय कुछ ऐतिहासिक पलों के साक्षी होने के लिए एकत्र हो रहा था। कुछ ही पलों में जन साधारण के हृदय में स्थित एक निरपराध अपराधी के अपराधों की सुनवाई आम जनों के समक्ष होने वाली है। इस ऐतिहासिक सुनवाई पर निर्णय लेने के लिए सम्राट स्वयं आने वाले हैं।
ऊँचे मंच पर महाविहार के न्यायशास्त्र के विद्वान आचार्य उपस्थित होते हैं और घोषणा करते हैं, "यहाँ पर आये आप सभी स्त्री-पुरुष, बाल-वृद्धों का न्यायाधिकरण के विशेष सत्र में मैं स्वागत करता हूँ। आज आप इस खुले आकाश के नीचे न्याय के इतिहास में एक नए अध्याय को जुड़ते हुए देखेंगे। मैं इस सत्र में संघाराम के कुलपति और वरिष्ठतम आचार्य शीलभद्र (प्रथम) का स्वागत करता हूँ ।"
दूसरी ओर से आचार्य शीलभद्र काषाय वस्त्र धारण किये हुए मंच पर चढ़ते हुए दिखाई दिए। आचार्य शीलभद्र अपनी संयत और गंभीर वाणी में जन समुदाय को संबोधित करते हुए कहते है, "आदरणीय न्यायविद की सूचना में मैं आवश्यक सुधार करना चाहता हूँ। आज की इस विशेष सभा में निर्णायक भूमिका में होंगी, मगध की राजमाता। आप करतल ध्वनि से खड़े होकर उनका स्वागत करें।" शुभ्र वस्त्र में अपने को आगुंठित किये हुए अंगरक्षकों के साथ राजमाता का मंच पर आगमन होता है। वे उपस्थित जनसमुदाय का हाथ जोड़कर अभिनंदन करती हैं।
आचार्य शीलभद्र, "में राजमाता की अनुमति से न्यायविद आचार्य को न्यायसभा की कार्यवाही शुरू करने की आज्ञा देता हूँ।"
चारो तरफ सन्नाटा पसरा हुआ है। लोगों की धड़कने तेज हो गई हैं। न्यायविद आचार्य, "इस न्यायसभा में इस जनपद के पूर्व प्रधान की पुत्री आदरणीया मान्या पर आरोप लगाए जाएंगे। इसलिए मान्या को सभा में उपस्थित होने की घोषणा की जाती बै।"
न्यायपाल द्वारा ऊँचे शब्दों में मान्या को उपस्थित होने का आदेश दिया जाता है। मान्या छोटे मंच पर वासंती परिधान में उपस्थित होती है। जनसमुदाय में कौतूहल मिश्रित जिज्ञासा छा जाती है। न्यायविद आचार्य, "मानवर्धिनी या मान्या, तुम पर आरोप हैं कि तुमने चिकित्सकीय दल के सदस्य के रूप में औषधीय पेटिकाओं के साथ छुपाकर अस्त्र - शस्त्र का भी स्थानांतरण किया। चिकित्सकीय दल के सदस्य को दवाओं के अतिरिक्त किसी प्रकार का अस्त्र - शस्त्र ले जाने की अनुमति नहीं है। क्या तुम्हें ज्ञात था?"
मान्या, "राजमाता की जय हो। आज इस जनसभा में नालंदा जनपद के पूर्व प्रधान की पुत्री मानवर्धिनी सबकुछ सत्य कहेगी और सत्य को स्वीकार करेगी। माता, मैं चिकित्सक दल के सदस्य के रूप में महाविहार के चिकित्सा और औषधीय विभाग की अनुमति से प्रमाणित ग्रमीण जड़ी-बूटियों, उनसे बने स्नेहलेपों और औषधीय गुणों वाले पत्तियों को पेटिकाओं और बोरों में बंदकर युद्धस्थल तक अपनी देखरेख में ले गयी थी। उन्हीं के साथ रक्तवर्ण की शल्य चिकित्सा में काम आने वाले उपकरणों की एक पेटिका भी थी।"
"इसमें तो नियमों का कोई उल्लंघन नही दिखता। क्यों महाचार्य शीलभद्र जी?" राजमाता ने उत्सुकतावश पूछा था।
न्यायविद आचार्य, " उस रक्तवर्णी पेटिका को यहाँ लाया जाए।"
दो सेवकों ने उठाकर उस पेटिका को छोटे मंच पर रख दिया।
"क्या यह वही पेटिका है, जिसमें तुम्हारे अनुसार शल्य चिकित्सा के उपकरण बंद हैं? उन्हें ताले लगाकर ही युद्ध स्थल से वापस लाया गया है। तुम ठीक से देख लो कि इसकी स्थिति में किसी तरह से छेड़-छाड़ तो नहीं की गई है।"
मान्या ने पेटिका के चारों ओर परिभ्रमण और अवलोकन कर यह सुनिश्चित किया कि पेटिका सुरक्षित रूप में वहाँ से स्थानांतरित की गयी है।
मान्या, "हाँ, राजमाता, यह वही पेटिका है।"
आचार्य शीलभद्र, "न्यायाचार्य जी, युद्धारंभ के पूर्व नालंदा महाविहार से इस पेटिका के स्थानांतरण की अनुमति क्या चिकित्सकीय दल के प्रभारी से ली गयी थी?"
न्यायविद आचार्य, "चिकित्सकीय दल के प्रभारी श्रमण शोधार्थी यितसिंग को बुलाया जाय।"
यितसिंग भी उसी मंच पर उपस्थित हुए।
न्यायाचार्य, "यितसिंग, क्या आपकी अनुमति लेने के बाद ही इस पेटिका को औषधियों के साथ युद्धस्थल तक हस्तानांतरित किया गया था? "
यितसिग ने संयमित होकर उत्तर दिया, "मैंने मानवर्धिनी से पूछा था कि इसमें क्या है? उसने कहा था, इसमें शल्य चिकित्सा के उपकरण हैं। इसीलिए मैंने उन्हें अन्य औषधियों के साथ ले जाने की अनुमति दी थी।"
"क्या आपने इसे खोलकर देखा था?"
" खोलकर देखने का समय नहीं था। और मैं मान्या के उत्तर से संतुष्ट था।" यितसिंग ने मान्या की ओर देखकर अपने अधरों पर हल्की हास्य मुद्रा अंकित की ।
मान्या की प्रतिक्रिया उदासीनता से आवृत्त थी।
"इतनी छोटी पेटिका में अस्त्र-शस्त्र कैसे आ सकते हैं? क्यों आचार्य जी?" राजमाता ने पूछा था।
"इसका अर्थ यह हुआ कि सारा रहस्य इस रक्तवर्णी पेटिका में ही आवृत्त है। मैं राजमाता की आज्ञा से इसे खोलने की अनुमति प्रदान करता हूँ।"
न्यायाचार्य ने पेटिका को खोलने के लिए चाभी लाने को कहा। यितसिंग ने अपने उत्तरीय से चाभी निकलते हुए कहा, "ये रही चाभी।"
मान्या ने क्रोधपूर्ण नेत्रों से यितसिंग की ओर देखा था।
चाभी लेकर एक सेवक ने रक्तवर्णी पेटिका को खोला। उसने ऊपर में शल्य चिकित्सकीय उपकरणों को धीरे धीरे दोनों हाथों से बाहर निकालना शुरू किया। उन्हें निकाल लिए जाने के बाद भी पेटिका खाली नहीं हुयी थी।
न्यायाचार्य ने पूछा, "क्या पेटिका खाली हो गयी?"
सेवक ने कहा, "नहीं आचार्य, इसके नीचे भी कुछ है।"
न्यायाचार्य, "उसे भी बाहर निकालो।"
मान्या, "क्या इसे निकलने में मैं मदद करूँ, न्यायाचार्य?"
उनके संकेत पाकर मान्या ने पेटिका के अंदर खास निर्मित कटावों में रखी द्विअसिधार खड्ग को बाहर निकाला और अपने हाथ में ही रखा।
न्यायाचार्य, "देवि मान्या, आप अभी इसे अपने हाथ में ही रखें। अब बताएँ कि इतने लंबे धार वाले खड़ग से आपने कौन सी शल्य क्रिया सम्पन्न की?" अभी तक पूरे प्रकरण को निःशब्द श्रवण और अ अलोकन करते जनसमुदाय के बीच हल्की हास्य ध्वनि प्रकट हुयी।
न्यायाचार्य की ओर मुड़कर प्रसन्न मुद्रा में मान्या ने कहना आरम्भ किया, "राजमाता की जय हो, मैंने इस द्विधारी असिधार वाले खड्ग से एक दंभी, अहंकारी, उद्दण्ड, अशिष्ट मनुष्य के मस्तक की शल्य चिकित्सा की है।"
आचार्य शीलभद्र, "क्या आप सीधे और साफ शब्दों में बताएंगी कि आपने क्या किया?"
"आचार्य और गुरुजन, मैंने इसी खड्ग से मिहिरकुल के उपसेनापति तेजकुल या तिमिरकुल का शिरोच्छेद किया है।"
न्यायाचार्य, आचार्य शीलभद्र और राजमाता तथा पूरा उपस्थित जनसमुदाय मान्या के इस स्वीकारोक्ति से स्तब्ध था। थोड़ी देर पूरी सभा मे निस्तब्धता छायी रही। उसके बाद राजमाता अपने रोक नहीं सकी और जोर-जोर से तालियाँ बजाने लगी। तत्पश्चात आचार्य शीलभद्र और पूरा जनसमुदाय जोर-जोर से तालियों बजाने के साथ नगाड़े भी बजाने लगा।
जब तालियों और नगाड़ों का स्वर कम हुआ तो आचार्य शीलभद्र ऊँचे मंच पर ख़ड़े हुए, "आदरणीया राजमाता और उपस्थित जनसमुदाय! आज इस रहस्य से पर्दा उठा। अभी तक यह रहस्य बना हुआ था कि विदिशा के युद्ध में मिहिरकुल के उपसेनापति तिमिरकुल का बध कर किसने युद्ध की परिस्थिति को गुप्त साम्राज्य के अनुकूल बना दिया। इससे कई बौद्ध मठ, संघाराम और नालंदा महाविहार के संभावित विध्वंश और आततायी मिहिरकुल की नृशंसता पर विराम लग गया। अंततः मिहिरकुल बंदी बना और युद्ध का परिणाम गुप्त साम्राज्य और महाराज नरसिंहदेव बलादित्य के सम्मान और कीर्ति को बढ़ाने वाला सिद्ध हुआ। यह पूरा संघाराम और नालंदा का यह जनपद अपनी इस वीर कन्या मान्या का सम्मान करता है। न्यायाचार्य न्याय की प्रक्रिया को आगे बढ़ाया जाए।"
कोलाहल थोड़ा शांत हुआ तब न्यायाचार्य ने कहा, "मान्या तुमने पेटिका के रहस्य को छुपाकर अस्त्र - शस्त्र का स्थानांतरण क्यों किया?"
मान्या ने सहज होकर न्यायाचार्य को संबोधित करते हुए कहा, "श्रीमान, मैंने तिमिरकुल को संदेशवाहक के रूप में महाविहार में आने के बारे में सुना था। यह भी सुना था कि वह प्रधान आचार्य कुलपति शीलभद्र और संघाराम के अन्य आचार्यों के साथ व्यवहार में अशिष्टता और उद्दंडता की सारी सीमा रेखाएँ पार कर गया था। इस संघाराम के अपमान के प्रतिशोध की अग्नि मेरे अंदर धधक रही थी। जब मैंने युद्ध की सीमा की ओर चिकित्सकीय दल के प्रस्थान के बारे में सुना, तो ग्रामीणों के साथ चिकित्सकीय दल गठित कर वहाँ जाने की योजना बनायी। अपने यहाँ के धातुकर्मियों से लचीले द्विधारी खड़ग के निर्माण की इच्छा जताई। जब यह बनकर तैयार हुआ तो घोड़े पर सवार होकर तिमिरकुल के पुतले का मस्तक अलग करने का रात-रात भर अभ्यास किया। जब मैंने युद्धक्षेत्र में उसे घेरकर इसी खड़ग से उसका मस्तक उसके कबंध से अलग कर दिया, तो मेरा प्रतिशोध पूरा हुआ।"
" क्या तुम्हें ज्ञात है कि नियमों का उल्लंघन एक अपराध है। आपने साक्ष्य को छिपाने का अपराध किया है।"
"मेरा प्रतिशोध पूरा हुआ और इसके लिए मैं किसी भी निर्धारित दंड को भोगने के लिए प्रस्तुत हूँ।"
न्यायाचार्य, "भिक्षुक यितसिंग, क्या आप स्वीकार करते हैं कि आपने भी औषधियों के हस्तान्तरण के समय रक्तवर्णी पेटिका की गहन जांच नहीं की? इसलिए आपने भी अपने उत्तरदायित्वों के निर्वहण में शिथिलता बरती। इसतरह परोक्ष रूप से एक भीषण अपराध के सम्पन्न किये जाने में आपकी भी संलिप्तता रही।"
यितसिंग, "मैं न्यायाचार्य द्वारा लगाए गए अभियोगों को स्वीकार करता हूँ और न्यायाधिकरण द्वारा निर्धारित दंड को सिरोधार्य करता हूँ ।"
न्यायाचार्य, "मैं न्यायाधिकरण के उच्च पद पर आसीन आदरणीया राजमाता से आपकी प्रजा की एक कन्या मान वर्धिनी के दंड निर्धारण का अनुरोध करता हूँ। क्योंकि यितसिंग इस महाविहार का एक भिक्षुक है और उसकी अपराध को सम्पन करने में संलिप्तता रही है, इसलिए उसका दंड निर्धारण प्रधानआचार्य शीलभद्र करेंगे।"
पूरा जनसमुदाय निस्तब्ध है। आचार्य शीलभद्र और राजमाता वहीं मंच पर कुछ मंत्रणा कर रहे हैं। थोड़ी देर बाद राजमाता मंच पर खड़ी हो जाती है, "इस जनपद की कन्या ने छुपाकर अस्त्र शस्त्र को युद्धस्थल तक ले जाने का अपराध किया है। उसे सेनापति से अनुमति ले लेनी चाहिए थी। युद्ध में तो अस्त्र-शस्त्र ही सेनानियों का आभूषण होता है। पर अपराध तो अपराध है। इसलिए मानवर्धिनी को इस जनपद को छोड़कर वाहर चले जाने का आदेश सुनाया जाता है।"
सारी जनता शोकाकुल हो उठी।
राजमाता ने पूछा, "मानवर्धिनी, क्या तुम्हारी कोई इच्छा है, जो कहना चाहती हो, कहो।"
मान्या, "मैं प्रधानाचार्य शीलभद्र के यितसिंग का दंड सुना देने के बाद अपनी इच्छा व्यक्त करूंगी।"
इसके बाद आचार्य शीलभद्र खड़े हुए, "यितसिंग ने अपराध कर्म में संलिप्तता दिखाकर भिक्षुक और शोधार्थी के उद्देश्यों के विपरीत कार्य किया है। इसलिए उसे भिक्षुक के संस्कार और चर्या से मुक्त किया जाता है, साथ ही उसे आदेश दिया जाता है कि वह अपने मनपसंद की कन्या, अगर यहाँ है, तो उसके साथ अथवा समय लेकर इसका निर्णय कर गार्हस्थ्य जीवन में प्रवेश कर जाँय।"
शीलभद्र ने अपना स्थान भी नहीं ग्रहण किया था कि मान्या ने अपनी इच्छा जाहिर करने के लिए हाथ उठाया, "राजमाता की जय हो, मैं अपनी अंतिम इच्छा व्यक्त करना चाहती हूँ । मैं तथागत भगवान बुध्द और राजमाता, आचार्य शीलभद्र और इस जनसमुदाय को साक्षी रखकर इस संघाराम समुदाय के श्रमण शोधार्थी यितसिंग का हाथ मांगकर उसके गार्हस्थ्य जीवन में प्रवेश की इच्छुक हूँ।"
आचार्य शीलभद्र ने पूछा, "यितसिंग क्या मानवर्धिनी का प्रस्ताव स्वीकार है?"
यितसिंग थोड़ा संकोच से घिर रहा था। आचार्य ने कहा, "तुम चाहो तो समय ले सकते हो। इस प्रस्ताव को अस्वीकार भी कर सकते हो।"
यितसिंग हँसता हुआ जोर से बोला, "मुझे मान्या का यह प्रस्ताव स्वीकार है।"
बौद्ध रीति के अनुसार दोनों ने छोटी माला का आदान प्रदान किया। दौड़कर संघाराम में गए, तथागत की प्रतिमा के सामने सिर झुकाए और वापस आकर राजमाता और आचार्य शीलभद्र के चरण स्पर्श किये।
अंत में राजमाता ने जनसमुदाय के समक्ष घोषणा की, "मान्या को मैंने आप सबों से दूर जाने का दण्ड तो सुना दिया। लेकिन फिर मै अपने स्वार्थ से घिर गयी। मान्या के प्रतिशोध का पुरस्कार मिलना अभी बाकी है। मान्या मगध की राजधानी से स्त्री शक्ति जागरण के कार्य की देखरेख में मेरी मदद करेगी। इसतरह वह आपसे दूर रहकर भी आपके पास रहेगी।"
जनसमुदाय भगवान बुद्ध की जय, राजमाता की जय, आचार्य शीलभद्र की जय, नालंदा महाविहार की जय, संघाराम की जय आदि नारे लगा रही थी।
मान्या को अपने प्रतिशोध का पुरस्कार मिल गया था।

©ब्रजेंद्रनाथ मिश्र


परामस्नेही मित्रों, ऐतिहासिक फिक्सन पर आधारित मेरी लिखी  कहानी  "प्रतिशोध का पुरस्कार",  सर्वाधिक लेखकों और पाठकों द्वारा विजिट किये जाने वाले साइट "प्रतिलिपि" द्वारा आयोजित कालचक्र प्रतियोगिता में चतुर्थ स्थान प्राप्त की है। परिणाम का स्क्रीन शॉट मैं यहाँ दे रहा हूँ।
यह  6 वीं शताब्दि में गुप्त काल के अवसान के समय हूणों के संभावित आक्रमण से एक वीर स्त्री द्वारा नालंदा महाविहार के संभावित विध्वंश से संरक्षित करने  की कहानी है।
इस कहानी का लिंक इस प्रकार है:
"प्रतिशोध का पुरस्कार", को प्रतिलिपि पर पढ़ें :
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ब्रजेंद्रनाथ









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