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Friday, May 10, 2019

प्रतिशोध का पुरस्कार (भाग 1) कहानी

#BnmRachnaWorld
#Hindistory#historicalfiction



प्रतिशोध का पुरस्कार
 (भाग 1)

"रुक जा वहीं पर।" एक तेज आवाज अश्वारोहियों के कानों में सुनायी पड़ी।
"कौन है, जो हूण शासक मिहिरकुल के संदेशवाहक को रुकने का आदेश दे रहा है? स्त्री या पुरुष जो भी है सामने आए।"
सैनिक वेश में कवच और अस्त्र-शस्त्र से सुसज्जित कृष्ण अश्व पर सवार अपने पीछे के तीन अन्य साथियों को हाथ से रुकने का संकेत कर अश्वारोही स्वयं भी रुक गया।
शरद ऋतु में पूर्व क्षितिज पर रश्मियाँ बिखेरते भास्कर ने पूरे हरित प्रदेश का स्वयं संरक्षण किया था। धान के हरे- हरे पौधे खेतों में लहरा रहे थे। उन्हीं खेतों के बीच बना यह मार्ग अशोक वृक्षों से आच्छादित था। मार्ग के पास के ऊंचे टीले पर ध्वज लिए सैन्यवेश में एक युवती ने ऊंची आवाज में कहा, "मैंने ही तुम्हें रुकने का आदेश दिया है।"
वह युवती टीले से उतरकर सड़क किनारे के वृक्ष के पास आ गयी।
"क्या तुम्हें मालूम है, हम कौन है?" एक अश्वारोही ने दर्प के साथ एक प्रतिप्रश्न पूछा।
"जब तुमने बताया ही नहीं, तो मैं कैसे जान पाऊंगी?"
युवती के चेहरे पर व्यंग्य मिश्रित मुस्कान थी।
"हम यशस्वी हुण सम्राट मिहरकुल, जिसके पराक्रम के पराभूत होकर सारा उत्तर पश्चिमी आर्यावर्त और मध्य भारत के चंद्रभागा नदी के प्रदेश तक अपने को धन्य मानता है, उन्हीं का मैं उप सेनापति और अभी संदेशवाहक हूँ।"
"तो तुमलोग अपने सम्राट की प्रशंसा में खुद ही सुगम संगीत सुनाए जा रहे हो? मुझे तो तुम्हारे सम्राट के बारे में कुछ नहीं ज्ञात है।"
"यह तुम्हारी अज्ञानता है।"
"परंतु, वरिष्ठ साथी, इसे हम क्यों यह सब बता रहे हैं? क्या यह सब पूछने की अधिकारिणी है यह?" अश्वारोहियों में से एक ने अपने आगे ख़ड़े मित्र से पूछा।
"सही कहा तुमने। तुम होती कौन हो यह सब प्रश्न करने वाली? मैं क्यों उत्तर दूँ तुम्हारे इन अनर्गल प्रश्नों का?"
"क्योंकि तुम जिस मार्ग पर बढ़ना चाह रहे हो, वह मार्ग नालंदा महाविहार (महा विश्वविद्यालय) और संघाराम के मुख्य द्वार के तरफ जाता है। इस मार्ग की रक्षा का दायित्व मेरे ऊपर है।"
"एक स्त्री पर इस पूरे विशेष मार्ग की रक्षा का दायित्व, हा, हा, हा..."
उसके अट्टहास में घोर उपहास छिपा हुआ था।
उसने अट्टहास के साथ ही अपना कथन जारी रखा, " मुझे इस जनपद के अधिकारी, महाविहार के कुलपति और इस क्षेत्र के नृप की बुद्धिमत्ता पर तरस आता है।"
"मैं अनावश्यक प्रलाप में रुचि नहीं रखती हूँ। क्या तुम्हें ज्ञात है कि इस मार्ग पर आगे बढ़ने के पहले कुछ  प्रतिबद्धताओं और नियमोों का पालन आवश्यक है?" ताम्र वर्णी स्त्री के दर्पोन्नत ललाट पर उसकी कठिन तपस्या और महाविहार के संरक्षण के दायित्व बोध की दृढ़ता परिलक्षित हो रही थी।
"तो तुम मुझे  नियम सिखाएगी। जहाँ हुण सम्राट मिहिरकुल का सैनिक जाता है, वहाँ वही नियम बनाता है और दूसरे आम जन उसका अनुशरण करते हैं। प्रश्न नहीं पूछते। फिर भी तुम अपने नियम बता सकती हो। उसका पालन करना है या नहीं या कितना पालन करना है, यह हम तय करेंगे।"
"तुम सबों को यहाँ अश्व और अस्त्र शस्त्रों के साथ सैन्य वेश का परित्याग करना होगा। यहाँ हम तुझे साधारण नागरिक के वस्त्र प्रदान करेंगे, जिसे पहनकर तुम आगे बढ़ सकते हो और प्रवेश द्वार पर पहुंचकर विहित प्रपत्र में अपने बारे में सारी सूचनाएं देते हुए और संघाराम में अपने प्रवेश के कारणों का उल्लेख करते हुए आवेदन कर सकते हो। उसपर कुलपति विचारकर अपनी सम्मति देंगें, तभी तुम महाविहार में प्रवेश पा सकते हो।"
"और मैं अगर इसे ना मानूँ तो?" उसके प्रश्न करते ही, उस स्त्री ने मुँह से ऊँची ध्वनि में कुछ ध्वनि संकेत दिए...और चारो तरफ विषाक्त तीर और धनुष ताने हुए हजारों स्त्री-पुरुष सड़क के दोनों ओर दृष्टिगत हुए। साथ ही दूर से एक दूसरी सैन्य वेश में स्त्री छोटे - छोटे पहियों पर एक घोड़े पर सवार पुतले को लाती हुई दिखी। वह बिल्कुल अश्वारोहियों के समीप आयी, उसने पुतले को सड़क पर स्थिर किया और स्वयं सड़क के किनारे के पेड़ों के पीछे चली गयी। उनलोगों से संवाद कर रही स्त्री ने ताली बजायी... पुतले वाले घोड़े पर सवार अश्वारोही के नीचे की धरती मे कंपन हुआ और अश्व सहित आरोही नीचे के अनन्त गहराई में विलुप्त हो गया।
सैन्य वेश में पहली स्त्री ने कहा, "तुमलोग क्या अपनी ऐसी ही स्थिति चाहते हो?"
सारे अश्वारोही जो अभी सम्राट मिहिरकुल का गुणगान कर रहे थे, चुपचाप अश्व से उतर गए। अपने शस्त्रों और वस्त्रों का परित्याग किया, और वहाँ से प्राप्त शुभ्र वस्त्र को धारण कर पद यात्रा करते हुए महाविहार की ओर परिगमन किया।

★★★★★
मानवर्धिनी, जो नालंदा महाविहार के परिसर में मान्या के नाम से प्रसिद्धि पा चुकी थी, पर ही महाविहार की सुरक्षा का दायित्व आ पड़ा था, जब इन 200 ग्रामों का प्रधान उसका पिता अर्धवृद्धावस्था में ही भीषण कर्क रोग (कैंसर) से ग्रसित होने के कारण मृत्यु को प्राप्त हो गया था। करीब 30 एकड़ में विस्तार ग्रहण किया हुआ नालंदा महाविहार 7 वीं शताब्दी का संभवतः विश्व का पहला आवासीय विश्वविद्यालय था। यहाँ विश्व के कोने -कोने से आये विद्यार्थी और शोधार्थी विद्वान आचार्यों के समीप रहकर बौद्ध धर्म, स्थापत्य, आयुर्वेद, शल्य चिकित्सा, धातुकर्म आदि क्षेत्रों में ज्ञान अर्जन करते थे। यहॉं 10000 विद्यार्थियों को ज्ञान देने के लिए 2000 से अधिक शिक्षक थे।
इस विश्वविद्यालय की स्थापना का श्रेय गुप्त शासक कुमारगुप्त प्रथम (450-470 ई ) को प्राप्त था। गुप्तवंश के पतन के बाद भी आने वाले सभी शासक वंशों ने इसकी समृद्धि में अपना योगदान जारी रखा। इसे महान सम्राट हर्षवर्द्धन और पाल शासकों का भी संरक्षण मिला। स्थानीय शासकों तथा भारत के विभिन्न क्षेत्रों के साथ ही इसे अनेक विदेशी शासकों से भी अनुदान मिला।
अत्यंत सुनियोजित ढंग से और विस्तृत क्षेत्र में बना हुआ यह विश्वविद्यालय स्थापत्य कला का अद्भुत नमूना था। इसका पूरा परिसर एक विशाल दीवार से घिरा हुआ था जिसमें प्रवेश के लिए एक मुख्य द्वार था। उत्तर से दक्षिण की ओर मठों की स्थापना की गयी थी और उनके सामने अनेक भव्य स्तूप और मंदिर थे। मंदिरों में बुद्ध भगवान की सुन्दर मूर्तियाँ स्थापित थीं। केन्द्रीय विद्यालय में सात बड़े कक्ष थे और इसके अलावा तीन सौ अन्य कमरे थे। इनमें व्याख्यान हुआ करते थे।
प्रत्येक मठ के आँगन में एक कुआँ बना था। आठ विशाल भवन, दस मंदिर, अनेक प्रार्थना कक्ष तथा अध्ययन कक्ष के अलावा इस परिसर में सुंदर बगीचे तथा झीलें भी थी।
समस्त विश्वविद्यालय का प्रबंध कुलपति या प्रमुख आचार्य करते थे जो भिक्षुओं द्वारा निर्वाचित होते थे। कुलपति दो परामर्शदात्री समितियों के परामर्श से सारा प्रबंध करते थे। प्रथम समिति शिक्षा तथा पाठ्यक्रम संबंधी कार्य देखती थी और द्वितीय समिति सारे विश्वविद्यालय की आर्थिक व्यवस्था तथा प्रशासन की देख-भाल करती थी। विश्वविद्यालय को दान में मिले दो सौ गाँवों से प्राप्त उपज और आय की देख-रेख यही समिति करती थी। इसी से सहस्त्रों विद्यार्थियों के भोजन, कपड़े तथा आवास का प्रबंध होता था।
इस विश्वविद्यालय में तीन श्रेणियों के आचार्य थे जो अपनी योग्यतानुसार प्रथम, द्वितीय और तृतीय श्रेणी में आते थे। उन श्रेणियों के नाम थे शीलभद्र, शौर्यभद्र और स्नेहभद्र।
मान्या के पिता के कर्क रोग से मृत्यु होने से इस रोग पर सम्पूर्ण उन्मूलन के लिए शोधार्थी सघन रूप से संलग्न थे। उसके पिता ने सारे ग्रामीणों के सामने उनकी परामर्श प्राप्त कर लेने के बाद महाविहार की सुरक्षा व्यवस्था का दायित्व मान्या को सौंप दिया था। मान्या तीर और तलवार चलाने में तो सिद्धहस्त थी है, उसे ग्रामीणों में युवक - युवतियों को संगठित कर, उनमें सैन्य - निपुणता विकसित करने के कारण उनके बीच वह लोकप्रिय भी हो गयी थी। सारे ग्रामीणों ने उसके नेतृत्व को सहर्ष स्वीकार किया था। मगध सम्राट कुमारगुप्त प्रथम ने 5 वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में इस महाविहार की स्थापना के साथ ही इसके आर्थिक पोषण और सुरक्षा के लिए आसपास के दो सौ ग्रामों पर उत्तरदायित्व सौपा था, जिसे ग्रामीणों ने अपने सम्मान और गर्व का प्रतीक माना था। इन गाँवों को राजाज्ञा से सारी सुविधाएं प्राप्त थी। वे राज्य के किसी प्रकार के कर से मुक्त थे।

मान्या व्याकुल लग रही थी। उसमें यह जानने की जिज्ञासा प्रबल हो रही थी कि बाहर से आये प्रवेश के इक्षुक उन सैन्य नामधारी संदेशवाहकों का क्या हुआ? रात्रि के इस प्रहर में चैत्यों और मठों के वाह्य निरीक्षण के बाद जब वह निकलने को थी, कि उसकी दृष्टि शोधार्थी यित्सिंग पर पड़ी। तिब्बत से आया यह भिक्षु मस्तिष्क में तीव्र मेधा और भुजाओं में अपार बल का स्वामी था। कहा जाता है कि उसने संघाराम में प्रवेश पाने के एक दिवस बाद ही, मठ की ओर बढ़ते एक अजगर के मुख को अपनी मुठ्ठी से पकड़कर और उसकी कुंडली को भुजाओं में लपेटते हुए निश्चेष्ट कर मृत्यु को पहुँचा दिया था। तब से वह यित्सिंग की ओर थोड़ा झुकाव का अनुभव कर रही थी। उसने एक चैत्य से निकलकर उसे जाते हुए देखा, तो व दौड़ कर उसके पास पहुँच गयी।
"यित्सिंग, तुम्हें क्या रात्रि भ्रमण करने का मन नहीं करता?"
मान्या ने उसकी इच्छा ज्ञात करने के लिए प्रश्न किया।
"देखो मान्या, तुम्हें विहार में रात्रि के इन प्रहर में भी आने की अनुमति परमादरणीय कुलपति से प्राप्त है, इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि तुम प्रशिक्षु शिक्षार्थियों के साथ रात्रि में वार्तालाप करो।"
"तुम तो व्यर्थ ही रुष्ट हो गए। देखों, इस निरभ्र नीले नभ के नीचे चैत्यों के समीप के सरोवर - तीर पर शीतल मंद पवन में थोड़ा विचरण कर लेने से प्रातः ध्यान को केन्द्रीभूत करने में सहजता आ जाती है।"
"ऐसा किस ग्रंथ में लिखा है? मुझे तो किसी आचार्य ने भी नहीं बताया?" उसने जिज्ञासा प्रकट की थी।
"उसी दिन महाचार्य शीलभद्र (प्रथम) सामूहिक प्रार्थना स्थल पर कह रहे थे।"
"मैंने तो नहीं सुना।" मान्या ने उसके चेहरे पर आ जा रहे अस्थिर मनोभावों को पढ़ लिया था।
"तुम बोधिसत्त्व, यानि बुद्ध के नियमों को धारण करने के मार्ग पर चल चुके हो या नही?" "हाँ।"
"तुम्हें महायान के पथ पर चलकर अनवरत करुणा और दया को अपनाते हुए बोधिचित्त को प्राप्त करना है या नहीं? इसके लिए ध्यान द्वारा दृश्य से अदृश्य जगत की यात्रा करनी होती है।"
वह तो हतप्रभ था। यहाँ, जिसे वह अतिसाधारण समझता है, उसके पास भी ज्ञान का भंडार भरा पड़ा है। लगता है कि यहाँ के हर कंकड़, पत्थर, धूल और मिट्टी में बोधि तत्व की सुगंध छिपी है। मान्या उसके अस्थिर विचार क्रम को समझ रही थी।
"तुम्हारी ध्यानस्थ होने की प्रक्रिया दोषपूर्ण है। इसलिए कहती हूँ, चैत्यों के पास वाले सरोवर की ओर चलो। इस पूर्ण चंद्र में वहाँ अमृत वर्षा होती है।"
महाचार्य के वचनों के परिपालन को ध्यान में रखते हुए वह चैत्यों के पास के सरोवर की ओर अग्रसर होने लगा। अब मान्या को अपने मनोरथ पूर्ति होने की संभावना दृढ़ होने लगी। यित्सिंग महाचार्य के द्वारा चयनित शिष्य मंडली, जो उनके हर विचार - विमर्श और साक्षात्कारों में साथ रहती थी, उसका एक महत्वपूर्ण सदस्य था। मान्या दौड़कर आगे हो गयी और शीघ्रता से सीढियाँ उतरकर सरोवर के जल में अपने पाँव डालकर ऊँचे स्वर में बोली, "यित्सिंग, तुम भी सीढियाँ उतरकर नीचे आओ। देखो जल कितना शीतल और ध्यानयोग को सहज और तीव्र करने वाला है।"
यित्सिंग ध्यानयोग के द्वारा अंतर्जगत और वाह्य आंतरिक्ष की व्यापकता का प्रत्यक्ष अनुभव करना चाहता था। इसके लिए वह किसी भी तरह के प्रयोग करने को प्रस्तुत रहता था। वह सीढ़ियाँ उतरते हुए मान्या के विपरीत सरोवर के तट पर पहुँचकर बोला, "ठीक है, लो मैंने जल में पाँव डाल दिये।"
"ओहो, तुम तो उधर विपरीत तट पर जा बैठे। इधर आ जाओ। चन्द्र किरणों का स्पर्श तुम्हारे मुखमंडल पर होना चाहिए।"
यित्सिंग अपनी मर्यादायें और एक भिक्षुक के लिए विहित वर्जनाओं को समझता था। इसलिए वह मान्या की समीपता से दूर रहना चाहता था। परंतु इससे मान्या की मनोरथ सिद्धि नहीं हो पाती।
मान्या जिस तट पर बैठी थी उधर आकर उसने कहा, "लो, मैंने सरोवर के जल में पाँव रख दिये।"
"जल शीतल लग रहा है न। अब आँखें बंद कर लो।"
"हाँ, मैंने आँखें बंद कर लीं।"
"अब तुम ध्यान करो और मैं जो पूछती हूँ, बताते जाओ।"
कुछ पल ध्यानस्थ होने के बाद आवाज आई, "पूछो, जो भी पूछना हो। तुम जो भी पूछोगी मैं बताऊँगा।"
मान्या का तीर ध्येय पर जा लगा था, "तो बताओ कि उस दिन हुण लुटेरे नृप मिहिरकुल के संदेश वाहकों के साथ आचार्य शीलभद्र का क्या संवाद हुआ ?"
अब यित्सिंग भी खुल रहा था।
" वे तो बहुत ही धृष्ट, दंभी और उद्दण्ड मनुष्य थे। आचार्य धम्मपद से ऐसी बातें करते हुए मैंने पहले किसी को नहीं सुना था। आचार्य ऊँचे शिलाखंड पा बैठे थे, तभी उस विचार कक्ष में वे आये। उनके नायक ने परिचय देते हुए कहा कि मैं हूण सम्राट मिहिरकुल का उपसेनापति और मिहिरकुल के चाचा का पुत्र तेजकुल अपने तीन अन्य साथियों के साथ तुम्हारे पास एक संदेश लेकर आया हूँ। तुम संदेश पत्र पढ़ो, इसके पूर्व मैं कुछ कहना चाहता हूँ। तुम्हें ज्ञात होगा कि गांधार के वीर शासक तोरमाण ने कश्मीर, सिंध और वाकाटक (विदर्भ) को जीत लिया है। उनके बाद उनके पुत्र मिहिरकुल ने स्लाट (स्यालकोट) का क्षेत्र जीतते हुए तुम्हारे नृप नरसिंहगुप्त से भी मालवा प्रदेश का बड़ा हिस्सा छीन लिया है। अभी चंद्रभागा नदी के तट पर स्थित पवैय्या नगर उनका शासन स्थान है। सम्राट ने भगवान स्थाणु (शिव) को छोड़कर किसी के आगे मस्तक नहीं झुकाया।"
आचार्य ने कहा, "आप अपने के आने का उद्देश्य बताएँ।"
उसने अहंकारजनित वाणी में पुनः कहना शुरू किया, "तुमने अभी पूरी बात सुनी नहीं। सम्राट मिहिरकुल की वीरता की गाथा को तुम यहाँ के पाठ्यक्रम में सम्मिलित करोगे। यह उनका आदेश है। उन्हें ना सुनने की आदत नहीं है। वे मनुष्यों की कौन कहे, हाथियों को अपने कंधे से घाटी के नीचे धकेलकर उसके चिघ्घाड़ पर अट्टहास करते हैं। उन्होंने कई बौद्ध मठों का विध्वंश कर धम्माचार्यों को हमेशा के लिए बुद्ध के पास पहुँचाया है। पर वे अब उसका पश्चाताप करना चाहते हैं। वे बौद्ध धर्म को समझना चाहते है।"
आचार्य ने इतना लंबा दंभपूर्ण अभिभाषण बहुत ही शांत स्वर में सुनते हुए पूछा था, "क्या आपलोगों ने पूरे महाविहार परिसर का परिभ्रमण किया? यहाँ के चैत्यों यानि बौद्ध मंदिरों में भगवान बुद्ध की विभिन्न मुद्राओं में मूर्तियाँ बहुत ही आकर्षक है। आपको यहाँ के विशाल पुस्तक कक्ष में भी अपना थोड़ा समय बिताना चाहिए।"
इसपर उसके मुख्य प्रवक्ता ने ऊँची आवाज में कहा, "हम आपके महाविहार के परिभ्रमण का कोई उद्देश्य लेकर नहीं आये हैं। मुझे सम्राट मिहिरकुल ने कुछ स्पष्ट संकेत देकर भेजा है।"
"क्या है वह संकेत? आप बतायेंगे?" आचार्य शौर्यभद्र ने प्रश्न किया था।
"तुममें से जो भी मुख्य धम्मचार्य है, उनसे वे बौद्ध धर्म के बारे में जानकर उसकी समीक्षा करना चाहते है। मेरे साथ चलकर तुम उन्हें बौद्ध धर्म की शिक्षा दोगे।"
इसपर आचार्य शीलभद्र ने कहा था, "मैं तो अभी आवश्यक कार्य से महाविहार से बाहर जा रहा हूँ। आचार्य स्नेहभद्र आपके सम्राट को शिक्षा देंगें।"
"ऐ महाचार्य, अगर तुम मुख्य आचार्य हो तो तुम्हें ही जाना होगा।"
"आप उद्दत न हों। आचार्य स्नेहभद्र भी बड़े विद्वान हैं। वे भी आपके सम्राट को संतुष्ट कर सकेंगे।"
"ऐ, महाचार्य तुम चलते हो या मुझे बलप्रयोग करना पड़ेगा।"
यित्सिंग के इतना कहते-कहते उसपर क्रोध के आधिक्य से उसका मुखमंडल रक्तवर्णी होने लगा था। फिर भी उसने निरंतरता बनाये रखी, "इसपर मुझसे नहीं रहा गया, "आदरणीय आचार्य जी की अनुमति से मैं कुछ कहने की अनुमति चाहता हूँ।"
आचार्य जी से संकेत मिल जाने पर मैंने कहा, "ऐ आगंतुक, तुम्हारी उद्दंडता से तुम्हारा दम्भ परिलक्षित होता है। आचार्य को उचित सम्मान देते हुए 'आप' कहकर संबोधित करो। अभी तक तुमने नहीं किया है, इसके लिए क्षमा प्राप्ति की याचना करो। क्षमा प्रार्थी को हम बौद्ध क्षमा दान दे देते हैं।" उसने कुछ प्रतिवाद के लिए मुँह खोलने ही चाहे कि मैंने चुप रहने के संकेत के साथ अपना वक्तव्य जारी रखा, "अगर आचार्य आदेश करें तो मैं अपने इन्हीं वज्र हाथों से तुम्हारी धृष्ठता और प्रगल्भता के दंडस्वरूप तुम्हारे कंधे को चूर्णित कर सकता हूँ। परंतु बौद्ध जीवन पद्धति संदेशवाहक के साथ ऐसे व्यवहार की अनुशंसा नहीं करता। पर संदेशवाहक को भी अपनी सीमाओं का ज्ञान होना चाहिए।"
"शांत यितसिंग, बुद्धत्व यह नहीं सिखाता की उद्दंड और धृष्ट के साथ वैसा ही आचरण किया जाय। तब उसमें और हममें क्या अंतर रह जायेगा।"
मैं विचार कर रहा था, " बुद्धत्व का अर्थ क्या क्लैव्य के आवरण में छुप जाना है?" पर इस विचार को व्यक्त नहीं कर सका।
"मुझे ज्ञात है, तुम क्या सोच रहे हो? इसपर हमलोग विचार करेंगे।" और आगंतुक की ओर मुख कर बोले,"आप शांत हों आगंतुक! शिष्टता के आचरण के अनुसार शिक्षा या दीक्षा प्राप्त करने के जिज्ञासु को गुरु के पास आना चाहिए। फिर भी आचार्य स्नेहभद्र आपके साथ आपके सम्राट से मिलने जायेंगें। आप अभी संघाराम के अतिथि कक्ष में विश्राम कर अपने पथ श्रान्ति का शमन करें।"
तत्पश्चात वे मुझे उनलोगों को अतिथि गृह तक ले जाने को कहकर चले गए।"
वह यह सब कहने में यितसिंग ऐसा खो गया था कि मान्या कब वहाँ से उठकर चली गयी, उसका पता ही नहीं चला। मान्या से यह भी अनुरोध नहीं कर सका कि ये सारी बातें, कहीं और न कहे।

★★★★★
मगध सम्राट नरसिंह गुप्त बलादित्य के राजप्रासाद के आंतरिक विचार गोष्ठी कक्ष में एक महत्त्वपूर्ण मंत्रणा चल रही थी। उसमें स्वयं महाराज के साथ मुख्य अमात्य, सैन्य सुरक्षा सलाहकार और सेनापति, गुप्त सूचना तंत्र के प्रभारी, नालंदा महाविहार के कुलपति धम्मपद आचार्य शीलभद्र (प्रथम) अपने प्रिय शिष्य यितसिंग के साथ, मिहिरकुल के पास से लौटकर आये आचार्य स्नेहभद्र की उपस्थिति प्रमुख थी।
महाराज ने मंत्रणा कक्ष को संबोधित करते हुए आचार्य स्नेहभद्र की ओर संकेत कर पूछा था, "तो आचार्य स्नेहभद्र, हूण शासक से मिलने के बाद आपने क्या पाया?"
आचार्य स्नेहभद्र ने पूर्णतः संयत होकर गंभीर वाणी में कहा, "सम्राट की जय हो! मुझे उस दिन मिहिरकुल के द्वारा संदेशवाहक के रूप में नालंदा महाविहार में भेजे गए अश्वारोहियों के साथ पवैय्या नगरी में प्रवेश करते ही सीधे मिहिरकुल के पास ले जाया गया। मुझे लग रहा था कि मैं ज्ञान प्रदान करने वाला कोई आचार्य न होकर कोई युद्ध बंदी हूँ। मिहिरकुल एक उच्चासन पर बैठा था। उसके साथ उसके मुख्य सेनापति के अतिरिक्त कोई नहीं था। उसने मुझसे पूछा, "ऐ मिक्षुक, क्या तुम्हीं महाविहार के सर्वोच्च आचार्य हो?
मैन कहा, "नहीं। "
"तो क्या तुम कोई साधारण शिक्षार्थी हो?"
"नहीं, मैं वहॉं के उच्चतम आचार्यों में तीसरा स्थान रखता हूँ।"
"इतना सुनते ही वह चिल्लाया, "तेजकुल, मैंने तुम्हें सर्वोच्च आचार्य को लाने के लिए भेज था। तू निम्न आचार्य को यहॉं ले आया?" तेजकुल सिर झुकाए खड़ा था। "तुम्हारा तेज़ अंधकार में विलुप्त हो गया लगता है। आज से तुम्हरा नाम तेजकुल नहीं तिमिरकुल होगा। दूर हो जा मेरी दृष्टि से।"
उनके थोड़ा शांत होते ही मैंने कहा, "महाराज, दोष इनका नहीं है। महाचार्य किसी आवश्यक कार्य से वाहर जाने वाले थे। इसीलिए आपके अनुरोध का सम्मान करते हुए तत्काल मुझे भेज दिया। आजतक जिज्ञासु और शिक्षाग्रही स्वयं विहार में रहकर शिक्षा ग्रहण करते आ रहे हैं। यह पहली बार हुआ है कि एक आचार्य स्वयं चलकर शिक्षाग्राही के यहाँ स्वयं शिक्षा देने उसके पास आया हो।"
"भिक्षुक, तुम यदि एक भीखू नहीं होते तो भगवान स्थाणु साक्षी हो, तुम्हारा मस्तक स्कंध पर नहीं होता। इसका दंड तुम्हें, तुम्हारे महाचार्य और महाविहार सहित सम्राट नरसिंहगुप्त को भी अवश्य मिलेगा। तुम्हें ज्ञात नहीं, मैं तुम्हारे नृप स्कन्दगुप्त से " कर" प्राप्त कर छोड़ दिया था।" वह थोड़ा शांत हुआ, तो मैंने कहा, "महाराज एक बौद्ध भिक्षुक मृत्यु को जीवन का अनिवार्य अस्तित्व मानता है। जिस दिन मनुष्य जीवन ग्रहण करता है, मृत्यु उसकी सहचारिणी हो जाती है। इसलिए वह अमर्त्य होता है।"
"तुम्हारी बाते मेरी समझ में नहीं आयी। महामात्य को बुलाओ। उनके आने पर उनकी ओर संकेत कर उसने कहा, "महामात्य, एक पत्र महाविहार के कुलपति को लिखा जाए जिसका आशय हो, "तुमलोगों ने सम्राट मिहिरकुल को शिक्षित करने के लिए एक निम्न स्तर के आचार्य को भेजकर उनका अपमान किया है। इसलिए महाराज तुम्हारे महाविहार में स्वयं आयेगें। वहाँ के सारे बौद्ध मन्दिरों को ध्वस्त कर भगवान स्थाणु (शिव) की मूर्ति स्थापित करवाएंगे। इसका विरोध करने वाले को मृत्यु दंड दिया जाएगा। "
इतना कहकर आचार्य स्नेहभद्र शांत हो गए। उन्होंने विहित पत्र को महाराज के हाथों में दिया।
महाराज बोले, "आचार्य शीलभद्र, महाविहार हमारी सांस्कृतिक धरोहर है। हम सभी पंथों का सम्मान करते है। महान सम्राट चंद्रगुप्त विक्रमादित्य के महान उत्तराधिकारी कुमारगुप्त ने ही महाविहार की स्थापना की थी। इसका उद्देश्य आर्यावर्त की सम्मलित संस्कृति को, करुणा और वसुधैव कुटुम्बकम के संदेश को विश्व का उद्घोष बनाना था। किसी भी मंदिर को ध्वस्त कर बौद्ध मठ नहीं बनाए गए। बौद्ध मठ और मंदिर हर जगह एक साथ अस्तित्व में रहे हैं।"
आचार्य शीलभद्र ने अपने विचार व्यक्त किये, "शायद मिहरकुल को ज्ञात नहीं है कि महाविहार में वेद और वेदांत की भी शिक्षा दी जाती है। हमारे पुस्तकालयों में वेद, उपनिषद, वेदांत, पुराण आदि सभी हैं। महाविहार के बाहर में शिव मंदिर भी हैं। शिव के कल्याणकारी रूप को ही हम सभी बुद्धत्व की आधारशिला मानते हैं। मेरी राय में इन सारी व्याख्याओं को समेटते हुए, मिहिरकुल को यह बताया जाए कि हमलोग चैत्यों की पंक्ति में जो स्थान रिक्त है, वहाँ शिव लिंग की स्थापना कर शिव मंदिर का निर्माण करवा देंगे। अगर इसपर भी वह नहीं मानता है। तब सैन्य प्रतिरोध ही विकल्प रह जाता है।"
सेनापति ने कहा कि हमें सैन्य प्रतिरोध के लिए अपने मित्र राजाओं जैसे मालवा के यशोधर्मन को भी संदेश भेजवा दिया जाय। इसपर सहमति बनती हुई दिखी। गुप्त सूचना तंत्र के प्रतिनिधि को मिहिरकुल की हर गतिविधि पर दृष्टि रखते हुए, सूचित करते रहने का संकेत किया गया। ये सारी वार्ताओं के विचार - विमर्श के बारे में मान्या ने भी यितसिंग से ज्ञात कर लिया था।
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रात्रि के इस प्रथम प्रहर में ही चंद्रिका की चंचल किरणें निस्तेज लग रही थीं। पादप के पत्ते और लता वृन्तों पर पुष्प मल्लिकाओं की पंक्तियाँ शान्त थीं। पवन रुक - रुक कर प्रवाहमान था। चैत्यों के पीछे के इस विशाल सरोवर में आज कोई उर्मियाँ नहीं उठ रही थीं। मान्या उसी सरोवर के जल में अपने पाँव डाले कबसे यितसिंग का इंतजार कर रही थी। चाँद ऊपर तक उठ आया, तब वह आता हुआ दिखाई दिया। उसके आते ही उसपर अपने मन की खिन्नता और परिस्थितिजन्य तनाव के मिश्रित भावों से शब्दों को सिक्त करती हुई बोली, "यितसिंग, तुम बहुत प्रतीक्षा करवाते हो। तुम्हें बालिकाओं का प्रतीक्षारत दिखना अच्छा लगता है क्या?"
यितसिंग ने मान्या को मनाते हुए कहा, "मान्या, तुम्हें मेरी स्थिति पर विचार करने पर ज्ञात होगा कि अभी किस असामान्य परिस्थिति में मैं यहाँ आ पाया हूँ। "
"अच्छा, जैसे सिर्फ मैं ही तुम्हारी प्रतीक्षा में रत रहती हूँ। क्या तुम मुझसे मिलना नहीं चाहते?" मान्या ने अपने अंदर उठते हुए इन प्रश्नों को अंदर ही छुपाते हुए सिर्फ "ह्म्म्म..." कहा था।
"मान्या, एक तो मैं भिक्षुक हूँ, जिसे कई संकल्पों और कठिन शारीरिक, मानसिक और आत्मिक नियमों में स्वयं आबद्ध होकर दिनचर्या करनी पड़ती है। साथ ही मैं यह भी नहीं भूलता हूँ कि मैं एक विदेशी भिक्षुक हूँ। इसलिए यहाँ के संस्कारगत स्थानीय नियमों के प्रति भी सजग रहना पड़ता है। रात्रि प्रार्थना और स्वल्प आहार के पश्चात तथागत के चरणों में अपना प्रणाम निवेदित करने आना मेरे नियम बन गए हैं। उसके बाद मेरे शयन का समय आरम्भ होता है। आचार्य का स्पष्ट निर्देश है कि सम्यक शयन और विश्राम दूसरे दिन के योग और ध्यान के लिए आवश्यक हैं। अब अपने शयन काल से कुछ क्षण तुम्हारे लिए निकाल पाया हूँ । शीघ्रता करो। क्या पूछना है?"
"तुमने तो इतना लंबा संवाद कह डाला कि जो भी पूछना था, वह भूल गयी।" वह रुआंसी सी होती हुई बोली।
यितसिंग ने कहा, "मैं तो बाल ब्रह्मचारी भिक्षुक हूँ। बालिकाओं को मनाने भी नहीं आता। तुम्हें स्वयं ही स्वयं को मनाकर बिना विलंब किये वार्ता आगे बढ़ानी होगी।"
मान्या समझ गयी, महामूर्ख भिखु से स्नेह लगा बैठी है।
"अच्छा, बताओ, उस दिन गुप्त सम्राट के मंत्रणा कक्ष में जो बातें हुईं, उससे तुम्हें क्या लगता है, युद्ध होकर रहेगा?" मान्या ने सीधे ही पूछ लिया था।
"मान्या, युद्ध को टालने के लिए आक्रांता मिहिरकुल के पास एक प्रस्ताव भेजा गया है। उसमें यह लिखा गया है कि यहाँ महाविहार में चैत्यों की पंक्ति में ही एक शिव मंदिर की स्थापना की जाएगी। साथ ही शैव मत और पुराणों की शिक्षा आरम्भ किए जाने का भी प्रस्ताव भेजा गया है। अगर वह इसे मान लेता है, तो युद्ध टल सकता है, अन्यथा युद्ध अवश्यम्भावी है।" इतना कहकर वह भिक्षु मौन हो गया, मानो युद्ध की विभीषिका का विचारकर स्वयं को संवेगित और आहत अनुभव कर रहा हो।"
कुछ रुककर उसने आगे कहा, " महाराज ने गुप्त सूचना तंत्र को मिहिरकुल के सैन्य गतिविधियों के बारे में पल-पल की खबर भेजने को कहा है। साथ ही सेनापति को सेनाओं की सारी टुकड़ियों को तैयार रहने का आदेश दिया है।"
मान्या के मन में अंदर ही अंदर कुछ योजना चल रही थी। उसने पूछा, "अगर युद्ध हुआ तो महाविहार की उसमें क्या भूमिका होगी?"
"महाविहार में शिक्षा प्राप्त कर रहे चिकित्सकों का एक दल आयुर्वेदाचार्य की देखरेख में औषधियों, स्नेहलेपों और पट्टियों के साथ सेना के शिविर में होगा ताकि घायल सैनिकों को चिकित्सा सेवा प्रदान की जा सके।"
"यितसिंग, तुम एक प्रयास मेरे लिए कर सकते हो?"
"बोलो..."
"हम ग्रामीणों का भी इस महाविहार की प्रतिष्ठा और सुरक्षा के लिए कुछ कर्तव्य हैं। हमलोग औषधीय जड़ी बूटियों और औषधीय पौधों की पत्तियों आदि से तैयार स्नेह लेपों को लेकर अपनी टीम के साथ चिकित्सकीय दल में शामिल होना चाहती हूँ। इसकी अनुमति तुम महाविहार के आयुर्वेदाचार्य से दिलवा दो।"
" कल तुम इसके लिए एक आवेदन लिखकर दो। इसमें स्नेह लेपों के प्रकार और उनमें प्रगुक्त जड़ी बूटियों की मात्रा सहित विस्तार में उनके उपचार के बारे में भी लिखा होना चाहिए। इसके साथ तुम स्नेह लेपों के विशेष अंश के साथ कुछ नमूने भी दे देना। उम्मीद है स्वीकृति मिल जाएगी।"
"यितसिंग, तुम्हें यह आवेदन पत्र तैयार करने में हमारी मदद करनी होगी। हमारी टीम जड़ी बूटियों और औषधीय पौधों के बारे में जानकारी दे देंगे।"
"ठीक है, कल आओ। रात काफी बीत गयी है। सोने का समय बीता जा रहा है, तुम भी घर जाओ। देखो कोई देख ना ले।"
मान्या के मन में आहूत कुछ चल रहा था। सिर झुकाए वह वहाँ से निकल गयी।
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मिहिरकुल ने महाराज के भेजे गए प्रस्ताव को अमान्य कर दिया था। वह बौद्ध धर्म के जानने की जिज्ञासा बताने पर वरिष्ठ आचार्य के स्थान पर एक कनिष्ट श्रमण के भेजने पर अपमानित अनुभव कर रहा था। इसीलिए उसने इस अपमान का प्रतिशोध लेने की योजना बना ली थी। वह कमजोर पड़ रहे गुप्त वंश के वर्तमान राजा को भी पददलित करनी की सोच रहा था। उसने विदिशा होते हुए नालंदा महाविहार को ध्वस्त करने की पूर्व योजना को भी अमल में लाने की सोच लिया था। मठों और स्तूपों में अकूत धन छिपे होने की गुप्त सूचना उसे प्राप्त हुई थी। उसे लूटकर अपने राजकोष को भरना चाहता था।

सूचना तंत्र के द्वारा इन सूचनाओं के प्राप्त होते ही सैन्य बल को पश्चिमी - दक्षिण विदिशा के तरफ प्रस्थान का आदेश दिया जा चुका था। उनके साथ सूचना तंत्र की एक टुकड़ी और चिकित्सकीय दल की टुकड़ी को साथ भेजने का निर्णय लिया गया था। महाविहार में आज विशेष सक्रियता देखी जा रही थी। बैलगाड़ियों और विशेष रथों से दवाओं, स्नेहलेपों की पेटिकायें और बोरो में जड़ी बूटियों और औषधीय पत्तों को भी ले जाया जा रहा था। मान्या खुश थी कि ग्रामीणों के चिकित्सकीय दल को भी विहार के महाचिकित्साक की देखरेख में कार्य करने की अनुमति प्राप्त ही चुकी थी। और इसी दल के साथ वह भी चिकित्सा सेविका जे रूप में अपना योगदान देने जा रही थी। दवाओं के साथ ही एक रक्तवर्णी काष्ठ से बनी पेटिका को भी रखने के लिए मान्या ने सह सेवक को संकेत दिया ही था कि गिकित्सीय दल का नेतृत्व कर रहे महाश्रमण यितसिंग ने पूछा था, "इतनी महती स्थूल पेटिका में कौन सी दवा ले जाई जा रही है।"
मान्या ने विनम्रतापूर्वक स्थिरता और दृढ़ता से उत्तर दिया था, " महाश्रमण यितसिंग, आप की आशंका को मैं निर्मूल कर देती हूँ। इसमें शाल्य चिकित्सा के लिए कुछ उपकरण है, इसीलिए पेटिका थोड़ी स्थूल लग रही है।"
"हूँ.. ठीक है।" उसने संकेत से उसे रखने की अनुमति दी।
दूसरे प्रहर की शांत अंधेरी रात में सिर्फ जुगनुओं की आवाज के बीच बैलगाड़ियाँ और रथ धीरे - धीरे गुप्त साम्राज्य के उत्तरी- पश्चिमी सीमा की ओर चल पड़े।
मिहिरकुल के सैन्य बल की इसी ओर से गुप्त साम्राज्य के क्षेत्र में प्रवेश करने की संभावना थी। इसलिए महाराज नरसिंहगुप्त बलादित्य के सेनापति ने मार्ग से दूर पहाड़ों के पीछे सैन्य बल के एकत्रीकरण की रणनीति तय की थी। मिहिरकुल अक्सर रात्रि के तीसरे प्रहर में अपने पैदल सैनिकों को अश्वारोहियों सहित तेजी से आगे बढ़ने का संकेत देता था। प्रातः भास्कर के उदय होते ही अधिकांश भूभाग पर उसका ध्वज स्थापित होता। बाकी भूभाग को छोटी लड़ाइयों से, अपने कम-से-कम सैनिकों के मृत्यु-मूल्य पर वह अधिकृत कर लेता था। उसके इस रणनीति की समीक्षा गुप्त सम्राट की युद्धनीति निर्धारण करने वाली उच्च समिति में की गयी थी। उसीके अन्तर्गत सेनापति ने आज यह व्यूह रचना की थी। महाराज नरसिंहगुप्त ने समान विचार वाले राज्यों को भी महाविहार को क्षतिग्रस्त करने की मिहिरकुल की विध्वंशात्मक प्रवृत्तियों की सूचना देते हुए महाविहार की रक्षा हेतु अपने सैनिकों सहित तैयार रहने को कहा गया था। उससमय के मालवा के राजा की सहमति का संदेश भी आ चुका था।
आज रात्रि के प्रथम प्रहर के बाद गुप्तचरों द्वारा सेनापति के शिविर में यह सूचना आई कि विदिशा के उस क्षेत्र में स्थित दक्षिण - पश्चिम पहाड़ों के पीछे सैन्य गतिविधियों के संकेत लगातार मिल रहे हैं। सेनापती ने सारे पैदल सैनिकों अश्वारोहियों और चिकित्सकीय दल को तैयार रहने के आदेश दे दिए थे।
मान्या ने भी अपने ग्रामीणों के दल को तैयार रहने को कहा।
दक्षिण और पश्चिम से पहाड़ों के पीछे से अश्वारोहियों सहित सैनिक वेश में लोगों को बढ़ते हुए देखा गया। इस समय रात्रि का तीसरा प्रहर प्रारम्भ ही हुआ था। पहाड़ी युद्ध में मिहिरकुल के सैनिक बहुत सशक्त और अजेय होते थे। इसलिए योजना यह थी कि पहाड़ों से उतरकर मैदानी क्षेत्र में उन्हें अंदर तक बढ़ने दिया जाय। जब वे विदिशा के मैदानों में आगे तक बढ़ जाये, तो पीछे से उन्हें घेरा जाय और अचानक भीषण प्रहार कर सैनिकों सहित मिहिरकुल को पकड़ लिया जाय। यह भी आसान नहीं था।

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"उपसेनापति तिमिरकुल हमलोग आगे बढ़ते जा रहे हैं। कोई सैन्य प्रतिरोध नहीं दिख रहा है। क्या गुप्त सम्राट ने किन्नरों की सेना तैयार की है।" जोर से हंसते हुए सेनपति के अंगरक्षक ने पूछा था।
सेनापति ने रोष ब्यक्त करते हुए कहा था, "तुम मुझे तेजकुल कहोगे, जो मेरा मूल नाम है। महाराज का दिया हुआ नाम से महाराज ही पुकारेंगे। समझे।"
"जी, सेनापति भूल के लिए क्षमा करें।"
इतने में सैन्य टुकड़ी के पीछे कोलाहल सुनाई दिया। एक गुप्तचर ने आगे बढ़ आये उपसेनापति तिमिरकुल को सूचित किया, "पीछे से घात लगाकर हमारे सैनिकों पर आक्रमण हो गया है।"
तिमिरकुल ने घोड़े को पीछे मोड़ा "चलो अंगरक्षकों!" पीछे लौटते हुए कहीं भी आक्रमणकारियों के सैनिक दिखे नही। क्या उस गुप्तचर ने गलत सूचना दी? कहीं वह शत्रु देश का सैनिक तो नहीं?
उसने अंगरक्षकों से कहा, "उस गुप्तचर को पकड़ों!" और स्वयं भी घोड़े को आगे भगाने लगा।
पीछे के तरफ अब गुप्त साम्राज्य के सैनिकों ने प्रबल प्रहार करना शुरू कर दिया। अचानक प्रहार से मिहिरकुल का सैन्य दल छिन्न - भिन्न होने लगा। उस गुप्तचर का पीछा करते हुए तिमिरकुल अपने अंगरक्षकों सहित काफी आगे निकल गया।
उसी समय मान्या ने लाल पेटिका को खोला। उसमें से द्विधारी असिधार वाले खड्ग निकाले। भाले और खड़ग को लेकर मान्या ग्रामीण सैनिकों के साथ और यितसिंग सैन्यवेश में भिक्षुकों के साथ आगे बढ़ आये तिमिरकुल को उसके अंगरक्षकों सहित घेर लिया। भीषण युद्ध शुरू हो गया। लंबी द्विधारी इस खड़ग को मान्या ने महाविहार के धातुकर्मियों के साथ संपर्क कर अपने गाँव के कारीगरों द्वारा बनवाया था। इसकी विशेषता यह थी कि इसे छोटी पेटिका में कहीं भी ले जाया जा सकता था। मान्या को लंबी लपलपाती विशेष खड़ग के साथ तुरग नर्तन करते देखकर यितसिंग आश्चर्य चकित था।
मान्या के ग्रामीण सैनिकों द्वारा उपसेनापति के कुछ अंगरक्षकों को निहत्था किया जा चुका था और कुछ की ग्रीवा कबंध पर अब नही थी।
मान्या ने ऊँची आवाज में तिमिरकुल से पूछा था, "तुमने नालंदा महाविहार में आकर कुलपति आचार्य शीलभद्र प्रथम के साथ उद्दंडता पूर्ण व्यवहार किया था। उन्हें अपमानित भी किया था। तुम निशस्त्र थे। लेकिन संदेशवाहक का हम सम्मान करते हैं, इसलिए छोड़ दिया गया था।"
"पर वहाँ तो कोई स्त्री नही थी। तुम यह सब झूठ कह रही हो।"
"मैं वहाँ पर था। तुम बाहर होते तो तुम्हारे कंधे चूर्णित कर देता।" अपने शिरस्त्राण हटाकर यितसिंग ने कहा था।
तिमिरकुल को आश्चर्य हुआ। "यह भी यहां कैसे आ पहुँचा है?"
"हमलोग वहाँ अहिंसावादी थे। परंतु आक्रमणकारियों पर हम दया नहीं करते। तथागत ने आततायियों पर दया करने को कायरता कहा है। और हमलोग भगवान बुद्ध की दृष्टि में कायर होना नहीं पसंद करेंगे।" यितसिंग ने साफ साफ कहा था।
"महाश्रमण यितजिंग आपने तो मेरी दृष्टि साफ कर दी। तुम्हारा यह दम्भ भरा मस्तक, तुम्हारे कबंध पर और शोभा नहीं देता। हमारा द्विधारी असिधार तुमारे शोणित से अपनी प्यास बुझाना चाहता है। ...और यह है मान्या का प्रतिशोध...।" और उसका सिर उसके मस्तक से छिटककर दूर जा गिरा। उसे यितसिंग ने अपने तलवार की नोक से उठाया और एक अंगरक्षक को हाथ में पकड़ा दिया, "तुम इसी तरह सिर को ध्वज की तरह ऊँचा कर दौड़ते हुए मिहिरकुल को देना। तुम्हारे पीछे गुप्त सम्राट का सैनिक भी रहेगा। तिमिरकुल का सिर नीचे गिरा कि तत्क्षण तुम्हारा सिर भी कबन्ध के ऊपर नहीं रहेगा।
वह सैनिक वैसे ही उपसेनापति का छिन्न मस्तक लिए हुए, अश्व दौड़ाते हुए चला जा रहा था। सारी सेना में एक शोक की लहर दावानल की तरह व्याप्त हो गयी। उपसेनपति युद्ध में मारे गए। सारे सैनिक वापस लौटने लगे। अभी भास्कर का उदय हुए एक प्रहर भी नहीं बीता था कि सेना का पलायन होने लगा। युद्ध आरम्भ होने के पहले ही हूण सैनिक प्रत्यार्पण करने लगे।
यह सोचते हुए एक बड़े हाथी पर सवार मिहिरकुल, जो युद्ध की गति देख रहा था। नीचे उतरा। घोड़े पर सवार होकर सैनिकों को उत्साहित करता हुआ बोलता चला गया, "तुम्हें भगवान स्थाणु शक्ति दें। आगे बढ़ो, दुश्मन पर प्रहार करो। कुछ सैनिक रुके। गुप्त साम्राज्य के सैनिकों ने विकट प्रहार शुरू कर दिया। विविध आयुधों का वर्षण होने लगा। आकाश में जयघोष के नारों के साथ सैनिकों के चीत्कार और हाथियों के चिघ्घाड़ का मिला जुला स्वर गूंजने लगा।
इतने में मालवा के सम्राट यशोवर्धन की वीर सेना ने भी युद्ध में प्रवेश किया। गुप्त सेना और मालवा के सैनिकों के सम्मिलित प्रहार से हूण सेना विचलित हो गयी। काफी सैनिकों ने आत्मसमर्पण कर दिया। मिहिरकुल पकड़ा गया।
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(जारी है, भाग 2 दूसरे पोस्ट में पढ़ें)


परामस्नेही मित्रों, ऐतिहासिक फिक्सन पर आधारित मेरी लिखी  कहानी  "प्रतिशोध का पुरस्कार",  सर्वाधिक लेखकों और पाठकों द्वारा विजिट किये जाने वाले साइट "प्रतिलिपि" द्वारा आयोजित कालचक्र प्रतियोगिता में चतुर्थ स्थान प्राप्त की है। परिणाम का स्क्रीन शॉट मैं यहाँ दे रहा हूँ।
यह  6 वीं शताब्दि में गुप्त काल के अवसान के समय हूणों के संभावित आक्रमण से एक वीर स्त्री द्वारा नालंदा महाविहार के संभावित विध्वंश से संरक्षित करने  की कहानी है।
इस कहानी का लिंक इस प्रकार है:
"प्रतिशोध का पुरस्कार", को प्रतिलिपि पर पढ़ें :
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ब्रजेंद्रनाथ

























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