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Wednesday, September 4, 2019

राख में अनल - कण होता है (कविता)

#bnmpoems

राख में अनल - कण होता है

बुझी हुई राख में भी
अनल - कण होता है|

राख जो दिखती है
मटमैली निःशेष - सी,
इंधन जल चुकने पर,
पड़ी हुयी अवशेष - सी|
उससे भी दूर रहो,
उसको भी छूना मत
ऊपर से शीतल वह,
अन्दर में छुपा हुआ
दाह कठिन होता है|
बुझी हुयी राख में भी
अनल - कण होता है|

जीवन के कुरुक्षेत्र में
शर शैय्या पर पड़ा हुआ,
बिंधता जो रोज है|
उसकी शिराओं में
रक्त निःशेष हुआ,
अब तो सिर्फ अग्निधार
प्रवाहमान तेज है|
फटता नहीं वह ज्वालामुखी बन
फिर भी अंगार - सा
क्षण - क्षण दहकता है|
बुझी हुयी राख में भी
अनल - कण होता है|

चुपचाप देखकर
भूल मत कोई कर|
दहाड़ेगा सिंह बन
नियति को तोलकर|
शक्ति संचयन में लगा हुआ साधक,
टूटेगा मृगराज - सा, अभी
वन - वन डोलता है|
बुझी हुयी राख में भी
अनल - कण होता है|

स्यारों की हुआ - हुआ
कुकुरों का कुकुरहाव|
कौओं का कांव - काँव
चापलूसों का हावभाव|
इन सबसे निरपेक्ष
अपनी  धुन में मग्न |
एक पथ, एक लक्ष्य
देश - सेवा का एक प्रण|
दुश्मनों की छाती तोड़ेगा, भीम बन
अभी बाजुओं का बल
मन - ही - मन तोलता है|
बुझी दिखी राख में भी
अनल - कण होता है|

--ब्रजेन्द्र नाथ मिश्र
 तिथि : 03/05/2016
वैशाली, एन सी आर, दिल्ली.
👌👌

यह कविता उनके लिए प्रेरक सिद्ध हो सकती है, जो यह मान बैठे हैं, कि उनके अंदर की आग ठंढी हो चुकी है। परंतु उसी आग में चिंगारी भी छुपी होती है।

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