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स्टोरी मिरर साइट पर 1 मई से 31 मई तक हर दिन दिए जाने वाले चित्रों पर मेरे द्वारा लिखी गई कविताएँ जिसके लिए मुझे यह प्रमाणपत्र मिला: इस साइट का लिंक इस प्रकार है:
https://storymirror.com/profile/6g3aqk4j/brajendranath-mishra/poems
11th May prompt Day 11, prompt 11 submission conf
चित्र: एक बड़े हाथी के साथ उसका छोटा बच्चा:
हाथी का शावक
हाथी का शावक, चलता माँ के साथ,
सूँड़ उठाये, मंद-मंद करता माँ से बात।
चलो माँ चले हम खुले अम्बर के नीचे,
मैं खेलूंगा, दोस्तों संग अँखिया मीचे मीचे।
खूब धमाल मंचाएँगे, झील के नीले जल में,
फेंकेंगे सूँढ़ से पानी, भींगेंगे सब पल में।
नन्हें चलना बाग में धीमे-धीमे बच- बच के,
फूलों की डालियां कहीं टूट न जाएं कुचल के।
खा लेना कहीं मिले जो बाग में पके केले,
पर बर्बादी कहीं न हो इसका शपथ तू लेले।
खूब बढ़ो, औ' खेलो, माँ करती देखभाल,
माँ हो जाये बूढ़ी, उनका रखना खयाल।
©ब्रजेंद्रनाथ √
12th May prompt Day 12, prompt 12, submission conf
चित्र: एक माँ के आँचल में, गौद में एक बच्चा:
माँ का आँचल
माँ का आँचल, हृदय की धड़कन,
बालक माँ के गोद में, सुरक्षित उसका जीवन।
बचपन में बालक जब भी
करता है मल- मूत्र -विसर्जन,
माँ उसको नई उत्साह से
करती अंतः वस्त्र परिवर्तन।
माँ की आशाओं का अंकुर,
यत्न से वह करती है, उसका लालन पालन।
कितना सुकून है माँ के
आँचल में बीते बचपन।
माँ तेरी ममता से सिंचित
हो मेरे प्राणों का पोषण ।
माँ तेरे सपनों का सुंदर,
मैं निर्मित करूंगा, एक भव्य भवन।
माँ मेरे तू रहती पास
स्नेह की देती शीतल छाँह,
माँ मेरी त्रुटियों पर देती,
सुधार करने की सही सलाह।
तेरी आशाओं के अनुरुप
आगे बढ़, जग में कुछ नए करूँगा परिवर्तन।
माँ तेरी ही गोद में सुरक्षित मेरा जीवन।
©ब्रजेंद्रनाथ √
13th May prompt Day 13, prompt 13, submission conf
चित्र: एक हाथ पर रखी अलार्म घड़ी।
वक्त के साथ कुछ वक्त बिताता हूँ
आ तुम्हें घड़ी की टिक-टिक सुनाता हूँ,
चलो वक्त के साथ कुछ वक्त बिताता हूँ।
समय जो निकल गया लौट आएगा फिर,
इसी गलत फहमी में खुशियाँ मनाता हूँ।
दस्तक देता है समय, अवसरों के साथ
उनसे अनजान अपनी पहचान बनाता हूँ।
घड़ी का क्या वो तो निकलता जाएगा।
रेत भरी मुट्ठियों में जुगनूयें सजाता हूँ।
समय के पार कोई न निकला है कभी,
उसी दायरे में खुशी के पल चुराता हूँ।
©ब्रजेंद्रनाथ √
14th May prompt Day 14, prompt 14, submission conf
चित्र: शतरंज के बोर्ड पर 'बादशाह' के गोटी की तस्वीर।
वही वीर कहलायेगा
शतरंज के रण में राजा खड़ा, खोज रहा है साथ,
घोड़े, हाथी, सैनिक दौड़ो, होगी सह और मात।
आक्रमण की हो रणनीति कि वह निकल न पाए,
दुश्मन पर करो प्रहार कि वो फिर सम्हल न पाए।
चाल उसकी भाँपो, और अपनी चल तो ऐसी चाल,
दुश्मन के घोड़े - हाथी मारो, मचा दो रण में बवाल।
बजाओ नगाड़े, घंटों को,, गूंजे दिशाएं ललकारो से,
रुंड, मुंड, मेदिनी, अंतड़ियाँ बेधो तीर- तलवारों से।
ऐसा रण हो, ऐसा रण फिर कभी नहीं वैसा रण हो,
गिरती रहे बिजलियाँ, विकट आयुधों का वर्षण हो।
एक युद्ध चल रहा अंतर में, लड़ें उससे ऐसे रथ पर,
सत्य, शील की ध्वजा, बल विवेक के घोड़े हो पथ पर।
क्षमा, कृपा , समता की रस्सी, ईश भजन हो सारथी,
विराग, संतोष का कृपाण हो, युद्ध में बने रहे परमार्थी।
यह संसार है माहारिपु, उससे युद्ध जो जीत जाएगा,
जिसका ऐसा दृढ़ संकल्प हो, वही वीर कहलायेगा।
©ब्रजेंद्रनाथ√
15th May prompt Day 15 prompt 15, submission conf
चित्र: कोयले के रंग से सने काले हाथ एक दूसर्व के ऊपर सजे हैं:
धरा का भाग्य जगाता हूँ
हाथ काले, उंगलियाँ खुरदरी बनाता हूँ।
उनपर फफोलों की मोती उगाता हूँ।
सबों का भाग्य जगाने वाला श्रम - देवता हूँ।
बाजुओं की गठन, मांस-मज़्ज़ा पिघलाता हूँ,
मेरी पसीने की बूँद जिस जगह गिरती है,
वहॉं हिमालय - सा ऊँचा महल उठाता हूँ।
वहाँ पर आसमानों को जो कंगूरे छू रहे हैं,
उसकी कंक्रीट में श्रम- बिंदु मिलाता हूँ।
चीर कर हल से, अन्न देवता को जगाता हूँ,
फिर भी, अन्न कम, मैं किसान कहलाता हूँ।
जो भी मिले लेकर,उसे संतुष्ट हो जाता हूँ,
कर्मयोगी बनकर धरा का भाग्य जगाता हूँ।
©ब्रजेंद्रनाथ √
16th May prompt Day 16 prompt 16, submission conf
चित्र: एक तीर चलानेवाला धनुष बाण लिए हुए और सामने लक्ष्य , कुछ तीर नीचे गिरे हुए:
तकली गलाकर तीर गढ़ लिए हैं
तू खड़ा हो, ले धनुष, खींच
प्रत्यंचा पर रखकर वाण को।
लक्ष्य - भेदन के लिए, ध्यानस्थ हो,
दृष्टि टिका, संधान को।
कुछ वाण होंगे जो गिरेंगे,
लक्ष्य से कहीं दूर जाकर।
मत कर, तू उनकी फिकर,
धनुष उठा अभ्यास कर।
अभ्यास से तुम साध सकते
हो, धरती, हवा औ' गगन को।
अभ्यास से ही बांध सकते हो,
उदधि, गिरि, नदिया, अगन को।
तुम धनुर्धर हो, परसुराम, द्रोण,
भीष्म, अर्जुन की हो संतान ।
तीक्ष्ण कर वाणों को अपने
जग को बता अपनी पहचान।
अहिंसा की तकली गलाकर
तीर हमने गढ़ लिए हैं।
त्रिपिटक सजाकर रख दिये
हल्दीघाटी को हमने पढ़ लिए हैं।
©ब्रजेंद्रनाथ √
17th May prompt Day 17 prompt 17, submission conf
चित्र: एक पंख फैलाये परी आसमान से उतर रही है। एक खंडहर जैसे महल के पाए की जड़ के पास एक व्यक्ति बैठा है । उन दोनों के बीच एक छाया मूर्ति सी है।
उत्सव मना ले
कौन बैठा है एकांत,
खंडहर के अवशेष में।
रोकता हुआ स्वयं की
छाया को इस परिवेश में।
लो उतरती बादलों के
बीच से पंखों वाली परी।
बाँट ले उससे तू अपनी
चिंताओं, अवसादों की घड़ी।
भूल जा वो क्षण जो
थे तुम्हें विच्छिन्न करते।
लासरहित, निरानंदित
श्रमित, थकित, व्यथित करते।
लेकर है आयी एक नव
उल्लास तुझमे जगाने।
तेरे मन से विषाद के
फैले हुए घेरे मिटाने।
जीवन में उमंगों के,
खुशियों के पल चुरा ले।
मिलेगी ना दुबारा जिंदगी
मस्ती भरा तू उत्सव मना ले।
©ब्रजेंद्रनाथ √
18th May prompt Day 18 prompt 18, submission conf
चित्र: टूटी हुई है कुछ चारपाइयाँ हॉस्पिटल में, बिखरे हुए हैं कागजात! लगता है कोई आतंकवादी घुसकर ऐसी दशा कर गया है:
कुदरत का कहर टूटेगा
टूटी हुई हैं चारपाइयाँ अस्पताल की,
बयाँ कर रहे हैं इसके बुरे हाल की।
क्या हुआ यहाँ कोई घुस आया है।
दहसत फैला कर कोई इनाम पाया है।
यह अस्पताल है, दर्द मिटाने की जगह
इसे तो बक्श दो, है प्यार बाँटने की जगह।
इसे तो छोड़ दो ऐ इंसानियत के दुश्मन।
यहाँ पर मरीज है, ऐ मुहब्बतों के दुश्मन।
अपने खूनी पंजे यहाँ पर न डाल,
अपनी दरिंदगी यहां पर ना निकाल।
तेरे ऊपर कुदरत का कहर टूटेगा।
तेरे पापों का घड़ा एक दिन फूटेगा।
©ब्रजेंद्रनाथ √
19th May prompt Day 19 prompt 19, submission conf
चित्र: एक घर और उसके दोनों तरफ पति-पत्नी और बच्चा और बीच में चाभी का गुच्छा!
आओ बनाये हम अपना घर
ये मेरा घर, ये तेरा घर,
आओ बनाएं इसे हमारा घर।
चलो ले कर चाभी खोले घर अपना
आओ बच्चे साकार करें एक सपना।
तेरी किलकारियाँ गूंजेंगी घर अंगना,
खनकेगा सजनी के हाथों का कंगना।
छत की मुंडेर पर, धूप उतरेगी
छलकेगा कलश , गैया रंभायेगी।
शाम से पहले धूप अरगनी पर टँगेगी,
चाँदनी आंगन को रजत रंग रंगेगी।
छत - आंगन भींगे, बूँदे अब बरसेंगी
मन में आनंद भरे, धरा अब सरसेगी।
प्रेम से आप्लावित, सींचित कर,
आओ बनाये हम अपना घर।
आओ बनाये हम अपना घर।"
©ब्रजेंद्रनाथ √
20h May prompt Day 20 prompt 20 submission missed
चित्र: तिरंगे में लिपटे हुए ताबूत
जलाओ आग सीने में
धरा पुकारती, गगन पुकारता
जलाओ आग सीने में, वतन पुकारता।
जो रच रहे षड्यंत्र देश के विखंडन का,
उनके मान- मर्दन को प्रण पुकारता।
ये तिरंगे में लिपटे ताबूत है शहीदों का,
ये आंसू बहाने का वक्त नहीं है।
चलो मनाओ जश्न, आग जगाओ
तूफान शांत करने का वक्त नहीं है।
जो छद्म युद्ध कर रहे, उन्हें दिखा दो।
छिप के वार कर रहे, उन्हें सिखा दो।
क्रुद्ध हिन्द कितना कराल होता है।
त्रिशूल पर सवार कैसे महाकाल होता है।
क्षत विक्षत लाशों की ढेर से
एक लिंग प्रकट होंगे ले मशाल लाल
लेलिह्य जिह्वा से रक्तपान के लिए
रणचंडी सजायेगी एक नया थाल।
देश के सब्र का टूट गया बाँध अब
बलिदानी जत्थो का समर्पण पुकारता।
जो रच रहे षडयंत्र देश के विखंडन का
उनके मान मर्दन को प्रण पुकारता।
------
देश प्रेम की अग्नि को जलाये रखने के लिए
तूफान को आसमान उठाये रखने के लिये।
रण के मैदान में आ जुटो ऐ वीर बान्कुरों,
ये रक्त के लाल रंग से मशाल बालने के लिए।
यह युद्ध महायुद्ध है, बचे ना कोई जयचन्द,
अंदर और बाहर यह युद्ध छिड़ा है प्रचंड।
रुको ना वीर साहसी, झुको ना वीर साहसी,
दुश्मन के इलाकों को बांट दो खण्ड - खण्ड।
आँसू नही, आक्रोश है छाया हर चेहरे पर,
यह आग नही बुझने देना, चमन पुकारता।
जो रच रहे षडयंत्र देश के विखंडन का,
उनके समूल उन्मूलन को प्रण पुकारता।
धरा पुकरती, गगन पुकारता
जलाओ आग सीने में वतन पुकारता।
जो रच रहे षडयंत्र देश के विखंडन का
उनके मान मर्दन को प्रण पुकारता।
ब्रजेन्द्रनाथ √
#hindipoetriesonpictures
स्टोरी मिरर साइट पर 1 मई से 31 मई तक हर दिन दिए जाने वाले चित्रों पर मेरे द्वारा लिखी गई कविताएँ जिसके लिए मुझे यह प्रमाणपत्र मिला: इस साइट का लिंक इस प्रकार है:
https://storymirror.com/profile/6g3aqk4j/brajendranath-mishra/poems
11th May prompt Day 11, prompt 11 submission conf
चित्र: एक बड़े हाथी के साथ उसका छोटा बच्चा:
हाथी का शावक
हाथी का शावक, चलता माँ के साथ,
सूँड़ उठाये, मंद-मंद करता माँ से बात।
चलो माँ चले हम खुले अम्बर के नीचे,
मैं खेलूंगा, दोस्तों संग अँखिया मीचे मीचे।
खूब धमाल मंचाएँगे, झील के नीले जल में,
फेंकेंगे सूँढ़ से पानी, भींगेंगे सब पल में।
नन्हें चलना बाग में धीमे-धीमे बच- बच के,
फूलों की डालियां कहीं टूट न जाएं कुचल के।
खा लेना कहीं मिले जो बाग में पके केले,
पर बर्बादी कहीं न हो इसका शपथ तू लेले।
खूब बढ़ो, औ' खेलो, माँ करती देखभाल,
माँ हो जाये बूढ़ी, उनका रखना खयाल।
©ब्रजेंद्रनाथ √
12th May prompt Day 12, prompt 12, submission conf
चित्र: एक माँ के आँचल में, गौद में एक बच्चा:
माँ का आँचल
माँ का आँचल, हृदय की धड़कन,
बालक माँ के गोद में, सुरक्षित उसका जीवन।
बचपन में बालक जब भी
करता है मल- मूत्र -विसर्जन,
माँ उसको नई उत्साह से
करती अंतः वस्त्र परिवर्तन।
माँ की आशाओं का अंकुर,
यत्न से वह करती है, उसका लालन पालन।
कितना सुकून है माँ के
आँचल में बीते बचपन।
माँ तेरी ममता से सिंचित
हो मेरे प्राणों का पोषण ।
माँ तेरे सपनों का सुंदर,
मैं निर्मित करूंगा, एक भव्य भवन।
माँ मेरे तू रहती पास
स्नेह की देती शीतल छाँह,
माँ मेरी त्रुटियों पर देती,
सुधार करने की सही सलाह।
तेरी आशाओं के अनुरुप
आगे बढ़, जग में कुछ नए करूँगा परिवर्तन।
माँ तेरी ही गोद में सुरक्षित मेरा जीवन।
©ब्रजेंद्रनाथ √
13th May prompt Day 13, prompt 13, submission conf
चित्र: एक हाथ पर रखी अलार्म घड़ी।
वक्त के साथ कुछ वक्त बिताता हूँ
आ तुम्हें घड़ी की टिक-टिक सुनाता हूँ,
चलो वक्त के साथ कुछ वक्त बिताता हूँ।
समय जो निकल गया लौट आएगा फिर,
इसी गलत फहमी में खुशियाँ मनाता हूँ।
दस्तक देता है समय, अवसरों के साथ
उनसे अनजान अपनी पहचान बनाता हूँ।
घड़ी का क्या वो तो निकलता जाएगा।
रेत भरी मुट्ठियों में जुगनूयें सजाता हूँ।
समय के पार कोई न निकला है कभी,
उसी दायरे में खुशी के पल चुराता हूँ।
©ब्रजेंद्रनाथ √
14th May prompt Day 14, prompt 14, submission conf
चित्र: शतरंज के बोर्ड पर 'बादशाह' के गोटी की तस्वीर।
वही वीर कहलायेगा
शतरंज के रण में राजा खड़ा, खोज रहा है साथ,
घोड़े, हाथी, सैनिक दौड़ो, होगी सह और मात।
आक्रमण की हो रणनीति कि वह निकल न पाए,
दुश्मन पर करो प्रहार कि वो फिर सम्हल न पाए।
चाल उसकी भाँपो, और अपनी चल तो ऐसी चाल,
दुश्मन के घोड़े - हाथी मारो, मचा दो रण में बवाल।
बजाओ नगाड़े, घंटों को,, गूंजे दिशाएं ललकारो से,
रुंड, मुंड, मेदिनी, अंतड़ियाँ बेधो तीर- तलवारों से।
ऐसा रण हो, ऐसा रण फिर कभी नहीं वैसा रण हो,
गिरती रहे बिजलियाँ, विकट आयुधों का वर्षण हो।
एक युद्ध चल रहा अंतर में, लड़ें उससे ऐसे रथ पर,
सत्य, शील की ध्वजा, बल विवेक के घोड़े हो पथ पर।
क्षमा, कृपा , समता की रस्सी, ईश भजन हो सारथी,
विराग, संतोष का कृपाण हो, युद्ध में बने रहे परमार्थी।
यह संसार है माहारिपु, उससे युद्ध जो जीत जाएगा,
जिसका ऐसा दृढ़ संकल्प हो, वही वीर कहलायेगा।
©ब्रजेंद्रनाथ√
15th May prompt Day 15 prompt 15, submission conf
चित्र: कोयले के रंग से सने काले हाथ एक दूसर्व के ऊपर सजे हैं:
धरा का भाग्य जगाता हूँ
हाथ काले, उंगलियाँ खुरदरी बनाता हूँ।
उनपर फफोलों की मोती उगाता हूँ।
सबों का भाग्य जगाने वाला श्रम - देवता हूँ।
बाजुओं की गठन, मांस-मज़्ज़ा पिघलाता हूँ,
मेरी पसीने की बूँद जिस जगह गिरती है,
वहॉं हिमालय - सा ऊँचा महल उठाता हूँ।
वहाँ पर आसमानों को जो कंगूरे छू रहे हैं,
उसकी कंक्रीट में श्रम- बिंदु मिलाता हूँ।
चीर कर हल से, अन्न देवता को जगाता हूँ,
फिर भी, अन्न कम, मैं किसान कहलाता हूँ।
जो भी मिले लेकर,उसे संतुष्ट हो जाता हूँ,
कर्मयोगी बनकर धरा का भाग्य जगाता हूँ।
©ब्रजेंद्रनाथ √
16th May prompt Day 16 prompt 16, submission conf
चित्र: एक तीर चलानेवाला धनुष बाण लिए हुए और सामने लक्ष्य , कुछ तीर नीचे गिरे हुए:
तकली गलाकर तीर गढ़ लिए हैं
तू खड़ा हो, ले धनुष, खींच
प्रत्यंचा पर रखकर वाण को।
लक्ष्य - भेदन के लिए, ध्यानस्थ हो,
दृष्टि टिका, संधान को।
कुछ वाण होंगे जो गिरेंगे,
लक्ष्य से कहीं दूर जाकर।
मत कर, तू उनकी फिकर,
धनुष उठा अभ्यास कर।
अभ्यास से तुम साध सकते
हो, धरती, हवा औ' गगन को।
अभ्यास से ही बांध सकते हो,
उदधि, गिरि, नदिया, अगन को।
तुम धनुर्धर हो, परसुराम, द्रोण,
भीष्म, अर्जुन की हो संतान ।
तीक्ष्ण कर वाणों को अपने
जग को बता अपनी पहचान।
अहिंसा की तकली गलाकर
तीर हमने गढ़ लिए हैं।
त्रिपिटक सजाकर रख दिये
हल्दीघाटी को हमने पढ़ लिए हैं।
©ब्रजेंद्रनाथ √
17th May prompt Day 17 prompt 17, submission conf
चित्र: एक पंख फैलाये परी आसमान से उतर रही है। एक खंडहर जैसे महल के पाए की जड़ के पास एक व्यक्ति बैठा है । उन दोनों के बीच एक छाया मूर्ति सी है।
उत्सव मना ले
कौन बैठा है एकांत,
खंडहर के अवशेष में।
रोकता हुआ स्वयं की
छाया को इस परिवेश में।
लो उतरती बादलों के
बीच से पंखों वाली परी।
बाँट ले उससे तू अपनी
चिंताओं, अवसादों की घड़ी।
भूल जा वो क्षण जो
थे तुम्हें विच्छिन्न करते।
लासरहित, निरानंदित
श्रमित, थकित, व्यथित करते।
लेकर है आयी एक नव
उल्लास तुझमे जगाने।
तेरे मन से विषाद के
फैले हुए घेरे मिटाने।
जीवन में उमंगों के,
खुशियों के पल चुरा ले।
मिलेगी ना दुबारा जिंदगी
मस्ती भरा तू उत्सव मना ले।
©ब्रजेंद्रनाथ √
18th May prompt Day 18 prompt 18, submission conf
चित्र: टूटी हुई है कुछ चारपाइयाँ हॉस्पिटल में, बिखरे हुए हैं कागजात! लगता है कोई आतंकवादी घुसकर ऐसी दशा कर गया है:
कुदरत का कहर टूटेगा
टूटी हुई हैं चारपाइयाँ अस्पताल की,
बयाँ कर रहे हैं इसके बुरे हाल की।
क्या हुआ यहाँ कोई घुस आया है।
दहसत फैला कर कोई इनाम पाया है।
यह अस्पताल है, दर्द मिटाने की जगह
इसे तो बक्श दो, है प्यार बाँटने की जगह।
इसे तो छोड़ दो ऐ इंसानियत के दुश्मन।
यहाँ पर मरीज है, ऐ मुहब्बतों के दुश्मन।
अपने खूनी पंजे यहाँ पर न डाल,
अपनी दरिंदगी यहां पर ना निकाल।
तेरे ऊपर कुदरत का कहर टूटेगा।
तेरे पापों का घड़ा एक दिन फूटेगा।
©ब्रजेंद्रनाथ √
19th May prompt Day 19 prompt 19, submission conf
चित्र: एक घर और उसके दोनों तरफ पति-पत्नी और बच्चा और बीच में चाभी का गुच्छा!
आओ बनाये हम अपना घर
ये मेरा घर, ये तेरा घर,
आओ बनाएं इसे हमारा घर।
चलो ले कर चाभी खोले घर अपना
आओ बच्चे साकार करें एक सपना।
तेरी किलकारियाँ गूंजेंगी घर अंगना,
खनकेगा सजनी के हाथों का कंगना।
छत की मुंडेर पर, धूप उतरेगी
छलकेगा कलश , गैया रंभायेगी।
शाम से पहले धूप अरगनी पर टँगेगी,
चाँदनी आंगन को रजत रंग रंगेगी।
छत - आंगन भींगे, बूँदे अब बरसेंगी
मन में आनंद भरे, धरा अब सरसेगी।
प्रेम से आप्लावित, सींचित कर,
आओ बनाये हम अपना घर।
आओ बनाये हम अपना घर।"
©ब्रजेंद्रनाथ √
20h May prompt Day 20 prompt 20 submission missed
चित्र: तिरंगे में लिपटे हुए ताबूत
जलाओ आग सीने में
धरा पुकारती, गगन पुकारता
जलाओ आग सीने में, वतन पुकारता।
जो रच रहे षड्यंत्र देश के विखंडन का,
उनके मान- मर्दन को प्रण पुकारता।
ये तिरंगे में लिपटे ताबूत है शहीदों का,
ये आंसू बहाने का वक्त नहीं है।
चलो मनाओ जश्न, आग जगाओ
तूफान शांत करने का वक्त नहीं है।
जो छद्म युद्ध कर रहे, उन्हें दिखा दो।
छिप के वार कर रहे, उन्हें सिखा दो।
क्रुद्ध हिन्द कितना कराल होता है।
त्रिशूल पर सवार कैसे महाकाल होता है।
क्षत विक्षत लाशों की ढेर से
एक लिंग प्रकट होंगे ले मशाल लाल
लेलिह्य जिह्वा से रक्तपान के लिए
रणचंडी सजायेगी एक नया थाल।
देश के सब्र का टूट गया बाँध अब
बलिदानी जत्थो का समर्पण पुकारता।
जो रच रहे षडयंत्र देश के विखंडन का
उनके मान मर्दन को प्रण पुकारता।
------
देश प्रेम की अग्नि को जलाये रखने के लिए
तूफान को आसमान उठाये रखने के लिये।
रण के मैदान में आ जुटो ऐ वीर बान्कुरों,
ये रक्त के लाल रंग से मशाल बालने के लिए।
यह युद्ध महायुद्ध है, बचे ना कोई जयचन्द,
अंदर और बाहर यह युद्ध छिड़ा है प्रचंड।
रुको ना वीर साहसी, झुको ना वीर साहसी,
दुश्मन के इलाकों को बांट दो खण्ड - खण्ड।
आँसू नही, आक्रोश है छाया हर चेहरे पर,
यह आग नही बुझने देना, चमन पुकारता।
जो रच रहे षडयंत्र देश के विखंडन का,
उनके समूल उन्मूलन को प्रण पुकारता।
धरा पुकरती, गगन पुकारता
जलाओ आग सीने में वतन पुकारता।
जो रच रहे षडयंत्र देश के विखंडन का
उनके मान मर्दन को प्रण पुकारता।
ब्रजेन्द्रनाथ √
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