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एक जुलाई को दैनिक जागरण के जमशेदपुर एडिशन के पृष्ठ संख्या ७ पर प्रकाशित मेरी कविता जिसमें संजय पथ, डिमना रोड, मानगो ,जमशेदपुर (जहाँ मैं रहता हूँ) अपनी ब्यथा सुना रहा है . इस रोड को शुरू में ही ऐसा एन्क्रोचा गया, कोंचा गया कि इसकी साँसें अवरुद्ध होने लगी . फिर भी यह निशक्त बच्चे की तरह बढ़ता गया.. आप भी सुनें इसकी कहानी और dislike करें उस ब्यवस्था को और मनुष्य की कर्तब्यविहीन, गैरजिम्मेदाराना ब्यवहार को जिसके कारण सड़कें अनधिकृत अतिक्रमण के कारण कहीें - कहीें इतनी संकीर्ण हो गयी है कि दुर्घटनाओं की स्थितियां बनती प्रतीत होती हैं...
संजय पथ, डिमना रोड मानगो,
कहे अपनी कहानी
मैं संजय पथ, डिमना रोड से,
दैनिक जागरण प्रेस के ठीक सामने,
पूरब की तरफ अंदर तक पसरा हूँ,
दर्द से कराहता हूँ,
रोता हूँ, बिलबिलाता हूँ,
आंसुओं से लथपथ हूँ,
मैं संजय पथ हूँ .
मैंने जैसे ही अपना जिश्म फैलाना चाहा,
मेरी गर्दन को दोनों ओर से चोक कर डाला,
साँसें सुबकने लगी,
संतप्त, त्रस्त, भयभीत,
लेकिन मैं मरा नहीं,
निशक्त बच्चे की मानिंद बढ़ता गया,
पसरता गया,
इस आस में कि कभी तो फिरेंगे दिन मेरे,
आपने फुटपाथों के उद्धार का लिया संकल्प,
शायद इस अहिल्या का भी उद्धार हो,
फिरें दिन मेरे.
*****
मुझपर चलती है, छोटी - बड़ी,
सैकड़ो गाड़ियां, रोज सुबह से रात तक.
बोलेरो, स्कोर्पिओ,
हौंडा, हुंडई, टोयोटा पेजेरो,
न जाने कौन - कौन,
मैं ५०० घरों, कई अपार्टमेंटों और कैम्पसों का ,
निकास - द्वार हूँ, मुख्य सड़क तक,
मैं रोज उठता हूँ, डरते - डरते,
दिन गुजरता है, डरते - डरते,
रात आती है, डरते - डरते,
कही कोई टू व्हीलर, फॉर व्हीलर,
गिट्टी, बालू, सीमेंट भरा ट्रक ,
कुचल न दे, किसी मासूम को, किसी बुजुर्ग को,
शायद मैं इसी डर में जीता रहा हूँ,
जीए जा रहा हूँ.
बस एक सुकून भरा है दिल में,
जब आनंद से भर जाता हूँ,
जब मासूम, नन्हें, नन्हें पाँवों का स्पर्श पाता हूँ.
बस इसी एक आस में मैं दिनभर,
ट्रक, टू व्हीलर, फॉर व्हीलर द्वारा
रौंदा जाना भी बर्दास्त करता रहा हूँ.
भगवान न करे,
आग अगर लग जाए, किसी भी घर में,
कैसे लेकर आऊंगा मै अग्निशमन गाड़ियों को?
मैं क्या जानूँ, भगवान ही जानें,
भगवान ही जानें,
ऐसा भगवान न करें ...
भरोसा उन्हीं का है,
मैं तो आदमियों के टूटे भरोसे के साथ
जी रहा हूँ,
सांस रुक रूककर चल रही है,
फिर भी जी रहा हूँ.
मेरी छाती पर बम्प बना दिए गए हैं,
उन्हें भी मैं लिए जा रहा हूँ,
मेरे शरीर को जगह - जगह,
घायल किया जाता है,
उस दर्द को भी पीये जा रहा हूँ.
मैं ३० फ़ीट चौड़ा शरीर कभी भी, कहीं भी
धारण नहीं कर पाया,
पता नहीं कब दिन फिरेंगे मेरे?
कब मैं पंगु लाचार, पाउँगा विस्तार?
कब होगा मेरा उद्धार, कहाँ लगाऊँ मैं गुहार?
इसी आस में जिए जा रहा हूँ,
मैं संजय पथ हूँ,
रोता हूँ, बिलबिलाता हूँ,
आंसुओं से लथपथ हूँ,
मैं संजय पथ हूँ.
--ब्रजेंद्र नाथ मिश्र
सुन्दर गार्डन, संजय पथ, डिमना रोड, मानगो.
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