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Sunday, October 6, 2019

जन-जन में रसधार बहा दो (कविता) - माँ दुर्गे पर

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माँ की ममता का विस्तार ही यह सारा जगत है। माँ की ममता से ही अभिलाषाएं पाँव-पाँव चलने लगती हैं। आकाश पुरुष के भाल पर सूरज की पगड़ी सज उठती है। चंद्रमा सुहाग के टीके सा रजनी के भाल पर फब उठता है। नदी लहर-लहर तट पर आकर रेत पर लकीर-लकीर स्वागत गीत लिख जाती है। माँ अपने अमृत कणों की रसधार हमेशा बहाती रहती है। मेरी इस कविता में इन्हीं भावों को स्वर देने का प्रयास किया गया है। आइए दृश्यों का अवलोकन करते हुए इसे सुनते हैं मेरे यूट्यूब चैनल marmagya net के इस लिंक पर:
कुछ पंक्तियाँ:

जन - जन में रसधार बहा दो...

माँ, अपने अमृत - कणों से,
जन - जन में रसधार बहा दो।

माँ, तुम कितनी प्रेममयी हो!
कृपा तुम्हारी सब पर है,
कुछ बच्चे जो ठिठुर रहे है,
आसमान ही छत है उनका,
घुटने मोड़े किकुर रहे हैं।
उनका भी उद्धार करा दो,
जन - जन में रसधार बहा दो...

माँ, तुम कितनी ममतामयी हो!
वात्सल्य तुम्हारा सब पर है,
अपने घर से निष्कासन हो गया,
जिनका रातों रात सब बिखर गया।
उनके टूटे सपनों को,
फिर से इक आकार दिला दो।
जन - जन में रसधार बहा दो...

माँ, तुम कितनी करुणामयी हो!
लाचारों, बेबसों, शोषितों को,
पीड़ित, ब्यथित, थकित, बंचितों को।
जीवन के संघर्षों में से,
रोशनी का उपहार दिला दो।
जन - जन में रसधार बहा दो...

माँ, तुम कितनी शौर्यमयी हो!
सीमा पर जो डटे प्रहरी हैं,
गोली की बौछारों में जो,
आंधी, बर्फीली, तूफानों में जो,
साँसों और संहारों में जो,
सीना ताने खड़े सजग हैं।
देश नमन करता है उनको,
माँ, उनके अंतस्थल में भी,
शक्ति, वीरत्व, अपार दिला दो।
जन - जन में रसधार बहा दो…

माँ, तुम कितनी विवेकमयी हो!
भटक गए जो सत्य शपथ से,
गिर पड़े जो रश्मि रथ से,
प्रज्ञापुत्र, जो जन्म लिए हैं,
मुंह मोड़ खड़े जो सत्य शपथ से,
उनके मन का विकार मिटा दो।
जन - जन में रसधार बहा दो…

माँ, तुम कितनी आनंदमयी हो!
ध्यान हमें ये सदा रहे,
तेरे चरणों में सिर झुका रहे,
ज्योति - पुँज अंतर में फैले,
तमस हमारा मिटा करे।
मन में स्पंदन हो सुविचारों का,
माँ, ऐसा अहसास करा दो।
जन - जन में रसधार बहा दो...

--ब्रजेंद्र नाथ मिश्र
 जमशेदपुर,


यूट्यूब लिंक: https://youtu.be/BT5h3Ub9KO4


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